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ब्रह्मचर्य-सूत्र
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काम-भोगो का रस जान लेनेवाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्न ब्रह्मचर्य महावत का धारण करना, वडा ही कठिन कार्य है।
जो मुनि सयम-घातक दोपो से दूर रहते है, वे लोक में रहते हुए भी दुसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते।
(४६) यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषो का स्थान है, इसलिए निग्रन्थ मुनि मैथुन-ससर्ग का सर्वथा परित्याग करते है।
(५०) आत्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृगार, स्त्रियो का ससर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन-सव तालपुट विष के समान महान् भयंकर है।