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का नाम जोवत्वभाव है, वह शुद्ध और अशुद्ध, दो तरह का होता है। उसमें से अशुद्धजीवत्व यह भव्यत्व और अभव्यत्व रूप से दो भावों को लिये हुये रहता है सो अभव्यत्व तो अनाद्यनन्त हो होता है, मगर भव्यत्वभाव उस जीवकी संसार स्थितिमात्र रहता है । सिद्धअवस्थामै वह पलटकर शुद्धजीवत्व के रूपमे आजाता है । सिद्धत्वेन भवितु योग्यो भन्यः जो सिद्धरूपमे परिणमन करने योग्य हो उसे भव्य कहते हैं। अब जो कि सिद्ध होचुका वह सिद्ध होने के योग्य है कहां ताकि उसे भव्य वहा जावे, यह तो सिद्ध होने योग्य था सो हो लिया वस तो भव्यत्व का भी अभाव होलिया । उसीके साथ इतर चारों भावों का भी अभाव होगया । हां अरहन्त अवस्था में जो क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान और क्षायिकदर्शन था, वह सिद्ध अवस्था में परमशुद्ध सम्यक्त्व, परमशुद्ध ज्ञान और परमशुद्धदर्शन होजाता है इसी का नाम तो शुद्धजीवत्वभाव है, जिसकी कि सिद्धता के साथ में व्याप्ति है, जैसा कि अन्यत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः, इस सूत्र में सष्ट होता है। क्षायिकसम्यक्त्वादि को जहा अनन्त बतलाया है उसका मतलव तो इतना ही है कि जो दर्शनमोह के क्षय से सम्यक्त्व होता है, वह दूर होकर वापिस मिथ्यात्वदशा कभी भी नहीं होती। इसका मतलब यह कभी नहीं लिया जासकता कि जो जैसा सम्यक्त्व असिद्धदशा में है वैसा ही सिद्धदशा मे भी होता है। इस बात को समझने के लिये जीवत्वगुण को ही