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जा रहा था । कौरवों की हरेक चेष्टा में क्रूरता, छल, विश्वासघात और गुरुद्रोह सरीखी बातें भरी थीं किन्तु पाण्डवों में एक युधिष्ठिर की आज्ञानुसार चलना, विनय, सरलता, सत्यवादिता आदि गुण दीख पड़ते थे। जो कि उनकी जीवनी को पढ़ने से स्पष्ट होते हैं। मतलब यह कि वही कार्य अपनी इन्द्रियाधीनता शारीरिक आराम को लक्ष्य में रख कर किया जाता है तो वहां मिथ्यात्व, पाप-पाखण्ड प्राधमकता है परन्तु उसी काम को कर्तव्यशीलता, परोपकार की भावना से करने पर उसमें धार्मिकता की पुट लगी हुई हुवा करती है जैसा कि नीचे के उदाहरणं से भी स्पष्ट होगा
खयष्टखायैवपतिगृहीतु ममिप्रर्थना सुरसुन्दरीतु । सिसेवच खामिन मन्तरव्दाच्छीसुन्दरीसा मदनोपशव्दा ३६
अर्थात् सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी येदोनो राजा पुष्पपाल की लड़की थी सुरसुन्दरी बड़ी और मैना उससे छोटी । जब ये दोनों पढ़नेके योग्य हुई तो सुरसुन्दरी तो किसीभी पाण्डेजी 'के पास किन्तु मैना किसी आर्यिका जी के पास विद्या पढेने के लिये रक्खी गई। तुक्मतासीर होती ही है मंगर सोबत का भी असर होता है इस कहावत के अनुसार पढ़ने की योग्यता तो उन दोनों की अपनी अपनी थी ही परन्तु जैसी उन्हें शिक्षा मिली उसी ढांचे में उनका उपयोग ढलगया । सुरसुन्दरी को पाण्डे जी ने बतलाया कि जो कोई अपनी कोशिश से अपने