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अपने आपको जानने लगता है तो फिर चञ्चलता चपलता से उरिण होकर स्थिर बन जाता है, एवं और सब चीजों को एक साथ देखते जानते हुये भी स्पप्टरूप से अपने आपको देखने जानने वाला हो रहता है । जैसा कि पं० दोलतराम जी ने अपनी स्तुति के सुरू म इस दोहे में कहा है
सकलजेयजायक तदपि निजानन्द रसलीन ।
सो जिनेन्द्र जयवन्तनित अरिरजरहसविहीन ॥१॥
दर्पण में जिस प्रकार हरपदार्थ का प्रतिविम्ब पड़ता है फिर भी दर्पण अपने स्थान पर होता है और पदार्थ अपनी जगह पर । न तो पदार्थ ही दर्पण मे घुसजाया करता है और न दर्पण ही अपनेपन को त्याग कर उस पदार्थरूप ही होजाया करता है । वैसे ही परमात्मा के ज्ञान मे हरेक पदार्थ झलकता है, फिर भी पदार्थ अपनी जगह अपने आपकेरूप में होता है और आत्मा का ज्ञान आत्मा मे । न तो ज्ञान का कोई एक भी अंश शेयरूप होता है और न ज्ञेय का कोई भी अश ज्ञानरूप । जैसा कि
तज्जयतु परं ज्योतिःसमं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकलाः प्रतिफलतिपदार्थमालिकायत्र ॥२॥ इस पुरुषार्थसिद्धयुपाय के मङ्गलाचरण में लिखा है।
हां कुछ लोगों की धारणा है कि ज्ञेयाकार होना ज्ञान का दोप है जो कि अपूर्णअवस्था में हुवा करता है । पूर्णब्रह्म परमात्मदशा मे तो वह निराकार ही होता है क्यों कि सम्पूर्ण