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वगेरह श्रमशील बातों को सुनकर ही घबराता है और ऐसा करने के लिये कहने वाले को शत्रु समझ रुष्ट होता है। शरीर की उत्पत्ति को अपना जन्म मान कर अगर काई पूछता है कि तुम कितने बड़े हो तो कहता है कि मैं पञ्चीस वर्ष का होगया हूँ एव शरीर के नाशको ही अपना मरण मानकर उसका नाम सुनते ही भयभीत होता है इत्यादि रूपसे अपने विचार मे शरीरमय हो रहा है कदापि माणिक्य मिवामिभर्म सत्सङ्गत खलुयानि नर्म उदेतिचैतत्पयसोऽस्तुमस्तु यतोविकृत्याधूियतेऽत्रवस्तु ॥१५॥
अर्थात्-कभी कभी ऐसा भी विचार आता है कि अहो खाना पीना सोना उठना इत्यादि कार्य तो समी करते है मैंने भी ऐसा किया तो क्या किया मुझे कुछ भलाई का कार्य भी करना चाहिये ताकि सत्संग में आजाने से सुवर्ण के साथ में लगे हुये माणिक्य के समान मेरी दुनियां में शोभा हो जाये। सन्त महन्तों के कहने से यह भी समझा कि आत्मा से शरीर भिन्न है जड है विनाशीक है आत्मा इससे भिन्न प्रकार है अतः इस शरीर से कुछ परोपकार करलू' यह नर शरीर जो दुर्लभता से प्राप्त हुन्छा है उसे बेकार न खोऊ इस प्रकार अशुभमाव को छोड़ कर शुभ भाव पर भी आया परन्तु अन्तरंग में शरीर के साथ लगाव बना ही रहा यहां तक नहीं पहुंचपाया कि वस्तुतः कौन किसी का क्या कर सकता है । भगवान् ऋषभदेव की