SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपरिग्रह-सूत्र ( ७) प्राणिमात्र के सरक्षक नातपुत्र (भगवान् महावीर) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्यों को परिग्रह नही बतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होने किसी भी पदार्थ पर मूर्छा का श्रासक्ति का रसना वतलाया है। पूर्णसयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहो का त्याग करना होता है। समस्त पापकर्मों का परित्याग करके नर्वथा निर्ममत्व होना तो और भी कठिन वात है। जो सयमी जातपुत्र (भगवान् महावीर) के प्रवचनो में रत है, वे विड और उद्भेद्य आदि नमक तथा तेल, घी, गुड आदि किसी भी वस्तु के सग्रह करने का मन मे संकल्प तक नहीं लाते। (७०) परिग्रह विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पान, कम्बल, और रजोहरण आदि वस्तुएं रसते है, वे सब एकमात्र संयम की रक्षा के लिए ही रसते है-काम में लाते है। (इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं है।)
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy