SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र ( ४७ ) काम-भोगो का रस जान लेनेवाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्न ब्रह्मचर्य महावत का धारण करना, वडा ही कठिन कार्य है। जो मुनि सयम-घातक दोपो से दूर रहते है, वे लोक में रहते हुए भी दुसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते। (४६) यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषो का स्थान है, इसलिए निग्रन्थ मुनि मैथुन-ससर्ग का सर्वथा परित्याग करते है। (५०) आत्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृगार, स्त्रियो का ससर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन-सव तालपुट विष के समान महान् भयंकर है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy