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होती, किन्तु पाल्माके उपयोगमै कपायें अंश अंशमें होती हैं। शक्षा-वर्तमान के कुछ लोगों का कहना है कि चतुर्थगुणस्थान
से ही शुद्धोपयोग शुरू होजाता है क्यों कि वहां दर्शनमोह का अभाव हो लेता है। अतः उतने अंश में वहां
शुद्धता मानने में क्या हानि है ? उत्तर-दिगम्बर जैनाचार्यों ने तो इस प्रकार कीन्हीं ने भी कहा नहीं है। हमारे सर्वमान्य श्राचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ही अपने प्रवचनसार में लिखा है कि जिस साधु ने अपना नत्यार्थविषयक श्रद्वान बिलकुल ठीक कर रक्खा हो, जो संयम श्रीर नपका धारक हो गवं बिलकुल राग, द्वेष से रहित होलिया है। अतः सुख और दुःख में कसा विचार रखता हो वही शुद्धोपयोग वाला होता है देखो
मुविदितपयत्यमुत्ती मंजम तव संजुद्रोविगतरागो ___समण सममुहदुक्खो भरिणदो शुद्धोपयोगोति ।। इम गाथा में आयेहुये विदिनपयत्यमुत्तः, संयमतपसंयुतः विगतरागः और समसुखदुःख ये चारों श्रमण के विशपण हैं
और श्रमण उनका विशेष्य, जैसा कि प्रवचनसार के टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य श्रीर श्री जयसेनाचार्य भी बतला गये है सो एसी अवस्था मुख्य रूप में तो नशचे गुणस्थान के ऊपर में ही होती है परन्तु अप्रमत्त गुणस्थान से नीचे तो किसी भी तरह नहीं मानी जा सकती है। हां उनको विशेषण विशेष्य न मान कर मव को भिन्न भिन्न स्वतन्त्र ग्रहण किया जावे और