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________________ अप्रमाद-सूत्र ८१ ( १४३ ) अरुचि, फोडा, विसूचिका (हैजा), आदि अनेक प्रकार के रोग गरीर में वटते जा रहे है, इनके कारण तेरा शरीर बिल्कुल क्षीण तथा ध्वस्त हो रहा है । हे गौतम । क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४४ ) जने कमल मरत्काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता-अलग अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तू भी ससार से अपनी समस्त आसक्तियां दूर कर, सब प्रकार के स्नेह-बन्धनो से रहित हो जा। है गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४५ ) स्मी और धन का परित्याग करके तू महान् अनागार पद को पा चुका है, इसलिए अव फिर इन वमन की हुई वस्तुओ का पान न कर । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। ( १४६ ) विपुल धनराशि तथा मिन-बान्धवो को एकवार स्वेच्छापूर्वक छोडकर, अव फिर दोबारा उनकी गवेपणा (पूछताछ) न कर। है गौतम | क्षणमात्र भी प्रमाद न कर ।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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