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किन्तु जो खुद कार्यरूप न होकर कार्य के होने में सहकारी हो उसे निमित्त कारण कहते है । जेसे घट के लिए कुम्भकार'चाक दण्ड वगेरह । वह निमित्त कारण दो तरह का होता है। एक प्रेरक और दूसरा उदासीन । प्ररक कारण भी दो तरह का होता है एक तो गतिशील सचेप्ट और इच्छावान् जैसे घटके लिये कुम्भकार इसी को व्यावहारिक कर्ता भी कहते हैं । दूसरा सचेष्ट किन्तु निरीह प्रेरक निमित्त होता है जैसे कि घड़े के लिये चाक । उदासीन निमित्त वह कहलाता है जो निरीह भी होता है और निश्च प्ट भी जैसे कि घट के लिये चाक के नीचे होने वाला शंकु जिसके कि सहारे पर चाक घूमता है । समर्थकारण- उपादान और निमित्तो की समष्टि का नाम है जिसके कि होने पर उत्तरक्षण में कार्य सम्पन्न हो ही जाता है । उन्ही के भिन्न भिन्न रूप में यत्र तत्र हो रहनेको असमर्थ कारण कहा जाता है अर्थात्- वे सब कारण हो कर भी उस दशा मे कार्य करने को समर्थ नहीं होते हैं। हरेक कार्य अपने उपानान के द्वारा उपादेय अर्थात्- अभिन्नरूप से परिणमनीय होता है तो निमित्त से नैमित्तिक अर्थात्- मिन्न रूप से सम्पादनीय । क्योंकि उपकिलामिन्नत्वेनाऽऽदानं धारणमधिकरणं तदुपादान अर्थात्- उप यह उपसर्ग है जिसका अर्थ होता है अभिन्नरूप मे एकमक रूप से जैसा कि उपयोग शब्द में होता है उपयोग यानी ज्ञान दर्शन जो कि आत्मा से एकमेक होकर रहता है वैसे ही यहांपर वादात्म्य समझना । आदान का अर्थ है धारण