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________________ ( ३६ ) हैं । परन्तु पूर्वकृत कर्म यावत्- अपना पूराफल नही दे पाता उसके पहिले ही से यह जीव दूसरा कर्म खड़ा किये हुये रहता है जैसे मानलो कि एक किसान के पास सो बीघे जमीन है उस में से कुछ जमीन मे तो उसने जुवारी बाजरी और कुछ मे उड़द मूंग बो दिये । सो गँवार बाजरी आसोज में तैयार हो गई उसे काट कर उस जमीन में गेहूं चने बो दिये परन्तु उड़द मूग उधर खड़े हैं सो जाकर पोप में तैयार हुये उन्हें काटकर वहां पर उसने गन्ना लगा दिये । उधर गेहूं खड़े हैं सो वैसाख में जाकर तैयार हुये उन्हें काटकर फिर उसमें जुवार बाजरी लगादी । ईख खड़ी है उसे मगसर में काट कर उस जमीन में मटर वो दी जावेगी । इस प्रकार चकर चलता रहता है किसान खेती से शून्य नही रहता उसी प्रकार संसारी जीव भी एक के बाद एक कर्म निरन्तर करता ही रहता है और उनके फल पाता रहता है निष्कर्मा नहीं हो पाता । परन्तु अंगर वह किसान चाहे कि मुझे तो अब किसान नहीं रहना है मुके तो मेरी इस जमीन मे जो कि रत्नोकी खानि है उसका पता लगगया है अतः अब मुझे खेती का क्या करना है तो वह अपने खेती के प्रलोभन को सम्बरण करके आगे के लिये उसमें बीज न वोवे और जो कुछ खेती खड़ी है उसे पकने के पूर्व ही अपने हाथो से घण्टो मे उखाड़ फेंकदेवे एवं खानि खोद निकाल सकता है और रत्नाधिपति बन सकता है वैसे ही 'अंगर संसारी आत्मा भी यह समझले कि मेरी आत्मा तो
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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