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________________ ( १०० ) - शुक्लध्यान में पहुंच जाता है.जब कि इस का उपयोग वाह्यपदार्थोलम्बन से रहित हो लेता है । यानी गृहस्थावस्था में जहां तक कि शारीरिक, वाचनिक और मानसिक जरा सा भी लेगाव इस मानव का इस दुनियादारी में होने वाली आमेर बातों के साथ रहता है तब तक शुक्ल ध्यान तो क्या 'धर्मध्यान की भी रूपातीवावस्था नहीं हो पाती क्यो कि उसके लिये सुदृढ़ मानसिक बल की आवश्यकता होती है जो कि गृहस्थावस्था में असम्भव है । अतः वहां पर ,सिर्फ सस्थान विचय के चार भेदों में से-पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नाम धर्मध्यान ही यथा सम्भव हुवा करता है, ऐसा हमारे ध्यानप्रतिपादक शास्त्रों में बतलाया गया हुवा है । किन्तु आरौद्र परिणामों को इसकी आत्मा में कभी अवसर ही नहीं मिलपाता 'ताकि भविष्य के लिये नरक और तिर्यक् पन का अभाव हो जाता है । यद्यपि हमारे पागम में बतलाया गग है कि आध्यान छटे गुणस्थान के अन्त तक एवं रौद्रध्यान पश्चमगुणस्थान में भी होता है, मगर वह भी धर्ममूलक ही होता "हैं। जैसे कि शंकर को सिंह पर-प्रहार करता समय रौद्रष्णन था परन्तु वह 'मुनिराज को बचाये रखने के लिये वैय्याबृत्य परक था । तथा किसी चुगलखोर के कहने को सुनकर राजा ने राजमन्त्री से पुछा कि क्या तुम्हारे-गुरु कोढी है, मन्त्री ने "गुरु भक्ति में आकर कह दिया कि नही, महाराज मुनिराज के और कोढ़ का क्या काम, इस पर राजा ने कहा कि हां तो
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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