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________________ : १८: आत्म-सूत्र ( २३० ) अपनी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष है । और अपनी प्रात्मा ही स्वर्ग की कामदुधा घेनु तथा नन्दनवन है। (२३१) आत्मा ही अपने दुखो और सुखो का कर्ता तथा भोक्ता है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा अपना मित्र है, और वुरे मार्ग पर चलनेवाला प्रात्मा अपना शत्रु है। ( २३२ ) अपने-आपको ही दमन करना चाहिए। वास्तव में अपने आपको दमन करना ही कठिन है। अपने आपको दमन करनेवाला इस लोक में तथा परलोक मे सुखी होता है। ( २३३ ) दूसरे लोग मेरा वध बन्धनादि से वमन करे, इसकी अपेक्षा तो मै संयम और तप के द्वारा अपने आप ही अपना (आत्मा का) दमन कलं, यह अच्छा है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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