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अतः वह खाने, पीने, सोने वगेरह मे ही जी ज्यान से जुटा रहता है पाप पाखण्ड करके भी उनकी पूर्ति करना चाहता है। जिससे कि अपथ्य सेवी रोगी की भांति सुखी न होकर उलटा दुःखी ही होता है । हां अगर सयाना रोगी होता है वह अपथ्य सेवन से दूर रह कर वर्तमान शान्ति के लिये वाहरी उपचार करता है जैसे कि कोई खुजली वाला आदमी नमक खटाई, मिरची, तेल, गुड़ बगेरह जैसी खूनखराबी वाली चीजो से दूर रहकर कपूर मिला नारियल का तेल मालिस करता है तो धीरे धीरे नीरोग भी बन जाता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि पीव, चारित्रमाह की बाधा को न सहसकने के कारण उसके प्रतीकारस्वरूप समुचित भोग भी भोगता है परन्तु वह जानता है कि इन विषय भोगों में सुख नही, सुख वो मेरी आत्मा का गुण है जो कि मेरी दुर्वासना से दुःखरूपमे परिणत होता हुवा प्रतीत होरहा है अतः वह पापवृत्ति से दूर रहता है एवं धीरे धीरे नीराग होते हुये अन्तमें विषय भोगों से विरक्त होकर पूर्ण स्वस्थ होलेता है । अथवा या कहो कि व्यर्थ की अभिलाषा करना आकांक्षा है जैसे रात्रि में आदमी को लिखा पढी का कार्य करना होता है तो दीपक जलाकर प्रकाश कर लेता है एवं अपना काम निकालता है जहां सबेराहुवा, सूर्यउगा, स्वतः प्रकाश होलिया तो दीपक को व्यर्थमान कर बुता देता है । फिर भी कोई भोला वालक अगर रोने लगे कि दीप को क्यों धुता दिया जलने देना था तो यह उसका रोना किस काम का है