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पूज्य-सूत्र
१४५ अपनी प्रशसा नहीं करता, खेल तमाशा आदि देखने का भी शौकीन नहीं, वही पूज्य है।
( २७१ ) गुणो से साधु होता है और अगुणो से असाधु, अत हे मुमुक्षु । सद्गुणो को ग्रहण कर और दुर्गुणो को छोड । जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेप दोनो में समभाव रखता है, वही पूज्य है।
(२७२ ) जो बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, साबु, और गृहस्थ आदि किसीका भी अपमान तया तिरस्कार नहीं करता, जो क्रोध और अभिमान का पूर्णरूप से परित्याग करता है, वही पूज्य है।
( २७३ ) जो वुद्धिमान मुनि सद्गुण-सिन्धु गुरुजनो के सुभाषितो को सुनकर तदनुसार पांच महाव्रतो में रत होता है, तीन गुप्तियाँ धारण करता है, और चार कपायो से दूर रहता है, वही पूज्य है।