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प्रमाद-स्थान-सूत्र
। १५०) प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म अर्थात् जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त है वे कर्म-बन्धन करनेवाली है, पीर जो प्रवृत्तियां प्रमाद से रहित है वे कर्म-बन्धन नहीं करती। प्रमाद के होने और न होने से ही मनुष्य क्रमश मूर्ख और पडित कहलाता है।
(१५१ ) जिस प्रकार वगुली अडे से पैदा होती है और प्रडा वगुली से पैदा होता है, उसी प्रकार मोह का उत्पत्ति-स्थान तृष्णा है और तृष्णा का उत्पत्ति-स्थान मोह है।
( १५२ ) राग और द्वेष-दोनो कर्म के वीज है अत कर्म का उत्पादक मोह ही माना गया है। कर्मसिद्धान्त के अनुभवी लोग कहते है कि ससार में जन्म-मरण का मूल कर्म है, और जन्म-मरण-यही एकमान दुख है।
(१५३ ) जिसे मोह नहीं है उसका दुख चला गया; जिसे तृष्णा नहीं उसका मोह चला गया। जिसे लोभ नही है, उसकी तृष्णा चली गई;