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बतलाया गया है, शुक्लध्यान का प्रारम्भ ही नही कर पासकता है। मगर यह अपनी इस नि.केवल आत्मभावना के द्वारा धातिया कर्मोका नाश करनेमें प्रस्तुत होता है इसकी इस आत्मानुभवरूप अवस्था का नाम ही ज्ञानचेतना है जिसके कि द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त करलेने पर इसके सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र ये तीनों अपरमपन का उल्लंघन करके परमपन को प्राप्त हो लेते हैं। इस तरह से आत्मा के इन तीनों भावों में परस्पर पोष्य पोपकपना है । आत्मा वृक्ष की तरह से है तो सम्यग्दर्शन उसकी जड़ है, सम्यग्ज्ञान उसका स्कन्ध और सम्यक्चारित्र उसके पत्ते वगेरह की भांति है, यद्यपि जड़ होने पर तना होता है और तने में फूल पत्ती वगेरह आती हैं परन्तु फिर उसका तना जितना मोटा ताजा होता जाता है उतनी ही उसकी जड़-भी गहरी होती रहती है एवं उसपर जितने भी अधिक फूल पत्ती आते है उतनी ही उस वृक्षकी अधिक शोभा होती है। अगर कहीं जड़ में कीड़ा लगजावे तव तो पेड और पत्ते कहा, मगर पेड में भी कोई खराबी आजावे तो फिर फूल पत्ती भी नही हो पावे और जड़ भी फैलने से रहजावे तथा फूल पत्ते अगर नहीं तो कोरे वने वाले वृक्ष को पूछता कौन है वहा सफलता कहां, या तो उसमे पत्ते फुलं अवेंगे ही अन्यथा तो वह कुछ देर में सूखकर खंखर बनजावेगा। वैसे ही सम्यग्दर्शन के बिना-तोयग्नान और सम्यक्चारित्र नही ही होता मगर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विकाश के