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लोकतत्त्व-सूत्र
१३५ (२४७ ) जीव, अजीव, वन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नव सत्य-तत्त्व है।
( २४८ ) जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व के विषय में सद्गुरु के उपदेश से, अथवा स्वय ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्त्व कहा गया है।
(२४६ ) मुमुक्ष प्रात्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग-वासनामो का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।
( २५०) ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप–इस चतुष्टय अध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्ष जीव मोक्षरुप सद्गति को पाते है।
( २५१ ) मति, श्रुत, अवधि, मन पर्याय और केवल इस भाँति ज्ञान पांच प्रकार का है।
( २५२-२५३ ) शानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कम वतलाये है।