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हैं कि जैसे सूर्यको बादल ढकलेते हैं वैसे ही आत्मा या आत्मा के गुणों को कर्मों ने ढ़क रक्खा है अतः शुद्धताकी तली में शुद्धता और मिथ्यात्वकी तली में मम्यक्त्व छिपा हुवा हैं उत्तर- तुम समझ रहे हो ऐसा नहीं है क्यों कि शुद्ध अमूर्तिक आत्मा, मूर्तिक कर्मों के द्वारा कभी ढका नही जा सकता किन्तु संसारी आत्मा एक प्रकारसे फटे दूधके समान है । जैसे कांजी के मेल से दूध फट जाया करता है वैसे ही कर्मों के सम्बन्ध से आत्मा खुद विगड़ी हुई है । विकार में निर्विकारपन नही रह सकता, फूटावर्तन समूचा नही कहाता ऐसा समझना चाहिये । शङ्का - फुटे वर्तन के समान न मानकर संसारी श्रात्मा को
उलटे वर्तन के समान और शुद्धात्मा को सुलटे वर्तन सरीखा कहा जाय तो क्या हानि है क्योंकि मिथ्यत्व का अर्थ भी उलटापन तथा सम्यक्त्व का अर्थ सुलटापन है । उत्तर --- तुम्हारे कहने मे तो अकेला वर्तन ही तो उलटा तथा वह अकेला ही सुलटा भी हो रहता है परन्तु श्रात्मा का हाल ऐसा नही है इसके साथ में तो कर्मों का मेल है ताकि आत्मा उलटा नही किन्तु बिगड़ रहा है खोटा हो रहा है । मिथ्यत्व का तथा सम्यक्त्व का अर्थ भी उलटापन तथा सुलटापन नही अपितु खोटापन एवं खरापन समझना चाहिये । अथवातु चूक और सूझ भी लिया जा सकता है और उसके विषय में हम एक उदाहरण देते है ! देखो एक रोज एक आदमी घोड़े पर चढ़ कर जङ्गल मे गया वहां जा कर घोड़े को तो चरने के