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________________ ( १५१ ) सार जी में शुद्धापयोग शब्द से कहा गया है। जो कि स्पष्ट वीतरागता रूप होता है और जिसके कि होजाने पर फिर कर्म वन्ध होने से रह जाता है। जो कि वस्तुतः दशवें गुणस्थान से ऊपर होता है, उससे पहले नहीं होता। इतना सब कुछ होने पर भी कुछ जैन भाइयो का विचार है कि- जहां चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन हुवा कि उसके साथ ही साथ वहां ज्ञान चेतना भी हो जाती है और इसके साथ ऐसा भी कहते हैं कि सम्यग्दर्शन होने पर कर्मवन्ध होनेसे भी रह जाता है जैसा कि- श्री समयसार जी की गाथा में लिखा हुवा है एस्थिदुआसववन्धो सम्भाइठिस्स आसवणिरोहो । सन्ते पुन्वणिवद्धे जाणदि सो ते श्रवन्धन्तो। १६६ ।। परन्तु उन्हें शोचना चाहिये कि- आचार्य श्री ने इस गाथाम सम्यग्दृष्टि शब्दसे वीतरागसम्यग्दृष्टि का ग्रहण किया है जैसा कि- श्री जयसेनाचार्य ने इसकी उत्थानिका में लिखा है और श्री समयसार जी का प्रायः वर्णन वीतराग सम्यक्त्व को लेकर ही चलता है ऐसा ग्रन्थ के अध्ययन से भी स्पष्ट हो जाता है। जो कि-वीतराग सम्यक्त्व दशवे गुणस्थान से ऊपर में होता है। और जहां पर आत्मा सचमुच नवीन कर्मवन्ध करने से रहित होजाता है क्योंकि भावाश्रव (रागपपरिपाम) का उसके बिलकुल अभाव हो लेता है। अतः वह अपने प्रसङ्ग प्राप्त पूर्ववद्ध कर्मोको जानता मात्र है किन्तु उनके निमित्त से जरासा भी विकृत नही होता। उसका उपयोग सर्वथा
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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