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________________ सम्यक्त्ववाले के दर्शनमोह का उदय न आकर सम्यक्प्रकृति मोह का उदय आया तो क्षायोपशमिक तम्यग्दृष्टि और अगर मिश्रमोहनीय का उदय आया तो मिश्रस्थानी भी बन सकता है किन्तु बाद में फिर मिथ्या दृष्टि होना पड़ता है । ऐसा कितनी बार होता है सो नीचे बताते हैंमिथ्यादशातः समुपैतिसम्यग्दशामतोऽन्यावहुशोऽभिगम्य। यावत्खनुक्षायिकभावजातिस्तत्पूर्तितोऽन्तेशिवतांप्रयाति - २ अर्थात्- इस प्रकार अपने उस अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल में यह जीव मिथ्या दृष्टि से सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि .से फिर मिथ्या दृष्टि अनगिनतीवार भी होजा सकता है जब तक कि इसे क्षायिकभाव की प्राप्ति न हो जाती है । अन्त में जब अधिक से अधिक अपने अन्तिम जन्म से पूर्व के तीसरे जन्म में दर्शन मोह का नाश करके चायिकसम्यक्त्व प्राप्त करता है यानी क्षायिक सम्यग्दर्शन जिस भव में होता है उस भव सहित चार भव तक संसार में अधिक से अधिक रहता है क्योंकि फिर भी क्षायिक चारित्रका प्राप्त करना इसके लिये बाकी रहजाता है सो उसे अपने चरम जन्म में प्राप्त होकर घाति कमों का नाशकर केवल ज्ञानी बनकर आयु के अन्त में अशरीर होते 'हुये साक्षादमूर्त सिद्ध दशा प्राप्त करता है । सो आज तक के बीते हुये काल में ऐसे अनन्त सिद्ध परमात्मा हो गये हैं जिनका संक्षिप्त स्वरूप नीचे बतलाते हैं
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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