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________________ ( १३५ ) भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा येकिलकेचन । तस्यैवाभावतो वद्धा वद्धा येकिलकेचन || अव वह भेदविज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है सो बताते हैंप्रस्तूयते सातिशयारव्यखाद श्चेदंकुरायात्म विदोऽप्रमादः । मृदन्तरा वीजवदीध्यतेऽदः पुनः किलास्पष्टसदात्मवेदः ६८ अर्थात् मुनिपने में भी मुख्यतया इस जीव के दो प्रकार के भाव होते हैं एक प्रमत्त भाव दूसरा अप्रसन्त भाव | परांवलम्वन रूप भाव का नाम प्रमत्त भाव है और परावलम्बन से निवृत्त होने रूप भात्र का नाम अप्रमत्त भाव जैसे कि मुति होते समय मं अब मुझे इन कपड़ों से क्या प्रयोजन है, कुछ नही ऐसा सोच कर उन्हें अपने शरीर पर से उतारने लगना दूर करना सो अप्रमत्त भाव एवं पीछी और कमण्डलु को संयम तथा शौच का साधन मान कर ग्रहण करना इत्यादि रूपभाव सो प्रमत भाव होता है। अथवा शिर के केशों को नॉच फैक् रहना सो अप्रमत्त-भाव और ॐ नमः सिद्धेभ्य इत्यादि रूप खिद्ध भक्ति करने लगना तो प्रमत्त भाव होता है। सामायिक करते समय में शरीर से भी निर्ममत्व होकर कायोत्सर्ग करने का नाम अप्रमत्त भाव है किन्तु स्तवनादि में प्रवृत्त होने का नाम प्रमत्त भाव है इसी प्रकार से और भी समझ लेना चाहिये । सो यह प्रमत्तसे श्रप्रमत्त और अप्रमत्त से प्रमत्त भाव मुनि के होते ही रहते हैं जिनको प्रमत्तविरत और स्वथाना कर
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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