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राजस्थान
न्न संत:
व्यक्तित्व
कतिव
वीरजी.जयपुर
Home
पलीयालोर्य पया
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भी महाबीर ग्रंथमाला-१४ वी पुष्प
राजस्थान के जैन संत ...
व्यक्तित्व एवं कृतिल
डॉ० कस्तूरचम्ब कासलीवाल
एम. ए. पी-एच. डो. शास्त्री
भूमिका
डॉ. सत्येन्द्र, एम. ए. डी. लिट
अध्यक्ष हिन्दी विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
प्रकाशक
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गैवीलाल साह एडवोकेट
मंत्री श्री दि जैन म. क्षेत्र श्रीमहावीरजी
जयपुर
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का मुनि श्री . किान महाका पावनं सम्मति-प्रसाद
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जन बाङ्मय भारतीय साहित्यवापीका पदमपुष्प है। मोक्षधर्म का विशिष्ट प्रतिनिधित्व करने से उसे 'पुष्कर पल्लामा निर्लेप' कहना वस्तु-सत्य है। भारत के हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारों में अकेला जन साहित्य जितनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है उतनो मात्रा में इतर नहीं। लेखनकला की विशिष्ट विधाओं का समायोजन देखकर उन लिपिकारों, चित्रकारों तथा मूल-प्रणेता मनीषियों के प्रति हृवय एफ अकृतक आह्लादका अनुभव करता है। लिपिरक्षित होने से ही आज हम उसका रसास्वादन करते हैं, प्रकाशित कर बहुजन हिताय बहुजनसुखाय उपयोगबद्ध कर पा रहे हैं, उनकी पवित्र तपश्चर्या स्वाध्याय मार्ग के लिए प्रशस्त एवं स्वस्तिकारिणी है।
प्रस्तुत संग्रह राजस्थान के जन सन्तों के कृतित्व तथा व्यक्तित्व बोधको उद्घाटित करता है । जैन भारती के जाने-माने तथा अज्ञात, अल्पज्ञात सुधीजनों का परिचय पाठ इसे कहा जाना चाहिए। हिन्दी में साहित्य धारा के इतिहास अभी अल्प हैं और जनवाङ्मयबोधक लो अल्पतर ही है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों ने भी इस आईत-साहित्य के गवेषणात्मक प्रयास में प्रायः शिथिलता अथ च उपेक्षा विखायी है। मेरे विचार से यह अनुप्रेक्षणीय की उपेक्षा और गणनीय की अवगणना है। साहित्यकार को कलम जब स्ठती है तो कृष्षमषो से कचिन कमल खिल उठते हैं। वे कमल मनुष्य मात्र के ऊपरमरुसमान मानः प्रवेशों में पद्मरेणुकिंजल्कित कासारों को अमद हिलोत उत्प करते हैं। शुद्ध साहित्य का यही लक्षण है। वह पात्रों के मालम्बन में निबद्ध रहकर भी सर्वजनीन हितेप्सुता का ही प्रतिपादन करता है। इसी हितेप्सुता का अमृतपाथेय साहित्य को चिरजीवी बनाता है। आने वालो परम्पराए धर्म, संस्कृति, गौरवपूर्ण ऐतिहा क्षे रूप में उसको सरक्षण प्रदान करती हैं, उसे साय लेकर आगे बढ़ती हैं। साहित्य का यह आप्यायन गुण और अधिक बढ़ जाता है यदि उसका निर्माता सम्यक् मनोषी होने के साय सम्यक बारित्रघुरोण भी हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत सम्म साहित्य अपने कृति और कृतिकार रूप उभय पक्षों में समावरास्पद है।
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राजस्थान के इन कृतिकारों में गेयश्छन्दों की अनेकरूपता को प्रश्रय देकर भाभिव्यक्ति के माध्यम को स्फीत-प्राञ्जल किया है। रास, गीत, सबंया, ढाल, सरहमासा, राग-रागिनी एवं नानाविष बोहा, चौपाई, छन्दों के भावकुशल प्रमाण संग्रह में यत्र तत्र विकीर्ण देखे जा सकते हैं जो न केवल पीथि के निपुणता स्यापक है अपितु लोकजीवन के साय मंत्री के चिन्हों को भी स्पष्ट फरते चलते हैं। किसी समय उनकी कृतियो लोफमुख-भारती के रूप में अवश्य समाहत रही होगी क्योंकि इन रचनाओं के मूल में धर्म प्रभाषना को पदचाप सहभणी है। आराध्य धरित्रों के वर्णन तथा कृतित्व के भूपिण्ठ मायतन से पह अनुमान लगाना सहज है कि ये कृतिकार बतु-मुखी प्रतिभा के घनी ही नहीं, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी भी थे।
डॉ० कस्तुरचय कासलीवाल गत अनेक वर्षों से एतादृश शोधसाहित्य कार्य में संलग्न है। पुरातन में प्रच्छन्न उपादेयताओं के जीर्णोद्धार का यह कार्य रोचक, नानक एम सामग्मि है। इसमें व्यापक रुप मे मनीषियों के समाहित प्रयत्न अपेक्षणीय है।
प्रस्तुत प्रकाशन 'अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी' की और से किया जा रहा है। इसमें योगदान करते हुए सत्साहित्य की ओर प्रवृत्ति-शोल क्षेत्र का 'साहित्य शोध विभाग' आशो वाहं है।
मेरठ २११०/६७
વિધાનન્દમુનિ
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प्रकाशकीय
"राजस्थान के जन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व" पुस्तक को गाटवों के हाथ में देते हुए गृझे प्रसन्नता हो रही है । पुस्तक में राजस्थान में होने वाले जन सन्तों का [ संवत् १४५० से १७५० तक ] विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। वैसे तो राजस्थान मैकड़ों जैन सन्तों की पावन भूमि रहा है लेकिन १५ वीं शताब्दी से १. यो सताब्दी का यह मट्टारकों को प्रत्यधिक जोर रहा पौर समाज के प्रत्येक धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यों में उनका निर्देशन प्राप्त होता रहा । इन सन्तों ने साहित्य निर्माण एवं उसकी सुरक्षा में जो महत्वपूर्ण योग दिया था उसका अभी तक कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता था इसलिये इन सन्तो के जीवन एवं साहित्य निर्माण पर किसी एक पुस्तक की आवश्यकता अनुभव को जा रही थी। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के द्वारा लिखित इस पुस्तक से यह कमी दूर हो सकेगी, ऐसा हमारा विश्वास है ।
प्रस्तुत पुस्तक क्षेत्र के साहित्य शोष विभाग का १४ वां प्रकाशन है। गत दो वर्षों में क्षेत्र की ओर से प्रस्तुत पुस्तक सहित निम्न पांच पुस्तकों का प्रकाशन किया गया है।
(१) हिन्दी पद संग्रह, (२) चम्याशतफ, (३) जिरणदस चरित, (४) राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडार (अंग्रेजी में) और (५) राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व । इन पुस्तकों के प्रकाशन का देश के प्रमुख पत्रों एवं साहित्यकारों ने स्वागत किया है । इनके प्रकाशन से जैन साहित्य पर रिसर्च करने वाले विद्याथियों को विशेष लाभ होगा तथा जन साधारण को जैन साहित्य की विशालता, प्राचीनता एवं पयोगिता का पता भी लग सकेगा ।
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राजस्थान के जन शस्त्र भण्डारों की प्रथ सूषियों का जो कार्य क्षत्र के साहित्य बोध विभाग की बोर से प्रारम्भ किया गया था उसका भी काफी तेजी से कार्य चल रहा है । ग्रंथ सूची के चार भाग पहिले ही प्रकाशित हो चुके हैं और पांचवां भाजिसमें २० हजार हस्तलिखित ग्रंथों का सामान्य परिचय रहेगा शीघ्र ही प्रेस में दिया जाने वाला है। इसके अतिरिक्त और भी साहित्यिक कार्य चल रहे हैं जो जैन साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में विशेष उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं।
इस पुस्तक पर पूज्य मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज ने अपने पाशीर्वादात्मक सम्मति लिखने की जो महती कृपा की है इसके लिये क्षेत्र कमेटी पसराज की पण आभारी है।
पुस्तक को भूमिका डॉ. सत्येन्द्र जी अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर ने लिखने की कृपा की है जिसके लिये हम उनके पूर्ण प्राभारी हैं । आशा है डॉ. साहब का भविष्य में इसी तरह का योग प्राप्त होता रहेगा।
गवीलाल साह एवोकेट
मंत्री
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भूमिका
डा० कालीदार को यह एक और नयी देन हमारे समक्ष है । डा० कासलीबाल का प्रयत्न यही रहा है कि अज्ञात कोनों में से प्राचीन से प्राचीन सामग्री एवं परम्पराओं का अन्वेषण कर प्रकाश में लायें। यह ग्रन्थ भी इनकी इसी प्रवृत्ति का सुफल है ।
संतों की एक दीर्घ परम्परा हमें मिलती है। इस परम्परा की विकास श्रृङ्खला को बताते हुए डा० राम खेलावन पांडे ने यह लिखा है
"संत-साधनधारा सिद्धों-नाथों निरंजन-पंथियों से प्राण पाती हुई, नामदेव, त्रिलोचन, पीपा और पन्ना से प्रेरणा लेती हुई कबीर, रैदास, नानक, दादू, सुन्दर, पलटू श्रादि अनेक संतों में प्रकट हुई । "
इस परम्परा में पारिभाषिक 'संत' सम्प्रदाय का उल्लेख है। इसमें हमें किसी जैन संत का उल्लेख नहीं मिलता ।
पर डा० पांडे ने आगे जहां यह बताया है कि
"कबीर मंसूर में आद्याशक्ति और निरंजन पर जीत की कथा विस्तार पूर्वक दो हुई है, अतः सिद्ध होता है कि कुछ शाक्त और निरंजन पंथी कबीर पंथ में दीक्षित हुए ।.....
निरंजन पंथ का इतिहास यह संकेत देता है कि इसके विभिन्न दल क्रमशः गोरख पंथ, कबीर पंथ, दादूपंथ में अन्तर्भूत होते रहे और सम्प्रदाय में इसकी शाखाए' भिन्न बनी रहीं। कबीर मंगूर में मूल निरंजन पंथ को कबीर पंथ की बारह शाखाओं में गिना गया है यही पाद टिप्पणी स० ३ में पांडे ने एक सार गमित संकेत किया है :.
"निरंजन का तिब्बती रूप ( 905 Pamed ) नामक निन्य है । इसके आधार पर निरंजन पंथ का सम्बन्ध जैन मतवाद से जोड़ा जा सकता है, काल
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१. मध्यकालीन संत साहित्य-पृष्ठ- १७
२. बही पृ० ५७
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कृत कारणों से जिसमें कई परिवर्तन हो गये।"-इस संकेत से अनुसंधान की एक उपेक्षिस दिवा का पता चलता है। यह बात तो प्रायः माज मानली गयी है कि जैन धर्म की परम्परा बौद्ध धर्म से प्राचीन है पर जहां बौद्ध धर्म की पृष्ठ भूमि का भारतीय साहित्य की दृष्टि से गंभीर अध्ययन किया गया है वहां जैन धर्म को पृष्ठ भूमि पर उतना गहरा ध्यान नहीं दिया गया। यह संभव है कि 'निरंजन' में कोई जैन प्रभाव सन्निहित हो, और वह उसके तथा अन्य माध्यमों से 'संतमत' में भी उतरा हो ।
पर यथार्थ यह है कि जैन धर्म के योगदान को अध्ययन करने के साधन भी अभी कृष्ट ममय पूर्व तक कम ही उपलब्ध थे 1 आज जो साहित्य प्रकाश में आ रहा है. वह कुछ दिन पूर्व कहां उपलब्ध था। जैन भाण्डागारों में जो अमूल्म ग्रन्थ सम्पत्ति भरी पड़ी है उसका किसे ज्ञान था। जैसलमेर के ग्रंथागार का पता तो बहुत था पर कर्नल केमुल टाड को भी बड़ी कठिनाई से वह देखने को मिला था । नागौर का दूसरा प्रसिद्ध जन प्रथागार तो न प्रयत्नों के पगात साउगोग के लिए नहीं खोला जा सका था। पर अरज कितने ही जैन भाण्डागारों की मुद्रित. सुत्रियां उपलब्ध हैं। कई संस्थार जैन साहित्य के प्रकापान में लगी हुई हैं। डार कासलीवाल ने भी ऐसे ही कुछ अलभ्य और ऐतिहासिक महस्व के ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का शुभ प्रयल किया है 1 जन भण्डारों की सूचिया, 'प्रय म्न परित,' 'जिगदत्त चरित' प्रादि को प्रकाश में लाकर उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहाग की प्रज्ञात कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है। जैन संतों का यह परिचयात्मक ग्रंथ भी कुछ ऐसे ही महत्व का है। .
- डा. कासलीवाल ने बताया है कि 'संत' शब्द के कई अर्थ होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि 'संत' शन्य एक ओर तो एक विशिष्ट संप्रदाय के लिया प्राता है, जिसके प्रवर्तक कबीर माने जाते हैं। दूसरी ओर 'संत' शब्द मात्र गुणवाचक,
और एक ऐसे व्यक्ति के लिए उपयोग में आ सकता है जो सज्जन और साधु हो । तीसरे अर्थ में 'संत' विशिष्ट धार्मिक अर्थ में प्रत्येक सम्प्रदाय में ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के लिए प्रा सकता है, जो सांसारिकता और इंद्रिय विषयों के राग से ऊपर उठ गये हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय एवं धर्म में ऐसे संत मिल सकते हैं। ये संत सदा जनता के श्रद्धा भाजन रहे हैं अतः ये दिव्य लोकवार्ताओं के पात्र मी बन गये हैं। अग्रेजी शब्द Saint-सेन्ट संत का पर्यायवाची माना जा सकता है ।
___ डा० कासलीवाल ने इस ग्रन्थ में संवत् १४५० से १७५० तक के राजस्थान के जैन संतों पर प्रकाश डाला है। इस अभिप्राय से उन्होंने यह निरूपण किया है कि-इन ३०० वर्षों में महारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं सार्वसाधु के रूप में
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ये भट्टारक अपना आचरण संघ के प्रमुख होते थे इन ३०० वर्षों में अस्तित्व नहीं रहा
श्रमण परम्परा के पूर्णतः
संघ में मुनि, ब्रह्मचारी, इन भट्टारकों के अतिरिक्त इसलिए वे भट्टारक एवं
जनता द्वारा पूजित थे अनुकूल रखते थे। ये अपने are भी रहा करती थी। अन्य किसी भी साधु का स्वतंत्र उनके शिष्य ब्रह्मचारी पक्ष वाले सभी संत थे "
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इसी व्याख्या को ध्यान में रखकर हमें जैन संतों की इन तीन सौ वर्षों में जैन संतों की भी
परम्परा का अवगाहन करना अपेक्षित है । एक दीर्घ परम्परा के दर्शन हमें यहां होते हैं। जैन धर्म में एक स्थिर श्रेणी-व्यवस्था में इन संतों का अपना एक स्थान विशेष है और वहां इनका श्रेणी नाम भी कुछ और है - इस ग्रन्थ के द्वारा डा० कासलीवाल ने एक बड़ा उपकार यह किया है कि उन विशिष्ट
वर्गों को हिन्दी की दृष्टि से एक विशेष वर्ग में दिया है अब संतों का अध्ययन करते समय हमें
होगी।
लाकर नये रूप जैन संतों पर भी
में खड़ा कर दृष्टि डालनी
इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि जैनदर्शन की शब्दावली अपना विशिष्ट रूप रखती है, फिर भी सत शब्द के सामान्य अयं के योतक लक्षण और गुण सभी सम्प्रधार्थी और देशों में समान हैं, जैन संतों के काव्य में जो अभिव्यक्ति हुई है. उससे इसकी पुष्टी ही होती है । अध्ययन और प्रभुसंधान का पक्ष यह है कि 'संतत्व'
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का सामान्य रूप जैन संतों में क्या है ? और वह विशिष्ट पक्ष क्या है जिससे
अभिमंडित होने से वह 'संतत्व' जैन हो जाता है ।
स्पष्ट है कि जैन संतों का कोई विशेष सम्प्रदाय उस रूप में एक पृथक प्रवर्तित संत पंथ या संत सम्प्रदाय एक संत सम्प्रदाय बड़े हुए उन्होंने सभी ने पैदा किया। फलत: जैन संतों का कृतित्व
।
पंथ नहीं है जिस प्रकार हिन्दी में कबीर से प्रथक अस्तित्व रखता है और फिर जितने 'कबीर' की परम्परा में ही एक वैशिष्ट्य - एक विशिष्ट स्वतंत्र तात्विक भूमि देगा यों जैन धर्म में भी कुछ अलग अलग पंध हैं, छोटे भी बड़े भो, उनके सत भी हैं। उनके धर्मानुकूल इन संतों की रचनाओं में भी आंतरिक वैशिष्ट्य मिलेगा । डा० कासलीवाल ने इस ग्रन्थ में केवल राजस्थान के हो जैन संतों का परिचय दिया है- यह अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणा प्रद होगा। फलतः डा०] कासलीवाल का यह ग्रन्थ हिन्दी में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा, ऐसी मेरी धारणा है । में डा० कासलीवाल के इस ग्रन्थ का हृदय से स्वागत करता हूँ |
जयपुर २८-६-६७
डा० सत्येन्द्र
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प्रस्तावना
मारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थान है। एक और यहां की भूमि का करण का वीरता एवं शौर्य के लिये प्रसिद्ध रहा तो दूसरी और भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के गौरवस्थल भी यहां पर्याप्त संख्या में मिलते हैं। यदि
राजस्थान के वीर योद्धाओं ने जननी जन्म-भूमि की रक्षार्थ हसते हंसते प्राणों को न्यौछावर किण तो यहां होने वाले प्राचार्यो, मट्टारकों, मुनियों एवं साधुओं तथा विद्वानों ने साहित्य की महती सेवा की और अपनी कृतियों एवं काव्यों द्वारा जनता में देशभति, नैतिकता एवं सांस्कृतिक जागरूकता का प्रचार किया। यहां के रणथम्भोर, कुम्भलगढ़, नित्तौड़, भरतपुर, मांडोर जैसे दुर्ग यदि वीरता देशमक्ति, एवं त्याग के प्रतीक है तो जैसेलमेर, नागौर, बीकानेर, अजमेर, पामेर, डूगरपुर, सागवाड़ा, जयपुर आदि कितने ही नगर राजस्थानी ग्रंथकारों, सन्तों एवं साहित्योपासकों के पवित्र स्थल है जिन्होंने अनेक संकटों एवं झंझावातों के मध्य भी साहित्य की अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रस्वा । वास्तव में राजस्थान की भूमि पावन है तथा उसका प्रत्येक करण वन्दनीय है।
__राजस्थान की इस पावन भूमि पर अनेकों सन्त हुए जिन्होंने अपनी कृतियों के द्वारा भारतीय साहित्य की प्रजन धारा बहामी तथा अपने प्राध्यात्मिक प्रवचनों, गीतिकाव्यों एवं मुक्तक छन्दों द्वारा देश में बन जीवन के नैतिक घरातस को कभी गिरने नहीं दिया । राजस्थान में ये सन्त विविध रूप में हमारे सामने आये और विभिन्न धर्मों की मान्यता के अनुसार उनका स्वरूप मी एकसा नहीं रह सका ।
___ 'सन्त' शब्द के अब तक विभिन्न अर्थ लिये जाते रहे हैं वैसे सन्त बाब्द का व्यवहार जिसना गत २५, ३० वर्षों में हुआ है उतना पहिले कभी नहीं हुआ । पहिले जिस साहित्य को भक्ति साहित्य एवं अध्यात्म साहित्य के नाम से सम्बोधित किया जाता था उसे अब सन्त साहित्य मान लिया गया है। कबीर, मीरा, सूरदास तुलसीदास, दादूदयाल, सुन्दरदास आदि सभी भक्त कवियों का साहित्य सन्त के साहित्य की परिभाषा में माना जाता है। स्वयं कबीरदास ने सन्त शब्द की जो ध्याख्या की है वह निम्न प्रकार है।
निरवरी निहकामता सोई सेती नेह । विषियांस्यू न्यारा रहे, संतनि को ग्रङ्ग एह ।।
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अर्थात् प्राणि मात्र जिसका मित्र है, सो निष्काम है, विषयों से दूर रहते हैं बे ही सन्त है।
___सुलसीदास जी ने सन्त शब्द की स्पष्ट ग्याल्या नहीं करते हुए निम्न साम्दों में सन्त पौर प्रसन्त का भेद स्पष्ट कि है !
वन्दों सन्त प्रसज्जन चरा, दुख प्रद उभय बीच कछु बरणा । हिन्दी के एक कवि विट्ठलदास ने सन्तों के बारे में निम्न शब्द प्रयुक्त किये है।
सन्तनि को मिकरी मिन काम ।
प्रावस जात पनियां टूटी विसरि गयो हरि नाम ॥ प्राचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने 'उत्तर भारत की सन्त परम्परा" में सन्त शब्द की विवेचना करते हुये लिखा है...''इम प्रकार सन्त शब्द बा मौलिक अर्थ'' शुद्ध अस्तित्व मात्र का हो बोधक है और इसका प्रयोग भी इसी कारण उस नित्य वस्तु का परमतत्व के लिये अपेक्षित होगा जिसका नाश कभी नहीं होता, जो सदा एक रस तथा अविवृत रूप में विद्यमान रहा करता है और जिसे सन्त के नाम से भी अभिहित किया जा सकता है। इस शद के "सत" रूप का ब्रह्म वा परमात्मा के लिये किया गया प्रयोग बहधा दिक साहित्य में गो पाया जाता है"१
जैन साहित्य में सन्त शब्द का बहुत कम उल्लेख हुआ है । साघु एवं श्रमगा ग्राचार्य, मुनि, शहारक, अति आदि के प्रयोग की ही प्रधानता रही है । स्वयं भगवान महावोर को महाश्चमण कहा गया है। साधुओं की यहां पांच गियां है जिन्हें पंच परमेष्ठि कहा जाता है ये परमेष्टी अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय एवं सवं. साधु हैं इनमें अहन्त एवं सिद्ध सर्वोच्च परमेष्टी हैं।
बहन सफल परमात्मा को कहते है । अहंतपद प्राप्त करने के लिये तीर्थकरत्व नाम कर्म का उदय होना अनिवार्य है । वे दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराव इन चार कौ का नाया कर चुके होते हैं तथा शेष चार कर्म वेदनीय, आयू, नाम, और गोत्र के नाश होने तक संसार में जीवित रहते हैं। उनके समवशरण की रचना होती है और वहीं उनकी दिव्य ध्वनि [ प्रवचन ] खिरती है।
सिम मुक्ताल्मा को कहते हैं। वे पूरे आर कमौ का क्षय कर चुके होते हैं । मोक्ष में विराजमान जीव सिद्ध कहलाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने सिद्ध परमेष्ठी का निम्न स्वरूप लिखा है। ran -man u man-
arun १. देखिये 'उत्तरी भारत की सम्स परम्परा' पृष्ठ संख्या ४
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किस्म अट्टगुगढ्डे भरपोष सिद्ध । अट्टमढविणविट्टे गिट्टियकज्जेय वंदिनी] पिच्च॑ ।।
सिद्ध निराकार होते हैं। उनके भौदारिक, वैक्रियिक, माहारक, तैजस, कार्मारण, शरीर के इन पांच भेदों में से उनके कोई सा भी शरीर नहीं होता | योगीन्द्र इन्हें निष्कल कहा है । अर्हन्त एवं सिद्ध दोनों ही सर्वोच्च परमेष्ठी हैं इन्हें महा सन्स मो कहा जा सकता है।
श्राचार्य उपाध्याय एवं सर्वसाधु शेष परमेष्ठी है । सर्वसाधुवे हैं जो आचार्य समन्तभद्र की निम्न व्याख्या के अन्तर्गत आते हैं ।
विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरतः तपस्वी से प्रशस्यते 1
जो चिरकाल में जिन दोक्षा में प्रवृत्त हो चुके हैं तथा २८ मूल गुसों क पालन करने वाले है ।
वे माधु उपाध्याय
कहलाते हैं जिनके पास मोक्षार्थी जाकर शास्त्राध्ययन करते हों तथा जो संघ में शिक्षक का कार्य करते हों। लेकिन वही साधु उपाध्याय बन सकता है जिसने साधु के चरित्र को पूर्ण रूप से पालन किया हो ।
तिलोपति में उपाध्याय का निम्न लक्षण लिखा है ।
अण्णारण चोरलिमिरे कुरंततीर हिउमारणाएं | मवियाज्जीयरा उवज्झया बरमद देतु ।
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१. हिंसा अन्त तस्करी अब्रह्म परिग्रह पाप । मन च तन ते त्यागवो पंच महाव्रत थाप || ईर्ष्या भाषा एवणा, पुनि क्षेपन आदान | प्रतिष्ठापनात क्रिया, पांचों समिति विधान || सपरम रसना नासिका, नयन श्रोत का रोध । घट आशि मंजन लजन शयन भूमि को शोध || वस्त्र त्याग केचलोंच अरू, लघु भोजन एक बार दांत मुख में ना करें, ठाउँ लेहि आहार ।।
२. चौदह पूरव को धरे, ग्यारह अङ्ग सुजान | उपाध्याय पच्चीस गुण पढे पहावं ज्ञान ||
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- इसी तरह प्राचार्य नेमिचन्द्र ने द्रश्य संग्रह में उपाध्याय में पाये जाने वाले निम्न गुणों को गिनाया है।
जो रयणसयजुत्तो रिगच्च धम्मोवणसरग गिरदो।
सो उवनाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ||
आचार्य ने साघु कहलाते हैं जो संघ के प्रमुख हैं । जो स्त्रयं व्रतों का आचरण करते है और दूसरों से करवाते है वे ही आचार्य कहलाते है । वे ३६ मूलगों के घारी होते हैं । समन्तमद्र, मट्टाकलक, पात्रकेशरी, प्रमाचन्द्र, वीरसेन, जिनसेन, ग्रुए भद्र आदि सभी प्राचार्य थे।
इस प्रकार आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधू ये तीनों ही मानव को सुमार्ग पर ले जाने वाले हैं । अपने प्रवचनों से उसमें वे जागृति पैदा करते है जिससे वह अपने जीवन का अच्छी तरह विकास कर सके । वे साहित्य निर्माण करते हैं और जनता से उसके अनुसार चलने का आग्रह करते हैं। सम्पूर्ण जन वाङ्मय प्राचार्यों द्वारा निर्मित है।
प्रस्तुत पुस्तक में संवत् १४५० से १७५० सक होने वाले राजस्थान के जैन सन्तों का जीवन एवं उनके साहित्य पर प्रकाश डाला गया है। इन ३०० वर्षों में भट्टारक ही प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु के रूप में जनता द्वारा पूषित थे। ये मट्टारक प्रारम्भ में नग्न होते थे । भट्टारफ सकलकोसि को निर्ग्रन्थराजा कहा गया है। म० सोमकोत्ति अपने आपको भट्टारक के स्थान पर प्राचार्य लिखना अधिक पसन्द करते थे। भट्टारक शुभचन्द्र को मतियों का राजा कहा जाता था । भ. वीरचन्द महाव्रतियों के नायक थे। उन्होंने १६ वर्ष तक नीरस आहार का सेवन किया था। आवां ( राजस्थान ) में भ० शुभचन्द्र, जिनचन्द्र एवं प्रभा चन्द्र की प्रो निषेधिकायें हैं वे तीनों ही नग्नावस्था की ही हैं। इस प्रकार ये भट्टारक अपना माचरण श्रमण परम्परा के पूर्णत: अनुकूल रखते थे। ये अपने संघ के प्रमुख होते थे। तथा उसकी देख रेस्त्र का सारा भार इन पर ही रहता था। इसके संघ में मुनि, ब्रह्मचारी, आयिका भी रहा करती थी। प्रतिष्ठा-महोत्सवों के संचालन में इनका प्रमुख हाथ होता था। इन ३०० वर्षों में इन भट्टारकों के अतिरिक्त अन्य किसी भी साधु का स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रहा और न उसने कोई समाज को दिशा निर्देशन का ही काम किया । इसलिये वे मट्टारक एवं उनके शिष्ण ब्रह्मचारों पद वाले सभी सन्त थे। मंडलाचार्य गुगणचन्द्र के संघ में | आचार्य, १ मुनि, २ ब्रह्मचारी एवं १२ प्राथिकाएं थी। AARAMMAmawwwcommmmmmmmmmmmmmmmmmmHAMARIME-nmanwwwmin ३. द्वादमा तप दश धर्मजुत पाले पञ्चाचार ।
घट आवश्यक गुप्ति भय, अचारज पद सार ।
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जैन साहित्य में सन्त शब्द का अधिक प्रयोग नहीं हुअा है। योगोन्दु ने सर्व प्रथम सन्त शब्द का निम्न प्रकार प्रयोग किया है।
शिगरजरः झारःमः परत:। हारा
जो एहउ सो सन्तु सिउ सासु मुरिणजहि भाउ ॥११६७। यहां सन्त शब्द साधु के लिये ही अधिक प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि लौकिक दृष्टि से हम एक गृहस्थ को जिसकी प्रवृत्तियां जगत से अंलिप्त रहने की होती हैं, तथा जो अपने जीवन को लोकहित की दृष्टि से चलाता है तथा जिसकी गतिविधियों से किसी अन्य प्राणी को भी कष्ट नहीं होता, सन्त कहा जा सकता है लेकिन सन्त शम्प का शुद्ध स्वरूप हमें साधुओं में ही देखने को मिलता है जिनका जीवन ही परहितमय है तथा जो जगत के प्राणियों को अपने पावन जीवन द्वारा सन्मार्ग को ओर लगाते हैं। भट्टारक भी इसीलिये सम्त कहे जाते हैं कि उनका जीवन ही राष्ट्र को प्राध्यात्मिक खुराक देने के लिये समर्पित हो चुका होता है तथा वे देश को साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक दृष्टि से सम्पन्न बनाते है । थे स्थान स्थान पर बिहार करके जन मानस को पावन बनाते है। ये सन्त चाहे भट्टारक वेश में हो या फिर ब्रह्मचारी के वेश में । ब्रह्म जिनदास केवल ब्रह्मचारी थे लेकिन उनका जीवन का चिन्तन एवं मनन अत्यधिक उत्कर्षमय था ।
भारतीय संस्कृति, साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में धन सन्तों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जिस प्रकार हम कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, नानक आदि को संतों के नाम से पुकारते हैं उसी दृष्टि से ये भट्टारक एवं उनके शिष्य भी सन्त थे और उनसे भी अधिक उनके जीवन की यह विशेषता थी कि वे घर गृहस्थी को छोड़कर यात्म विकास के साथ साथ जगते के प्राणियों को भी हित का ध्यान रखते थे । उन्हें अपने शरीर को जरा भो चिन्ता नहीं थी। उनका न कोई शत्रु भा और न कोई मित्र | वे प्रशंसा-निंदा, लाभ-अलाभ, तरण एवं कंचन में समान थे । वे अपने जीवन में सांसारिक पदार्थों से न स्नेह रखते थे और न लोभ तथा भासक्तिः। उनके जीवन में विक्रार, पाप, भय एवं आशा, लालसा भी नहीं होती थी।
थे भट्टारक पूर्णतः संयमी होते थे। भ. विजयकत्ति के संयम को डिगाने के लिये कामदेव ने भी भारी प्रयत्न किये लेकिन अन्त में उसे ही हार माननी पड़ी। विजयकोत्ति अपने संयम की परीक्षा में सफल हुए । इनका प्राहार एवं विहार पूर्णत: श्रमण परम्परा के अन्तर्गत होता था। १५, १६ वीं शताब्दी तो इनके उत्कर्ष की वाताब्दी थी । मुगल बादशाहों तफ ने उनके चरित्र एवं विद्वत्ता की प्रशंसा की थी। उन्हें देश के सभी स्थानों में एवं सभी धर्मावलम्बियों से प्रत्यधिक सम्मान मिलता
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पा। बाद में तो वे जैनों के बाष्यात्मिक राजा कहलाने लगे किन्तुं यही सनके पतन का प्रारम्भिक कदम यां।
जैन सन्तों ने भारतीय साहित्य को अमूल्य कृतियां भेंट की है। उन्होंने सदैव ही लोक भाषा में साहित्य निर्माण किया। प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी माषाओं में रचनायें इनका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न इन्होंने ८ वीं शताब्दी से पूर्व ही लेना प्रारम्भ कर दिया था। मुनि रामसिंह का दोहा पाहुड हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य कृति है जिसकी तुलना में भाषा साहित्य की बहुत कम कृतियों आ सकेंगी। महाकवि तुलसीदास जी को तो १७ वीं शताब्दी में भी हिन्दी भाषा में रामचरित मानस लिखने में झिझक हो रही थी किन्तु इन जैन सन्तों ने उनके .० वर्ष पहले ही साहस के साग प्राचीन हिन्दी में रचनायें लिखना प्रारम्भ कर दिया था ।
जैन सन्तों ने साहित्य के विभिन्न अंगों को गल्लवित किया 1 वे केवल चरित काश्यों के निर्माण में ही नहीं सुलझै किन्तु पुराण, काव्य, देलि, रास, पंचासिका, शतक, पत्रीसी, बावनी, विवाहलो, पाख्यान आदि काव्य को पचासों रूपों को इन्होंने अपना समर्थन दिया और उनमें अपनी रचनायें निर्मित करके उन्हें पल्लवित होने का सुअवसर दिया । यही कारण है कि काव्य के विभिन्न अंगों में इन सन्तों द्वारा निर्मित रचनायें अच्छी संख्या में मिलती हैं।
माध्यात्मिक एवं उपदेशी रचनायें लिखना इन सन्तों को सदा हो प्रिय रहा है । अपने अनुभव के माधार पर जगत की दशा का जो सुन्दर चित्रण इन्होंने अपनी कृतियों में किया है वह प्रत्येक मानव को सत्पथ पर ले जाने वाला है। इन्होंने मानव से जगत से भागने के लिये नहीं कहा किन्तु उस में रहते हुए ही अपने जीवन को सुमुन्नत बनाने का उपदेश दिया। शान्त एवं पाध्यात्मिक रस के अतिरिता इन्होंने बीर, शृंगार, एवं अन्य रमों में भी खूब साहित्य सृजन किया ।
महाकवि वीर द्वारा रचित 'जम्बूस्वामीचरित' (१०७६) एवं भ० रतनफीति द्वारा धीविलासफाग इसी कोटि की रचनायें हैं । रसों के अतिरिक्त छन्दों में जितनी विविधताएं इन सन्तों की रचनाओं में मिलती हैं उतनी पन्यत्र नहीं। इन सन्तों की हिन्दी, राजस्थानी, एवं गुजराती भाषा की रचनायें विविध छन्दों से आप्लाश्रित हैं ।
लेखक का विश्वास है कि भारतीय साहित्य की जितनी अधिक सेवा एवं सुरक्षा इन जन सन्तों ने की है उतनी अधिक सेवा किसी सम्प्रदाय अथवा · धर्म के साधु वर्ग द्वारा नहीं हो सकी है। राजस्थान के इन सन्तों ने स्वयं न तो विविध
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भाषाओं में सैकड़ों हजारों कृतियों का सृजन किया ही किन्तु अपने पूर्ववर्ती आचार्यों, साधुनों, कवियों एवं लेखकों की रचनामों का भी बड़े : प्रेम, श्रद्धा एवं उत्साह से सयह किया । एक एक ग्ध की तनी ही प्रतिमा लिखवा कर ग्रन्थ भण्डारों में विराजमान की और जनता को उन्हें पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिये प्रोत्साहित किया । राजस्थान के आज सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डार उनकी माहित्यिक मेवा के ज्वलंत उदाहरण हैं । जैन सन्त साहित्य संग्रह की दृष्टि से कभी जातिवाद एवं सम्प्रदाय के चक्कर में नहीं पढ़े किन्तु जहां से उन्हें अच्छा एवं कल्याणकारी साहित्य उपलब्ध हुआ वहीं से उसका संग्रह करके शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत किया गया । साहित्य संग्रह की दृष्टि से इन्होंने स्थान स्थान पर ग्रंथ भण्डार स्थापित किये। इन्ही सन्तों की साहित्यिक सेवा के परिणाम स्वरूप राजस्थान के जैन अप भण्डारों में १ लाख से अधिक हस्तलिखित प्रथ' अब भी उपलब्ध होते हैं। ग्रंथ संग्रह के अतिरिक्त इन्होंने जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखित काव्यों एवं अन्य नषों पर दीफा लिख कर उनके पठन पाठन में सहायता पहुंचायी। राजस्थान के जैन मय · भण्डारों में अकेले जैसलमेर के ही ऐसे गय संग्रहालय हैं जिनकी तुलना भारत के किसी भी प्राचीनतम एवं बड़े से बड़े ग्रथ संग्रहालय से की जा सकती है। उनमें संग्रहीत अधिकांश प्रतियां ताडपत्र पर लिझी हुई हैं और वे सभी राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति हैं।
श्वेताम्बर साधु श्री जिनचन्द्र सूरि ने संवत् १४६७ में वृहद् ज्ञान भण्डार की स्थापना करके साहित्य की सैकड़ों अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचा लिया । अकेले जैसलमेर के इन भण्डारों को देखकर कर्नल टाड, डा. वूलर, डा. जैकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वान एवं माण्डारकर, दलाल जैसे भारतीय विद्वान आश्चर्य चकित रह गये थे उन्होंने अपनी दांतों तले छ गुली दवा ली । यदि ये पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् नागौर, अजमेर, प्रामेर एवं जयपुर के शास्त्र भण्डारों को देख लेते तो संदमतः वे इनकी साहित्यिक धरोहर को देखकर नाच उठते और फिर जैन साहित्य एवं जैन संतों की सेवाओं पर न जाने कितनी श्रद्धांजलियां अपित करते। कितने ही मय संग्रहालय तो अब तो ऐसे हो सकते हैं जिनकी किसी भी विद्वान् द्वारा छानबीन नहीं की गई हो । लेखक को राजस्थान के प्रेय मण्डारों पर शोध निबन्ध लिखने एवं श्री महावीर क्षेत्र द्वारा राजस्थान के शास्त्र भंडारों की संथ सूची बनाने के अवसर पर १०० से भी अधिक भण्डारों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। यदि मुनिम युग में धर्मान्ध शासकों द्वारा इन शास्त्र भंडारों का विनाश नहीं किया जाता एप हमारी लापरवाही से सैकड़ों हजारों ग्रंप चूहों, दीमक एवं सीलन
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१. प्रथ भण्डारों का विस्तृत परिचय के लिये लेखक की "जैन ग्रंथ भण्डार्स इन
रामस्थान" पुस्तक देखिये।
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से नष्ट नहीं होते तो पता नहीं माज कितनी अधिक संख्या में इन भंडारों में प्रय उपलब्ध होते । फिर भी जो कुछ अवशिष्ट है ये ही इन सन्तों की साहित्यिक निष्ठा को प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त हैं ।
___ प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान की भूमि को सम्बत् १४५० से १७५० तक पाबन करने वाले सन्तों का परिचय दिया गया है । लेकिन इस प्रदेश में तो प्राचीनतम काल से ही सन्त होते रहे हैं जिन्होंने अपनी सेवाओं द्वारा इस प्रदेश की जनता को जाग्रत किया है । डा. ज्योतिप्रसाद जी' के अनुसार "दिगम्बराम्नाय सम्मत षट् खंडगमादि मूल प्रागमों की सर्व प्रसिद्ध एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण धवल, जयधवल, महाघवल नाम की विशाल टीकाओं के रचयिता प्रातः स्मरणीय स्वामी वीरसेन को जन्म देने का सौभाग्य भी राजस्थान की भूमि को ही प्राप्त है। ये प्राचार्य प्रवर श्री वीरसेन भट्टारक की सम्मानित पदवी के धारक थे। इन्द्रमन्दि वृत्त व तावतार से पता चलता है कि आगम सिद्धान्त के तस्वज श्री एलाचार्य चित्रकूट (चित्तौड़ ) में विराजते थे और उन्ही के चरणों के सानिध्य इन्होंने सिद्धान्तादि का अध्ययन किया था।
जम्बूद्वीपपण्पत्ति के रचयिता आ. पद्मनन्दि राजस्थानी सन्त थे। प्रजाप्ति में २३९८ प्राकृप्त माथाओं में तीन लोकों का वर्णन किया गया है। प्राप्ति की रचना बांरा (कोटा) नगर में हुई थी। इसका रचनाकाल संवत् ८०५ है। उन दिनों मेनाष्ट्र पर राजा शक्ति या सत्ति का शासन था और द्वारा नगर मेवाड़ के अधीन था। नयकार ने अपने आपको वीरनन्दि का प्रशिष्य एवं बलनन्दि के शिष्य लिखा है । १० वीं शताब्दी में होने वाले हरिभद्र मूरि राजस्थान के दूसरे सन्न थे जो प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के जबरदस्त विद्वान् थे। इनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था । आगम नथों पर इनका पूर्ण अधिकार था। इन्होंने अनुयोगद्वार मूत्र, आवश्यक सूत्र, दशवकालिक सूत्र, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना सुत्र आदि आगम ग्रथों पर संस्कृत में विस्तृत टोकाएं लिथी और उनके स्वाध्याय में वृद्धि की। न्याय शास्त्र के ये प्रकाण्ड विद्वान् थे इसीलिये उन्होंने अनेकान्त जयपताका, अनकान्तवादप्रवेश जैसे दार्शनिक प्रयों की रचना की। समराइच्चकहा प्राकृत मापा की सुन्दर बाथाकृति है जो इन्हीं के द्वारा गध पद्य दोनों में लिखी हुई है। इसमें ९ प्रकरण हैं जिनमें परस्पर विरोधी दो पुरुषों के साथ साथ चलने वाले ६ जन्मान्तरों का वर्णन किया गया है । इराका प्राकृतिक यर्णन एवं भाषा चित्रण दोनों हो सुन्दर है । भूख्यिान भी इनफी अच्छी रचना है। हरि मद्र के 'योग बिन्दु' एवं 'योगदृष्टि' समुच्क्य मी दर्शन शास्त्र की मच्छी रचनायें मानी जाती है ।
१. देखिये वीरवाणी का राजस्थान जैन साहित्य सेवी विशेषांक पृष् सं०६ .
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महेश्वरसूरि भी राजस्थानी श्वे. सन्त थे । इनकी प्राकृत भाषा को 'ज्ञान पंचमी कहा' तथा अपभ्रश की 'संयममंजरी कहा' प्रसिव रचनायें है। दोनों ही कृतियों में कितनी ही सुन्दर कथाएं हैं जो जैन दृष्टिकोण से लिखी गई हैं।
संवत् १७१० के पश्चात् इन सन्तों का साहित्य निर्माण की पोर ध्यान कम होता गया और ये अपना अधिकांश समय प्रतिष्ठा महोत्सवों के आयोजन में, विधि विधान तथा प्रतोद्यापन सम्पन्न कराने में लगाने लगे। इनके अतिरिक्त ये वाह्य क्रियामों के पालन करने में इतने अधिक जोर देने लगे कि जन साधारण का इनके प्रति मक्ति, श्रवा एवं प्रादर का भाव कम होने लगा। इन सन्तों की मामेर, अजमेर, नागौर, झंगरपुर, ऋषमदेव मादि स्थानों में गादियां प्रावश्य थी और एक के पश्चात् दुसरे. मट्टारक भी होते रहे लेकिन जो प्रभाव म. सकलकीति, जिनचन्द्र, शुभना भादि का कभी रहा था उसे ये सन्त रख नहीं सके । १८ वीं एवं १६ वीं शताब्दी में श्रावक समाज में विद्वानों की जो माढ सी आयी थी और जिसका नेतृत्व महापंडित टोबरमल जी ने किया था उससे भी इन भटारकों के प्रभाव में कमी होती गई क्योंकि इन दो शताब्दी में होने वाले प्रायः सभी विद्वान उन भट्टारकों के विरुद्ध थें । दिगम्बर समाज में "तेरहपंध" के नाम से जिस नवे पंथ ने जन्म लिया था वह भी इन सन्नों द्वारा समर्थित बाह्माचार के विरूद्ध था लेकिन इन सब विरोधों के होने पर भी विचार समाज में सन्त के रूप में मारक परम्परा चलती रही। यद्यपि इन सन्तो ने साहित्य निर्माण की पोर प्रधिक ध्यान नहीं दिया लेकिन प्रावीन साहित्य की जो कुछ सुरक्षा हो सकी है उसमें इनका प्रमुख हाथ रहा । नागौर, अजमेर, आमेर एवं जयपुर के भण्डारों में जिस विशाल साहित्य का संग्रह है वह सब इन सन्तों द्वारा की गई साहित्य सुरक्षा का ही तो सुफल है इसलिये किसी भी दृष्टि से इनकी सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता ।
मामेर गादी से सम्बन्धित भ. देवेन्द्रकीति, महेन्द्रकीति, क्षेमेन्द्रकीत्ति, सुरेन्द्रकीत्ति एवं नरेन्द्रकीति, नागौर गादी पर होने वाले भ० रत्नकीति ( सं० १७४५) एवं विजयकीति (१८.२) प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं। म. विजयकत्ति अपने समय के अच्छे विद्वान थे पोर प्रब सफ उनकी कितनी ही कृतियां उपलब्ध हो चुकी है इनमें कार्णामृतपुराण, श्रेरिणचरित, जम्बूस्वामीचरित मादि के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है।
साहित्य सुरक्षा के अतिरिक्त इन सन्तों ने प्राचीन मन्दिरों के जीर्णोद्वार एवं नवीन मन्दिरों के निर्माण में विशेष योग दिया। १८ वीं एनं १९ वीं शताब्दी में संकड़ों विम्वप्रतिष्ठायें सम्पन्न हुई और इन्होंने उनमें विशेष रूप से भाग लेकर उन्हें सफल साने का पूरा प्रयास किया। ये ही उन. मायोजनों के विशेष अतिथि
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थे। संवत् १७४६ में चांदखेड़ी में भारी प्रतिष्ठा हुई थी उसका वर्णन एक पट्टावली में दिया हुग्रा है जिससे पता चलता है कि समाज के एक वर्ग के विरोध के उपरांत भी ऐसे समारोहों में इन्हें ही विशेष अतिथि बनाकर आमन्त्रित किया जाता था। जोबनेर ( संवत् १५५१ ) बांसखो । संवत् १७८३) मारोठ (सं० १७६४ ) बून्दी (सं० १७८१ ) समाई माधोपुर ( सं० १८२६) अजमेर ( सं १८५२, जयपुर ( सं० १८६१ एवं १.६७ ) प्रादि स्थानों में जो सांस्कृतिक प्रतिष्ठा प्रायोजन सम्पन्न हुए थे उन सबमें इन सन्तों का विशेष हाथ था।
प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में जैन सन्तों पर एक पुस्तक लेवार करने का पर्याप्त समय से विचार चान रहा था क्योंकि जब काभी गन्त साहित्य पर प्रकाशित होने वाली पुस्तक देखने में आतो और उस में जैन सन्तों के बारे में कोई भी उल्लेख नहीं देन कर हिन्दी विद्वानों के इनके साहित्य की उपेक्षा से दुःख भी होता किन्तु साथ में यह भी मोवना कि जब तक उनको कोई सामग्री ही उपलब्ध नहीं होती तब तक यह उपेक्षा इसी प्रकार चलती रहेगी । इसलिए सर्व प्रथम राजस्थान के जैन सन्तों के जीवन एवं उनकी साहित्य सेवा पर लिखने का निश्चय किया गया। किन्तु प्राचीनकाल से ही होने वाले इन सन्नों का एक हो पुस्तक में परिचय दिया जाना सम्भव नहीं था इसलिए संवत् १४५० से १७५० तक का समय ही अधिक उपयुक्त समझा गया क्योंकि यही समय इन सन्तों ( भट्टारकों ) का स्वर्ण काल रहा था इन ३०० वर्षों में जो प्रभावना, त्याग एवं साहित्य सेवा की धुन इन सन्तों की रही वह सबको प्रापनान्वित करने वाली है।
पुस्तक में ५४ जैन सन्तों के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है। इनमें कुछ सन्तों का तो पाठकों को संभवतः प्रथम बार परिचय प्राप्त होगा। इन सन्सों ने अपने जीवन विकास के साथ साथ जन जागृति के लिए किस किस प्रकार के साहित्य का निर्माण किया वह सब पुस्तक में प्रयुक्त सामग्री से भली प्रकार जाना जा सकता है। वास्तव में ये सच्चे अर्थों में सन्त थे। अपने स्वयं के जीवन को पवित्र करने के पश्चात् उन्होंने जगत को उसी मार्ग पर चलने का उपदेश दिया था । वे सच्चे अर्थ में साहित्य एवं धर्म प्रचारक थे। उन्होंने मतिः काव्यों की ही रचना नहीं की किन्तु भक्ति के अतिरिक्त अध्यात्म, सदाचररए एन महापुरुषों के जीवन के श्रापार पर भी कृतियों लिखने और उनके पठन पाठन का प्रचार किया। वे कमी एक स्थान पर जम कर नहीं रहे किन्तु देश के विभिन्न ग्राम नगरों में विहार करके जन जाति का शवनाद फूका । पुस्तक के अन्त में कुछ लघु रचनायें एव कुछ रचनात्रों के प्रमुख स्थलों को अविकल रूप से दिया गया है। जिससे विज्ञान एवं पादक इन रचनाओं का सहज नाक से आनन्द ले सके।
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( द )
आमार
सर्वे प्रथम में वर्तमान जैन सन्त पूज्य मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज का प्रत्यधिक आभारी हूं जिन्होंने पुस्तक पर आशीर्वाद के रूप में अपना श्रभिमत लिखने की कृपा की है ।
यह कृति श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी के साहित्य शोध विभाग का प्रकाशन है इसके लिये मैं क्षेत्र प्रबन्ध कारिणी कमेटी के सभी माननीय सदस्यों तथा विशेषतः सभापति डा० राजमलजी कासलीवाल एवं मंत्री श्री गंदीलालजी साह एडवोकेट का आभारी हूं जिनके सद् प्रयत्नों से क्षेत्र की ओर से प्राचीन साहित्य के खोज एवं उसके प्रकाशन जैसा महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित हो रहा है । वास्तव में क्षेत्र कमेटी ने समाज को इस दिशा में अपना नेतृत्व प्रदान किया है । पुस्तक की भूमिका श्रावरणीय डा० सत्येन्द्र जो अध्यक्ष हिन्दी विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय में लिखने की महती कृपा की है। डॉक्टर साहब का मुझे काफी समय से पर्याप्त स्नेह एवं साहित्यिक कार्यों में निर्देशन मिलता रहता है इसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूं में मेरे सहयोगी श्री मी पूर्ण आभारी हूं जिन्होंने पुस्तक को तैयार करने में है । मैं श्री प्रेमचन्द रोवका का भी आभारी हूं जिन्होंने इसकी अनुक्रम रिकार्य
t
अनुपचन्द जी न्यायतीर्थं फा
अपना पूर्ण सहयोग दिया
तैयार की हैं।
दिनांक १-६-६:५
डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल
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* विषय सूची *
पृष्ठ संख्या
२२–३६ ३६-४६
६३-६६ ७०-८२
१३-१०५ १०६-११२
क्रम सं० नाम
प्रकाशकीय भूमिका प्रस्तावना
शताब्दि क्रमानुसार सन्तों की सूची १. भट्टारक सकलकात्ति २. ब्रह्म जिनदास ३. प्राचार्य सोमकीति ४. भट्टारक ज्ञानभूषण ५. भ. विजयकीति ६. ब्रह्म बूचराज ७. संत कवि अशोधर ८. भट्टारक भचन्द्र ( प्रथम ) ६. सन्त शिरोमरिण वीरचन्द्र १०. संत सुमतिकीति ११. ब्रह्म राममल्ल १२. मट्टार क रत्नकोति १३. धार होली के सन्त कुमुदचन्द्र १४. मुनि अभय चन्द्र १५. ब्रह्म जयसागर १६. प्राचार्य चन्द्रकोति
म. शुभचन्द्र ( द्वितीय ) १८. भट्टारक नरेन्द्रकीत्ति
भ० सुरेन्द्र कात्ति २०. भ. जगत्कीति २१. मुनि महनन्दि २२. म. सुदन कीति २३. भ. जिनचन्द्र २४. मट्टारक प्रभाचन्द्र २५. अ० गुणकीति
११८-१२६ १२५-१३४ १३५-१४७ १४८-१५२ १५३-१५५ १५६-१५६ १६०-१६४ १६५-१६८ १६९-१७० १७१-१७२
१७५-१८० १८०-१८३ १८३-१८६ १८६
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२६. आचार्य जिनसेन
२७.
ब्रह्म जीवन्धर
२८.
ब्रह्म धर्म
२९.
भ० श्रमयनन्दि
३०.
न० जयराज
३१. सुमतिसागर ६२. ब्रह्म गणेश
३३. संयम सागर
३४. त्रिभुवनकीति
३५. भट्टारक रत्नचन्द (प्रथम)
३६.
अ० अजित
आचायं नरेन्द्रकीत्ति
३८.
३९. कल्याराको सि ४०. भट्टारक महीचन्द्र
४१. ब्र० कपूरचन्द
४२. हर्ष की लि
४३. म० सकलभूषण ४४. मुनि राजचन्द्र
४५. ब्र० धर्मसागर
४६. विद्यासागर
४७. म० रत्नचन्द (द्वितीय )
४८. विद्याभूषण
४६. ज्ञानकीति
५०. मुनि सुन्दरसूरि
५१. महोपाध्याय जयसागर
५२. वाचक मतिशेखर
५३. हीरानन्दसूरि
५४.
वाचक विनयसमुद्र
ई सं १
कतिपय लघु कृतियां एवं उद्धरण
म० सकलकोत्ति
अ० [जिनदास
आचार्य सोमकीर्ति
१. सारखीखामपिरास
२. सम्यक्त्व - मिथ्यात्व रास २. गुर्वावि
१८६-१८७
१८८
१८८-१८९
१९०
१९० - १९१
१६१ - १६२
૨૨
१९१-१६३
૨૬૧-૨૨૪
{"
१६५ - १६६
१६६
१६७
१९८ - २०२
२०२-२०६
२०६
२०६-२०७
२०७
२०७-२०८
२०८ - २०६
२०९
२०६ - २११
२११
२११-२१२
२१२
२१२
२१२-२१३
२१३ – २१४
२१५–२१९
२२०-२२५
२२६-२२८
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४. प्रादीश्वरफाग ५. सन्तोष जयतिलक ६. बलिभ चौपाई ७. महावीर छन्द ८. विजमकीत्ति छन्द २. बोर बिज़ारा फाग १०. पद
शानभूषण ब्र. वचराज वयशोधर भ० शुभचन्द्र
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२२६-२३३ २३४-२५३ २५४-२५७ २५८-२६२ २६२-२६६ २६६-२७० २७०-२७१ २७२-२७४ २७५ २७६-२७७ २७८-२८०
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वीरचन्द रत्नकीत्ति
कुमुदचन्द्र
१२. चन्दा गीत १३. चुनडी गीत १४. हंस तिलक रास
ग्रंथामुक्रमणिका प्रयकारानुमणिका नगर-नामानुक्रमणिका शुद्धाशुद्धि पत्र
म. प्रभयचन्द्र ७. जयसागर अ. भजित
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शताब्दि क्रमानुसार सन्तों की नामावलि
-:
:
१५ वीं शताब्दि
नाम
संवत्
१४४३-१४६४ १४४५–१५१५
भट्टारक सकस कोत्ति ब्रह्म जिनदास मुनि महनन्दि महोपाध्याय जयसागर हीरानन्द सूरि .
१४५०–१५१० १४८४
१६ वीं शताब्दि
१५०८
१५०७
१५२६-४०
भट्टारक भुवनकोति भट्टारक जिनचन्द्र भाचार्य सोमकोत्ति भट्टारक ज्ञानभूषण ब्रह्म भूधराज आचार्य जिनसेन भट्टारक प्रभाचन्द्र ब्रह्मा गुणकोति भट्टारक विजयकोत्ति संत कवि यशोधर मुनि सुन्धरसूरि ब्रह्मा जीपंधर ब्रह्म धर्म गधि
१५ -१६०० १५५८ १५७१
१५५२-१५७० १५२०-६० १५०१
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विद्याभूषण वाचक मतिशेखर पाचक विनयसमुप भट्टारक शुभचन्न ( प्रथम )
१६०० १५१४ ११३८ १५४०--१६१३
१७वीं शताब्दि
१५८०-१६५५
१६२० १६१५ -१६३६
१६४०
१६३०
१६०० - १६६५
ब्रह्म जयसागर खीरचन्द्र सुमतिकोति ब्रह्म रायमल्ल भट्टारक रनकोत्ति भट्टारक कुमुवचन्द्र अभयचन्द्र आचार्य चन्द्रकीत्ति भट्टारक अभयनन्धि बह जयराम सुमतिसरगर ब्रह्म गणेश संयमसागर त्रिभुवनकोत्ति भट्टारक रत्तचन्द्र (प्रथम) ब्राह्म अजित आचार्य नरेन्द्र कात्ति कल्याणकोक्ति भट्टारक महोचन्द्र ब्रह्म कपूरसन्न हर्षकीति भट्टारक सफलभूषण
१६०६ १६७६ १६४६ १६४६
१६६७
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मुनि राजचन्द्र ज्ञानकोति
महोपाध्याय समय सुन्वर
( न )
१८ वीं शताब्दि
भट्टारक शुभ (द्वितीय)
ब्रह्म धर्मसागर
विद्यासागर
भट्टारक रश्नचन्द्र (द्वितीय)
भट्टारक नरेन्द्रकीति
भट्टारक सुरेन्द्रकोत्त भट्टारक जगत्कीति
-:: $: $
१६८४
१६५६
१६२०-१७००
१७४५
-
१७५७
१६९१ – १७२२
१७२२
१७३३
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भट्टारक सकलकोत्ति
भट्टारक स काल काति १५ वी शताब्दी के प्रमुख जन सन्त थे। राजस्थान एवं गुजरात में 'जन साहित्य एवं संस्कृति' का जो जबरदस्त प्रचार एवं प्रसार हो सका था- उसमें इनका प्रमुख योगदान था। इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य को नष्ट होने से बचाया और देश में उसके प्रति एक अद्भुत आकर्षण पैदा किया। उनके हुदर में आत्म साधना के साथ साध साहित्य-रोवा को उत्वाट अभिलापा थी इसलिए युवावस्था के प्रारम्भ में ही जगत के वैभव को टुकरा बर सन्यास धारण कर लिया। पहिले इन्होंने अपनी ज्ञान पिपापा को शान्त दिया और फिर बीमों नव निमित रचनात्रों के द्वारा समाज एवं देश को एक नया ज्ञान प्रकाश दिया । वे जब तक जीवित रहे, तब तक देश में और विशेषतः बागड़ प्रदेश एवं गुजरात के कुछ भागों में माहित्यिक एवं सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद फूकते रहे ।
'सकलकोत्ति' अनोखे सन्त थे । अपने धर्म के प्रति उनमें गहरी आस्था थी। जब उन्होंने लोगों में फैले अज्ञानान्धकार को देखा तो उनमें चुप नहीं रहा गया और जीवन पर्यन्त देश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करके तत्कालीन ममाज में एक नव जागरण का सूत्रपात किया। स्थान स्थान पर उन्होंने ग्रंथ संग्रहालय स्थापित किए जिनमें उनके शिष्य एवं प्रशिज्य साहित्य लेखन एवं प्रचार का कार्य करते रहते थे । उन्होंने अपने शिष्यों को साहित्य-निर्माण की ओर प्रेरित किया । वे महान् व्यक्तित्व के धनी थे । जहाँ भी उनका विहार होता वहीं एक अनोखा हेक्ष्य उपस्थित हो जाता था । साहित्य एवं संस्कृति को रक्षा के लिए लोगों की की टोलियां बन जालीं और उन के साथ रहकर इनका प्रचार किया पारती ।
जीवन परिचय 'सन्त सकाल कीति' का जन्म संवत् १४४३ (मन १३८६) में हुआ था।" 310 प्रेमसागर जी ने "हिन्दी जैन भक्ति-काव्य पौर कवि' में सकलकी त्ति का संवत् १४४४ में ईडर गद्दी पर बैठने का जो उल्लेख किया है वह सकलकीति रास के अनुसार सही प्रतीत नहीं होता । इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोमा था। 2 अरणहिलपुर पट्टण के रहने वाले थे। इनकी जाति
१. हरषो सुणीय सूवाणि पालइ अन्य ऊरि सुपर ।
चौऊद त्रिताल प्रमाणि पूइ दिन पुत्र जनमीउ ।।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हूँबड़ थी । होनहार विरवान के होत चीकने पान' कहावत के अनुसार गर्भाधारण के पश्चात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह ने इस प्रकार कहा -
"तजि वयण सुरिगसार, सार कुमर तुम्ह होइसिइए । निर्मल गंगातीर, चंदन नंदन तुम्ह तणुए ||६|| जलनिधि गहिर गंभीर खीरोपम सोहा मणुए। ते जिहि तरण प्रकाश जग उद्योतन जस किररिंग ॥१०॥
बालक का नाम 'पूनसिंह' अथवा 'पूर्णसिंह' रखा गया। एक पट्टावलि में इनका नाम 'पद' भी दिया हुअा है। द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रति दिन बढ़ने लगा ! उसका वर्ण राजहंस के समान शुभ्र था तथा शरीर बत्तीस लक्षणों से युक्त था। पांच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया। बालक कुशाग्र बुद्धि का था इसलिए शीघ्र ही उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया। विद्यार्थी अवस्था में भी इनका प्रहद् भक्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था तथा क्षमा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य आदि वर्मा को जीवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे। गार्हस्थ जीवन के प्रति विरक्ति देखकर माता-पिता ने उनका १४ वर्ष की अवस्था में ही विवाह कर दिया लेकिन विवाह बंधन में बांधने के पश्चात् भी उनका मन संसार में नहीं लगा और चे उदासीन रहने लगे। पुत्र की गति-विधियां देखकर माता-पिता ने उन्हें बहुत समझाया और कहा कि उनके पास जो अपार सम्पत्ति है, महल-मकान है, नौकर-चाकर हैं, उसके वैराग्य धारण करने के पश्चात् - वह किस काम आवेगा ? यौवनावस्था सांसरिक सुखों के भोग के लिए होती है ! संयम का तो पीछे भी पालन किया जा सकता है । पुत्र एवं मातापिता के मध्य बहुत दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा । २ थे उन्हें साधु-जीवन की
१. त्यति मांहि मुहतवंत हूंवड़ हरषि वखारिणइए।
करमसिंह वित्तपन्न उदयवंत इम जाणीइए ।। ३ ।। शोभित तरस अरर्धागि, मुलि सरीस्य सुदरीय । सील स्यंगारित अङ्गि पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीय ।। ४ ।।
-सकलकोतिरास २. देवि चंचल चित्त मात पिता कहि बछ सुरिण ।
ब्रह्म मंदिर बहु वित्त प्राविसिइ कारण कावण ।। २० ॥ लहुप्रा लीलावंत सुख भोगवि संसार तणाएँ । पछइ दिवस बहूत अछिइ रॉयम तप तगाए ॥ २१ !!
-सकलकीतिरास
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भ. सकलकीति
कदिनाइयों की ओर संकेत करते तथा कभी कभी अपनी वृद्धावस्था का भी रोनारोते लेकिन पूर्णसिंह के कुछ समझ में नहीं आता और के बारबार साधु-जीवन धारण करने की उनसे स्वीकृति मांगते रहते ।'
अन्त में पुत्र की विजय हुई और पूर्ण सिंह ने २६ वें वर्ष में अपार सम्पत्ति को तिलाञ्जलि देकर साधु-जीवन अपना लिया। वे प्रात्मकल्याण के साथ साथ जगत्कल्याण की ओर चल पड़े । 'भट्टारक सकलकीत्तिनु रास' के अनुसार उनकी इस समय केवल १८ वर्ष की आयु थी। उस समय भ० पानन्दि का मुख्य केन्द्र नावां (राजस्थान) था और वे आगम ग्रन्थों के पारगामी विद्वान माने जाते थे इसलिए ये भी नंगाघां चले गये और उनके शिष्य बन कर अध्ययन करने लगे। यह उनके साधु जीवन की प्रथम पद यात्रा थी। वहां ये प्राट वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत के ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया, उनके मर्म को समझा और भविष्य में सत-साहित्य का प्रचार-प्रसार ही अपना एक उद्देश्य बना लिया । ३४ वें वर्ष में उन्होंने आचार्य पदवी ग्रहण की और अपना नाम सफलकोत्ति रख लिया ।
नगवां से पुनः वागड़ प्रदेश में आने के पश्चात ये सर्व प्रथम जन-साधारण में साहित्यिक चेतना जाग्रत करने के निमित्त स्थान स्थान पर बिहार करने लगे । एक बार वे खोड़ण नगर आये और नगर के बाहर उद्यान में ध्यान लगाकर बैठ गए । उधर नगर से आई हुई एक बालिका ने जब नग्न माधु को ध्यानस्थ बैठे देखा तो घर जा कर उसने अपनी सास से जिन शब्दों में निवेदन किया--उसका एक पट्टावलि में निम्न प्रकार वर्णन मिलता है:
"एक श्राविका पांगी गया हप्तां तो पांगी मरीने ते मारग प्राच्या ने थाविका स्वामी समो जो हो रहा लेने मन में विचार कर्यो ते भारी सासुजी यात कहेता इता तो वा साधु दीरो थे, ते श्राविका उतावेलि जाई ने पोनी सासुजी ने बात कही जी। सासूजी एक बात कहू ते सचिलो जी । ते मासू कही सु कहे छ बहु । सासूजी एक साधु जीनो प्रसाद छ तेहा साघूजी बैठा छ जी ते कने एक काठ का बर. लन छ जी। एक मोरना पीछीका छे जी तथा साधु बैठा छा जी I तारे सासु ये मन में वीचार करिने रया नी । अहो बहु । रिषि मुनि माया हो से।
१. वयरिण जि सुरवि, पून पिता प्रति इम कहिए । निज मन सुविस करेवि, धीरने तर तप गहए ॥ २२ ।। ज्योवन गिइ गमार, पछइ पालइ सीयल घरणा । ते बहु कबरण विचार विण अवसर जे वरसीयिए । २३ ।।
सकलकोतिरास
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ___ एचो कहिने सासू उठी। से पछे साधुजी ने पासे प्राध्याजी । से त्रीण प्रदक्षणा देने बेठा मुनि उलझ्या मन में हरक्ष्या ते पछे नमोस्तु नमोस्तु कारने श्री गुरुवन्दना भक्ति की थी। पछे श्री स्वामीजी ने मनवत लीघो हतोते तो पोताना पुन्य थकी श्रावीका पालो श्री स्वामी जी धर्मवृधी दीधी।"
विहार : 'सकलकीति' का वास्तविक साधु जीयन सवत् १४७७ से प्रारम्भ होकर संवत् १४९९ तके रहा । मन २२ वर्षों में इन्होंने मुख्य रूप से राजस्थान के उदयपुरगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ प्रादि राज्यों एवं गुजरात प्रान्त के राजस्थान के समीपस्थ प्रदेश में खूब बिहार किया। उस समय जन साधारण के जीवन में धर्म के प्रति काफी शिथिलता प्रागई थी । साधु संतों के विहार का प्रभाव श्रा । जन-साधारण की न तो स्वाध्याय के प्रति रुचि रही थी और न उन्हें सरल भाषा में साहित्य ही उपलब्ध होता था। इसलिए सर्व प्रथम सकलक्रीत्ति ने उन प्रदेशों में विहार किया और सारी समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया । हसी उद्देश्य से उन्होंने कितनी ही मात्रा-संघों का नेतृत्व किया । सर्व प्रथम 'संघ पति सींह' के साथ गिरिनार यात्रा आरम्भ की। फिर वे चंपानेर की पोर यात्रा करने निकले । वहां से आने के पश्चात हंबड़ जातीय रतना के साथ मांगीतुगी की यात्रा को प्रस्थान किया । इसके पश्चात् उन्होंने अन्य तीर्थों की वन्दना की। जिससे राजस्थान एवं गुजरात में एक चेतना की लहर दौड़ गयी ।
प्रतिष्ठाओं का आयोजन तीर्थयात्राओं के समाप्त होने के पश्चात 'सकलकोति' ने नव मन्दिर निर्माण एवं प्रतिष्ठा करवाने का कार्य हाथ में लिया। उन्होंने अपने जीवन में १४ बिम्ब प्रतिष्ठानों का सञ्चालन किया । इस कार्य में योग देने वालों में मंघाति नरपाल एवं उनकी पत्नी बहुरानी का नाम विदोषनः उल्लेखनीय है। गलियाकोट में संवपति गुलराज ने इन्हीं के उपदेश से चतुर्विंशति जिन बिम्ब की स्थापना की थी । नागद्रह जाति के श्रावक संपत्ति ठाकुरसिंह ने भी कितनी ही बिम्बा प्रतिक्षाओं में योग दिया । बाबू नगर में उन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सव का सञ्चालन किया था जिसमें तीन चौवीसी की एक विशाल प्रतिमा परिकर सहित स्थापित की गई।
सन्त सकलकीति द्वारा संवत १४९०, १४९२, १४९७ आदि संवतों में प्रतिष्ठापित मुत्तियां उदयपुर, डूगरपुर एवं सागवाड़ा आदि स्थानों के जैन मन्दिर में मिलती है । प्रतिष्ठा महोत्सवों के इन आयोजनों से तत्कालीन समाज में जनजागति की जो भावना उत्पन्न हुई थी, उसने उन प्रदेशों में जैन धर्म एवं संस्कृति को जीवित रखने में अपना पूरा योग दिया । १. पवर प्रासाद आब्बू सहिरे त स परिकरि जिनवर त्रिणी चउवीस । त स कीघो प्रतिष्धा तेह तणोए, गुरि मेलवि चउविध संध्य सरीस ।।
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म० सकल फीति
व्यक्तित्व एवं पाण्डित्य :
भट्टारक सकलको ति असाधारण व्यक्तित्व वाले सन्त थे। इन्होंने जिन २ परम्पराओं की नींव रखी, उनका बाद में खूब विकास हुआ। प्रध्ययन गंभीर थाइसलिए कोई भी विद्वान इनके सामने नहीं टिक सकता था। प्राकृत एवं संस्कृत भाषानों पर इनका समान अधिकार था । ब्रह्म जिनदास एवं म. भुवनकीति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना ही इनके प्रबल पाण्डित्य का सूचक है । इनकी वाणी में जादू था इसलिए जहां भी इनका विहार हो जाता था-वहीं इनके संकडों भक्त बन जाते थे । ये स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने शिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान् बनाया । ब्रह्म जिनदास ने अपने जम्बू स्वामी चरित्र में इनको महाकवि, निन्थ राजा एवं शुद्ध चरित्रधारी' तथा हरिवंश पुराण में तपोनिधि एवं निन्य थष्ठ आदि उपाधियों से सम्बोधित किया है।
भट्टारक सकलभूषण ने अपने उपदेश रत्नमाला की प्रशस्ति में कहा है कि सकलकत्ति जन-जन का चित्त स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्य मूर्तिस्वरूप थे तथा पुराण ग्रन्थों के रचयिता थे । ३
इसी तरह भट्टारक गुमचन्द्र ने 'सकलकीति' को पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध नेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके बाद होने वाले प्रायः सभी मट्टारक ‘सन्तों ने सानालकीति के व्यक्तित्व एवं विद्वता को भारी प्रशंसा की है । ये भट्टारक थे किन्तु मुनि नाम से भी अपने-अापको सम्बोधित करते थे । 'धन्यकुमार चरित्र' ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने-आपका 'मुनि सकलकीति' नाम से परिचय दिया है।
ये स्वयं रहते भी नग्न अवस्था में ही थे और इसीलिए ये निग्रन्धकार अथवा 'निर्गन्थराज' के नाम से भी अपने शिष्यों द्वारा सम्बोधित किये गए हैं। इन्होंने बागड़ प्रदेश में जहां भट्टारकों का कोई प्रभाव नहीं था-संवत् १४९२ में गलियाकोट
१. ततो भवत्तस्य जगत्प्रसिद्ध : पट्ट मनोज्ञे सकलादिकोत्तिः । महाकविः शुद्धचरित्रधारी निन्धराजा जगति प्रतापी ।।
___ जम्मूस्वामीचरित्र २. तत्पटपंफेजविकासभास्वान बभव निग्रन्थवरः प्रतापो । महाकवित्वादिकलाप्रवीण: तपोनिधिः श्री सकलादिकीसिः ॥
हरिवंश पुराण ३. तत्पधारी जनचिसहारी पुराणमुख्योत्तमशास्त्रकारी। भट्टारकीसकलादिकोत्तिः प्रसिद्धनामा जनि पुण्यमूतिः ॥२१६॥
-उपदेश रत्नमाला सकलभूषण
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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
में एक भट्टारक गादी की स्थापना की और अपने-प्रापको सरस्वती गच्छ एवं बलात्कारगण की परम्परा में भट्टारक घोषित किया । ये उत्कृष्ट तपस्वी थे तथा अपने जीवन में इन्होंने कितने ही प्रतों का पालन किया था।
सफलकोत्ति ने जनता को जो कुछ चारित्र सम्बन्धी उपदेश दिया, पहिले उसे अपने जीवन में उतारा। : २ वाई केक कोर्ट से समय में ३५ से अधिक ग्रन्थों की रचना, विविध ग्रामों एवं नगरों में बिहार, भारत के राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश प्रादि प्रदेवों के तीर्थों की पद यात्रा एवं विविध व्रतों का पालन केवल सकलकी त्ति जैसे महा विद्वान् एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले साव से ही सम्पन्न हो सकते थे । इस प्रकार ये श्रद्धा. शान एवं बारित्र से विभूषित उत्कृष्ट एवं अकर्षक व्यक्तित्व वाले साघु थे ।
शिष्य-परम्परा भट्टारक सकलकोत्ति के कुल कितने शिष्य थे इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन एक पदावली के अनुसार इनके स्वर्गवास के पश्चात इनके शिष्य धर्मकीत्ति ने नोतनपुर में भट्टारक गद्दी स्थापित की । फिर विमलेन्द्र कात्ति भट्टारक हुये और १२ वर्ष तक इस पद पर रहे। इनके पश्चात् घाँतरी गांव में सब श्रावकों ने मिलकर संघवी सोमरास श्रावक को भट्टारक दीक्षा दी तथा उनका नाम भुवनकीत्ति रखा गया । लेकिन अन्य पट्टायलियों में एवं इस परम्परा होने वाले सन्नों के ग्रन्थों को प्रशस्तियों में सुधनकोत्ति के अतिरिक्त और किसी मट्टारक का उल्लेख नहीं मिलता। स्वयं भ. भुवनकीति, ब्रह्म जिनदास, ज्ञानभूपण, शुभचंद प्रादि सभी सन्तों ने भुवनकीत्ति को ही इनका प्रमुख शिष्य होना माना है। यह हो सकता है कि भुवनफीत्ति ने अपने आपको सकलकीति से सीधा सम्बन्ध बतलाने के लिये उक्त दोनों सन्तों के नामों के उल्लेख करने को परम्परा को नहीं डालना चाहा हो। भुवन कीत्ति के अतिरिक्त सकल क्रोत्ति के प्रमुख शिष्यों में ब्रह्म जिनदास का नाम उल्लेखनीय है जो संघ के सभी महाव्रती एवं ब्रह्मचारियों के प्रमुख थे । ये भी अपने गुरू के समान ही संस्कृत एवं राजस्थानी के प्रचंड विद्वान थे और साहित्य में विशेष रुचि रखते थे। 'सकल कीत्तिनुरास' में भुवनको त्ति एवं ब्रह्म जिन दास के अतिरिक्त ललितकीति के नाम का और उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त उनके संघ में आर्यिका एवं क्षुल्लिकायें थी ऐसा भी लिखा है 1 १
१. आवि शिष्य आचारिजहि गुरि बोखीया भूतलि भुवनकीत्ति ।
जयवन्त श्री जगतगुरु गुरि धोखीया ललितकोक्ति ।। महावती ब्रह्मचारी घणा जिणवास गोलागार प्रमुख अपार । अजिका भुल्लिका सयलसंघ गुरु सोभित सहित सफल परिवार ।।
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भः सकलकीति
मृत्यु एक पट्टावलि के अनुसार भ, सफलकोत्ति ५६ वर्ष तक जीवित रहे। संवत् १४६९ में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुआ। पं. परमानन्दजी शास्त्री ने भी 'प्रशस्ति संग्रह' में इनको मृत्यु पंवत् १४९९ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है । डा. ज्योतिप्रसाद जैन एवं डा. प्रेमसागर भी इसी संबत् को सही मानते हैं। लेकिन डा. ज्योतिप्रसाद इनका पूरा जीवन ८१ वर्ष का स्वीकार करते हैं जो अब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार यह सही नहीं जान पड़ता । 'सकलकोतिरास' में उनकी विस्तृत जीवन गाथा है। उसमें स्पष्ट रूप से संवत १४४३ को जन्म संवत् माना गया है।
___ संवत् १४७१ से प्रारम्भ एक पट्टावलि में भ. सकलकीति को भ, पद्यनन्दिका चतुर्थ शिष्य माना गया है और उनके जीवन के सम्बन्ध में निम्न प्रकाश डाला गया है...
१. ४ चोथो चेलो प्राचार्य श्री सकलकोत्ति वर्ष २६ छबीसमी ताहा श्री पदर्थ पाटणनाहता तीणी दीक्षा लीधी गांव श्री नीरावा मध्ये । पल्के गुरु फने वर्ष ३४ चोतीस थया ।
२. पछे वर्ष ५६ छपनीसाणे स्वगें पोतासाहो ते वारे पुठी स्वामी सकलकीर्ति ने पाटे धर्मकीत्ति स्वामी नोलनपुर संचे थाप्पा ।
३. एड्वा धर्म फरणी करावता बागडराय ने देस कुभलगढ नव सहस्त्र मध्य संघली देसी प्रदेसी न्याहार कम करता धर्मपदेस देता नवा ग्रन्थ सुध करता वर्ष २२ व्याहार कर्म करिने धर्म संघली प्रदत्या ।
उक्त तथ्यों के प्राधार पर यह निर्णय सही है कि म. सकलकीत्ति का जन्म संवत १४४३ में हुअा था 1
थी विद्याधर जोहरापुरकर ने 'भट्टारक सम्प्रदाय' में सकलकीत्ति का समय संवत् १४५० से संवत् १५१० तक का दिया है। उन्होंने यह समय किस प्राधार पर दिया है इसका कोई उल्लेख नहीं किया । इसलिये सकलकीत्ति का समय संवत् १४४३ से १४९९ तक का ही सही जान पड़ता है।
तत्कालीन सामाजिक अवस्था म. सकलकोत्ति के समय देश की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज में सामाजिक एवं धार्मिक चेतना का प्रभाव था। शिक्षा की बहुत कमी थी।
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राजस्थान के जैन संप्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व साधुनों का अभाव था । भट्टारकों के नग्न रहने की प्रथा थी। स्त्रय भट्टारक सकलकीति भी नग्न रहते थे। लोगों में धार्मिक श्रद्धा बहुत थी। तीर्थयात्रा बड़े २ संघों में होती थी । उनका नेतृत्व करने वाले साघु होते थे । तीर्थ यात्राएं बहुत लम्बी होती थी तथा वहीं से सकुशल लौटने पर बड़े २ इत्सव एवं समारोह किये जाते थे। भट्टारकों ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं एवं अन्य धार्मिक समारोह करने की अच्छी प्रधा डाल दी थी। इनके संघ में मुनि, आयिका, थावक प्रादि सभी होते थे । साधुओं में ज्ञान प्राप्ति की काफी अभिलाषा होती थी तथा मंघ के सभी साधुनों को पढ़ाया जाता था । ग्रन्थ रचना करने का भी खूब प्रचार हो गया था । भट्टारक मरण भी खूब ग्रन्थ रचना करते थे । वे प्रायः अपने ग्रन्थ श्रावकों के आग्रह से निबद्ध करते रहते थे । व्रत उपवास की समाप्ति पर श्रावकों द्वारा उन ग्रन्त्रों को प्रतियां विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों को मेंट स्वरूप दे दी जाती थी। मट्टारकों के साथ हस्तलिखित ग्रन्थों के अस्ते के बस्ते होते थे । समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं श्री और न उनके पढ़ने लिखने का साधन था । व्रतोद्यापन पर उनके प्राग्रह से ग्रन्यों की स्वाध्यायार्थ प्रतिलिपि कराई जाती थी और उन्हें साधु सन्तों को पढ़ने के लिए दे दिया आता था।
साहित्य सेवा
साहित्य सेवा में सकलगीति का जबरदस्त योग रहा । 'कभी तो ऐसा मालूम होने लगता है जैसे उन्होंने अपने साधु जीवन के प्रत्येक क्षरण का उपयोग किया हो । संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था । वे सहज रूप में ही काव्य रचना करते थे इसलिये उनके मुख से जो भी वाक्य निकलता था यही काव्य रूप में परिवर्तित हो जाता था । साहित्य रचना को परम्परा सकलकीति ने ऐसी डाली कि राजस्थान के बागा एवं गुजरात प्रदेश में होने वाले अनेक साधु सन्तों ने साहित्य की दूव सेवा की तथा स्वाध्याय के प्रति जन साधारण को भावना को जाग्रत किया । इन्होंने अपने अन्तिम २२ वर्ष के जीवन में २७ से अधिक संस्कृत रचनायें एवं ८ राजस्थानी रचनायें निबद्ध की थो। 'सकलकोत्तिनु रास' में इनकी मुख्य २ रचनाओं के जो नाम गिनाये हैं वे निम्न प्रकार हैं
चारि नियोग रचना करीय', गुद कवित तणु हवि सुरगहु विचार । १. यती-आचार २. थावकाचार ३. पुराग ४. आगमसार कथित अपार ।। ५. प्रादिपुराण ६. उत्तरपुराण ७. शांति ८. पास ९. व मान
१०. मलि चरित्र । प्रादि ११, यशोधर १२. धन्यकुमार १३. सुकुमाल १४. सुदर्शन चरित्र
पवित्र ।।
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भ० सकलकोति
१५. पंचपरमेष्ठी गंध कुटीय १६. भ्रष्टानिका १७. गणधर भेय । १८. सोलहकार पूजा विधि गरिए सवि प्रगट प्रकासिया सेय ॥ १९. सुक्तिमुक्तावलि २०. क्रमविपाक गुरि रचीय डाईमा परि विविध परिग्रंथ |
मरह संगीत पिंगल निपुण गुरु गुरउ श्री सकलकीत्ति नियथ ॥ लेकिन राजस्थान में ग्रंथ भंडारों की जो प्रभी खोज हुई है उनमें हमें अभी- तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो सकी हैं ।
संस्कृत की रचनायें
१. मुलाचारप्रदीप
२. प्रश्नोत्तरोपासकाचार
३. श्रादिपुराण
४. उत्तरपुराण
५. शांतिनाथ चरित्र
६. वर्द्धमान चरित्र
६. मल्लिनाथ चरित्र
८. यशोधर चरित्र
९. धन्यकुमार चरित्र
१०. सुकुमाल चरित्र ११. सुदर्शन चरित्र
१२. सद्भाषितावलि
१२. परिर्वनाथ चरित्र
१४. सिद्धान्तसार दीपक
१५. व्रतकथा कोश
१६. नेमिजिन चरित्र
१७. कर्मविपाक
१५ तत्वार्थसार दीपक
१९. आगमलार
२०. परमात्मराज स्तोत्र
२१. पुरण संग्रह २. सारचतुविशतिका
२३. श्रीपाल चरित्र २४. जम्बूस्वामी चरित्र
२५. द्वादशामुक्षा
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पूजा ग्रंथ
२६. अष्टालिकापूजा २७. सोलहकारगपूजा २८. गणधर बलमपूजा
राजस्थानी कृतियाँ
१. आराधनः प्रतिबीयसार २. नेमीश्वर गीत ३. मुक्तावलि गीत ४. रामोकारफल गीत ५. सोलह कारण रास ६. सारसीखामणिरास ७. शान्तिनाय फागु
उक्त कृतियों के अतिरिक्त अमी और भी रचनाएं हो सकती हैं जिनका अभी खोज होना बाकी है । भ० सालकीत्ति की संस्कृत भाषा के समान राजस्थानी भाषा में भी कोई बड़ी रचना मिलनी चाहिए, क्योंकि इनके प्रमुख शिष्य ब्रम जिनदास ने इन्हीं की प्रेरणा एवं उपदेश से राजस्थानी भाषा में ५० से भी अधिक रचनाएं निबद्ध की थी। अकेले इन्हीं के साहित्य पर एक शोध प्रबन्ध लिखा जा सकता है । अब यहां भ० सकलकति द्वारा विरचित कुल ग्रन्थों का परिचय दिया जा रहा है।
१. आदिपुराण-इस पुराण में भगवान आदिनाय, भरत, बाहुबलि, मुलोचना, जयवोत्ति आदि महापुरुषों के जीवन का विस्तृत वर्णन किया गया है । पुराए सर्गों में विभक्त है और इसमें २० सग हैं। पुराण की इलोक सं० ४६२८ श्लोक प्रमाण है | वर्णन शैली सुन्दर एवं सरस है | रचना का दूसरा नाम 'युषभ माय चरित्र भी है।
२. उत्तरपुराण- इसमें २३ लीर्थकरों के जीवन का वर्णन है एवं साथ में चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण प्रादि वालाका-महापुरुषों के जीवन का भी वर्णन है । इसमें १५ अधिकार हैं। उत्तर पुराण, मारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी की ओर से प्रकाशित हो चुका है |
३. कर्मविपाक-यह कृति संस्कृत गद्य में है। इसमें प्राउ कर्मों के तथा उनके १४८ भेदों का वर्णन है। प्रकृतिबंघ, प्रदेशबंध, स्थितिबंध एवं अनुभाग बंध
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भः सकलकीति
की अपेक्षा से कर्मों के बंधका वर्णन है । वर्णन सुन्दर एवं बोधगम्य है। यह ग्रन्थ ५४७ दलोक संस्था प्रमाण है रचना सीमा प्रकाशिन।
४. तत्वार्थसार दीपक-सकानकोत्ति ने अपनी इस कृति को अध्यात्म महाग्रन्थ काहा है । जीव, अजीव, मानव, बन्ध संबर, निर्जरा तथा मोक्ष इन सात तत्त्रों का यणं न १२ अध्यायों में निम्न प्रकार विभक्त है।
प्रथम सात अध्याय तक जीव एवं उसकी विभिन्न अवस्थाओ का वर्णन है शेष ८ से १२ वें अध्याय में अजीव, प्रामक, बन्च संवर, निर्जरा, मोक्ष का क्रमशः वर्णन है । ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है।
५. धन्यकुमार चरित्र- यह एक छोटा सा ग्रन्थ है जिसमें सेट धन्यकुमार के पायन जीवन का मशोगान किया गया है । पूरी कथा सात अधिकारों में समाप्त होतो है। घन्यकुमार का सम्पूर्ण जीवन अनेक कुतुहलों एवं विशेषताओं से ओतप्रोत है । एक बार कथा प्रारम्भ करने के पश्चात् पूरी पळे बिना उसे छोड़ने को मन नहीं कहप्ता । भाषा सरल एवं सुन्दर है।
६. नेमिजिन परित्र-नेमिजिन चरित्र का दूसरा नाम हरिवंशपुराण भी है। नेमिनाथ २२ वें तीर्थकर थे जिन्होंने कृष्ण युग में अवतार लिया था। वे कृष्ण के चचेरे भाई थे । अहिंसा में दुद विश्वास होने के कारण तोरण द्वार पर पहुंचकर एफ स्थान पर एकत्रित जीवों को वध के लिये लाया हुआ जानकर विवाह के स्थान पर दीक्षा ग्रहण करली थी तथा राजुल जैसी अनुपम सुन्दर राजकुमारी को त्यागने में जरा मी विचार नहीं किया । इस प्रकार इसमें मगवान नेमिनाथ एवं श्री कृष्ण के जीवन एवं उनके पूर्व भवों में वर्णन हैं । कृति की भाषा काव्यमय एवं प्रवाहयुक्त है । इसकी संवत् १५७१ में लिखित एक प्रति प्रामेर शास्त्र मण्डार जयपुर में संग्रहीत है।
७. मल्लिनाथ चरित्र-२० वें तीर्थकर मल्लिनाथ के जीवन पर यह एक छोटा सा प्रबन्ध काव्य है जिसमें ७ सर्ग हैं
८. पाश्वमाथ चरित्र-इसमें २३ व तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के जीवन का वर्णन है । यह एक २३ सर्ग वाला सुन्दर काव्य है। मंगलाचरण, के पश्चात् कुन्दकुन्द, अकलंक, समंतभद्र, जिनसेन आदि प्राचार्यों को स्मरण किया गया है।
वायुभूति एवं मरुभूति ये दोनों सगे भाई थे लेकिन शुभ एवं अशुभ कर्मों के चक्कर से प्रत्यैक भव में एक का किस तरह उत्थान होता रहता है और दूसरे का घोर पतन-इस कथा को इस काव्य में अति सुन्दर रीति से वर्णन किया गया है । वायुभूति अन्त में पार्श्वनाथ बनकर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं तथा जगदपूज्य बन जाते हैं । भाषा सीधी, सरल एवं अलंकारमयी है ।
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९. सुदर्शन चरित्र इस प्रबन्ध काव्य में सेठ सुदर्शन के जीवन का वर्णन किया गया है जो पाठ परिच्छेदों में पूर्ण होता है। काब्य की भाषा सुन्दर एवं प्रभावयुक्त है।
१०. सुकुमाल बसि...यह एक संध्या हा बा
सा भूमि सकुमाल के जीवन का पूर्व भव सहित वर्णन किया गया है। पूर्व भव में हुप्रा और भाष . किस प्रकार अगले जीवन में भी चलता रहता है इसका वर्णन इस काव्य में सुन्दर
रीति से हुआ है। इसमें सुकमाल के वैभवपूर्ण जीवन एवं मुनि अवस्था की घोर तपस्या का प्रति सुन्दर एवं रोमान्चकारी वर्णन मिलता है। पूरे काव्य में ९ सर्ग हैं।
११. मलाचार प्रवीप-यह आचारशास्त्र का ग्रन्थ है जिसमें जैन साधु के जीवन में कौन २ सी क्रियाओं की साधना मावश्यक है-इन क्रियानों का स्वरूप एवं उनके भेद प्रभेदों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । इसमें १२ अधिकार हैं जिनमें २८ मूल गुण,' पंचाचार, दशलक्षणधर्म, बारह अनुप्रेक्षा एवं बारह तप आदि. का विस्तार से वर्णन किया गया है।
१२. सिद्धान्तसार बीपक—यह करणानुयोग का ग्रन्थ है-इसमे उद्ध' लोक, मध्यलोक एवं पाताल लोक एवं उनमें रहने याले देदों मनुष्यों और लिययों और नारकियों का विस्तृत वर्णन है । इसमें जैन सिद्धान्तानुसार सारे विश्व का भूगौलिक एवं खगौलिक वर्णन पा जाता है । इसका रचना काल सं० १४८१ है रचना स्थान है-बड़ाली नगर । प्रेरक थे इसके . जिनदास ।।
२८ मूलगुण--पंच महानत, पंचसमिति, तीन गुप्ति, पंचेन्द्रिय निरोध,
षटावश्यक, केशलोंच, अचेलक, अस्नान, बंतप्रधोवन । पंचाचार-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप एवं वीर्य । दशलक्षण धर्म-क्षमा, भार्दव, प्रार्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग,
आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य । बारह अनुप्रेक्षा-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्य त्व, अशुचि,
आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधदुर्लभ एवं धर्म | बारह तप-अनशन, अवमौदर्य, प्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त
शय्यासन, कायबलेश प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य , स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ।
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भ• सकलकोति
जैन सिद्धान्त की जानकारी के लिए यह बड़ा उपयोगी है । ग्रन्थ १६ सौ
१३. वमान चरित्र-इस काव्य में अन्तिम तीर्थकर महावीर वर्द्धमान के पायन जीवन का वर्णन किया गया है । प्रथम ६ सगों में महावीर के पूर्व भवों का एवं शेष १३ अधिकारों में गर्भ कल्याणक से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक विभिन्न लोकोत्तर घटनामों का विस्तृत वर्णन मिलता है । भाषा सरस किन्तु काव्य मय है। वर्णन शैली अच्छी है । कवि जिस किसी वर्णन को जब प्रारम्भ करता है तो यह फिर उसी में मस्त हो जाता है । रचना संभवतः अभी तक प्रप्रकाशित है।
१४. यशोघर चरित्र-राजा यशोधर का जीवन जन समाज में बहुत प्रिय रहा है। इसलिये इस पर विभिन्न भाषामों में कितनी ही कृतियां मिलती हैं । सकल कोत्ति की यह कृति संस्कृत भाषा की सुन्दर रचना है । इसमें प्राट सर्भ हैं । इसे हम एक प्रबन्ध काव्य कह सकते हैं।
१५. सबभाषितालि—यह एक छोटासा सुमाषित ग्रन्थ है जिसमें धर्म, गगन, मिथ्यान, इद्रिय. ती माननास, नामसेतन, निम्रन्थ सेवा, तप, त्याग, राग, ष, लोभ, आदि विभिन्न विषयों पर अच्छा.प्रकाश डाला गया है। भाषा सरल एवं मधुर है । पद्यों की संख्या ३८९ है। यहां उदाहरणार्थ तीन पद दिये जा
सर्वेषु जीवेषु दया कुरुत्वं, सत्यं वचो वहि धनं परेपा । चायमसेवा त्यज सर्वकालं, परिग्रहं मुच कुयोनिबीजं ।।
यमदमसमजातं सर्वकल्याणबीज ।
सुगति-गमन-हेतु तीर्थनार्थ प्रणीतं । मवजलनिधिपोतं सारपाययमुच्च--
स्त्यज सकलविकारं धर्म आराधयत्वं ।। (३) मायां करोति यो मूढ़ इन्द्रयादिकमेवनं ।
गुप्तपापं स्वयं तस्य व्यक्तं भवति कुष्ठवत !! १६. श्रीपाल चरित्र-यह सकलकत्ति का एक काव्य ग्रन्थ है जिसमें ७ परिच्छेद हैं । कोटोभट थोपाल का जीवन अनेक विशेषताओं से भरा पड़ा है। राजा से कुष्टी होना, समुद्र में गिरना, सूली पर चढ़ना आदि कितनी ही घटनाएं उसके जीवन में एक के बाद दूसरी प्रातो हैं जिससे उनका सारा जीवन नाटकीय
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बन पाता है । सकलकीति ने इसे बड़े सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया है। इस चरित्र की रचना कर्मफल सिद्धान्त को पुरुषार्थ से अधिक विश्वसनीय सिद्ध करने के लिये की गई है। मानव का ही क्या विश्व के सभी जीवधारियों का सारा व्यवहार उसके द्वारा उपाजिप्त पाप पुण्य पर प्राधारित है। उसके सामने पुरुषार्थ कुछ भी नहीं कर सकता ! काव्य पठनीय है।
१७. शान्तिनाप चरित्र-शान्तिनाथ १६ वें तीर्थंकर थे। तीर्थकर के साथ २ वे कामदेव एवं चक्रवर्ती भी थे । उनके जीवन की विशेषताएं बतलाने के लिये इस काव्य की रचना को गयी है । काव्य में १६ अधिकार है तथा ३४७५ लोक संख्या प्रमाण है। इस काध्य को महाकाव्य की सजा मिल सकती है। भाषा अलकारिक एवं वर्णन प्रभावमय है। प्रारम्भ में कवि ने शृंगार-रस से ओत प्रोत काव्य की रचना क्यों नहीं करनी चाहिए-इस पर अच्छा प्रकाश डाला है । काव्य सुन्दर एवं पटनीय है।
१८. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार--- इस कृति में श्रावकों के प्राचार-धर्म का वर्णन है। थावका चार २४ परिच्छेदों में विभत है, जिसमें प्राचार शास्त्र पर विस्तृत विवेचन किया गया है । मट्टारक सकल कीत्ति स्वयं मुनि मो थे-इसलिए उनसे श्रद्धालु भक्त आचार-प्रम के विषय में विभिन्न प्रश्न प्रस्तुत करते होंगे-इसलिए उम सबके समाधान के लिए कवि ने इस ग्रन्थ निर्माण ही किया गया। माषा एवं दौली की दृष्टि से रचना सुन्दर एवं सुरक्षित है । कृति में रचनाकाल एवं रचनास्थान नहीं दिया गया है।
१९. पुराणसार संग्रहः-प्रस्तुत पुराण संग्रह में ६ तीर्थंकरों के चरित्रों का संग्रह है और ये तीयंकर हैं-आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पास्वनाथ एवं महायौर-बद्ध मान । भारतीय मानपीट की ओर से 'पुराणसार संग्रह प्रकाशित हो चुका है। प्रत्येक तीर्थकर का चरित अलग २ सर्गों में विभक्त हैं जो निम्न प्रकार हैं
प्रादिनाथ चरित ५ मग चन्द्रप्रम चरित शान्तिनाथ चरित नेमिनाथ चरित पार्श्वनाथ चरित ५ सर्ग
महावीर चरित ५ सर्ग २०, व्रतकपाकोष:--'प्रतकथाकोष' को एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । इसमें विभिन्न यतों पर प्राधारित
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भ० सकलकीति
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कथाओं का संग्रह है । ग्रन्थ की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं होने से अभी तक यह निश्चित नहीं हो सका कि भट्टारक सकलकीति ने कितनी व्रत कथाएं लिखी थीं ।
२१. परमात्मराज स्तोत्र: - यह एक लघु स्तोत्र है, जिसमें १६ प हैं । स्तोत्र सुन्दर एवं भावपूर्ण है। इसकी एक प्रति जयपुर के दि० जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है ।
उक्त संस्कृत कृतियों के अतिरिक्त पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अष्टाह्निका पूजा, सोलहकाररणपूजा, गणधर वलय पूजा, द्वादशानुप्रक्षा एवं सारचतुविशतिका आदि और कृतियां हैं जो राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती है। ये सभी कृतियां जैन समाज में लोकप्रिय रही है तथा उनका पठन-पाठन भी खूब रहा है ।
भ० सकलकीति की उक्त संस्कृत रचनाओं में कवि का पाण्डित्य पष्ट रूप से झलकता है । उनके काव्यों में उसी तरह की शैली, अलंकार, रस एवं छन्दों की परियोजना उपलब्ध होती हैं जो धन्य भारतीय संस्कृत काव्यों में मिलती है। उनके चरित काव्यों के पढ़ने से अच्छा रसास्वादन मिलता है। परित काव्यों के नामक के लोकोत्तर महापुरुष है जो अतिशय पुण्यवान् हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन अत्यधिक पावन है। सभी काव्य शान्त रपर्यवसानी हैं।
काव्य ज्ञान के रामान भ० संकलकीति जैन सिद्धान्त के महान बना थे । उनका मूलाचार प्रदीप, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, सिद्धान्तसार दीपक एवं सत्वाचंसार दीपक तथा कर्मविपाक जैसी रचनाएँ उनके श्रगाध ज्ञान के परिचायक हैं । इनमें जैन सिद्धान्त, आचार शास्त्र एवं तस्वचर्चा के उन गूढ़ रहस्यों का निचोड़ है जो एक महान् विद्वान अपनी रचनाओं में मर सकता है ।
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इसी तरह 'सद्भाषितावलि' उनके सर्वांग ज्ञान का प्रतीक है जिसमें सकल कीर्ति ने जगत के प्राणियों को सुन्दर शिक्षायें भी प्रदान की हैं, जिससे वे अपना आत्म-कल्याण भी करने की ओर अग्रसर हो सकें। वास्तव में वे सभी विपयों के पारगामी विद्वान् थे- ऐसे सन्त विद्वान को पांकर कौन देश गौरवान्वित नहीं होगा ।
राजस्थानी रचनाएं'
सकलक ने हिन्दी में बहुत ही कम रखना निबद्ध की है। इसका प्रमुख कारण संभवतः इनका संस्कृत भाषा की ओर प्रत्यधिक प्रम था। इसके अतिरिक्त जो भी इनकी हिन्दी रचनाएं मिली हैं वे सभी लघु रचनाएं हैं जो केवल भाषा अध्ययन की दृष्टि से ही उल्लेखनीय कही जा सकती हैं। सकलकीर्ति का अधिकांश
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जीवन राजस्थान में ध्यतीत हुआ था इसलिए इनकी रचनाओं में राजस्थानी भाषा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है।
१. णमोकार फल गीत--यह इनकी प्रथम हिन्दी रचना है। इसमें णमोकार मंत्र का महात्म्य एवं उसके फल का वर्णन है । रचना कोई विशेष बड़ी नहीं है. केवल १५ पद्यों में ही वरिणत विषम पूरा हो जाता है। कवि ने उदाहरणों द्वारा पह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि एमोकार मंत्र का स्मरण करने से अनेक विघ्नों को टाला जा सकता है । जिन पुरुषों के इस मंत्र का स्मरण करने से विघ्न दूर हुये हैं उनके नाम भी गिनाये है। तथा उनमें धरणे द्र, पदमानती, अंजन-चोर, सेठ सुदर्शन एवं बारूदत्त उल्लेखनीय हैं । कवि कहता है---
सर्व जुगत पसि हो गाव बनिन् । णमोकार फल लहीहउ पंथियडारे. पद्मावती परणेंद्र । मोर अंजन मूली पर्यो, श्रेण्डि दियो णमोकार । देवलोक जाइ करो, पंथियडारे सुख भोगवे अपार । चारूदत्त श्रेण्ठिं दियो घाला ने णमोकार । देव भवनि देवज हुहो, सुखनः विलासई पार॥ ग्रह ढाकिनी शाकिरणी फरणी, व्यापि वलि जलराशि ।
सकल बंधन तूटए पंथिय डारे विघन संवे जावे नाशि ।। कवि अन्त में इस रचना को इस प्रकार. समाप्त करता है:चवीसी अमंत्र हुई, महापंथ अनादि
सकलकीरति गुरू इम कहे, पंथियडारे कोई न जाए
प्रादि जीव लारे भव सागरि एह नाव ।
२, आराधना प्रतिशेष सार यह इनकी दूसरी हिन्दी रचना है। प्राकृत भाषा में निबद्ध आराधना सार का कवि ने भाव मात्र लिखने का प्रयत्न किया है। इसमें सब मिलाकर ५५ पद्य हैं। प्रारम्भ में कवि ने णमोकार मंत्र की प्रशंसा की है तत्पश्चात संयम को जीवन में उतारने के लिए आग्रह किया है। संसार को क्षण भंगुर बताते हुए सम्राट भरत, बाहुबलि, पांडव, रामचन्द्र, सुग्रीव, सुकुमाल, श्रीपाल आदि महापुरुषों के जीवन से शिक्षा लेने का उपदेश दिया है । इस प्रकार आगे तीर्घ क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए मनुष्य को अणवत प्रादि पालने के लिए कहा गया है। इन
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म० सकलकीत
सबका संक्षिप्त वर्णन हैं। रचना सुन्दर एवं सुपाख्य है । रचना के कुछ सुन्दर पद्यों का रसास्वादन करने के लिए यहां दिया जाता है
तप प्रायश्चित व्रत करि शोध, मन वचन काया निरोषि ।
तु क्रोध माया मद छांडि, आपण सयलइ मांहि || गया जिरावर जगि चउवोस, नहि रहि आवार चक्कीस | गया बलिभद्र, न बर कीर, नव नारायण गया धीर ॥ गया भरतेस देह दान, जिन शासन थापिय मांन । गयो बाहुबलि जगमाल, जिसे हइ न राख्छु साल || गया रामवन्त्र रपि रंगि, जिरा साँचु जस अभंग ।
गयो कुभकरण जगिसार, जिसे लियो तु महाश्रत भार ॥
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जे जात्रा करि जग मांहि संभार ते मन मांहि । गिरनारी ग तु धीर, संमारिह बडावीर ॥ पात्रा गिरि पुन्य मंडार, संभारैयां सार । तारण तोरय होइ, संभारह बडा जोइ ॥ हवे पांचमी व्रत प्रतिपालि, तु परिग्रह दूरिय टालि । हो धनकुंचन मां मोल्हि, सतोबीह माह समेल्हि हवाई गति फेरो टालि, मन जाति चहुं दिशि बार । हो नरगि दुःखन विसार, तेह केता कहूँ अविचार ||
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X
X
अन्त में कवि ने रचना को इस प्रकार समाप्त किया है
जे भाई सुखइ ं नर नारि, ते जाइ' भने पारि । श्री सकलंकीति का विचार, अराधना प्रतिबोधसार ।।
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३. सारसीयामरिरास - सारसीखामणिरास राजस्थानी भाषा की लघु किन्तु सुन्दर कृति है । इसमें प्राणी मात्र के लिये शिक्षाप्रद संदेदा दिये गये हैं। रास में ४ ढालें तथा तीन वस्तुबंध छन्द हैं। इसकी एक प्रति रणवां (राजस्थान) के दिगम्बर मंदिर बचेरवालों के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत एक गुटके में लिपिबद्ध है । गुटका की प्रतिलिपि संवत् १६४४ वैशाख सुदी १५ को समाप्त हुईथी। इसी गुटके में सोमकीति,
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ब्रह्म यशोधर आदि कितने ही प्राचीन सन्तों के पाठों का संग्रह है। लिपि स्थान रणथम्भोर है जो उस समय भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से एक माना जाता था । रास पांच पत्रों में पूर्ण होता है । सर्व प्रथम कवि ने कहा कि "यह सुंदर देह बिना बुद्धि के बेकार है इसलिये सदैव सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। जीवन को संयमित बनाना चाहिए तथा अन्य विश्वासों में कभी नहीं पड़ना चाहिए ।" जीब दया की महत्ता को कवि ने निम्न शब्दों में वन की है ।
जीव दया दृढ पालीइए, मन कोमल कीजि । आप सरोज जांव सवं, मन माहि परीजइ ॥
असत्य वचन कभी नहीं बोलना चाहिए और न जिनसे दूसरों के हृदय में ठेस पहुंचे। किसी को पुण्य चाहिए तथा दूसरों के अवगुणों को ढक कर गुणों को प्रकट करना चाहिए ।
झूठा वचन न बोलीइए, ए करकस परिहए । मरम म बोलु किहि तथा ए चाडी मन करू धर्म करता नवाइए, नवि परनंदीजि । परगुरण ढांकी आप राणा, गुरा नवि बोलीजइ ॥
सुदेव त्याग को जीवन में अपनाना चाहिए। माहारदान, श्रौषधदान,
देते रहना चाहिए। जीवन भावना उत्पन्न होती है ।
साहित्यदान, एवं अभयदान आदि के रूप में कुछ न कुछ इसीस निखरता है एवं उसमें परोपकार करते रहने की
ककेंश तथा मर्मभेदी शब्द कार्य करते हुए नहीं रोकना
चौथी ढाल में कवि ने अपनी सभी शिक्षाओं का सार दिया है जो निम्न
प्रकार है
योवन रे कुटुंब त्रिवि, लक्ष्मी चंचल जालीइए । जोव हरे सर न कोइ धर्म विना सोई आजीइए || संसार रे काल अनादि, जीव आणि ध फिल्खुए । एकलू रे आवि जाइ करम श्रागे गलि थरपुए ॥ काय श्री रे जु जु होइ कुटुंब, परिवारि वेगलु ए । खिमा रे खडग वरेवि, क्रोध विरी संघाइए || माहव रे पालीइ सार, मान पापी पत्र डालीइए । सरलू रे चित्त करेवि, माया सवि दूरि करूए ॥ संतोष रे आयुन नि लोभ बिरी सिंघारीइए बेराग रे पालीइ सार, राग टालू सकलकोत्ति कहिए। जे भए ए रासज सार, सीसामलि पढते लहिए |1
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भ० सकल कीर्ति
रचना काल-सकलकोत्ति में इस रास की रचना कब की थी इसका कोई उल्लेख नहीं किया है लेकिन कवि का साहित्यिक जीवन मुख्यतः जैसा कि ऊपर लिखा गया है बीस वर्ष तक (सं० १४७९ से सं १४९९) रहा था इसलिये उसी के मध्य इस रसना का निर्माण हुमा होगा । अतः इसे १५वीं वाताब्दी के अन्तिम चरण की कृति मानना चाहिए ।
भाषा-रचना की भाषा जैसा कि : हिसे हासा मुकासती है लेकिन कहीं २ गुजराती शब्दों का प्रयोग हुअा है। कषि ने अपनी इस रचना में मूल-क्रिया के अन्त में 'जि'एब जइ शब्दों को जोड़कर उनका प्रयोग किया है जैस पामजि, प्रशमीज, तरीजि, हारी जि, झूटोजि, कीजि, धरीजई, बोलीज, वरीजद कीजइ, लहीजइ आदि । चौथी ढाल में और इससे पहिले के छन्दों में भी क्रियाओं के पागे 'ए' लगाकर उनका प्रयोग किया है।
४. मुक्तावलि गीत
यह एक लघु गीत है जिसमें मुक्तालि ब्रत की कथा एवं उसके महात्म्य का वर्णन है । रचना को भाषा राजस्थानी है जिसमें गुजराती मापा के शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। रचना साधारण है तथा वह केवल १५ पद्यों में पूर्ण होती है । एक उदाहरण देखिए
नाभिपुत्र जिनवर प्रणमीने, मुक्तावलि गाइये मुगति पगनि जिनवर मामि, व्रत उपवास करीजे
सखी सुण मुक्तावलो व्रत कीजे । तप परिण अति निर्मल जानि कर्म मल धोईजे
सखी सुण मुक्तावनि अत कीजे ।
नर नारी मुगतावली करसे लेहने सुम्य पावार श्री सकरकीरति भावे मुगति लहिये भाव भोगने सुविशाल !
सखी सुरा मुगतावली प्रत जीज ॥१२॥ ५. सोलहकारण रास-यह कदि की एक कथात्मक कृति है जिसमें सोलहकारण व्रत के महात्म्य पर प्रकाश डाला गया है । भाषा की दृष्टि से यह रास अच्छी रचना है। कृति के अन्त में सकलकीति ने अपने प्रापको मुनि विशेषण से सम्बोधित किया है इससे ज्ञात होता है कि यह उनकी प्रारम्भिक कृति होगी । रास का अन्तिम भाग . निम्न प्रकार है।
एक चित्ति जे प्रत फरइ, नर ग्रहवा नारो। तीर्थकर पद सो लहइ, जो समक्ति धारी।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्य
सकलकोत्ति मुनि रासु कियउए सोलहकारण ।
पढहि गुण हि जो सांभल हि तिन्ह सिव सुह कारण । ६. शान्तिनाथ फागु-इस कृति को खोज निकालने का थ य श्री कुन्दनलाल जैन को है । इस फागु काव्य में शान्तिनाथ तीर्थंकर का संक्षिप्त जीवन चरिणत है। हिन्दी के साथ कहीं २ प्राकृत गाथा एवं संस्कृत श्लोक भी प्रयुक्त हुए हैं। फागु की भाषा सरस एवं मनोहारी है। एक उदाहरण देखिये राम--नृा सुत रमरिण गजगति रगगी तरूणी सभ क्रीडतरे ।
बहु गुण नागर अवघि दिवाकर मुभकर निसि दिन पुण्य रे। ईडिय मय सुख पालिय जिन दिख सनमुख पातम ध्यान रे । भासविथना मूकी असुना प्राशा जिनवर लेवि रे।
मूल्यांकन "भट्टारक सकलकीति' संस्कृत के आचार्य थे । उन्होंने जो इस भाषा में विविध विषयक कृतियां लिखीं. उनसे उनके अगाध ज्ञान का सहज ही पता चलता है । यद्यपि सकलकत्ति ने लिखने के लिए ही कोई कृति लिखी हो-ऐसी बात नहीं है, किन्तु उनको अपने मालिक विचारों में मी आपलापित किया है । यदि उन्होंने पुराण विषयक कृतियों में प्राचार्य परम्परा द्वारा प्रवाहित विचारों को ही स्थान दिया है तो चरित कायों में अपने पौष्टिक ज्ञान का भी परिचय दिया है। वास्तव में इन काव्यों में भारतीय संस्कृति के विभिन्न अंगों को अच्छी तरह दर्शन किया जा सकता है । जैन दर्शन को दार्शनिक, सामाजिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों के अतिरिक्त आचार एवं चरित निर्माण, व्यापार, न्यायव्यवस्था, औद्योगिक प्रवृत्तियां, भोजन पान व्यवस्था, वस्त्र-परिधान प्रकृतिव, मनोरंजन आदि सामान्य विषयों की भी अहाँ कहीं चर्चा हुई है और कवि ने अपने विचारों के अनुसार उनके वर्णन का भी ध्यान रखा है। भगवान के स्तवन के रूप में जब कुछ अधिक नहीं लिया जा सका तो उन्होंने पूजा के रूप में उनका यशोगान गाया-जो कवि की, भगवद्भक्ति की योर प्रवृत्त होने का संकेत करता है । यही नहीं, उन्होंने इन पूजामों के माध्यम से तत्कालीन समाज में 'प्रर्हत-भक्ति के प्रति गहरी आस्था बनाये रखी और प्रागे धाने वाली सन्तति के लिए 'अर्हत-भक्ति का मार्ग खोल दिया ।
सिद्धान्त, तत्वचर्चा एवं दर्शन के पोत्र में -सिद्धान्त सारदीपक, तत्वार्थसार, प्रागमसार, कर्मविपाक जैसी कृतियों के माध्यम से उन्होंने जनता को प्रभूत साहित्य
१. देखिये अनेकान्त वर्ष १६ किरण ४ पृष्ठ संख्या २८२
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भ० सकलकीत
दिया । इन कृतियों में जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्धान्तों जैसे सात तत्व. नव पदार्थ, अष्टकमं, पंच ज्ञान, गुणस्थान, मार्गणा आदि का अच्छा विवेचन हुआ है। उन्होंने साबुअों के लिए 'मूलाचार - प्रदीप' लिखा, तो गृहस्थों के लिए प्रश्नोत्तर के रूप में प्रश्नोत्तरोपासकाचार लिखकर जीवन को मर्यादित एवं प्रनुशासित करने का प्रयास किया । वास्तव में उन्होंने जिन २ मर्यादानों का परिपालन जीवन में आवश्यक बताया वे उनके शिष्यों के जीवन में अच्छी तरह उतरी। क्योंकि वे स्वयं पहिले मुनि अवस्था में रहे थे । उसी रूप में उन्होंने अध्ययन किया और उसी रूप में कुछ वर्षो तक जन-जागरण के लिए स्थान-स्थान पर बिहार भी किया ।
'व्रत कथा कोष' के माध्यम से इन्होंने भावकों के जीवन को नियमित एवं संयमित बनाने का प्रयास किया और उन्हें व्रत पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया । इसी तरह स्वाध्याय के प्रति जन-जागृति पैदा करने के लिए उन्होंने पहिले तो आदिपुराण एवं उत्तरपुराण लिखा और फिर इन्हीं दो कृतियों को संक्षिप्त कर पुराणसारसंग्रह निबद्ध किया। किसी भी विषय को संक्षिप्त अथवा विस्तृत वारने की करना उनको अच्छी तरह छाती थी।
'भट्टारक सुकलकीति' ने यद्यपि हिन्दी में अधिक एवं बड़ी रचनाएँ नहीं लिखीं, लेकिन जो भी ७ कुतियां उनकी अब तक उपलब्ध हुई हैं, उनसे उनका साहित्यिक एवं भाषा शास्त्रीय ज्ञान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। उनका 'सारसीग्रामशिरास' एवं 'शान्तिनाथ फागु' हिन्दी की अच्छी कृतियां हैं। जिनमें विषय का अच्छा प्रतिपादन हुआ है। नमीश्वर गीत एवं मुक्तावति गीत उनको संगीत प्रधान रचना है। जिनका संगीत के माध्यम से जन साधारण को जाग्रत रखने का प्रमुख उद्देश्य था ।
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: ब्रह्म जिनदास : 'ब्रह्म जिनदास' १५ वीं शताब्दी के समर्थ विद्वान थे। सरस्वती की इन पर विशेष प्रा धो ५६रि सकः प्रायही कार में निकलता था । से 'भट्टारक सकलकीति' के शिष्य एवं लघु भाता थे। ये योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे।' साहित्य-सेवा ही इनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था । यद्यपि संस्कृत एव राजस्थानी दोनों भाषानों पर इनका समान अधिकार था, लेकिन राजस्थानी से इन्हें विशेष अनुराग था। इसलिए इन्होंने ५.० से भी अधिक रचनाएं इसी भाषा में लिखीं। राजस्थानी को इन्होंने अपने साहित्यिक प्रचार का माय्यम बनाया । जनता को उसे पड़ने, समझने एवं उसका प्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया। अपनी रचनामों की प्रतिलिपियाँ करवा कर इन्होंने राजस्थान एवं गुजरात के संकड़ों ग्रन्थसंग्रहालयों में विराजमान किया। यही कारण है कि प्राज भी इनकी रचनाओं को प्रतिलिपियाँ राजस्थान के प्रायः सभी भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। 'ब्रह्म-जिनदास' सदा अपने साहित्यिक धुन में मस्त रहने तथा अधिक से अधिक लिखकर अपने जीवन का पूर्ण सदुपयोग करते रहते थे।
__'ब्रह्म जिनदामा' को निश्रित जन्म-तिथि के सम्बन्ध में इनकी रचनागों के आधार पर कोई जानकारी नहीं मिलती। ये कब तक गृहस्थ रहे और कब साधूजीवन धारण किया—इसकी सूचना भी अब तक स्लोज का विषय बनी हुई है। लेकिन ये 'भट्टारक सकलकोत्त' के छोटे भाई थे, जिसका उल्लेख इन्होंने जम्यूस्वामीचरित्र' को प्रशस्ति में निम्न प्रकार किया है
भ्रातास्ति तस्य प्रथितः पृथिव्यां, सद् ब्रह्मचारी जिनदास नामा। तनोति तेन चरित्र पवित्रं, जम्बूदिनामा मुनि सप्तमस्य ।। २८ ।।
'हरिवंश पुराण' को प्रशस्ति में भी इन्होंने इसी तरह का उल्लेख किया है, जो निम्न प्रकार है:
सद् ब्रह्मचारी गुरू पूर्व कोस्य, भ्राता गुरणजोस्ति विशुद्धचिसः ।
जिनसभक्तो जिनदासनामा, कामारिजेता विदितो धरित्र्यां ।। २९॥२ -ananmurrano-ownerwarimureenaran१, महादती ब्रह्मचारी घणा जिणदास गोलागर प्रमुख अपार |
अजिका क्षुल्लिका सघल संघ गुरु सोभित सहित सकल परिवार । २. देखिये -प्रशस्ति संग्रह पृष्ठ सं० ७१ (लेखक द्वारा सम्पादित )
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ब्रह्मजिनदास
'पं० परमानन्दजी शास्त्री' ने भी इन्हें भट्टारक राकलकीर्ति को कनिष्ठ भ्राता स्वीकार किया है। उनके अनुसार इनका जन्म सं० १४४३ के बाद होना चाहिए: क्योंकि इसी संवत् में भ० सकलकीति का जन्म हुआ था। इनकी माता का नाम 'शोभा' एवं पिता का नाम 'कर सिंह' था। ये पाटा के रहने वाले तथा बड़ जाति के श्रावक थे । घर के काफी समृद्ध थे। लेकिन भोग-विलास एवं धन-सम्पदा इन्हें साधु-जीवन धारण करने से न रोक सकी। और इन्होंने भी अपने भाई के मार्ग का अनुसरण किया। भ० सकलकोत्ति' ने इन्हीं के आग्रह से ही संवत् १४८१ में बड़ली नगर में 'मूलाचार प्रदीप' की रचना की थी।'
समय :- 'ब्रह्मजिनदास' ने अपनी दो रचनाओं को छोड़कर शेष किसी भी रचना में समय नहीं दिया है। ये दो रचनाएँ 'रामराज्य राम' एवं 'हरिवंश पुराण' हैं। जिनमें संवत् क्रमशः १५०८ तथा १५२० दिया हुआ है। 'भट्टारक सकलकीर्ति' के कनिष्ठ भ्राता होने के कारण इनका जन्म संवत् १४४५ से पूर्व तो सम्भव नहीं है। इसी तरह यदि हरिवंश पुराण को इनकी अन्तिम कृति मान ली जाने तो इनका समय संवत् १४४५ से संवत् १५२५ का माना जा सकता है |
शिष्य परिवार:- ब्रह्मचारीजी की अमात्र विद्वत्ता से सभी प्रभावित थे । वे स्वयं विद्यार्थियों को पढ़ाते थे और उन्हें संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में पारंगत किया करते थे। हरिवंश पुराण' की एक प्रशस्ति में उन्होंने मनोहर, मल्लिदास, गुणदाम इन तीन शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है। ये शिष्य स्वयं इन से पढ़ते भी थे और दूसरों को भी पढ़ाते थे। परमहंस रास में एक नेमिदास का और उल्लेख किया है। उक्त शिष्यों के अतिरिक्त और भी अनेकों ने इनसे ज्ञानन्दान लेकर अपने जीवन को उपकृत किया होगा ।
१. संवत् चीबह से इक्यासी भला, श्रावण मास वसन्त रे । पूर्णिमा दिवसे पुरण कर्णे, मूलाचार महंत रे ||
२. ब्रह्म जिणदास भणे हवड़ो, पढ़ता पुण्य अपार । सिस्य मनोहर राषड़ों मल्लिदास
गुणदास 11
३. तिउ मुनिवर पाय प्रामीनें कीयो दो प
रास सार ।
ब्रह्म जिणदास भरणे वड़ा, पढ़ता पुण्य अपार ॥
शिष्य मनोहर स्थड़ा ब्रह्म मल्लिवास पढ़ो पढ़ावो बहु भाव सों जिन होई सोस्य
२३
गुणदास |
विकास ||
४. ब्रह्म जिनवास शिष्य निरमला नेविदास सुविचार | पढ़ई - पढ़ावरे बिस्तरो परमहंस भवतार ॥ ८ ॥
P
VAN
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
साहित्य-सेवा
सह्म जिनदास' का आत्म-साधना के अतिरिक्त अधिकांश समय साहित्यसर्जन में व्यतीत होता था । सरस्वती का वरदहस्त इन पर था तथा अध्यपन इनका गहरा आ । काव्य, चरित, पुराण, कथा, एवं रासो साहित्य से इन्हें बहुत रुचि थी और उसी के अनुसार वे काव्य रचना किया करते थे । इनके समय में 'रास-साहित्य' को सम्भवतः अच्छी प्रतिष्ठा थी। इसलिए जितनी अधिक संख्या में इन्होंने 'रासककाव्य' लिखे हैं, उतनी संख्या में हिन्दी में शायद ही किसी ने लिखा हो । वास्तव में एक विद्वान् द्वारा इतने अधिक काव्य ग्रंथ लिखना साहित्यिक इतिहास की अनोखी घटना है । अपने ८० वर्ष के जीवन काल में ६० से अधिक कृतियां—'मां भारती' को भेंट करना 'छ जिनदास' को अपनी विशेषता है। आत्म-साधना के साथ ही इन्हें पठन-पाठन एवं साहित्य-प्रचार का कार्य भी करना पड़ता था। यही नहीं अपने गुरु 'सकालकीत्ति' एवं भुवनकीति के साथ ये बिहार मी करते थे। इतने पर भी इन्होंने जो साहित्य-सजना को-वह इनकी लगन एवं निष्ठा का परिचायक है। कवि की अब तक जितनी कृतियाँ उपलब्ध हो सकी है उनके नाम इस प्रकार हैं:
संस्कृत रचनाएं
(i) काग्य, पुराण एवं कथा-साहित्य : (ii) पूजा एवं विविध साहित्य : १. जम्बूस्वामी चरित्र,
१. जम्बूद्वीपपूजा, २. राम चरित्र ( पय पुराण ), .. २. सार्द्धद्वयद्वीपपूजा, ३. हरिवंश पुराण,
३. सप्तषि पूजा, ४. पुष्पांजलि प्रत कथा,
४. ज्येष्यजिनवर पूजा, ५. सोलहकारण पूजा, ६. गुरु-पूजा, ७, अनन्तन्त्रत पूजा,
८. जलयात्रा विधि
राजस्थानी रचनाएं इनकी अब तक ५० से भी अधिक इस भाषा की रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं। इन रचनाओं को निम्न भागों में बांटा जा सकता है:१. पुराण साहित्य,
४. पूजा साहित्य, २. रासक साहित्य,
५. स्फुट साहित्य,
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ब्रह्मजिनदास
३. गीत एवं स्तवन, १. पुराण साहित्य : १. श्रादिनाथ पुराण,
२. रासक साहित्य
१.
राम सीता रास,
२.
यशोधर रास
३. हनुमत राम,
४.
५.
नागकुमार रास,
परमहंस राम,
अजितनाथ राम,
६.
७.
होली रास,
८. धर्मपरीक्षा रास,
९. ज्येष्ठ जिनवर रास,
१०.
श्ररिंएक राम,
११. समकित मिथ्यात्व रास,
१२. सुदर्शन रास,
१३. अम्बिका रास,
३४. नागश्री रास,
१५. श्रीपाल रास,
१६. जम्बूस्वामी रास,
१७. भद्रबाहु रास,
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२९.
३०.
३१.
२. हरिवंश पुराण,
कर्म विपाक रास, '
*
सुकौशलस्वामी रास,
ड
रोहिणी रास,
सोलारा रास イ
दशलक्षण रास,
अनन्तयत राम,
वंकल रास,
보
धन्यकुमार रास,
६
नारुदत्त प्रबन्ध रास,
पुष्पांजलि रास,
धनपाल राम ( दानकथा रास),
भविष्यदत्त रास,
जीवन्धर शस
७
नेमीश्वर रास,
३२. करकण्डु रास,
३३.
३४.
२५
सुभोगचक्रवर्ती रास
अाचीन मूलगुण रास,
१. इस कृति की एक प्रति उदयपुर (राज०) के अग्रवाल दि० जन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
२. इसको एक प्रति डुंगरपुर के दि० जैन मन्दिर में संग्रहीत है ।
३. इसको एक प्रति डूंगरपुर के वि० जन मन्दिर के संग्रह में है ।
४. अग्रवाल दि० जैन मन्दिर जवयपुर के संग्रह में हैं ।
५. इस रास को एक प्रति संभवनाथ दि० जैन मन्दिर उदयपुर के संग्रह में है।
६. बहो ।
७. वहीं ।
८. देखिये राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची भाग चतुर्थपृष्ठ संख्या ३६७ ।
९. वही पृष्ठ संख्या ६०७ ।
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I
२६
३. गीत एवं स्तवन :
१. मिथ्यादुक्कड़ विनती,
२. बारहव्रत गीत,
३. जीवड़ा गीत,
४. जिन्द गीत,
४. पूजा साहित्य :
१. गुरु जयमाल,
२.
शास्त्र पूजा,
३. सरस्वती पूजा, ५. स्फुट साहित्य :
१. रविव्रत कथा,
२. चौरासी जाति जयमाल,
३. भट्टारक विद्याधर कथा,
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्क
५.
६.
७.
आदिनाथ स्तवन,
प्रालोचना जयमाल,
स्फुट - विनती, गीत, चुनरी,
धवल गिरिनार धवल,
P
धारती निजामार्ग आदि ६
४,
गुरु पूजा, ५. जम्बूद्वीप पूजा,
६.
निर्दोषसप्तमीत्रत पूजा,
४.
अष्टांग सम्यक्त्व कथा,
५.
व्रत कथा कोश,
६. पञ्चपरमेष्ठि गुण वर्णन,
अब यहां कवि को कुछ रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है
१. जम्बूस्वामी चरित्र
यह एक प्रबन्ध काव्य है जिसमें अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जीवन चरित्र निबद्ध है । सम्पूर्ण काव्य ग्यारह सगों में विभक्त है । काव्य में वीर एवं श्रृंगार रस का अद्भुत सम्मिश्रण है जिससे काव्य भाषा एवं शैली की दृष्टि से एक मोहक काव्य बन गया है । भाषा सरल एवं अर्थ मय है । काव्य में सुभाषितों का बाहुल्य है | कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं
यत् किञ्चित् दुर्लभं वस्तु जगत् यस्मिन् निरोक्षते । तत्सवं धर्मतो नूनं प्राप्यते क्षणमात्रतः ११८ ॥
X
....
X
X
एकाकी जायते प्राणी तकाकी विलीयते । सुखदुःखमयंकाकी, भुंक्त धर्मवशात्वं ॥७२॥
X
X
X
निंदा स्तुति समो धीमान् जीविते मरखे तथा । शृणोति शब्दं बधिर, द्रव पश्यति "
X
X
X
मातर्जात सुपुत्रो हि स्व भूवयति यत् कुलं । शुभाचारादिना नूनं वरं मन्ये धनं किभु ॥७४॥
।। १७८ ।।
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ब्रह्म जिनदास
२. हरिवंश पुराण
मह कवि की संस्कृत भाषा में निबद्ध दूसरी बड़ी रचना है जिसमें ४० सर्ग हैं। श्रीकृष्ण एवं २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ हरिवशे में ही उत्पन्न हुये थे इसलिये उनका एवं प्रद्युम्न, पांडव, कौरवों का इस पुराण में वर्णन किया गया है । इसे जैन महाभारत कह सकते हैं। इसकी वर्णन शैली भी महाभारत के समान है किन्तु स्थानर पर ममें कालान्तले गो दर्शा होने ! महाका श्री कृष्ण एवं भगवान नेमिनाथ का इस में सम्पूर्ण जीवन बरिणत है और इन्हीं के जीवन प्रसंग में कौरव-पाण्डवों का अच्छा वर्णन मिलता है। राम कथा एवं श्री कृष्ण कथा को जन प्राचार्यों ने जिस सुन्दरता एवं मानवीय आधार पर प्रस्तुत किया है उसे जैन पुराण एवं काव्यों में अच्छी तरह देखा जा सकता है । ब्रह्म जिनदास के हरिवशं पुराण का स्थान आचार्य जिनसेन द्वारा निबद्ध हरिवशं पुराण से बाद का है। ३. राम चरित्र
८३ सर्गों में विभक्त यह रचना जिनदास की सबसे बड़ी रचना है । इसकी श्लोक संख्या १५००० है। रविषेरणाचार्य के पुमपुराण के अाधार पर की गई इस रचना का नाम पयपुराण (जैन रामायण) मी प्रसिद्ध है । इस काव्य में भगवान राम के पावन चरित्र का जिस सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है उससे कवि की विद्वता एवं वर्णन चातुर्य का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। काश्य की भाषा सरल है एवं वह सुन्दर वाली में लिखा हुआ है।
हिन्दी रचनाएं १. आदिनाथ पुराण
यह फवि की बड़ी रचनाओं में है । इसमें प्रथम तीर्थ कर ऋषभदेव एवं बाहुबलि आदि महापुरुषों के जीवन का वर्णन है। साथ ही आदिनाथ के पूर्व भवों का, भोगभूमियों की सुख समृद्धि, कुलकरों को उत्पत्ति एवं उनके द्वारा विभिन्न रामयों में आवश्यक निर्देशन, कर्मभूमियों का प्रारम्भ प्रादि का भी अच्छा वर्णन मिलता है। पुराण में गुजराती भाषा के शब्दों की बहुलता है। कवि ने ग्रंथ के प्रारम्भ में रचना संस्कृत के स्थान पर देश भाषा में क्यों की गई इसका मुन्दर उत्तर दिया है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार नारियल कठिन होने से बालक उसका स्वाद बिना छीले) नहीं जान सकता तथा दाख केला आदि का बिना छीले ही अच्छी तरह से स्वाद लिया जा सकता है वही दशा देशी भाषा में निबद्ध काव्य की भी है
भवियण मावे सुणो आज, रास कहो मनोहार । आदिपुराण जोई करी, कवित करू मनोहार ॥१॥
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२८
राजस्थान के जैन संव-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बाल गोपाल जिम पढे गुरणे, जाणे बहु भेद । जिन सासण गुण नीरमला, मिथ्यामत छेद ॥२॥ कठिन नारेल दीजे बालक हाथ, ते स्याद न जाणे । छोल्यां केला दाख दीजे, ते गुण बहु माने ॥३॥ तिम ए पादपुराण सार, देस भाषा बखाणू । प्रगुण गुण जिम विस्तरे, जिन सासन बारा ॥४॥
ब्रह्म जिनदास ने रचना में अपने गुरु सकलकत्ति एवं मुनि भुवन कीत्ति का सादर उल्लेख किया है । जो निम्न प्रकार है
श्री सकलपी : मानी, गी बनसीसी अवतार ।
ब्रह्म जिनदास कहे नीमलो रास कीयो मे सार ।। २. हरिवंश पुराण
इसका दूसरा नाम नेमिनाय रास भी है । कवि ने पहिले जो संस्कृत में हरिवंश पुराण निबद्ध किया था उसी पुराण के कथानक को फिरसे उन्होंने राजस्थानी भाषा में और काव्य रूप में निबद्ध कर दिया । कवि के समय में जन साधारण की जो प्रान्तीय भाषाओं में रुचि बढ़ रही थी उसी के परिणाम स्वरूप यह रचना हमारे मामने आयी। यह अधि की बड़ी रचनाओं में से है। इसकी एक प्रति संवत् १६५३ में लिखी हुई उदयपुर के सण्डेलवाल मन्दिर के शास्त्र मण्डार में सग्रहीत है । इस प्रति में १११" " आकार वाले २३० पत्र हैं । हरिवंश पुराण की रचना संवत् १५२० में समाप्त हुई थी और संभवतः यह उनकी अन्तिम रचना मालूम देती है।
संवत १५ (पन्द्रह) यीसोत्तरा विशाखा नक्षत्र विशाल । शुक्ल पक्ष चौदसि दिना रास कियो गुणमाल ।।
रचना मग्दर है और इनकी भाषा को हम राजस्थानी भाषा कह सकते हैं । इसमें कवि ने परिमार्जित भाषा का प्रयोग किया है और इसमें निखरे हुये काव्य के दर्शन होते हैं । यद्यपि 'रचना का नाम पुराण दिया हुआ है लेकिन इसे महा काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। ३. राम सीता रास
राम के जीवन पर राजस्थानी भाषा को संमबतः यह सबसे बड़ी रचना है जिसे दूसरे रूप में रामायण कहा जा सकता है । कवि ने जो राम चरित्र संस्कृत में लिखा था सभी का स्थानक इस काम में है । लेकिन यह कवि की स्वतंत्र रचना है संस्कृत कृति का अनुवाद मात्र नहीं है । संवत् १७२८ में देजल ग्राम में
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ब्रह्म जिनदास
लिखी हुई इस काव्य की एक प्रति डूंगरपुर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में संग्रहोत है । इस प्रति में १२"x६" आकार वाले ४०५ पत्र हैं। इसका रचना काल संवत् १५०८ मंगसिर सुदी १४ (सन् १४५१) है।
संवत् पन्नर अठोतरा मांगसिर मास विशाल ।
शुक्ल पक्ष चदिसि दिनी रास कियो गुणमाल ॥६॥ ४. यशोधर शस
इसमें राजा यशोधर के जीवन का वर्णन है । यह संभवतः कवि की प्रारम्भिक रचनायों में से है क्योंकि अन्य रचनानों की तरह इसमें भुवनक्रानि के नाम का कोई उल्लेख नहीं किया गया है । इसकी एक प्रति प्रामेर शास्त्र मण्डार में संग्रहीत है । रचना की भाषा एव शैली दोनों ही अच्छी है । ५. हनुमत रास
हनुमान का जीवन जैन समाज में बहुत ही प्रिय रहा है । इनकी गणना १६३ पुण्य पुरुषों में की जाती है। हनुमत रास एक लघु कायम है जिसमें उसके जोवन की मुख्य २ पदनाम का वर्णन दिया हुआ है। यह एक प्रकार से सतसई है जिसमें ७२७ दोहा बीपई वस्तुबंध आदि हैं । रचना सुदर है । एक उदाहरण देखिये
अमितिगति मुनिवर तणु नाम, जागे उग्य बीजु भान । तेजनंत कधिवंत गुणमाल, जीता इंद्री मयगण मोह जाल ।। क्रोध मान मायानि लोभ, जीता रागद्वेष नहिं क्षोभ । सोममुरति स्वामी जिणचंद, दीठिउ ऊपजि परमानन्द ।। अंजना सुदरी मनु ऊपनु भाव, मुनिवर वर त्रिभुवनराय । नमोस्त करी मुनि लागी पाय, धन सफन जन्म हवु काय ।।
आपको एव. हस्तलिखित प्रति उदयपुर के खण्डेवाल दि. जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार के एक गृटके में संग्रहीत है । ६. नागकुमार रास
इस रास में पञ्चमी कथा का वर्णन है । इस रास को एक प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल मंदिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रति में १०॥४४॥" आकार वाले ३६ गत्र हैं। यह संवत १८२६ को प्रतिलिपि की हुई है । रास सीधी सादी भाषा में लिखा हुआ है । एक उदाहरण देखिये
अंबू द्वीप मझारि सार, भरत क्षेत्र सुजाणो । मगध देश प्रति रूबड़ो, कनकपुर मावाणो ॥१॥ जयंधर तिणे नयर राउ, राज करे उत्तंग ।। धरम करे जिणवर तणो, पाल समकित अग ॥२॥
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३०
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
7
विशाल नेत्रा तस राखी जाणि रूप तो निधान । मंद करे ते अति घणो, बांध बहुमान ॥३॥
७. परमहंस राम
यह एक आध्यात्मिक रूपक रास है जिसमें परमहंस राजा नायक है तथा चेतना नाम राखी नायिका है । माया रानी के वश होकर वह अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है और काया नगरी में रहने लगता है । मन उसका मंत्री है जिसके प्रवृत्ति एवं निवृत्ति यह दो स्त्रियां है। मोह प्रतिनायक है। रचना बड़ी सुन्दर है । इसकी एक प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल मंदिर के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है । इसके भाव एवं भाषा का एक उदाहरण देखिये-
पाषाण मांहि मोनो जिम होई, गोरस मांहि जिमि घृत होई । तिल सारे तल बसे जिमि भंग, तिम शरीर भात्मा अभंग ॥ काष्ठ मांहि आगिनि जिमि होई, कुसुम परिमल मांहि नेह । नीर जलद सीत जिमि नीर, तेम आत्मा बसे जगत सरीर ॥ ८. अजितनाथ रास
इस रास में दूसरे तीर्थ कर अजित नाथ का जीवन वणित है। रचना लघु है किन्तु सुन्दर एवं मधुर है। इसकी कितनी ही प्रतियाँ उदयपुर, ऋषभदेव डूंगरपुर आदि स्थानों के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत है। रास की भाषा का एक उदाहरण देखिये—
श्री सकलकीति गुरु प्रमरणमोने, मुनि भुवनकीरति अवतार | रास कियो में निरमलो, अजित जिराँसर सार ।
इगुइ जे सांभले मनि घरि अविचल माव 1 ते घर रिधि घर तणो पाये शिवपुर ग्राम । जिशा तास अति निरमलो, मवि भबि देउ महू सार ॥ ब्रह्म जिरणयास इम वीनवे, श्री जिराबर मुगति दातार ॥
६. आरती छंद
कवि ने छोटी बड़ी रचनाओं के अतिरिक्त कुछ सुन्दर पद्य भी लिखे हैं । इस ग्रंथ में इन्होंने भगवान के प्रागे जब देव एवं देवियाँ नृत्य करती हुई स्तवन करती हैं उसका सुन्दर दृष्य अपने शब्दों में चित्रित किया है। एक उदाहरण देखिये
ना संति कलिमल मंत्र निरमल, इंद्र आरती उतारए । जिरावरह स्वामी मुगतिगामी, दुख समल निवारए ||४||
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बह्म जिनदास
बात कोल निसारण दरवडि, भल्लरि नाद ते रण झणं । कंसाल मुगल भेरी मशाल, ताल तबलि से प्रति घरी ।। इशी परिहि नाद गहिर सादि', इंद्रपारती उतारए ।। गावंत धवल गीत मंगल, राग सुरस मनोहरं ।। नाचंति कामिशिगजह गामिशि, ताव गाठ मो? बरं !
सुगंध परिमल भाव निरमल, इद्र भारती उतारए । १५. होली रास
इस रास में जैन मान्यतानुसार होली को कथा दी गई है कथा रोचक है । रारा में १४८ पद्य हैं जो दूहा चौपाई एवं वस्तुबंध छंद में विभक्त हैं ।
इणि परि तिहां थी काठीआ, नयर मांहि था तेह जगयां । पापी जीवनि नहीं किहां सुख, महिलोकः परलोक पामि दुःस्त्र । बन माहि गयां ते पाप, पाम्यां अति दुस्ख संताप । धर्म पाखि रनि सहू कोइ, सीयल संयम विण मूलौ भमि लोड
इस ग्रथ की एक प्रति जयपुर के बड़े तेरहपंथो मन्दिर के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत है । रास की भाषा का एक उदाहरण देखिये
प्रजापति तेणी नपरीय राय, प्रजावती तस रांगी। गज तुरंगम रथ अपार, दीइ लषमी बहू माणि ॥७॥ यति नाम परघान जारिण, वसुमतो तस रांणी । विष्णु, भट्ट परोहित जारिण, सोमबी तस नारी।।८।।
एक भगत करि रुपाए, अज्ञात क्राप्ट बखापतु । एकादशी उपवास करिए, दीतवार सोमवारि जांगों तु ।८८|| दान दीद' लोक अप्लिघणांए, गो प्रादि दश वखारिंग तु । मूड माहि हदुजाण तु, मांन पाम्या प्रति धरणुगए 11८६।। इणी परि ते नयरी रहिए, लखि नहीं लेहनि कोइ तु ।
पुरांश शास्त्र पईि अति घणां ए, लोकसु भाक्षन जोयतु ।।१०।। ११. धर्मपरीक्षा रास--
इस रास में मनोवेग पोर पवनवेग के आधार से कितनी ही कथायें दी हुई हैं जिनका मुख्य उद्देश्य मानव को गलत मार्ग से हटाकर उत्तम मार्ग पर लाना है। मनोवेग शुद्धाचरण वाला है जबकि पवनवेग सन्मार्ग से भूला हुआ है । रास सुन्दर है और इसके पढ़ने से कितनी ही अच्छी बातें उपलब्ध होतो हैं ।
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राजस्थान के जन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रास में दूहा, चौपाई, भासा तथा बस्तुबन्ध छंद का प्रयोग हुआ है । भाषा एवं शैली दोनों ही अच्छी हैं। एक उदाहरण देखिये
वहा
अज्ञान मिथ्यात दुर घरो, तप्ला प्रागलि विचार | अवर मिथ्या तणा, पंचम काल प्रपार ॥१॥ ६म जारिण निश्तो करी, छोडु मिथ्यात अपार । समकिल गालो निरमलो, जिम पामो भव पार ।।२।। परीक्षा कीजि हवड़ी, देव धरम गुरु चंग । निदोष सासरण तपो, त्रिभुवन माहि अभंग ||३॥ ते आराघु नि रमलो, पवन नेग मुणवंत । तिमि सुख पायो अति घणों, मुगति तणो जयवंत ॥४॥ जीव आगि घृणं भन्यो, सत्य मारग विण थोट ।
ते मारग ता आपरो, जिम दुख जाइ घन पार ||५|| रास का अन्तिम भाग निम्न प्रकार है
थी सकलकीरति गुरु प्ररण मीनि, मुनि भूवन कीरति अवतार | ग्राहा जिनदास भरि। बडो, रास कियो सविचार ।। धर्म परीक्षा रारा निरमलो, धर्ममतणो निधान । पढि मुरिग जे संमलि. तेह उपजि मतिज्ञान ।२।।
१२. ज्येष्ठजिनयर रास
यह एक लघु कया कृति है जिसमें सोमा' ने प्रतिदिन एक घड़ा पानी जिन मदिर में जाकरः रखने की अपनी प्रतिज्ञा किन २ परिस्थितियों में भी राफलतापूर्वक निभायो-इसका वर्णन दिया हुआ है । भाषा सरल है तथा पद्यों की संख्या १२० है।
सोमा मनि उपनु तव भाव, एक नीम देउ तमे करी पसाइ । एक कुभ जिनवर भवन उतंग, दिन प्रति कि सदमन रंग ॥ एबु नीम लीवुमन माह, एए: कुंभ मेहलि मन माह ।
निर्मन नीर भरी करी चंग, दिन प्रति जिनवर भुवन उतंग ॥ १३. श्रेणिक रास
इसमें राजा श्रीषिक के जीवन का वर्णन किया गया है राजा श्रेणिक मगध के सम्राट थे तथा भगवान महावीर के मुख्य उपासक थे। इसमें दोहा, चौपाई छंद का अधिक प्रयोग हुआ है । भाषा भी सरल एवं सुन्दर है । एक उदाहरण देखिये
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ब्रह्म जिनदास
जे जे बात निमित्ती कहीं, राजा आगले सार । ते ते सब सिद्ध गई, थोगिक पुन्य अपार || तब राजा आमंत्रि मनहि करि विचार । माहरो बोल विरथा हव, धिग धिग एह मंझार ॥ तब रासि बोलावीयु, सुमती नाम परधान । अवर मंत्री बहु प्रावी आ, राजा दीघु बहु मान ॥
इस रास की एक प्रति ग्रामेर शास्त्र भण्डार जयपुर में संग्रहीत है । पाण्डुलिपि में ५२ पत्र हैं जो. ९३" x ४३' आकार वाले हैं। १४. समकित-मिण्यात रास
___ यह एक लघु रास है जिसमें शुद्धाचरा पर अधिक बल दिया गया है तथा जिन्होंने अपने जीवन में सम्यक चारित्र को उतारा है उनका नामोल्लेख किया गया है । पद्यों को पा ७० है । , पीपल, ग, न प हामी घोड़ा, खेजड़ा आदि को न पूजने के लिये उपदेश दिया गया है। राम को राजस्थानी भाषा है तथा वह सरल एवं सुबोध है । एक उदाहरण देखिये--
गोरना देवि पुत्र देह, तो को इघांडी यो न होछ । पुत्र धरम फल पामीह', एह विचार तु जोइ ॥३॥ घरमई पुत्र सोहावरणाए, धरम लाछि भंडार ।। घरमइ घरि बधावणा, घरमइ रुप अपार ||४|| इम जारणी तह्म परम करो, जीव दया जगि सार । जीम एह्वां फल पामीई, यति तीए संसारि ।।५।।
रास का अन्तिम पाठ निम्न प्रकार है
थी मकल कीरति गुरु प्रणमौना, थी भुवनकीरति अवतारतो । नाजिशदास भगणे ध्याइए, गाइए सरस अपारतो ॥
इति समिकितरास मिथ्यातमोरास समाप्त । १५. सुदर्शन रास
इस रास में सेठ सुदर्शन की कथा दी हुई है जो अपने उत्सम एवं निर्मल चरित्र के कारण प्रसिद्ध था। रास के छन्दों की संख्या ३३७ है। अन्तिम छद इस प्रकार है
साह सुदर्शनः साह सुदर्शन सीयल भन्डार । समकित मुणे मागुण पाप, मिथ्याल रहित मतियल ॥
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
क्रोष मोहबि खंडणु गुण, तणु 'मंगई कहीइ । ते मुनिवर तरणु निमंमु रास को मि सार ॥
ब्रह्म जिरगदास एणी परिभणि, गाइ पुन्य अपार ॥३३७।। १६. अविका रास
इसमें अबिका देवी का चरित्र चित्रित किया गया है। छन्दों की संख्या १५८ है । कवि ने मंगलाचरण में नेमिनाथ स्वामो को नमस्कार किया है । इस रास में किसी गुरु का स्मरण नहीं किया गया है । बीमती छंदसोरठ देस मझार जूनागढ जोगि जाणीहए।
गिरिनारि पर्वत वनि सिद्ध क्षेष बखाणिडए ॥ १७, नागभी रास
इस रास में रात्रि भोजन को लेकर नागधी की कथा का वर्णन किया गया है। रास को एक प्रति उदयपुर के शास्त्र भण्डार के बड़े गुटके में संग्रहीत है। कवि ने अपने अन्य रासक काल्यों के समान इसकी भी रचना की है। इसमें २५३ पद्य हैं । रास का अन्तिम भाग लिए---
काल घणु सुख भोगव्या, पछि ऊपनु वैरागतु । ज्ञानसागर गुरु पामिया ए, सर्ग मुक्ति तणा भावतु । दोहा--तेह गुरु प्रणमी करी, लीघु संयम भार ।
राजा सहित सोहामणु, पंच महाबत सार ।।२४६।। नागत्री श्रायिका कही, राणी सहित सुजाण । अजिकर हवी अति निर्मली, धमनी मनी स्वाणि ।।२५।। तप जप संयम निमंतु, पाल्यु अति गुणवंत । सर्ग पुहतां रुअडां, ध्यान वसि जयवंत ।।२५१।। नारी लिंग छेदो करी, नागश्री गुणमाल । सर्ग भुवनदेव हचु, रुधिवंत धिमाल ।।२५२।। कीरति गुम पाए प्रणमीनि, मुनि भुवाकीरति अवतार ।
ब्रह्म जिनदास इस वीनधि, मन श्रोत फल पामि ॥२५३।। इति नागश्री राम । सं. १६१६ पोप सुदि ३ रयो ।
ब्रह्म श्री धना केन लिखित ।। १८. रविवत कथा
__ प्रस्तुत लघुकथा जति में जिनदास ने रविवार व्रत के महात्म्य का वर्णन किया है । इसकी भाषा अन्य कृतियों की अपेक्षा सरल एवं सुबोध है। इसकी एक प्रति डूंगरपुर के शास्त्र मंडार के एक गुटका में संग्रहीत है। इसमें.४६ पद्य हैं ।
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ब्राहम जिनदास
कृति का आदि एवं अन्तिम भाग देखिए -
प्रथम नसु जिनवर ना पाय, जेहनि सुख संपति बहु थाय | सरस्वति देवि ना पद नमु, पाप ताप सहु दूरे गमु ॥९॥ कथा काहु रडि रविवार, जेह थी लहिए सुख' मंडार ।। काली देश मनोहर ठाम, नगर बसे वारानसी नाम ॥२॥ राजा राज करे महीपाल, सूरवीर गुगाबंत दयाल । नगर सेठ धनवंतह वसे, पूजा दान वारी अघ नने ॥३॥ पुत्र सात तेह ने गुणवंत, सज्जन रुजान मलिसंत ।
गुणधर लोहडो बालकुमार, तेह् भरिणयो सवि शास्त्र विचार ।४।। अन्तिम
मूल संघ मंडन मनोहार, सकनकीत्ति जग मा विस्तार ! गया धर्म नो करे उधार, कलि काले गौतम अवतार ।।४।। तेहमो सीस्प ब्रह्म जिनदास, रविवार व्रत कीयो प्रकाश । भाषधरी ग्रत करे से जेह, मन वांछित सुख पामे तेह ॥४६॥
इति रविव्रत कथा सम्पूर्णम् । १९. श्रीपाल रास
यह कोटिभट धीपाल के जीवन पर आधारित रासफ काश्म है जिसमें पुरुषार्थ पर भाग्य की विजय बतलाई गयी है । रास की एक प्रति खण्डेलवाल दि. जैन मंदिर उदयपुर के ग्रंथ भण्डार में मंग्रहीत है। कवि ने ४४८, पद्यों में श्रीपाल, मैना सुन्दरी, रैनमंजूषा धवलसेठ आदि पात्रों के चरित्र सुन्दर रीति से लिखे गये हैं। राम की भाषा भी बोलचाल को भाषा है । रनमंजुषा का विलाप देखिये
रयगमंजूषा अवला बाल, करि मिलाप तिहां गुणमाल । हा हा स्वागी मझ तु कत, समुद्र माहि किम पठी मंत ॥१८४॥ पर भनि जोत्र हिसा मि नारी, सत्य वचन बल न विधकरी । नर भारी निदी घाअपल, सि पापि गझ पठीउ जाल ।।१८५।। कि मुनिवर निंदा करी, जिनवर पूजा कि अपहरी । कि धर्म तदयु कार. विणास, तेरिश प्रायुमझ दुख निवास ।। १८५।। कृति का अन्तिम भाग निम्न प्रकार हैसिद्ध पूजा सिद्ध पूजा सार भवतार । तेहनि रोग गयु राज्य पाम्य, बलोसार मनोहर । श्रीपाल राणु निरमलु संयम, नीधु सार मुगलियर । मयण स्त्रीलिंग छेद करी, स्वर्ग देव उपनु निरभर ।
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राजस्थान जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ध्यान बली कर्म क्षय करी, श्रीपाल गए बयतार ।
श्री सकलकीर्ति पाए प्रणमीनि, ब्रह्म जिरावास भरिणसार ||४४८ || इति श्रीपाल मुनिस्वररास संपूर्णं ।
२०. जम्बूस्वामी रास
इसमें २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के पश्चात् होने वाले अन्तिम केवली के जम्बूस्वामी के जीवन का वर्णन किया गया है । यह रास भी उदयपुर (राज) खण्डेलवाल दि. जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। इसमें १००५ पद्य हैं । जो विभिन्न छन्दों में विभक्त हैं। कृति के दो उदाहरण देखिएढाल रासनो -
कनकबती कहि निरमलीए, कंत न जारिंग भेद तु 1 अधिक सुखनि काररिए, सिद्धा त वयु मेघ देखी फरीए, परलोक मुख कारण, चोखट अनरोबी करोए, सरस कमल छोटी करीए,
अन्तिम छन्द
करि छेद तु ॥ ६७९ ।। फोडि घडा गमार तु । कंत छोड़ संसार तु ॥ ६८ घरि घरि मारिण दीन तु ।
कोरडी चारि अगली होन तु ॥१६८१ ।।
रास कोमि प्रतिहि विसाल
जंबुकुमार मुनि निर्मल, अन्तिम केवली सार मनोहार |
अनेक कथामि वररणवी, भवीया तरणी गुणवंत जिनदर ।
पढ़ि गुणि सांभलि, तेस घरि रिधि अनंत
ब्रह्मजिनदास एणी परभरिंण, मुकति रमणी होइ त ।। १००५ ।।
२१. भद्रबाहु रास
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भगवान महावीर के पश्चात होने वाले भद्रबाहु स्वामी अन्तिम श्रुत केवली भद्रबाहु का थे सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ( ई. पू. ३ री शताब्दि उनके शिष्य थे प्रस्तुत रास में संक्षिप्त वर्णन है। इस रास की प्रति अग्रवाल दि. जैन मन्दिर उदयपुर के वस्त्र मंडार में संग्रहीत है। रास का बादि अन्त भाग निम्न प्रकार है
आदि भाग
चन्द्रप्रभजिनं चन्द्रप्रभजिनं न ते सार |
तीर्थंकर जो आठमो वांछीत फल बहु दान दातार ।
सार स्वामिनी वलि तबु, जोम बुद्धि सार हज वेगि मांगउ |
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गणधर स्वामी नमसकरु श्री सकल कीरति गुणसार तास चरण प्रणमीनि, रास करु सविचार ||
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ब्रह्मजिनदास
मस्लिम भाग -
भाषा
मद्रबाहु सुनी भद्रबाहु मुनी संघ रि सार | पंचम श्रुत केवली गुरू, घरम नांव ससार तारस । दिगम्बर निग्रन्थ सुनि जिन सकल उद्योत कारण । ए मुनि श्राह्य वाइस्युं, कहीयु निरमल रास 1
ब्रह्म जिशादास इणी परिभरगो, गाई सिधपुर वास ।
afa का मुख्य क्षेत्र डूंगरपुर, सागवाड़ा, गलियाकोट, ईडर, सूरत वादि स्थान थे । ये स्थान बागड़ प्रदेश एवं गुजरात के अन्तर्गत थे जहां जन साधारण को गुजराती एवं राजस्थानी बोली थी। इसलिए इनकी रचनाओं पर भी गुजराती भाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई देता है । कहीं कहीं तो ऐसा लगता है मानों कोई गुजरातो रचना ही हो। इनकी भाषा को राजस्थानी की संज्ञा दी जा सकती है। यह समय हिन्दी का एक परीक्षण काल था और वह उसमें खरी सिद्ध होकर आगे बढ रही श्री । ब्रह्मजिनदास के इस काल को रासो काल की संज्ञा दी जा सकती है। गुजराती शब्दों को हिन्दीवालों ने अपना लिया था और उनका प्रयोग अपनी अपनी रचनाओं में करने लगे थे। जिसका स्पष्ट उदाहरण ब्रह्म जिनदास एवं बागड प्रदेश में होने वाले अन्य जैन कवियों की रचनाओं में मिलता है । अजितनाथ राम के प्रारम्भ का इनका एक मंगलाचरण देखिए
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श्री सकलकोत्ति गुरू प्रणमीने मुनि भुवनको रति अवतार । रारा कियो में निरमलो. अजित जिलर सार ||
पढेइ सोइ जे सांभले, मति घर निर्मल भाव । तेह करि रिथि घर तणो पाये शिवपुर ठाम ॥
जिरा सासा अति निरमलो, भवि भवि देउ मुहसार ।
ब्रह्म जिनदास इम यौनवे, श्री जिरणवर मुगति दातार ||
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उक्त उद्धरण में प्रणमीन में, तरणों शब्द गुजराती भाषा के कहे जा
प्रकते है । इसी तरह जम्बूस्वामी रास का एक और उद्धरण देखिए
afar भाव सुर प्राज कहिय वर बाणी । जम्बू कुमार चरित्र गायन मधुरीय वाणी ॥ २ ॥ अन्तिम केवली ह ́ बंग जम्बूस्वामी गुणवंत | रूप सोमा अपार सार सुललित जयवंत ॥ ३ ॥ जम्बू द्वीप मझार सार भरत क्षेत्र जाण । भरत क्षेत्र मांहि देव सर मगध बखा ॥ ४ ॥
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
उक्त पद में हव ं, चंग गुजराती भाषा के कहे जा सकते हैं। इस तरह कवि अपनी रचनाओं में गुजराती भाषा के कहीं कम और कहीं अधिक शब्दों का प्रयोग करते हैं लेकिन इससे कवि की कृतियों की भाषा को राजस्थानी मानने में कोई श्रीपत्ति नहीं हो सकती ।
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इस प्रकार कवि जिनदास अपने युग का प्रतिनिधित्व करने वाले कवि कहे जा सकते है | इन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा हिन्दी के कवियों का वातावरण तयार वारने में प्रत्यधिक सहयोग दिया और इनका अनुसरण इनके बाद होने वाले कवियों ने किया। इतना ही नहीं इन्होंने जिन छन्दों एवं दानी में कृतियों का सृजन किया उन्हीं छन्दों का इनके परवर्ती कवियों ने उपयोग किया। वस्तुबंध छन्द इन्हीं का लाउला छन्द था और ये इरा छन्द का उपयोग अपनी रचनाथों में मुख्यतः करते रहे हैं । दूहा, चपई एवं भाग जिसके कितने ही रूप हैं, इनकी रचनाओं में काफी उपयोग हुआ है | वास्तव में इनकी कृतियां छन्द शास्त्र का प्रध्ययन करने के लिये उत्तम साधन है ।
मूल्यांकन :
'ब्रह्मजिनदास' को कृतियों का मूल्यांकन करना सहज कार्य नहीं है, क्योंकि उनकी संख्या ६० ने भी ऊपर है। वे महाकवि थे, जिनमें विविध विषयक साहित्य को निबद्ध करने का अद्भुत सामर्थ्य था । भ० सकलकीति एवं भुवनकीति के संघ में रहना, दोनों के समय समय पर दिये जाने वाले आदेशों को भी मानना, समारोह एवं अन्य आयोजनों में तथा तीर्थयात्रा संघ में भी उनके साथ रहना और अपने पद के अनुसार श्रात्ममाधना करना आदि के अतिरिक्त ६० से अधिक कृतियों को निबद्ध करना उनकी अलोकिक प्रतिभा का सूचक है । कवि की संस्कृत भाषा में निवद्ध रामचरित एवं हरिवंश पुराण तथा हिन्दी भाषा में निबद्ध रामसीता राम, हरिवंग पुराण, श्रादिनाथ पुराण आदि कृतियां महाकाव्य के समकक्ष को रचनायें है जिनके लेखन में कवि को काफी समय लगा होगा | 'ब्रह्म जिनदास' ने हिन्दी भाषा में इतनी अधिक कृतियों की उस समय रचना की थी जब 'हिन्दी' लोकप्रिय भाषा भी नहीं बन सकी थी और संस्कृत भाषा में काव्य रचना को पाण्डित्य की निशानी समझी जाती थी । कवि के समय में तो संभवतः 'महाकवि कबीरदास' को भी वर्तमान यातादि के समान प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई थी। इसलिये कवि का हिन्दी म सर्वथा स्तुत्य है ।
कवि की कृतियों में काव्य के विविध लक्षणों का समावेश है। यद्यपि प्रायः सभी काव्य शान्त रस पर्यवसानी है, लेकिन वीर, शृंगार, हास्य यादि रसों का यत्र तत्र अच्छा प्रयोग हुआ है । कवि में काव्य के आकर्षक रीति से कहने की क्षमता है। उसने अपने काव्यों को न तो इतना अधिक जटिल ही बनाया कि पाठकों का पढ़ना
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प्राचार्य सोमकीति
ही कठिन हो जाये और न वे इतने सरल हैं कि उनमें कोई आकर्षण ही बाकी न बचे। उन्होंने काव्य रचना में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया---यही कारण है कि कवि के काव्य सदैव लोकप्रिय रहे और राजस्थान के सैकड़ों जैन प्रप भंडार इनक काव्यों की प्रतिलिपियों से समालंकृत है ।
प्राचार्य सोमकीत्ति
प्राचार्य सोमकीत्ति १५ वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान, प्रमुख साहित्य सेवी एवं उत्कृष्ट जैन संत थे । उन्होंने अपने जीवन के जो लक्ष्य निर्धारित किये उनमें उन्हें पर्याप्त सफलता मिली। वे योगी थे । प्रात्म साधना में तत्पर रहते और अपने शिष्यों, साथियों तथा अनुयायियों को उस पर चलने का उपदेश देते। वे स्वाध्याय करने, साहित्य सृजन करते एनं लोगों को उसकी महत्ता बतलाते । यद्यपि अभी तक उनका अधिक साहित्य नहीं मिल सका है लेकिन जितना भी उपलब्ध हुभा है उस पर उनकी विद्वत्ता की गहरी छाप है। वे संस्कृत, प्राकृल, हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती प्रादि कितनी ही भाषानों के ज्ञाता थे । पहिले उन्होंने जन साधारण के लिये हिन्दी राजस्थानी में लिखा और फिर अपनी दिद्वता बतलाने के लिये कुछ रचनायें संस्कृति में भी निबर की । उनका प्रमुख क्षेत्र राजस्थान एवं गुजरात रहा और इन प्रदेशों में जीवन भर विहार करके जन साधारण के जीवन को शान, एवं आत्म साधना की दृष्टि में चा उठाने का प्रयास करते रहे। उन्हान कितने ही मन्दिरों की प्रमिलायें करवायी, सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन करवाया और इन मन्त्रक रा सभी को सत्य मार्ग का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया। वास्तव में वे अपने समय के भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं शिक्षा के महान प्रचारक थे।
आचार्य गोमकीन्न काष्ठा संघ के नन्दीतट शाखा के सन्त थे तया १० वीं शताब्दि ने प्रसिद्ध भट्टारमा मसेन की परम्परा में होने वाले मट्टारक थे। उनके दादा गुरू लक्ष्मीसेन एवं गुरु. भीमसेन थे 1 संवत १५१८ (सन् १४६१) में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावली में अपने आपको काष्ठासंघ का ५७ वा भट्टारक लिखा है । इनके गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में हमें अब तक कोई प्रमाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है । वे कहां के थे, कौन उनके माता पिता थे, वे कब तक गृहस्थ रहे और कितने समय पश्चात इन्होंने साधु जीवन को अपनाया इसकी जानकारी अभी स्लोज का विषय है । लेकिन इतना अवश्य है कि ये संवत १५१८ में भट्टारक बन चुके थे
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अजस्थान संत-स्व एवं कृतित्व
और इसी वर्ष इन्होंने अपने पूर्वजों का इतिहास लिपिबद्ध किया था '। श्री विश्वावर जोहरापुरकर ने अपने भट्टारक सम्प्रदाय में इनका समय संवत १५२६ से १५४० तक का भट्टारक काल दिया है । वह इस पट्टावली से मेल नहीं खाता। संभवतः उन्होंने यह समय इनकी संस्कृत रचना सप्तम्यसनकथा के आधार पर दे दिया मालूम देता है क्योंकि कवि ने इस रचना को सं० १५२६ में समाप्त किया था । इनकी तीन संस्कृत रचनाओं में से यह प्रथम रचना है ।
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सोमकीर्ति यद्यपि मट्टारक थे लेकिन ये अपने नाम के पूर्व आचार्य लिखना करते थे और उनके द्वारा
अधिक पसन्द करते थे। ये प्रतिष्ठाचार्य का कार्य भी सम्पन्न प्रतिष्ठाओं का उल्लेख निम्न प्रकार मिलता है
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१. संवत १५२७ वैशाख सुदि ५ की इन्होंने वीरसेन के साथ नरसिंह एवं उसकी मार्या सापडिया के द्वारा आदिनाथ स्वामी की मूर्ति की स्थापना करवायी थी t
२. संवत् १५३२ में वीरसेन सूरि के साथ शीतलनाथ की मूर्ति स्थापित की गयी थी 13
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१. श्री भीमसेन पट्टाधरण गछ सरोमणि कुल तिलौ । जागति सुजाण जाए नर श्री सोमकीति मुनिवर भली ॥ पनरहसि प्रयार मास श्राषाढह जाणु ।
अकवार पचमी बहुल परूयह बखार ॥
पुब्बा भद्द नक्षत्र श्री सोझोत्रिपुरवरि ।
सन्यासी वर पाठ लगु प्रबन्ध जिरि परि || जिनवर सुपास भवति कोउ, श्री सोमकीत्ति बहु भाव धरि । जयवंत उचितलि विस्तरू श्री शांतिनाथ सुपताउ करि ॥
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२. संवत १५२७ वर्ष वैशाख दुधी ५ गुरौ श्री काष्ठासं नंदतर गच्छे विश्वागणे भट्टारक श्री सोमकीति आचार्य श्री वीरसेन युगवं प्रतिष्ठिता । नरसिंह राज्ञा मार्या सांपडमा गोत्र 'लाखा भार्या मांकू देल्हा भार्या मानू पुत्र बना सा. कान्हा देल्हा फेन श्री आदिनाथ बिम्ब कासपिता ।
सिरमौरियों का मविर जयपुर ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ संख्या - २९३
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आचार्य सोमकीसिं
३. संवत् १५३६ में अपने शिष्य वीरसेन सूरि के साथ हूँ बेड जातीय भावक भ्रूपा भार्या राज के अनुरोध से चौबोसी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवायी । १
४. संवत् १५४० में भी इन्होंने एक मूत्ति की प्रतिष्ठा करवायी । २
में मंत्र शास्त्र के भी जाता एवं अच्छे साधक थे।' कहा जाता है कि एक बार इन्होंने सुल्तान फिरोजशाह के राज्यकाल में पावागढ में पद्मावती की कृपा से आकाश गमन का चमत्कार दिखलाया था। अपने समय के मुगल सम्राट से भी इनका अच्छा संबंध था । व० श्री कृष्णदास ने अपने सुनिसुव्रत पुराण (र. का. सं. १६८१) मैं सोमकीत्ति के स्तवन में इनके आगे "यवनपतिकर मौजसंपूजितह्नि" विशेषण मोड़ा है ।
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शिष्यगण
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सोमकीति के वैसे तो कितने ही शिष्य थे जो इनके संघ में रहकर धर्म-साधन किया करते थे। लेकिन इन शिष्यों में, यशः कोर्ति, वीरसेन, यमधर आदि का नाम मुख्यतः गिनाया जा सकता है। इनकी मृत्यु के पश्चात् यशःकीति ही भट्टारक बने । ये स्वयं भी विद्वान थे। इसी तरह आचार्य सोमकोति के दूसरे शिष्य वशोषर की मी हिन्दी की कितनी ही रचनाएँ मिलती हैं। इनकी वाणी में जावू था इसलिये मे नहां भी जाते वहीं प्रशंसकों की पंक्ति खड़ी हो जाती थी। संघ में मुनि प्राधिका, ब्रह्मचारी एवं पंडितगण थे जिन्हें धर्म प्रचार एवं श्रात्म-साधना की पूर्ण स्वतन्त्रता ची
बिहार
इन्होंने अपने बिहार से किन २ नगरों, गांवों एवं देशों को पवित्र किया इसक कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है लेकिन इनकी कुछ रचनाओं में जो रचना
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१. संवत् १५३६ वर्षे वंशाख सुदी १० बुधे श्री काष्टासंधे वागगच्छे नंबी तट गच्छे विद्यागणे भ० श्री भीमसेन तत् पट्टे भट्टारक श्री सोमकीति शिष्य आचार्य श्रीवीरसेनयुक्तं प्रतिष्ठितं हूँ बज जातीय बंघ गोत्रे गांधी भूपा भार्या राज सुत गांधी मना भार्या काऊ सुत रूड़ा भार्या लाडिक संघवी मला केम श्री आदिनाथ चतुर्विंशतिका प्रतिष्ठापिता ।
मंदिर लूणकरणजी पाया जयपुर
२. भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ संख्या २९३
३.
२९३
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४. प्रशस्ति संग्रह
४७
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
स्थान दिया हुआ है उसी के आधार पर इनके बिहार का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। संवत् १५१८ में सोजत नगर में थे और वहां इन्होंने संभवतः अपनी प्रथम ऐतिहासिक र मना 'गुर्वावलि' को समाप्त किया था। संवत् १५३६ में गोडिल्लीनगर में विराज रहे थे यहीं इन्होंने यशोधर चरित्र (संस्कृत) को समाप्त किया या तथा फिर यशोभर चरित (हिन्दी) को भी इसी नगर में निबद्ध किया था।
साहित्य-सेवा
सोमकीति अपने समय के प्रमुख साहित्य सेवी थे। 'संस्कृत एवं हिन्दी दोनों में ही इनको रचनामें उपलब्ध होती हैं। राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में इनकी अब तक निम्न रचना प्राप्त हो चुकी हैसंस्कृत रचनाये
(१) सप्तव्यसनकथा (२) प्रद्युम्नचरित्र' ।
(३) यशोधरचरित्र . राजस्थानी रचनायें . . ::
(१) गुर्वावलि (२) यशोधर रास (३) रिषभनाथ की धूलि (४) मल्लिगीन (५) आदिनाथ विनतो (६) अपनक्रिया गीत
इन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
(१) सप्तव्यसनकथा
यह कथा साहित्य का अच्छा बन्थ है जिसमें सात व्यसनों के आधार पर सात कथायें दी हुई हैं । अन्य के भी साल ही सर्ग हैं। प्राचार्य सोमकोति ने इसे संवत् १५२६ में माघ सुदी प्रतिपदा को समाप्त किया था।
१. जैनाचार्यों ने—जुन खेलना, चोरी करना, शिकार खेलना, वेश्या सेवन, पर स्त्री रोचन, नथा मद्य एवं मास सेवन करने को सप्त व्यसनों में गिनाया है।
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प्राचार्य सोमकोति
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रस नयन समेते बाण युक्त न पन्द्र (१५२६) गतवति सति नूनं विक्रमस्यद काले प्रतिपदि धवला यो माघमासस्य सोमे
हरिमदिनममोझे निर्मितो ग्रन्थ एषः ॥७१।। (२) प्रद्युम्नचरित्र
यह हनका दूसरा प्रबन्ध काव्य है जिसमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्य म्न का जीवनचरित अक्ति है । प्रध म्न का जीवन जैनाचार्यों को अत्यधिक प्राकर्षित करता रहा है। अब तक विभिन्न भाषानों में लिखी हुई प्रद्युम्न के जीवन पर २५ से भी अधिक रचनायें मिलती हैं । प्रशुम्म चरित सुन्दर काव्य है जो १६ सगों में विभक्त है । 'इसका रचना काल सं. १५३१ पोष सुदी १३ बुधबार है।
संवत्सरे सत्तिथिसंक्षके वै वर्षेत्र त्रिशंकयुते (१५३१) पवित्रे
विनिमितं पोषसुदेश्च तस्यां त्रयोदशीष बुधवारयुक्ताः ॥१६९ (1) यशोधर चरित्र
कवि 'यशोधर' के जीवन से संभवतः बहुत प्रभावित थे इसलिए इन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी दोनों में हो यशोधर के जीवन का घशोगान गाया है। अशोषर चरित्र पाठ सर्गों का कान्य है: कार में इसे संवत् १५३६ में गोळिली (मारवाड) नगर में निबद्ध किया था। . . ... .. .
नंदीतटाण्यगच्छे बैशे श्रीरामसेनदेवस्य जालो गुरणार्णकश्च श्रीमान् श्रीमीमसेनेति ॥६॥ निमित' तम्य शिष्येण श्री यशीघरसंज्ञकं । श्रीसोमीतिमुनिना विशोव्यऽवीयता बुधाः ॥६॥ यपं पत्रिशासस्ये तिथि पर गाना युनः संवत्सरे (१५३६) वै । पंचम्यां पोषकृष्गो दिनकरदिवसे चोत्तरास्य हि चंद्र । गोढिल्या : मेंदपाटे जिनवरभवने गीतलेन्द्ररमो । सोमादिकीर्तिनेदं नृपवरचरितं निमितं शुद्धभक्त्या ॥
। राजस्थानी रचनायें
११) गुविलि
ग्रह एक ऐतिहासिक रचना है जिसमें कवि ने अपने संघ के पूर्वाचायों का संक्षिप्त घाम दिया है । यह गुर्वावलि संस्कृत एवं हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखी हुई
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है । हिन्दी में गद्य पद्य दोनों का ही उपयोग किया मया है । माषा वैचित्र्य की दृष्टि से रचना का अत्यधिक महत्व है । सोमकीति ने इसे संवत् १५१८ में समाप्त किया था इसलिए उस समय की प्रचलित हिन्दी गद्य की इस रचना से स्पष्ट झलक मिलती है । यह कृति हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास की विस्तुप्त कड़ी को जोड़ने वाली है।
इस पट्टावनी में काष्टासंघ का अच्छा इतिहास है । कृति का प्रारम्भ काष्टा संघ के ४ गच्छों से होता है ओ नन्दीतटगच्छ, माधुरगा, बारागच्छ, एवं लाडवागड़ गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थे। पट्टावली में आचार्य प्रादुर्भाल को सपहीतट गमक का प्रथम आचार्य लिया है । इसके पश्चात अन्य आचार्यों का संक्षिप्त इतिहास देते हुए ८७ आचार्यों का नामोल्लेख किया है। ८७ , भट्टारक आचार्य सोमकोलि थे। इस गच्छ के आचार्य रामसेन ने नरसिंहपुरा जाति की तथा नेमिसेन ने मट्टपुरा जाति की स्थापना की थी। नेमिसन पर पथावती एवं सरस्वती दोनों की कृपा थी और उन्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध थी।
रचना का प्रथम एवं अन्तिम माग निम्न प्रकार है :
नमस्कृत्य जिनाधीशान, सुरापुरनमस्कृतान् । वृषभाविकीरपसान वक्ष श्रीगुरूपवितं ॥१॥ ममामि शाश्वां देवीं विधानन्दामायिनीम् । जिनेन्द्रबदनांभोज, हसनी परमेश्वरीम् ।।२।। चारित्रावगंभीरान नवा श्रीमुनिपुगवान् । गुरुनामावली वक्षे समासेन स्वशक्तितः ॥३॥ दूहा-जिरा चुदीसह पायनमी, समरवि शारदा माय । कट्ट संघ गुण वावु', परामवि गणहर पाई ।।४।।
काम कोह मद मोह, लोह आनंतुटालि ।। कट्ठ संघ मुनिराउ, गछ इशी परि अजूयालि ।। श्रीलक्ष्मसेन पट्टोधरण पायपक छिप्पि नहीं। जो नरह नरिदे बंदीइ, श्री भीमसेन मुनिवरसही ॥ सुर गिरि सिरि को घर, पाउ करि अति बलवन्तौ । कवि रणायर तीर तीर पह तस्य सरंतो। को आयास पमारण हत्थ' करि गहि कमतौ । कट्ठसंघ संघ गुण परिलहि विह कोइ लहंती ।। श्री भीमसेन पट्टह घरण गछ सरोमरिण कुलतिलो। जागति सुजागह जाए नर श्री सोमकीप्ति मुनिवर भलौ ।
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आचार्य सोमकीति
पनरहसि क्षठार मास आषाढह जार, अकवार पंखसी, ब्रहुल परमह बखा । मुस्लाभ नक्षत्र श्री सोझोत्र पुरकरि सत्तासी वर-पाट तणु भवम जिरिए परि || जिनवर सुपास भवन कीउ, श्री सोमकीर्ति बहुमावरि । जयवंत रवि तलि विस्तर, श्री शान्तिनाथ सुपसाउ करि ॥
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२. यशोधर रास :
यह कवि की दूसरी बड़ी रचना है जो एक प्रकार से प्रबन्ध काव्य है । इस रचना के सम्बन्ध में अभी तक किसी विद्यान् ने उल्लेख नहीं किया है। इसलिए यशोधर रास कवि की अलभ्य कृतियों में से दूसरी रचना है। सोमकीति ने संस्कृत में भी शोवर चरित्र को रचना की थी जिसे उन्होंने संवत् १५३६ में पु किया था। 'यशोधररास' संभवतः इसके बाद की रचना है जो इन्होने अपने हिन्दी, राजस्थानी गुजराती भाषा भाषा पाठकों के लिए मिब को थी ।
"प्राचार्य सोमकीर्ति" ते 'यशोधर रास' को गुडलीनगर के शीतलनाथ स्वामी के मन्दिर में कार्तिक सुदी प्रतिपदा को समाप्त किया था ।
सोधीय एहज रास करीय सावली घापिए । कातीए उजलि पाखि पडिवा बुंधचारि कीउए । सीए नाथि प्रासादिकुलीनयर सोहम ए fafe fa ए श्री पासा हो जो निति श्रीसंघ भरिए । श्री गुरु चरण पसाउ श्री सोमकीरति सूरि भए ।
'शोधर रास' एक प्रबन्ध काव्य है, जिसमें राजा यशोधर के जीवन का मुख्यतः वर्णन है । सारा काव्य दश कालों में विभक्त है। ये ढ़ालें एक प्रकार से सर्गे का काम देती हैं । कवि ने यशोधर की जीवन कथा सीधी प्रारम्भ न करके साधु युगल से कहलायी है, जिसे सुनकर राजा मारिदत्त स्वयं भी हिंसक जीवन को छोड़कर साधु की दीक्षा धारण कर लेता है एवं चंडमार देवी का प्रमुख उपासक मी हिंसावृत्ति को छोड़कर अहिंसक जीवन व्यतीत करता है । 'रास' की समूची कथा अहिंसा को प्रतिपादित करने के लिये कही गई है, किन्तु इसके अतिरिक्त रास में अन्य वर्णन भी अच्छे मिलते हैं। 'रास' में एक वरांत देखिए- जिसमें बसन्त ऋतु आने पर वन में कोयल कूंज उठती है एवं मोरों की झंकार सुनाई देती है
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कोइल करई टहुकडाए, मधुकर झंकार फूली। . जातज वृक्ष सरणीये बनाह मझार वनं देखी मुनिराज मणि। इहो नहीं मुझ काज ब्रह्मचार प्रतिवर रहिनु आदि लाज ।
राजा यशोधर ने बाल्यावस्था में कौन-कौन से मयों का अध्ययन किय :इसका एक वर्णन पहिये---
राप्रति तव मह कह , सुरुज नरसर आज । पंडित जेहु भणावीउ, कीधो लुजे मुझ काज ॥ वृत्तनि काय्य अलंकार, तक्क सिद्धान्तं पमाण। भरहनइ छदसु पिंगल, नाटक ग्रंथ पुराण || आगम मोतिष वेदक ह्य नर पसुयनु जेह । चैत्य चत्याला गेहनी गढ़ मढ़ करवानी तेन्न ।। . माही माहि विरोधीइ, रूठा मनावी जैम ।।
कागल पत्र समाचरी, रसोयनी पाई. केम ... . .:. :: .. · इन्भजल रस भेद जे जूय नइ भूभनु कम । ....................
पाप निवारण वादन नत्तन नाछि जे मर्म ||
कयि के समय में एक विद्वान के लिए किन नथों का अध्ययन प्रावश्यक था, वह इस वर्णन रो स्पष्ट हो.. जाता है। "
_ 'यशोधर रास की. भाषा राजस्थानी है, जिसमें कहीं कहीं गुरुराती के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । वर्णन शेली की दृष्टि से रचना मद्यपि साधारण है लेकिन यह उस समय की रचना है, जबकि सूरदास, मीरां एवं तुलसीदास जैसे कवि साहित्याकाश में मंडरा भी नहीं थे। ऐसी अवस्था में हिन्दी भाषा के अध्ययन की दृष्टि से रचना उत्तम है एबं साहित्य के इतिहास में उल्लेखनीय है । १६ वीं शताब्दि की इतनी प्राचीन रचना इतने अच्छे ढंग से लिखी हुई बहुत कम मिलेंगी। ३. आदिनाप बिनती . . यह एक लघु स्तवन है १ जिसमें 'आदिनाथ' का यशोमान गाया गया है। यह स्तवन मणवा के शास्त्र भन्डार के एक गुटके में संग्रहीत है। ५. पन क्रियागीत
. श्रावकों के पालने योग्य वेपन क्रियानों को इस गीत में विशेषता वणित की गई है । अन्तिम पद्य देखिए
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आचार्य सोमकीर्ति
गुरू केरा वा
वीक अनि मनि आणी त्रक्रिया जे नर गाई, ते स्वगं सुगति पंथ बाइ || सहीए त्रिपन किरिया पालु, पाप मिष्यातज टालु ||
५. ऋषमा की धूल इसमें ४ ढाल हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के संक्षिप्त जीवन कथा पर प्रकाश डाला गया है। भाषा पूरे रूप में जन भाषा है । प्रथम ढाल को पविये..
प्रणमवि जिगर पाउ, तु गुइ त्रिहु भवन नुए । समरवि सरसति देव तु सेवा सुरनर करिए || गाइनु आदि जिणंद आरद प्रति उपजिए । कौशल देश मशार तु सुसार गुगा बागलु नाभि नरिद सुरिद जसु सुरपुर वराए ""मुरा देवी नाम अनि सुरंग रंगा जिसी ए राउ रागी सुख सेजि सुजाइ नितु रमिए ।
प्रदेश सुप्रास सुर किन्यकाएं। केवि सिर छत्र भरति करति केवि धूपगाएं । hfa जगट के अगि सुचंगि, पूजा घणीए केवि अमर बहू मंगि श्राभंगीय श्रावहिए । केवि सयन अनि आसन भोजन विधि करिए | फेवि खडग घरी हाथि सौ साल नितु फरिए । मुरा देवि भगत चिकाजि सुलाज न मनि धरिए । तू जया करि सवि वेषु तु मामन परिहरिए । गरम सोबकरि भाष तु गाइ सुत्र जिन ताए । यरस अहूए कोटि कर दि सो व्रण तरणीए । दिव दिन नाभि निवारो एक दिवस मुरां देवी । पुढीय तेज समाधि सु
वा दुःखीए । जक्षणीए ।
को आसा ।
तिमि कारण तुझ पर कमलो सरण पथवउ हेव, राखि क्रिया करे महरोय राज कि केव । सव विधि जिस परिसंपतिए अहनिशि जपतां नाम ।
आदि तीर्थ कर आदिगुरु आदिनाथ आदिदेव ।
श्री सोमकीत्ति मुनिवर भणित् भवि मंत्रि तुझ पाय से ||
- आदिनाथ बोनति
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मामा के संपार करक एवं कृतित्व
उक्ति कृति नगवां (राजस्थान) के शास्त्र भण्डार के एम. फुटके में से संग्रहीत है । गुटका त्र. यशोषर द्वारा लिखित है। ब्र. यशोधर भ. सोमकीति के प्रमुख शिष्य थे। मूल्यांकन
सौमकीप्ति' ने संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य के माध्यम से जगत् को अहिंसा का सन्देश दिया । यही कारण है कि इन्होंने संशोधर के जीवन को दोनों भाषाओं में निबद्ध किया । भक्तिकाव्य के लेखन में इनकी विशेष रुचि थी। इसीलिए इन्होंने 'ऋषमनाप को धूल' एवं 'प्रादिनाप-विनती' की रचना की थी। इनके प्रभी मौर भी पद मिलने चाहिए । सोमकीर्ति की इतिहास-कृतियों में भी रुचि थी। गुर्वावलि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । पीह रचना अनामार्यो एवं भट्टारकों की विलुप्त कड़ी को मोड़ने वाली है।
कधि ने अपनी पूतियों में राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया है । ब्रह्म जिनदास के समान उसकी रचनामी में गुजराती भाषी के पात्रों का इतना अधिक प्रयोग नहीं हो सका है। यही नहीं इनकी भाषा में सरलता एवं लश्कीलापन है। छन्दों के दृष्टि से भी बह राजस्थानी के अधिक निकट है।
झवि को दृष्टि से वही राज्य एवं उसके ग्राम, नगरं श्रेष्ठ माने जाने चाहिए, जिनमें जीव बंध नहीं होता है, संस्थाचरण किया जाता हो तथा नारी समाज का जहां अत्यधिक सम्मान हो । यही नहीं, जहां के लोग अपने परिग्रह-संचय की सीमा भी प्रतिदिन निर्धारित करते हों और जहां रात्रि को भोजन करना भी वर्जित हो?
वास्तव में इन सभी सिद्धान्तों को कवि ने अपने जीवन में उतार कर फिर उनका व्यवहार जनता द्वारा सम्पादित कराया जाना चाहा था।
सोमक्रोत्ति' में अपने दोनों काव्यों में 'जनदर्शन' के प्रमुख सिमान्त 'हिसा' एवं "अनेकान्तवाद' का भी अच्छा प्रनिपादन किया है।
नारी समाज के प्रति कवि के अच्छे विचार नहीं थे । 'यशोघर रास ' में स्वयं महारानी ने जिस प्रकार का आचरण किया और अपने रूपवान पति को धोखा देकर एक कोड़ी के पास जाना उचित समझा तो इस घटना से कवि को नारी-समाज को कलंकित करने का अवसर मिल गया और उसने अपने रास में निम्न शब्दों में उसकी भत्सना की
१. धर्म अहिसा मनि घरी ए मा, बोलि मडिय सालि।
पोरीय मात तुमो करे से मा, परनारि सहि टाली । परिगह संख्या नितु करे ए, गुरुवाणि सवापालि ।।
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भट्टारक ज्ञानभूषण
नारी बिसहर लेल. नर वंचेवाए घडीए । नारीय नामज मोहल, नारी नरक मतो तडए ।
कुटिल पणानी खारिण, नारी नीचह गामिनीए । सोनु न बोलि वारिण, वांधिरण सापि अगनि शिखाए ।
एक स्थान पर 'आवार्य सोमकीति' ने आत्महत्या को बड़ा भारी पाप बलाया और कहा - "प्रातम हित्या पाप शिरदंता लागसि "
इस प्रकार 'आ सोमकीत्ति' अपने समय के हिन्दी एवं संस्कृत के प्रतिनिधि कवि थे इसलिए उनकी रचनाओं को हिन्दी साहित्य में उचित सम्मान मिलना चाहिए ।
भट्टारक ज्ञानभूषरण
अब तक की खोज के अनुसार ज्ञानभूषण नाम के चार भट्टारक हुए हैं । इसमें सर्व प्रथम भ सकलकीति की परम्परा में भट्टारक भुवनकीति के शिष्य थे जिनका विस्तृत वर्णन यहां दिया जा रहा है। दूसरे ज्ञानभूषण भ. वीर चन्द्र के शिष्य थे जिनका सम्बन्ध सूरत शाखा के भ. देवेन्द्रकोति की परम्परा में था । संवत् १६०० से १६१६ तक भट्टारक रहे। तीसरे ज्ञानभूपण का सम्बन्ध अटेर शाखा से रहा था और इनका समय १७ वीं शताब्दि का माना जाता है। और चौथे ज्ञानभूषण नागौर जाति के भट्टारका रत्नकीति के शिष्य थे। इनका समय १८ वीं शताब्दि का अन्तिम चरण था ।
प्रस्तुत भ ज्ञान तुम्मा पहिले भ. विमलेन्द्र फोति के शिष्य थे और बाद में इन्होंने भ. भुवनकीसि को भी अपना गृह स्वीकार कर लिया । ज्ञानभूषण एवं जान कीत्ति दोन हीरा भाई एवं गुरु भाई थे और वे पुर्वी मोलालारे जाति के श्रावक थे। लेकिन संवत् १५३५ में सागवाड़ा एवं नोग्राम में एक साथ तथा एक ही दिन आयोजित होने के कारण हो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हो गयी। सागवाड़ा में होने वाली प्रतिष्ठा के सचालक थे भ. ज्ञानभूषण और नोगाम की प्रतिष्ठा महोत्सव का सचालन ज्ञानकति ने किया । यहाँ से म ज्ञानभूषण बडसाजनों के भट्टारक माने जाने लगे और भ ज्ञानकीति लोहड़साजनों के गुरु कहलाने लगे । १
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देखिए भट्टारक पट्टावलि - शास्त्र भण्डार भ. यशः कीत्ति वि जैन सरस्वती भवन ऋषभदेव (राज)
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक नन्दिसंध की पट्टा बली से ज्ञात होता है कि ये गुजरात के रहने वाले थे । गुजरात में ही उन्होंने सागार धर्म धारण किया, अहीर (आभीर) देश में ग्यारह प्रतिमाए धारण की और वाग्बर या बागड़ देश में दुर्धर महावत ग्रहण किए। तलब देश के यत्तियों में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। तलब देश के उत्तम पुरुषों ने उनके परणों की वन्दना की, द्रविड़ देश के विद्वानों में उनका स्तवन किया, महाराष्ट्र में उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्र के घनी धावकों ने उनके लिए महामहोत्सव किया, सयदश (ईडर के पास पास का प्रान्त) के निवासियों ने उनके वचनों को अतिशय प्रमारग माना । मरूपाट (मेवात) के मुर्ख लोगों को उन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवे के 'मन्य जनों के हृदय-कमल को विकसित किया, मेवात में उनके अध्यात्म रहस्यपूर्ण व्याख्यान से विविध विद्वान् श्रावक प्रसन्न हुए । कुमजागल के लोगों का प्रज्ञान रोग दूर किया, पैराठ (जयपुर के ग्राम पास के लोगों को उभय मार्ग (सागार अनगार) दिखलाये, नमिवाड (नीमाड) में जैन धर्म को प्रभावना की । भैरव राजा ने उनकी भक्ति की, इन्द्रराज ने चरण पूजे, राजाधिराज देवराज न चरणों की पाराधना की। जिन धर्म के आराधक मुदलियार, रामनायराय, बोम्मरसराम, कलपराय, पान्डुराम आदि राजाओं ने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की । व्याकरण-छन्द-अलंकारसाहित्य-तर्क-आगम-अध्यात्म आदि शास्त्र रूपी कमलों पर विहार करने के लिए ये राज हंस थे और शुद्ध घ्यानामृत-पान की उन्हें लालसा थी । उक्त विवरण कुछ अतिशयोक्ति-पूर्ण भी हो सकता है लेकिन इतना तो अवश्य है कि शानभूषण अपने समय के प्रसिद्ध सन्त थे और उन्होंने अपने त्याग एवं विद्वत्ता से सभी को मुग्ध कर रखा था।
ज्ञान भूपण मा भुवनकीत्ति के पश्चात् सागबारा में भट्टारक गादी पर बैठ । अब तक सबसे प्राचीन उल्लेख सम्वत् १५३१ वैशाख बुदी २ का मिलता है जब कि इन्होंने डूगरपुर में आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था। उस समय डूंगरपुर प्रा. रावल सोमदास एवं रानी गुराई का शासन था। श्री जोहारपुकार ने शानभूषण का मारक काल संबत १५३४ से माना है लेकिन यह काल
१. देखिये नाथूरामकी प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास
पृष्ठ संख्या ३८१-३८२ २. संवत् १५३१ वर्षे वैसाख खुबी ५ बुधे श्री मलसंघे भ० श्री सकलकीति
स्तत्प? भ. भुवनकोतिदेवास्तत्प? भ. श्री शानभूषणदेवस्तदुपदेशात् मेघा भार्या टीगू प्रणमति श्री गिरिपुरे राबल श्री सोमवास राज्ञो गुराई
सुराज्ये। ३. देखिये-भट्टारक सम्प्रचाय-पृष्ठ संख्या-१५८
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मदारक ज्ञानभूषण
किरा आधार पर निर्धारित किया है इसका कोई उल्लेख नहीं किया। श्री नाथूराम प्रमी ने भी 'जैन साहित्य और इतिहास में इनके काल के संबन्ध से कोई निश्चित मत नहीं लिखा । केवल इतना हो लिखकर छोड़ दिया कि विक्रम सवत १५३४-३५ और १५३६ के तीन प्रतिमा लेख और भी हैं जिनसे मालूम होता है कि उक्त संयतों में ज्ञानभूषण मट्टारक पद पर थे। डा० प्रेमसागर ने अपनी ''हिन्दी जैन भक्ति काव्य भौर कवि" 5 में इनका भट्टारकः काल संवत १५३२-५७ तक समय स्वीकार किया हैं 1 लेकिन हँगरपुर वाले लेख से यह स्पष्ट है कि ज्ञानभूषण संवत् १५३१ अथवा इससे पहिले भट्टारक गादी पर बैठ गये थे। इस पद पर वे संवत् १५५७-५८ तक रहे । संवत १५६० में उन्होंने तत्वज्ञान तरंगिणी की रचना समाप्त की थी इसकी पुष्पिका में इन्होंने अपने नाम के पूर्व 'मुमुक्ष' शब्द जोड़ा है जो अन्य रचनामों में नहीं मिलता । इससे ज्ञात होता है कि इसी वर्ष अथवा इससे पूर्व ही इन्होंने भट्टारक पद छोड दिया था।
संवत् १५५७ तक ये निश्चित रूप से भट्टारक रहे। इसके पश्चात इन्होंने अपने शिष्य विजयकोत्ति को भट्टारक पद देकर स्वयं साहित्य साधक एवं मुमुक्ष बन गये । वास्तव में यह भी उनके जीवन में उत्कृष्ट त्याग था क्योंकि उस युग में मट्टारकों की प्रतिष्ठा, मान सम्मान बड़े ही उच्चस्तर पर थी। मट्टारकों के कितने ही शिष्य एवं शिष्याएं होती थीं, धावक लोग उनके विहार के समय पलक पावड़े बिछाये रहते थे तथा सरकार की ओर से भी उन्हें उचित सम्मान मिलता था। ऐसे उच्च पद को छोडकर फेवल प्रात्म बितन एवं साहित्य साधना में लग जाना ज्ञानभूषण जैसे सन्त से ही हो सकता था।
मानभूषण प्रतिमापूर्ण सापक थे । उन्होंने आत्म साधना के अतिरिका ज्ञानाराधना, साहित्य साधना, सांस्कृतिक उत्थान एवं नैतिक धर्म के प्रचार में अपना संपूर्ण जोवन खपा दिया । पहिले उन्होंने स्वयं । अध्ययन किया और शास्त्रों के गम्भीर अर्थ को समझा। तत्वज्ञान की गहराइयों तक पहुँचने के लिए व्याकरण, न्याय सिद्धान्त के बड़े २ मंथों का स्वाध्याय किया और फिर साहित्य-सृजन प्रारम्भ किया । सर्व प्रथम उन्होंने रतवन एवं पूजाष्टक लिखे फिर प्राकृत अधों की टीकाए 'लिखी । रास एवं फागु माहित्य की रचना कर साहित्य को नवीन मोड़ दिया और अन्त में प्रपने संपूर्ण ज्ञान का निचोड़ तत्वज्ञान तरंगिणी में डाल दिया ।
साहित्य सृजन के अतिरिक्त मैकड़ों ग्रयों को प्रतिलिपियां करवा कर साहित्य के भाडारों को भरा तथा अपने शिष्य प्रशिष्यों को उनके अध्ययन के लिए प्रोत्साहित amrawwarananewwwwmarwarermirmiranmanna
१. देखिये हिन्दी जन भक्ति काध्य और कवि-7ष्ट संख्या ७३
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
किया सथा समाज को विजयकी त्ति एवं शुभचन्द्र जसे मेधावी विद्वान दिए । मौद्धिक एवं मानसिक उत्थान के अतिरिक्ता इन्होंने सांस्कृतिक पुनर्जागरगा में भी पूर्ण योग दिया । प्राज मी राजस्थान एवं गुजरात प्रदेश के सैकड़ों स्थानों के मंदिरों में उनके द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियां विराजमान हैं। सह अस्तित्व की नीति को स्वयं में एक जन मानस में उतारने में उन्होंने अपूर्व सफलता प्राप्त की थी और सारे भारत को अपने विहार से पवित्र किया। देशवासियों को उन्होंने अपने उपदेशामृत का पान कराया एवं उन्हें बुराइयों से बचने के लिए प्रेरणा दी। ज्ञानभूषण झा व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था । श्रावकों एवं जनता को वश में कर लेना उनके लिए अत्यधिक मरन था। जब वे पर यात्रा पर निकलते तो मार्ग के दोनों ओर जनता कतार बाप खड़ी रहती और उनके श्रीमुख से एक दो शब्द सुनने को लालायित रहती । ज्ञानभूषण ने श्रावक धर्म का नैतिक धर्म के नाम से उपदेश दिया। अहिंसा सस्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य एब अपरिग्रह के नाम पर एक . देश विका, इन्हें जीवन सानो लिए वे घर घर जाकर उपदेश देते और इस प्रकार वे लोगों की शृद्धा एवं भक्ति के प्रमुख सन्त बन गए 1 श्रावक के दैनिक षट् कम को पालन करने के लिए वे अधिक जोर देते।
प्रतिष्ठाकार्य संचालन
भारतीय एवं विशेषतः जन संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा के लिये उन्होंने प्राचीन मंदिरों का जीर्णोधार, नवीन-मंदिर निर्माण, पञ्चकल्याणक-प्रतिष्ठायें, सांस्कृतिक समारोह, उत्सव एवं मेलों आदि के प्रायोजनों को प्रोत्साहित किया । ऐसे आयोजनों में वे स्वयं तो भाग लेते ही थे अपने शिष्यों को भी भेजसे एवं अपने भक्तों से भी उनमें भाग लेने के लिये उपदेवा देते ।
भट्टारक बनते ही इन्होंने सर्व प्रथम संवत् १५३१ में डूगरपुर में २३" x १८ अवगाहना वाले सहस्त्रकूट चैत्यालय की प्रतिष्ठा का सवालन किया, इनमें से ६ बैत्यालय तो डूंगरपुर के ऊडा मन्दिर में ही विराजमान हैं । इस समय डूंगरपुर पर रावल सोमदास का राज्य था। इन्हीं के द्वारा संवत १५३० फाल्गुण सुदी १० में आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सव के समय को प्रतिप्यापित मूतियां जितने ही स्थानों पर मिलती हैं। -- --
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--- - १. संवत् १५३४ वर्षे फास्गुण सुदी १० गुरौ यो मूलसंघे भ. सकलकीति
तस्प? भ. श्री भवनकोत्तिस्त० भ. शानभूषणगुरूपदेशात् हूंवर शातीय साह वाइदो भार्या शिवाई सुत सा. जगा भगिनी बीरदास भगनी प्रनाबी भात्रेय सान्ता एते नित्यं प्रणमति ।
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भट्टारक ज्ञानभूषण
संवत् १५३५ में इन्होंने दो प्रतिष्ठाओं में भाग लिया जिसमें एक लेख जयपुर के छाबड़ों के मंदिर में तथा दूसरा लेख उदयपुर के मंदिर में मिलता है । संवत् १५४० में बड जातीय श्रावक लाया एवं उसके परिवार ने इन्हीं के उपदेश से प्रादिनाथ स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी । इसके एक वर्ष पश्चात् ही नागदा जाति के श्रावक श्राविकाओं ने एक नवीन प्रतिष्ठा का आयोजन किया जिल में भ, जानभुषण प्रमुख अतिथि थे । इस समय की प्रतिष्ठापित चन्द्रप्रभ स्वामी की एक प्रतिमा डूगरपुर के एक प्राचीन मन्दिर में विराजमान है। इसके पश्चात् तो प्रतिष्ठा महोत्सवों की घूम सी मच गई । संवत १५४३, ४४ एवं संवत् १५४५ में विविध प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न हुए । १५५२ में डूगरपुर में एक वृहद् आयोजन हुआ जिसमें विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम सम्पन्न हुये । इसी समय की प्रतिष्ठापित नेमिनाथ •iww.nari.VE.
INEstarahamannamruareranam १. संवत् १५३५ वर्षे माघ सुदी ५ गुरौ श्री मलसंघे भट्टारक श्री भुवन
कोसि स० भ० श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात "गोत्रे सा, माला भा० प्रापु पुत्र संघपति सं० गोइन्द भार्या राजलदे भ्रातृ सं० भोजा भा० लीलन सुत जीवा जोगा जिवास सांसा सुरताण एतः मष्टप्रासिहायं चतुर्विशतिका प्रगति । : २. संवत् १५३५ श्री मूलसंघे भ. श्री भुवनकीति तर भ० श्री शानभूषण
गुरूपदेशात् श्रेष्टि हासा भार्या हासले सुप्त समधरा भार्यापामी सुत नाथा भार्या सारू माता गोआ भार्या पांचू प्रा० महिराज भ्रा० जेसा रूपा
प्रणमंति। ३. संवत् १५४० वर्षे वैशाख सुवी ११ गुरौ थी मूलसंघे भ० भी सकलकीप्ति
तत्प? भ० भुक्नकोत्ति तत्प? भ० शानभूषण गुरूपदेशात् हूँवर शातीप सा० लाला भार्या माल्हणवे मुत हीरा भाई हर भ्रा, लाला रामति तस् पुत्र द्वो० धन्ना, अना राजा विरुषा साहा नेसा वेणा भारसव वाछा
राहूया अभय कुमार एते श्री आदिनायं प्रणमति । ४. संधत् १५४१ व साख सुदी ३ सोमे श्री मूलसंघे भ० जानभूषण
गुरूपदेशात् नागदा शातीय पंथवाल गोत्रे सा. वाछा भार्या जसभी सुत हेपाल भार्या गुरी सुत सिहिसा भार्या चमफ एते चन्द्रप्रभ निस्पं प्रणमंति।
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जस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
की प्रतिमा डूंगरपुर के ऊडे मन्दिर में विराजमान है । यह संभवतः अापके कर कमलों से सम्पादित होने वाला अन्तिम समारोह था । इसके पश्चात् संवत् १५५७ तक इन्होंने कितने आयोजनों में भाग लिया इसका अभी कोई उल्लेख नहीं मिल सत्रा है। संवत् १५६०२ व १५६१३ में सम्पन्न प्रतिष्ठाओं के प्रवक्ष्य उल्लेख मिले है । लेकिन वे दोनों ही इनके पट्ट शिष्य भ० विजयकीति द्वारा सम्पन्न हुए थे। उक्त दोनों ही लेख डूंगरपुर के मन्दिर में उपलब्ध होते हैं। साहित्य साधना
___ज्ञानभूषण भट्टारक बनने से पूर्व और इस पद को छोड़ने के पश्चात् भी साहित्य-साधना में लगे रहे। वे जबरदस्त सहित्य-सेवी थे। प्राकृत संस्कृत हिन्दी गुजराती एवं राजस्थानी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। इन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी में मौलिक कृतियां निबद्ध की और प्राकृत नथों की संस्कृत टीकाएँ लिस्ली। यद्यपि संख्या की दृष्टि से इनकी कृतियां अधिक नहीं हैं फिर भी जो कुछ हैं वे ही इनकी विद्वत्ता एवं पांडित्य को प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त हैं। श्री नाथूराम जी प्रेमी ने इनके "तत्वज्ञानतरंगिणी, सिद्धान्तसार भाष्य, परमार्थोपदेशा, नेमिनिर्वाण की पञ्जिका टोका, गवास्तिकाय, दशलक्षणोद्यापन, प्रादीश्वर फाग, भक्तामरोद्यापन, सरस्वतीपूजा'' ग्रन्थों का उल्लेख किया है । पंडित परमानन्द जी ने उक्त wwrerouwwwwwwwmarawwwwwwwwwwneron.
१. संवत् १५५२ वर्ष जष्ठ वदी ७ शुभ थी मलसंघे सरस्वतीगच्छे
बलास्कारगणे भ. श्री सफलफीत्ति तत्प भट्टारक श्री भुवनकोति तस्पट्ट भ. श्री ज्ञानभूषण गुरुपदेशात् हूंघट गातीय करण भार्या साणी सुत नाना भार्या हीर सुत सांगा भार्या पहतो नेमिमाए एतैः नित्यं
प्रणमंति। २. संग्त् १५६० वर्षे श्री मूलसंघे भट्टारक श्री ज्ञानभूषण तत्प? भ. श्री
विजयकोसिगुरूपदेशात् बाई श्री गोलु न श्रीबाई श्रोविनय श्रोतिमान
पंसितत उद्यापने श्री चन्द्रप्रभ । ३. संवत १५६१ वर्षे चैत्र बबी ८ शुक्र श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे भट्टारक
श्री सकलकोत्ति तत्प भ, श्री भुवनकोति तरपट्ट भ, श्री शानभूषण तत्पट्ट भ. विजयकोत्ति गुरूपदेशात् हवड जातीय टिठ लखमण भार्या मरगदी सुत समवर भार्या मना सुत से गंगा भार्या वहिल सुत हरखा होरा सठा नित्यं श्री आदीश्वर प्ररणमति बाई मचा पिता दोसी
रामा भार्या पूरी पुत्री रंगी एते प्रणमति । ४, देखिये पं. नाथूरामजो प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास--
पृष्ठ - ३८२
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भट्टारक ज्ञानभूषण
रचनाओं के मतिरिक्त सरस्वती स्तवन, आत्म संबोधन आदि का प्रोर उल्लेख किया है । इधर राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों की ज से लेखक ने खोज एवं छानबीन की है तब से उक्त रचनाओं के अतिरिक्त इनके और भी ग्रन्थों का पता लगा है। अब तक इनकी जितनी रचनाओं का पता लग पाया है उनके नाम निम्न प्रकार हैंसंस्कृत ग्रंथ १, आत्मसंबोधन काव्य
६. भक्तामर पूजा २. ऋषिमंडल पूजा
७. श्रुत पूजा ३. सरवशान तरंगिनी
८. सरस्वती पूजा ४. पूजाष्टक टीका
१. सरस्वती स्तुति ५. पनकल्याणकोनापन पूजा १०. शास्त्र मंडल पूजा हिन्दी रचनायें १. प्रादीश्वर फाग
४. षट्कर्म रास २. जलगालग रास
५, नागद्रा रास ३३. पोसह रास
उक्त रचनाओं के अतिरिक्त अभी इनकी और भी कृतियाँ उपलब्ध होने की संभावना है । अब यहां आत्मसंबोधन काव्य, तत्त्वज्ञानतरंगिणी, पूजाष्टक टीका, प्रादीवर फाग, अनगाला रास, पोसह रास एवं षट्कम रास का संक्षिप्त वर्णन उपस्थित किया जा रहा है।
आत्मसंबोधन काय
अपभ्रश भाषा में इसी नाम की एक कुप्ति उपलब्ध हुई है जिसके कर्मा १५ वीं शताब्दि की महापंधित रइधू थे । प्रस्तुत प्रात्मसंबोधन काम भी उसी काव्य
१. देखिये पं. परमानन्द जी का "जन-ग्रंथ प्रशस्ति-संग्रह"
२. राजस्थान के जव शास्त्र भंडारों को पंथ सूची भाग चतुर्ष
पृष्ठ संख्या-४६३ ३. वही पृष्ठ संख्या ६५० ४. वही पृष्ठ संख्या ५२३ ५. वहीं पृष्ठ संख्या ५३७ ६. बही पृष्ठ संख्या ५१५ ७. यही पृष्ठ संख्या ६५७
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व
की रूपरेखा पर लिखा हुआ जान पड़ता है। इसकी एक प्रति जयपुर के बाबा दुलीचन्द के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है लेकिन प्रति अपूर्ण है और उसमें प्रारम्भ का प्रथम पृष्ठ नहीं है । यह एक आध्यात्मिक ग्रंथ है और कवि को प्रारम्भिक रचनाओं में से जान पड़ता है ।
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२. सत्यज्ञानतरंगिणी
इसे ज्ञानभूषरण की उत्कृष्ट रचना कही जा सकती हैं। इसमें शुद्ध श्रात्म तत्व की प्राप्ति के उपाय बतलाये गये हैं । रचना अधिक बड़ी नहीं है किन्तु कवि ने उसे १८ अध्यायों में विभाजित किया है। इसकी रचना सं० १५६० में हुई थी जब वे भट्टारक पद छोड़ चुके थे और आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए मुमुक्षु बन चुके थे । रचना काव्यत्वपूर्ण एवं विद्वत्ता को लिए हुये है ।
भेदजानं बिना न शुद्धचिद्रष ध्यानसंभवः
भवेन्नैव यथा पुत्र संभूति जनकं बिना ||१०|३||
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X न द्रव्येण न कालेन न क्षेत्रेण प्रयोजनं । केनचिन्नेव भावेन न को शुद्धचिवात्मके | १७|४| परमात्मा परब्रह्म चिदात्मा सर्वद्रक शिवः । नामानीमान्य हो शुद्ध चित्र पस्यैव केवलं ||८|
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तरा निरहंकार वितन्वति प्रतिक्षणं ।
अतश्च चित्रपं प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ ४॥ १०॥ ३. पूजाष्टक टोका-
इसकी एक हस्तलिखित प्रति संभवनाथ दि० जैन मंदिर उदयपुर में संग्रहीत है। इसमें स्वयं ज्ञानभूषण द्वारा विरचित आठ पूजाओं की स्वोपज टीका हैं । कृति में १० अधिकार है और उसकी अन्तिम पुष्पिका निम्न प्रकार है
इति भट्टारक श्री भुवनको ति शिष्यमुनिज्ञान भूषविरचितायां स्वकृताष्टकदशकटीकायां विद्वज्जनवल्लभासंज्ञायां नन्दीश्वरद्वीपजिनाल माननीय नामा दशमोऽधिकारः ॥
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यह ग्रन्थ ज्ञानभूषण ने जब मुनि थे तब निवड किया गया था। इसका रचना काल संवत् १५२८ एवं रचना स्थान डूंगरपुर का ग्रादिनाथ चैत्यालय है । "
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१. श्रीमद् विक्रमभूप राज्यसमग्रातीते वसुद्धत्रियक्षोणीसम्मित हायके गिरपुरे नामेयस्यालये ।
अस्ति श्री भुवनादिति मुनयस्तस्यांसि संसेविना, स्वोक्ते ज्ञान विभूषणेन मुनिना टीका शुभेयं कृता ||१||
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अट्टारक ज्ञानभूषण
४. आबिश्वर फाग
'प्रादीश्वर फाग' इनकी हिन्दी रचनाओं में प्रसिद्ध रचना है। फागु संज्ञक काव्यों में इस कृति का विशिष्ट स्थान है। जैन कवियों ने काव्य के विभिन्न रूपों में संस्कृत एवं हिन्दी में साहित्य लिखा है उससे उनके काव्य रसिकता की स्पष्ट झलक मिलती है। जैन कवि पक्के मनोवैज्ञानिक थे । पाठकों को किया पूरा ध्यान रखते थे इसलिये कभी फाट, कभी रास, कभी वेति एवं कभी चरित संज्ञक रचनाओं में पाठकों के ज्ञान की अभिवृद्धि करते रहते थे ।
' आदीश्वर फाग' इनकी अच्छी रचना है, जो दो भाषा में निवद्ध है इसमें भगवान आदिनाथ के जीवन का संक्षिप्त वर्णन है जो पहले संस्कृत एवं फिर हिन्दी में वरित है। कृति में दोनों भाषाओं के ५०१ पद्म है जिनमें २६२ हिन्दी के तथा शेष २३९ पद्य संस्कृत के हैं। रचना की श्लोक गं० ५९१ है ।
कवि ने रचना के प्रारम्भ में विषय का वर्णन निम्न छन्द में किया है:
आहे मयि भगवति रारसति जगति विबोधन माय । मास्य आदि जिणंद, सुरिदवि वंदित पाय ॥२॥
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1
आहे तस धरि मरुदेबो रमणीय रमणीय गुण मशास्त्राणि । रूपर नहीं कोइ तोलाइ बोलइ मधुरीय बारि ||१०||
आहे एक कटी तट बांधड़ हंसतीय रसना लेवि । नेवर कॉबीय नाबीय एक पहिरावड़ देनि ॥१७॥
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माता मरुदेवी के गर्भ में आदिनाथ स्वामी के भरते हो देवियों द्वारा माता की सेवा की जाने लगी। नाच-गान होने लगे एवं उन्हें प्रतिपल प्रसन्न रखा जाने
लगा ।
आहे अंगुली पग वीडीया वीड़ीयनु आकार । पहिराव गुथला, अंगूठइ सगार ॥११८॥ आहे कमल तणी जिसी पांखड़ी बांखड़ी आज एक । fig घालइ सइइ थंड देणी एक ॥१९॥
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आहे देवीय तेवड़ तेवड़ी केवड़ी ना लेई फूल । प्रगट मुकट रचना कर तेह तरण नहीं भुल ||२०||
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतदि
मादिनाथ का जन्म हुमा । देवों एवं इन्द्रों ने मिलकर खूब उत्सव मनाये। पांडक शिला पर ले जाकर अभिषेक किया और बालक का नाम ऋषभदेव रखा गया
आहे अमिष पूर सीध मध अंगि विलये। प्रोगीय अगि कारवाउ कीधउ यहू आक्षेप ॥८४11 पाहे आणीय बहुत विभूषण दूषण रहित प्रभंग। पहिराव्या ते मनि रली वली बली जोमद अंग ।।८५।। आहे नाम अषम जिन दीघउ की नाटक 'चंग । रूप निरुपम देखीय हरषिइ मरीयां अंग ।।८६॥
'बालक आदिनाथ' दिन २ बड़े होने लगे । उनको खिलाने, पिलाने, स्नान कराने आदि के लिये अलग अलग सेविकाए थी । देवियां अलग थी। इसी 'बाललोला' एक वर्णन देखिए:
आहे देवकुमार रमाडइ मातज माउर क्षीर । एक घरइ मुख प्रागलि आगीय निरमल नीर ॥९३|| आहे एक हंसाबइ ल्यावह कइडि चहावीय बाल । नीति नहींय नहींय सलेखन नह मुखि लाल ॥६४|| आहे आंगीय नगि अनोपम उपम रहित शरीर । टोपीय उपीय मस्तकि बालक छह परणवीर ।।९५।। आहे कानेम कूल झलकह स्खलकह नेउर पाइ । जिम जिम निरखद' हरखइ हियडइ तिय तिय माइ ॥१६॥
आदिनाथ ने बड़े ठाट-बाट से राज्य किया । उनके राज्य में सारी प्रजा आनन्द से रहती थी। वे इन्द्र । रामान राज्य-कार्य करते थे।
माहे राभि नरेता सुरेश, मिलीनइ दीधज राज । सर्व प्रजा बज हरखीउ, हरखीउ देव समाज ।।१५४।।
एक दिन नीलंजना नामकादेव नर्तकी उनके सामने नृत्य कर रही थी कि वह देखते २ मर गयी । आदिनाथ वो यह देख कर जगत से उदासीनता हो गयी।
आहे धिग २ इह संसार, बेकार अपार असार । नहीं सम भार समान कुमार रमा परिवार ||१६४|| आहे घर पुर नगर नहीं निज रज सम राज भकाज | ह्य गय पयदल चल मल सरिखउ नारि समाज ||१६५।।
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मट्टारका ज्ञानभूषण
आहे आयु कमल दल सम चंचल चपन शरीर। पौवन धन इव अथिर फरम जिम करतल नीर ।।१६६।। आहे भोग वियोग समनित रोग तरगू पर अंग। मोह महा मुनि निदित निदित नारीय संग ।।१६७३ माहे छेदन भेदन वेदन दीठीय नरग मभारि । भामिनी मोग तणइ फलि सउ किम वांछन नारि ।।
इस प्रकार 'यादिनाथ फाग' हिन्दी की एक श्रेष्ठ रचना है। इसकी भाषा को हम 'गुजराती प्रभावित राजस्थानी का नाम दे सकते हैं ।
रचनाकाल:- यद्यपि 'ज्ञान भूपण' ने इस रचना का कोई समय नहीं दिया है, फिर भी यह संवत् १५६० पूर्व की रचना है-इसमें कोई सन्देह नहीं है। क्योंकि तत्वज्ञानतरंगिणी ( संवत् १५६० ) म० ज्ञानभूषण की अन्तिम रचना गिनी जाती है ।
उपलब्धि स्याम:-'ज्ञान भूषण' की यह रचना लोकप्रिय रचना है । इसलिए राजस्थान के कितने ही शास्त्र-भण्डारों में इसकी प्रतियां मिलती हैं। पामेर. शास्त्र भपहार में इसकी एक प्रति सुरक्षित है :
५. पोसह रास :
यह यद्यपि व्रत-विधान के महात्म्य पर आधारित रास है, लेकिन भाषा एवं शैली की दृष्टि से इसमें रासक कान्य जसी सरसता एवं मधुरता आ गयी है । 'पोषह रास' के कर्ता के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं । पं. 'परमानन्द जी एवं डॉ. प्रेमसागर जी के मतानुसार वह कृति म, वीरचन्द के शिष्य भ. ज्ञानभूषशा की होनी चाहिए; जब कि स्वयं कृति में इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। कवि ने कृति के अन्त में अपने नाम का निम्न प्रकार उल्लेख किया है:
वारि रमणिय मुगतिज सम अनुप सुल अनुभवह । भव म कारि पुनरपि न आवड इह व फलजस गमइ । ते नर पोसह कान भावः एशि परि पोमह धरज नर नारि सुजण । जान भूषण गृह इम भराइ, ने नर करइ बरबाण ॥११॥
१. डॉ प्रेमसागर जी ने इस कृति का जो संवत् १५५१ रचनाकाल बतलाया है वह संभवतः सही नहीं है । जिस पद्य को उन्होंने रचनाकाल वाला पद्य माना है। यह तो उसकी श्लोक संस्था वाला पधे है
हिन्वी जैन भक्तिकाम्य और कवि : पृष्ठ सं० ७५
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बसे इस रास की 'भाषा' अपभ्रंश प्रभावित भाषा है, किन्तु उसमें लावण्य की भी कमी नहीं है।
६०
संसार ताउ विनासु किम दुसइ राम तिवइ ।
श्रोsयु मोहनुपास वलीयनतो नेह नित चीइ ||१८||
इस रास को राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों में कितनी ही प्रतियां मिलती हैं ।
६. बटुकर्म रास :
2
यह कर्म सिद्धांत पर आधारित लघु शसक काव्य है जिसमें इस प्रारणी को प्रतिदिन देव पूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान- इन पट्कर्मों के पालन करने का सुन्दर उपदेश दिया गया है। इसमें ५३ छन्द है और अन्तिम छन्द में कवि ने अपने नाम का किस प्रकार परि उल्लेख किया है, उसे देखिये
गुए उनका
उपह
घरि रहइतां जे आचरइ, ते नर पर मवि स्वर्गं पासइ ।
नरपति पद पामी करीय, तर सघला नइ पाइ नाम६ ।
समकित धरतां जु घर, श्रावक ए प्राचार |
ज्ञानभूषरण गुरु इम भरणार, ते पामइ भवपार ||
७. जलगालन रास :
यह एक लघु रास है, जिसमें जल छानने की विधि का वर्णन किया गया है। इसकी शैली भी षट्कर्म रास एवं पोसह रास जंसी है। इसमें ३३ पद्य है । कविने अपने नाम का अन्तिम पद्य में उल्लेख किया है:
—
गलउ गाशीय गल पागीय से तन मन रंगि,
हृदय सदय कोमल धरु चरम त एह भूल जाएउ | कुछ नीलू गंध करइ ते पाणी लुप्ति घरिम प्राउ | पापीय प्राणी वतन करी, जे गलसिइ नर-नारि । श्री ज्ञान भूषण गुरु इम भराइ, ते तर सिइ संसारि ॥३३॥
भ० ज्ञानभूषण' की मृत्यु संवत् १५६० के बाद किसी समय हुई होगी । लेकिन निश्चित तिथि को अभी तक खोज नहीं हो सकी है ।
ग्रंथ लेखन कार्य :
उक्त रचनाओं के अतिरिक्त अक्षयनिधि पूजा आदि और भी कृतियां हैं ।
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भट्टारक ज्ञानभूषण
रचनायें निबद्ध करने के अतिरिक्त ज्ञानभूषण ने ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करवा कर शास्त्र मण्डारों में संग्रहीत . कराने में भी खुब रस लिया है। माज भी राजस्थान के शात्य भण्डरों में इनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा लिखित किसनी ही प्रतियां उपलब्ध होती हैं । जिनका कुछ उल्लेख निम्न प्रकार मिलता है। -
१. संवत् १५४५ असोज. बुदी १२ शनिवार को ज्ञानभूषण के उपदेश में
धनपाल कृत मविय्यदत्त चरित्र की प्रतिलिपि मुनि श्री रत्नकोत्ति को पठनार्थ भेंट दी गई।
प्रशास्ति संत्रह-पृष्ठ सं. १४९ २. संवत १५४१ माह बुदी ३ सोमबार गरपुर में इनकी गुरु वहिन शांति
गौतम श्री के पठनाथं आशाधर कृत धर्मामृतपंजिका की प्रतिलिपि की गयी।
(ग्रन्थ संख्या-२९० शास्त्र भंडार ऋषमदेव) ३ संवत् १५४९ आषाढ सुदी २ सोमवार को इनके उपदेश से वसुनंदि पंचविंशति की प्रति व्र. ..माणिक के पठनाथ लिखी गई।
अन्य सं. २०४ संभवनाथ मन्दिर उदयपुर । ३. संवत् १५५३ में गिरिपुर (दंगरपुर) के प्रादिनाथ चैत्यालय में सकल
कत्ति कृत प्रश्नोत्तर श्रावक्राचार की प्रतिलिपि इनवे. उपदेश सेवा ज्ञातोय श्रेष्ठि ठाकुर मे लिन वाकर माघनदि मुनि को मेट बी ।
भट्टारकीय शास्त्र भडार अजमेर अन्य सं. १२२
४. संवत् १५५५ में अपनी गुरु बहिन के लिये ब्रह्म जिनदास कृत हरिवंश पुराण की प्रतिलिपि कराई गयी।
प्रशास्ति मंग्रह-पृष्ट ७३ ५. संवत् १५५५ आषाढ बुदी १४ कोटस्याल के वन्द्रप्रभ चैत्यालय में ज्ञान
भुषा के शिष्य ब्रह्म नरसिंह के पड़ने के लिये कातन्त्र रुपमाला वृत्ति की प्रतिलिपि करवा कार मेंट की गई।
संभवनाथ मंदिर शास्त्र मंडार उदयपुर
ग्रन्थ संख्या-२०९
६. संवत् १५५७ में इनके उपदेश से महेश्वर कृत शब्दभेदप्रकादा की प्रतिलिपि' की गई।
ग्रन्थ संख्या-११२ अग्रवाल मंदिर उदयपुर
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राजस्थान के जैन संत : व्यमित्व एवं कुत्तित्व
७. संवत् १५५६ में शानभूषण के भाई आ. रत्नकोसि के शिष्य
न. रत्नसागर ने रांधार मंदिर के पारवनाथ चैत्यालय में पुष्पदंत कृत यशोधरचरित्र को प्रतिलिपि करवायी थी।
प्रशास्ति भयह पृ. ३८६
८. संवत् १५५७ अषाढ बुदी १४ के दिन ज्ञानभूषण के उपदेश से हवड
जालीय श्री श्रेष्ठी जहता मायों पांचू ने महेश्वर कवि द्वारा विरचित शब्दभेदप्रकाश की प्रतिलिपि करवायी ।
ग्रन्थ संख्या-२८ अग्रवाल मंदिर उदयपुर ९. संवत् १५५८ में क्र. जिनदास द्वारा रचित हरिवंश पुराण की प्रति इन्हीं के प्रमुख शिष्य विजयीत्ति को मेंट दी गई देवल ग्राम में
ग्रन्थ संख्या-२४७ शास्त्र मंडार उदयपुर
ज्ञानभूषण के पश्चात् होने वाले कितने ही विद्वानों के इनका आदर पूर्वक स्मरण किया है। भ. शुभचंद की दृष्टि में न्यायशास्त्र के पारंगत विद्वान थे एवं उन्होंने अनेक शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त की थी । सकल भूषण ने इन्हें ज्ञान से विभूषित एवं पांडित्य पूर्ण बललाया है तथा इन्हें सकळकीत्ति की परम्परा में होने वाले भट्टारकों में सूर्य के समान कहा है।
ज्ञानभूषण की मृत्यु संवत् १५६० के बाद किसी समय हुई होगी ऐसा विद्वानों का अभिमत है।
मूल्यांकन :
भट्टारक ज्ञान भूषण' साहित्य-गगन में उस सयम अवतरित हुए जय हिन्दी भाषा जन-साधारण को दानः धानः भाषा बन रही थी। उस समय गोरखनाथ, विधापति एवं कबीरदास जैसे जैनेतर कवि एवं स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, राजसिंह, सधारू और बहम-जिनदास जैसे जैन-विद्वान् हो चुके थे। इन विद्वानों ने हिन्दीसाहित्य' को अपने अनुपम अन्य में किये थे। जाता जिन्हें चाव के साथ पड़ा करती थी। 'म. शानभूषण' ने भी 'आदिनाथ फागु' जैसी चरित प्रधान रचना जन-साधारण की ज्ञानाभिवृद्धि के लिए लिखी तथा जलगालन रास, पांसह रास, एवं षट्कर्मरास जैसी रचनाएं अपने भक्त एवं शिष्यों के स्वाध्यायार्थ लिम्लीं । इन रचनात्रों का प्रमुख उद्देश्य संभवतः जन-साधारण के नैतिक एवं व्यावहारिक जीवन को ऊंचा उठाये रखना था। यद्यपि काव्य की दृष्टि से ये रचनाए कोई उच्चस्तरीय रचनाएं नहीं है, किन्तु कवि की अभि-रुचि देखने योग्य है कि
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भ० विजयकीति
उसने पानी छानकर विधि बतलाने के लिए, व उपवास के महात्म्य को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से ही रासक-काव्यों की रचना में सफलता प्राप्त की । में रासक-काव्य गीति-प्रधान काव्य हैं, जिन्हें समारोहों के अवसरों पर जनता के सामने प्रच्छी तरह रखा जा सकता है ।
भ० विजयकोत्ति
१५ वीं वातादि में मट्टारक सकलकीर्ति ने गुजरात एवं राजस्थान में अपने स्यागमय एवं विद्वतापूर्ण जीवन से भट्टारक संस्था के प्रति जनता की गहरी आस्था प्राप्त करने में महान सफलता प्राप्त की थी। उनके गश्चात इनके दो सुयोग्य शिष्य प्रशिष्यों : भ० भुवनकीति एवं म. ज्ञानभूषण ने उसकी नींव को और भी न करने में अपना योग दिया। जनता ने इन साधुओं का हार्दिक स्वागत किया और उन्हें अपने मार्गदर्शक एवं धर्म गुरू के रूप में स्वीकार किया। समाज में होने वाले प्रत्येक धार्मिक एवं सांस्कृतिक तथा साहित्यिक समारोहों में इनसे परामर्श लिया जाने लगा तथा यात्रा संघों एवं बिम्बप्रतिष्ठानों में इनका नेतृत्व स्वतः ही अनिवार्य मान लिया गया । इन भट्टारकों के विहार के अवसर पर चामिक जनता द्वारा इनका अपूर्व स्वागत किया जाता और उन्हें अधिक से अधिक सहयोग देकर उनके महत्व को जनसाधारण के सामने रखा जाता। ये भट्टारक भी जनता के अधिक से अधिक प्रिय बनने का प्रयास करते थे । ये अपने सम्पूर्ण जीवन को समाज एवं संस्कृति की सेवा में लगाते और अध्ययन, अध्यापन एवं प्रवचनों द्वारा देश में एक नया उत्साहप्रद वातावरण पैदा करते ।
विजयकीति ऐसे ही भट्टारक थे जिनके बारे में अभी बहुत कम लिखा गया है। ये भट्ठारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे और उनके पश्चात भट्टारक सकलकोनि द्वारा प्रतिष्ठापित भट्टारक गादी पर बैठे थे। इनके समकालीन एवं बाद में होने वाले कितने ही विद्वानी ने अपनी नथ प्रशस्तियों में इनका ग्रादर भाव से स्मरण किया है । इनके प्रमुख शिप्य मट्टारक शुभचन्द ने तो इनकी अत्यधिक प्रशंसा की है और इनके संबंध में कुछ स्वतंत्र गीत भी लिखे हैं। विजयकीति अपने समय के समर्थ भट्टारका धे। उनकी प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता काफी अच्छी थी यही बात है कि ज्ञानभुषमा ने उन्हें अपना पट्टाधिकारी स्वीकृत किया और अपने ही समक्ष उन्हें भट्टारक
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पद देकर स्वयं साहित्य सेवा में लग गये।
विजयीति के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अभी कोई निचिश्त जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन भ० शुभचन्द के विभिन्न गीतों के आधार पर ये शारीर से कामदेव के समान सुन्दर थे । इनके पिता का नाम साह नंगा तथा माता का नाम कुअरि था।
साहा गंगा तनयं करउ विनयं शुद्ध गुरू' शुभ बंसह जातं कुअरि मात परमपरं साक्षादि सुबुद्ध जी कोइ शुद्ध दलित तमं । सरसेवत पायं मारीत मायं मभित तमं ।।१०।।
शुभचन्द्र कृत गुरूकुन्द गीत ।
बाल्यकाल में ये अधिक प्रध्ययन नहीं कर सके थे । लेकिन मज्ञानभूषण के संपर्क में प्राते ही उन्होंने सिद्धान्त ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया । गोमट्टसार लब्धिसार त्रिलोकसार प्रादि संद्धान्तिक मथों के अतिरिक्त न्याय, काव्य, व्याकरण मादि के ग्रंथों का भी अच्छा अध्ययन क्रिया और समाज में अपनी बिद्धता की अद्भुत छाप जमा दी:
लब्धि सु गृमट्टसार नार लोक्य मनोहर । कर्कश तर्क वितर्क काव्य कमलाकर क्षिाकर । श्री मूलमधि विख्यात नर विजयीति बोहित करण । जा चांदसूर ता लगि तयो जयह सूरि शुभचंद्र सरगा ।
इन्होंने जब साधु जीवन में प्रवेका किया तो ये अपनी युवावस्था के उत्कर्ष पर थे । सुन्दर तो पहिले से ही थे किन्तु योयन ने उन्हें और भी निखार दिया था। इन्होंने साघु बनते हो अपने जीवन को पूर्णत: संथमित कर लिया और कामनायों एवं प्रटरस व्यंजनों से दूर हट कर ये साधु जीवन की कठोर साधना में लग गये। ये अपनी साधना में इतने तल्लीन हो गये कि देश भर में इनके परित्र की प्रशंसा होने लगी।
भ. शुभ वन्द्र ने इनकी सुन्दरता एवं संयम का एक रूपक गीत में बहुत ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है । रूपक गीत का संक्षिप्त निम्न प्रकार है।
जब कामदेव को भ. बिजयकीति की सुन्दरता एवं कामनाओं पर विजय का पता चला तो वह ईर्ष्या से जल भुन गया और क्रोधित होकर सन्त के संयम को डिगाने का निश्चय किया।
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भक विजयकोत्ति
नाद एह वेरि वरिंग रंगि कोई नावीमो । मूल संघि पट बंध विविह भावि भावीयो । तसह भेरी ढोल नाद वाद तह जपन्नो। भरिण मार तेह नारि कवण आज नीपन्नो ।
कामदेव ने तत्काल देवांगनाओं को बुलाया और विजयकीर्ति के मंयम को भंग करने की पाना दी लेकिन जब देवांगनानों ने विजयकीर्ति के बारे में सुना तो उन्हें अत्यधिक दुख हुआ और सन्स' के पास जाने में कल्ट अनुभव करने लगी । इस पर कामदेव ने उन्हें निम्न शब्दों से उत्साहित किया।
वयण मुनि नद कामिणी दुख धरिह महंत । फही विमासण मझवी नवि वार्यो रहि कंत ।।१३।।
रे कामणि म करि तु दुखह इन्द्र नरेन्द्र मगाच्या मित्रह । हरि हर वंभमि कीया रंकह । लोय सम्छ मम वसाहुं गिसकह ।।१४।। _ इसके पश्चात् क्रोत्र, मान, मद एव मिथ्यात्व की सेना खड़ी की गई। चारों ओर वसन्त ऋतु जैसा सुहावनी ऋतु करदो गई जिसमें कोमल कुहु कुहु करने लगी और भ्रमर मुजरने लगे । भेरी बजने लगी । इन सब ने सन्त विजयकीति के चारों और ओ माया जाल बिछाया उसका वर्णन कवि के शब्दों में पदिये।
वाल्लंत खेलंत चालत धावत धूरणत धूजत हाक्कन पुरंत मोडत तुदंत मत खंजत मुक्कत मारत रंगण फाईल जावंत घालंत फेडत वग्गेण । जाणीय मार गमणं रमणं थ लीसो । वोल्यावह निज बलं सकल सुधीसो। रायं गणंयता गयो बह युद्ध कती ।।१८।।
कामदेव की सेना आपस में मिल गई । बाजे बजने लगे । कितने ही सैनिक . नाचने लगे। धनुषवाण चलने लगे और भोषण नाद होने लगा । मिथ्यात्व तो देखते हो डर गया और कहने लगा कि इस सन्त ने सो मिथ्यात्व रूपी महान विकार को पहिले ही पी डाला है। इसके पश्चात कुमति की बारी आयी लेकिन उसे भी कोई सफलता नहीं मिली। मोह को सेना भी शीघ्र ही भाग गई । अन्त में स्वयं कामदेव ने कम रूपी सेना के साथ उस पर मात्रामा किया।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
महामयण महीमर चडीयो गयबर, कम्मह परिकर साथि कियो मछर मद माया व्यसन विकाया, पाखंड राया साथि लियो ।
उधर विजयकीर्ति ध्यान में तल्लीन थे। कामदेव और उसके साथियों की एक भी नहीं उसी क्षण वहां से भागना पड़ा ।
उन्होंने शम, दम एवं यम के द्वारा चलने दी जिससे मदन राज को
झूटा झूट करीय तिहाँ लगा, भयणराय तिहां तलक्षण भग्गा आगति यो मयाधिय नासइ, ज्ञान खडक मुनि अतिहि प्रकासइ ||२७||
इस प्रकार इस गीत में शुभचन्द्र ने विजयकीर्ति के चरित्र की निर्मलता, ध्यान की गहनता एवं ज्ञान की महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला है । इस गीत में उनके महान व्यक्तित्व की झलक मिलती है ।
विजयकीर्ति के महान व्यक्तित्व की सभी परवर्ती कवियों एवं भट्टारकों ने प्रशंसा की है । ब० कामराज ने उन्हें सुप्रचारक के रूप में स्मरण किया हैं ।" भ० सकल भूपण ने यशस्त्री, महामना, मोक्षसुखाभिलाषी प्राथि विशेषणों से उनकी कीर्ति का बखान किया है। शुभचन्द्र तो उनके प्रधान शिष्य थे ही, उन्होंने अपनी प्रायः सभी कृतियों में उनका उल्लेख किया है। श्रोणिक चरित्र में यतिराज, पुण्यमूर्ति श्रादि विशेषणों से अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है ।
जयति विजयकीर्तिः पुन्यमूर्तिः सुकीर्तिः जयतु च यतिराजो भूमिपः स्पृष्टपादः । नवनलिन हिमांशु ज्ञान भूषस्य पट्टे विविध पर विवाद समांरे वज्रपातः ॥
: किचरित्र :
भ० देवेन्द्रकोर्ति एवं लक्ष्मीचन्द चादवाड़ ने भी अपनी कृतियों में विजयकीर्ति का निम्न दाब्दों में उल्लेख किया है ।
१. विजयकीर्तियो भवन भट्टारकोपवेशिनः ।।७।।
जयकुमार पुराण
२. भट्टारक: श्रीविजयाविकी तिस्तदीयपट्टे वरलब्धतिः ।
महामना मोक्षसुख ।भिलाषी वभूव जंभावनी यापावः ॥
उपदेशरत्नमाला
PLEN
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मा विजयकोत्ति
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१. विजयकीर्ति स पटधारी, प्रगट्या पूरण सुखकार रे।
प्रद्युम्न प्रबन्ध : २.तिन पट विजयकीर्ति जैवत, गुरू अन्यमति परवत समान
:णिक चरित्र :
सांस्कृतिक सेवा
विजयकीर्ति का समाज पर जबरदस्त प्रभान होने के कारण समाज की गतिविधियों में उनका प्रमुख हाथ रहला था। इनके भट्टारफ काल में कितनी हो प्रतिष्ठाए हुई । मन्दिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार किया गया। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सम्पादन में भी इनका योगदान उल्लेखनीय रहा। सर्वप्रथम इन्होंने संवत १५५७.१५६० और उसके पश्चात संवत १५६१, १५६४,१५६८, १५७० प्रादि वर्षों में सम्पन्न होने वाली प्रतिष्ठाओं में भाग लिया और जनता को मार्गदर्शन दिया । इन संवतों में प्रतिष्टित मूर्तियां डूगरपुर, उदयपुर आदि नगरों के मन्दिरों में मिलती है । संवत् १५६१ में इन्होंने सम्यग्दर्शन, सभ्यज्ञान एवं सम्यकचारित्र की महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए रत्नत्रय की मूर्ति को प्रतिष्ठापित किया । १
स्वर्णकाल-विजयकीति के जीवन का स्वर्णकाल संवत् १५५२ से १५७० तक का माना जा सकता है । इन १८ वर्षों में इन्होंने देश को एक नयी सांस्कृतिक चेतना दी तथा अपने स्याग एवं तपस्वो जीवन से देश को आगे बढ़ापा । संवत् १५५७ में इन्हें भट्टारक पय अवदय मिल गया था। उस समय भट्टारक ज्ञानभूषण जीवित थे क्यों कि उन्होंने संवत् १५६० में 'तत्वज्ञान तरंगिगी' की रचना समाप्त की थी। विजयीति ने संमवतः स्वयं ने कोई कृति नहीं लिखी। वे ने पल अपने. विहार एवं प्रवचन से ही मार्ग दर्शन देते रहे । प्रतारक की दृष्टि से उनका काकी ऊंचा स्थान बन गया था और वे बहुत से राजाओं द्वारा मी सम्मानित थे । के शास्त्रार्थ एवं वाद विवाद भी करते थे और अपने अकाट्य तर्कों से अपने विरोधियों से अच्छी टक्कर लेते थे। जब वे बहस करने तो श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते और उनको तर्को को सुनकर उनके ज्ञान की प्रशंसा किया करते । भ. शुभचन्द्र ने अपने एक गीत में इनके शास्त्रार्थ का निम्न प्रकार वर्णन किया है
१. भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ १४४ २. यः पूज्यो नुपम स्लिभैरवमहादेवेन्द्र मुल्यनृपः ।
षटतांगमशास्त्रकोवियमतिजामशचंद्रमा ।। भव्यांभोवहभास्कर: शुभकरः संसारविच्छेदकः । सो व्याछोविजया दिकी तिमुनियो भट्टारकाधीश्वरः । वही पृष्ठ १०
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वादीय वाद ब्रिटंब वादि मिगाल मद गंजन | वादोय कुंद कुवाल बादि श्रध्यनन रोकन | बादि तिमिर हर भूरि, बारि नीर सह् सुधाकर 1 वादि विटंबन वीर बादि निगारण गुण सागर ।
वादीन विबुधसरसति गति मूलसंधि दिगंबर रद्द |
कहि ज्ञानभूषण तो पट्टि श्री विजयकोति जागी यतिवरह ||
इनके चरित्र ज्ञान एवं संयम के सम्बन्ध में इनके शिष्य शुभचन्द्र ने कितने ही
पद्य लिखे हैं उनमें से कुछ का रसास्वादन कीजिये ।
सुरतर सग भर चारुचंद्र चर्चित चरावय । समयसार का सार हंस भर चितित चिन्मय | दक्ष पक्ष शुभ मुक्ष लक्ष्य लक्षण प्रतिनायक ज्ञान दान जिनगान अर्थ चातक जलदायक कमनीय मूर्ति सुंदर सुकर धम्म दार्म कल्याशा कर । जय विजयकोति सुरीश कर श्री श्री वर्द्धन सीय वर ॥१७॥ विशद विसंवद वादि वरन कुंड गंरु भेषज ।
दुर्नय बनद समीर वीर वंदित पद पंकज । पुन्य गोधि सुचंद्र चंद्र चामीकर सुन्दर | स्फुति कोति वात मूर्ति सोभित सुभ संवर संसार संघ बहु दयी हर नागरमनि चारित्र धरा । श्री विजयकीति सूरीस जयबर श्री वर्द्धन पंकहर ||८|
'म' विजयकीत्ति' के समय में सागवाड़ा एवं नोतनपुर की समाज दो जातियों में विभक्त थी । 'विजयकोत्ति' वड़साजनों के गुरु कहलाने लगे थे। जब वे नोतनपुर आये तो विद्वान श्रावकों ने उनसे शास्त्रार्थं करना चाहा लेकिन उनकी विद्वता के सामने वे नहीं ठहर सके । २
शिष्य परम्परा
'विजयकीत्ति' के कितने ही शिष्य में । उनमें से भ. शुभचन्द्र, नुचराज, ब्र यशोधर आदि प्रमुख थे । वृचराज ने एक विजयकीत्ति गीत लिखा है, जिसमें विजयकीति के उज्ज्वल चरित्र की अत्यधिक प्रशंसा को गई है । वे सिद्धान्त के मर्मज्ञ थे
१. तिणि दिव खिसाजनि सागवाड़ सोतिमायन प्रतिष्ठा श्री विजयकस कोनी |
२. यही
"भट्टारक पट्टावलि, शास्त्र भण्डार डूंगरपुर ।
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भ० विजयको ति
तथा चारित्र सम्राट थे । इनके एक अन्य शिष्य श्र यशोधर ने अपने कुछ पदों में विजयकीर्ति का स्मरण किया है तथा एक स्वतंत्र गीत में उनकी तपस्या, विद्वत्ता एवं प्रसिद्धि के बारे में अच्छा परिचय दिया है। गीत का अन्तिम मार्ग निम्न प्रकार है:
अनेक राजा चला सेवि मालवी मेवाड़ गुजर सोरठ सिंधु सहिजि अनेक भड भूषाल ||
दक्षण मरहरु चौरण कुकरा पूरवि नाम प्रसिद्ध । छत्रीस लक्षण कला बहुतरि अनेक विद्यारिधि ॥
श्रागम वेद सिद्धान्त व्याकरण मावि भवीयरण सार | नाटक छन्द प्रमाण सूभि मित जपि नवकार ॥
श्री काष्टा संधि कुल तिलुरे यती सरोमणि सार ।
श्री विजयकीरति गिरु गणधर श्री संघकरि जयकार ॥४
६ ε
१. पूरा पद देखिये- लेखक द्वारा सम्पादित-
राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारो की ग्रन्थ-सूची, चतुर्थभाग- पृ.सं. ६६६-६७ ।
२. विजयकोत गीत, रजिस्टर नं. ७, पृ. सं. ६० | महावीर भवन, जयपुर ।
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ब्रह्म बृचराज HEATRE निर्माता बह्म चार हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित कवि हैं । इनकी एक रचना 'मयण जुज्झ' इतनी अधिक लोकप्रिय रही कि राजस्थान के कितने ही भण्डारों में उसकी प्रतिलिपियां उपलब्ध होती हैं। इनकी सभी कृतियाँ उच्चस्तर की हैं। 'बूचराज' भट्टारक विजयकीति के शिष्य थे । इसलिए उनको प्रशमा में उन्होंने एक 'विनयकोति गीत' लिखा, जिसका उल्लेख हम भ, विजयकीति के परिचय में पहिले ही कर चुके हैं। विजयकीति के अतिरिक्त ये 'भा रत्नकोति' के भी सम्पर्क में रहे थे । इसलिए उनके नाम का उल्लेख भी "भुवनकोति गोत' में किया गया है।
'बूचराज' राजस्थानी विद्वान थे । यद्यपि अभी तक किसी भी कुति में उन्होंने अपने जन्म स्थान एवं माता-पिता आदि का परिचय नहीं दिया है, लेकिन इन रचनात्रों को भाषा के प्रावार पर एवं भ० विजयकीति के शिष्य होने के कारण इन्हें राजस्थानी विद्वान् ही मानना अधिक तर्क संगत होगा । वैसे ये सन्त थे । 'ब्रह्मचारी' पद इन्होंने धारण कर लिया था। इसलिये धर्म प्रचार एवं साहित्य-प्रचार की दृष्टि से ये उत्तरी भारत में बिहार किया करते थे । राजस्थान, पंजाब, देहली एवं गुजरात इनके मुख्य प्रदेश थे। संवत् १५९१ में ये हिसार में थे और उस वर्ष वहीं चातुर्मास किया था। इसलिए १५६ की भादशा शुक्ला पंचमी के दिन इन्होंने "संतोष जय तिलक" को समाप्त किया था। संवत् १५८२ में 2 चम्पावती (चाटसू) में और इस वर्ष फाल्गुन सुदी १४ के दिन इन्हें 'सम्यकस्त्र कौमुदी' की प्रतिलिपि भेंट स्वरूप प्रदान की गयी थी। २
१. सुर तरु संघ बालिज चितामणि बुहिए दुहि ।
महो धरि धरि ए पंच सबद वाजहि उछरंगिहिए । गावहि ए फामणि मधुर सरे अति मधुर सरि गावति कामणि । जिणहं मन्दिर अवही अष्ट प्रकार हि करहि पूजा कुसम मास दाबह ।। बूचराज भणि श्री रस्नकोति पाटि उदयोसह गुरो । श्री भुवनकीत्ति मासीरवादहि संघ कलियो सुरतरी॥
-लेखक द्वारा सम्पादित राजस्थान के जन
शास्त्र भण्डारों की प्राय सूची चतुथं भाग २. "संवत् १५८२ फाल्गुन मुषि १४ शुभ दिने"..........'चंपावती नगरे........ एतान इद शास्त्र कौमुवीं लिखाप्य कर्मक्षय तिमिरा ब्रह्म चाय दत्त ।।
-लेखक द्वारा संपादित प्रशास्ति संग्रह-५ ६३.
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ग्रह वृचराज
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इन्होंने अपनी कृतियों में बुचराज के अतिरिक्त बूचा, वल्ह, बील्ह अथवा बल्ब नामों का उपयोग किया है। एक ही कृति में दोनों प्रकार के नाम प्रयोग में प्राये हैं | इनको रचनाओं के आधार से यह कहा जा सकता है कि वृचराज का व्यक्तित्व एवं मनोबल बहुत ही ऊंचा था । उन्होंने अपनी रचनाएँ या तो भक्ति एवं स्तवन पर श्राधारित की है अथवा उपदेश परक है जिसमें मानव मात्र को कामवासना पर विजय प्राप्त करने तथा सन्तोष पूर्वक जीवन यापन करने का उपदेश दिया गया है।
समय
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कविवर के समय के बारे में निश्चित तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता लेकिन इनकी रचनाओं के आधार पर इनका समय संवत् १५३० से १६०० तक का माना जा सकता है । इस तरह उन्होंने अपने जीवन काल में भट्टारक भुवन कीर्ति, ज्ञानभूषण एवं विजयकोसि का समय देखा होगा तथा इनके सानिध्य में रहकर बहुत कुछ सीखने का अवसर भी प्राप्त किया होगा। ऐसा लगता है कि ये ग्रहस्थावस्था के पश्चात् संवत् १५०५ के आस पास ब्रह्मचारी बने होंगे तथा उसी के पश्चात् इनका ध्यान साहित्य रचना की ओर गया होगा । 'भया जुज्भ्' इनकी प्रथम रचना है जिसमें इन्होंने भगवान आदिनाथ द्वारा कामदेव पर विजय प्राप्त करने के रूप में संभवत: स्वयं के जीवन का भी उदाहरण प्रस्तुत किया है।
कवि की अभी तक जिन रचनाओं को खोज की जा सकी है वे निम् प्रकार हैं ।
१. ममरणजुज्झ ( मदनयुद्ध )
२. संतोष जयतिलक
३. चेतन पुद्गल धमाल
४. टंडारणा गीत
५. नेमिनाथ वसंतु
६. नेमीश्वर का बारहमासा
७.
८.
विभिन्न रागों में लिखे हुए ८ पद विजयकीत्ति गीत
१. मघणडुज्झ
यह एक रूपक काव्य' है जिसमें भगवान् ऋषभदेव द्वारा कामदेव पराजय का वर्णन है । यह एक आध्यात्मिक रूपक काव्य है, जिसका प्रमुख उद्देश्य "मनो
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१. साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन जयपुर के एक गुटके में इसको एक प्रति संग्रहीत है।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विकारों के अधीन रहने पर मानव को मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती।" इसको पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना है। काम मोक्ष रूपी लक्ष्मी प्राप्त करने में बहुत बड़ी बाधा है, मोह, माया, राग एवं ₹ष काम के प्रबल सहायक हैं। वरान्त काम का दुस है, जो काम की विजय के लिए पृष्ठ भूमि बनाता है लेकिन मानव अनन्त शक्ति एवं ज्ञान वार है यदि वर नाले त सजिमा ५. दिशा मप्त कर सकता है। और इसी तरह भगवान ऋषभदेव भी अपने प्रात्मिक गुणों के द्वारा काम पर विजय प्राप्त करते हैं। कवि ने इस रूपक को बहुत ही सुन्दर रीति से प्रस्तुत किया है।
वसन्त कामदेव का दूत होने के कारण उसकी विजय के लिये पहिले जाकर अपने अनुरूप वातावरण बनाता है। बसन्त के आगमन का बुक्ष एवं ललायें तक नव पुष्पों से उसका स्वागत करती हैं। कोयल कुहू कुहू की रट लगा कर, एवं भ्रमर पंक्ति गुन्जार करती हुई उसके आगमन की सूचना देती है। युवतियां अपने श्रापको सज्जित करके भ्रमण करती है । इसी वर्णन को कधि के शब्दों में पढ़िए....
बज्यउ नीसाण पसंत आपउ, छल्लकुद सिखिल्लिंयं । सुगंध मलया पवण भुल्लिय, अनं कोइल्ल कुल्लिय।। हरण झुरिणय केवइ कलिय महुवर, सुप्तर पत्तिह छाइयं । गावति गीय वनि वीणा, तकरिंग पाइक प्राइयं ।।। जिन्ह कंडिल केस कलाव, कुतिल मग मुसिय धारिय । जिन्ह वीण भवयंग लगति चंदन गुथि कुमुमणा वारियं । जिन्ह भवह धुणहर बनिय समुहर नवरण बाण चडाइयं । गायत गीय वजंति बीमा, तरुणि पाइक श्राध्यं ॥३८॥
मदन (कामदेव) भी ऐसा वैसा योद्धा नहीं जो शीघ्र ही अपनी पराजय स्वीकार करले, पहिले वह अपने प्रतिपक्षियों की शक्ति परीक्षा करता है और इसके लिए अपने प्रधान सहायक मोह को भेजता है। वह अपने विरोधियों के मन में विकार उत्पन्न करता है।
मोह चस्लिउ साथि कलिकालु। जह हुतउ मदन मटु, तमु जाद् कुमनु कीयउ । गढ़ विषमउ धम्मु पुरू, तहसु सधनु संबूहि लिंघउ । दोनउ चल्ले पंज करि, गम्य बरयउ मन मंगहि । पवन सबल जब उछलाहिं, घरा कर केव रहाहि ।।८७॥
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ब्रह्म वचसाज
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गाथा
रहहि सुकिब घराघट, जुडिया जह सबल गजि गजघट । समिविडि चले सुभदं, पधारणउ कीयउ मडि मोहं ।।८८1
अन्त में भावात्मक युद्ध होता है और सबसे पहिले भगवान् प्रादिनाथ राग को वैराग्य में जीत लेते हैं
परियउ तिमरु जिउ देखि भारण, यागिर छोडि सो पम्म टाणु । उति रागु चल्यउ गरजत महीरु, वैरागु हव्यउ तनि तसु तीस ।।१०९॥
फिर क्या था, मगवान् प्रादिनाथ एक एफ योना को जीतते गए । क्रोध को क्षमा से, मद को मादव से, माया को प्रार्जव से, लोम को सन्तोष से जीत लिया । अन्त में पहिले मोह, तथा बाद में काम से युद्ध हुआ। लेकिन वे भी ध्यान एवं विवेक के सामने न टिक सके और प्रात में उन्हे भी हार माननी पड़ी।
_ 'मयण जुज्झ' को कवि ने संवत् १५८६ में समाप्त किया था, जिसका उल्लेख्न कवि ने रचना के अन्तिम छन्द में किया है। यह रूपक काव्य अभी तक अप्रकाशित है। इसकी प्रतिलिपि राजस्थान के कितने ही भण्डारों में मिलती है।। २. संतोय जय तिलक
यह फावि का दूसरा रूपक कान्य है। इसमें सन्तोष की लोम पर विजय का वर्णन किया गया है। काव्य में सन्तोष के प्रमुख अंग हैं—शील, सदाचार, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र, वैरान, तप, करणा, क्षमा एवं संयम । लोम के प्रमुस्त्र अगों में असत्य, मान, क्रोध, मोह, माया, कलह, कुव्यसन, एवं अनाचार आदि हैं । वास्तव में कवि ने इन पात्रों की संयोजना कर जीवन के प्रकाश और अन्धकार पक्ष की उदभावना मौलिक रूप में की है । कवि ने मात्म तत्व की उपलब्धि के लिए निवृत्ति मार्ग को विशेष महत्व दिया है। काव्य का सन्तोष नायफ है एवं लोम प्रतिनायक ।
१. राइ विश्कम सण संवतु नवासियन पनरसे।
सबबरूति आसु बखाण, तिथि पडिया सुकल पख ।। सुसनिश्चवार यरू णिखित्त जणंउ, तिणि दिलि बल्ह सुस पबिउ ।
मयणं जुजा सुविसेसु करत पढ़त निसुणंत नर, जयज स्वामि रिसहेस ।।१५६॥ २. "जिम मन्दिर नागवा' नदी (राजस्थान) के गुटका नं० १७४ में इसकी
प्रति संग्रहीत है।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतवि
जब वे दोनों युद्ध में अवतरित होते हैं तो उनको शक्ति का कवि ने निम्न प्रकार से वर्णन किया है
षट् पय छन्द
आमत भूठु परधानु, मंतु तत्त खिरिण कीयउ । मा नु कोहु अरू दोहु मोह, इकू युद्धउ थीयउ । माया कलहि कलेसु थापु, संतापु छदम दुग्छु । कम्म मिथ्या वासरउ, प्राइ अद्धम्मि किंगउ पाल्नु । कुविसनु कुसीलु कुमतु जुडिउ रागि दोषि प्राइ लहिउ । अप्पराउ सपनु वलं देखि करि लोह रा उ तब गगहिउ ॥७२॥
गीतिका छन्द
आईयो सीलु सुद्धम्मु समकतु, न्यानु चरित संवरों। वैरागु, तपु, करूणा, महायत खिमा चित्ति संजमु थिरु। . अज्जउ मुमद्दउ मुत्ति उपरामु, द्धम्मु सो आकिंत्रणों। इन मेलि दनु मंतोप राजा, लोम सिउ मंडइ रणो॥७६।।
रचना में लोम के अवगुणों का विस्तृत वर्णन किया गया है, क्योंकि अनादि काल ने चारों गतियों में घूमने पर भी यह लोभ किसी का पीछा नहीं छोड़ता ।
गाथा
भमियउ अनादिकाले चहुंगति, मम्मि जीउ बहु जोनी। बसि करि न तेनि सक्कियउ, यह दारणु. लोम प्रचंड ।।१४।।
दोहा
दारणु लीम प्रचं? यहूं, फिरि फिरि बहु दुःख दोय । ध्यापि रया बलि प्रपद, लख चउरासी जीय ।।१५।।
लोभ तेल के समान है, जैसे जल में तेल की बून्द पड़ते ही वह चारों ओर फैल जाती है, उसी प्रकार लोभ को फिचित मात्रा भी इस जीव को चतुर्गति में भ्रमण कराने में समर्थ है । भगवान् महावीर ने संसार में लोभ को सबसे बुरा पाप कहा है । लोभ ने साधुभों तक को नहीं छोड़ा । वे भी मन के मध्य मोक्ष रूपी लक्ष्मी को पाने की इच्छा से फिरते हैं । इन्हीं भावों को कवि के शब्दों में पहिए
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ब्रह्म भूधराज
जिव तेल बून्द जल माहि पडइ, सा पसरि रहे माजनइ छाइ । तिल लोभु करइ राईस चारु, प्रगटावे जगि में रह विधारू ।।२२।।
वण मझि मुनीसर जे वसहि, सिव रमरिग लोभु तिन हिमइ माहि । इकि लोभि लगि पर भूमि आहि, पर करहि सेव जीउ जीउ मणहि ॥२४॥
मणवु तिजंचहे नर मुरह, होडाये गति चारि । वीर भरपर गोइम निसुणि, लोभ बुरा संसारि. ।।४।।
'संतोष जय तिलक' को कवि ने हिसार नगर में संवत् १५९१ में समाप्त किया था । इसका स्वयं कवि ने अपनी रचना के अन्त में उल्लेख किया है ।
संतोपह जयनिल जपिउ, हिसार नयर मझ में 1 जे सुगहि भविय इक्कमनि, ते पायहि वंछिय सुक्न ॥११।। संत्रति पनरह इक्याण मद्दवि, सिम परिख पंचमी दिवसे । सुबकवारि स्वाति वर्ष जेउ, तहि जारिण भनामेण ॥१३०।।
'संतोष जय तिलक' कृति प्राचीन राजस्थानी की एक सुन्दर रचना है, जिसकी भाषा पर अपना का अधिक प्रभाव है। अकारान्त शब्दों को उकारात बनाकर प्रयोग करना कवि को अधिक प्रभोष्ट था । इसमें १३१ पद्य हैं। जो साटिक, रड, रंगिक्का, गाथा, षटपद, दोहा, पद्धडी, अडिल्ल, रासा, चंदाइ, गीतिका, तोटक, प्रादि छन्दों में विभक्त हैं। रचना भाषा विज्ञान अध्ययन की दृष्टि में उत्तम है। यह अभी तक अप्रकाशित है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति दिए जैन मन्दिर नेमिनाथ बून्दी (र)जस्थान) के गुटका मख्या १७४ में संग्रहीत है । ३. नेतन पुआल धमाल'
यह कवि के रूपक काव्यों में रावसे उत्तम रचना है। कवि ने इसमें जीव एवं पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्धों का तुलनात्मक अध्ययन किया है।"चेतन मुगु ! निर गुस्स जड़ सिउ संगति कीजइ" को यह बार बार दोहराता है। वास्तव में यह एक सम्वादात्मक काव्य है जिसके नीय एवं जड़ : 'अजीव' दोनों मायक हैं। स्वयं anuman-rai-
manaru
waon१. शास्त्र भण्डार वि. जैन मन्विर नागदा दून्दी के पुटका संख्या १७४ में
इसको प्रति संग्रहीत है।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कवि ने प्रारम्भिक मंगलाचरण के पश्चात काव्य के मुख्य विषय को पाठकों के समक्ष निम्न शब्दों में उपस्थित किया है
पंच प्रमिाटो वल्ह कवि, ए परमो धरिभाउ । वेतन पुद्गल दहूक, सादु विवादु सुणावी ॥३२॥
प्रारम्भ में नेतः दाद जि को कार सारे हाट कहना है कि जड़ पदार्थ से किसी को प्रीति नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह स्वयं विध्वंसनशील है । जड़ के साथ प्रम बढ़ाकर अपने अपका उपकार सोचना सर्प को दूध पिलाकार उससे अन्छे स्वभाव की प्राशा करने के समान है।
जिनि कारि जाणी आपणी, निश्चे वूला होइ। खीर पया विसहरि मुले, ताते क्या फल होई ॥३७|| चेतन के प्रश्न का जड़ ने जो सुन्दर उत्तर दिया उसे कवि के शब्दों में पलिएचेतन चेति न चालई, कहनत माने रोसु । आये बोलत सो फिरे, जड़हि लगाबइ घोसु ।।३८]
छह रस भीयण विधिह परि, जो जह नित सोचेइ । इन्दो होवहि पड़बड़ी, तव पर घम्भु चले ।।४।।
इस प्रकार पूरा रूपक संवाद पूर्ण है, चेतन और पुद्गल के सुन्दर विवाद होता है। क्योंकि जड़ और चेतन का सम्बन्ध अनादिकाल से चला पा रहा है वह उसी प्रकार है, जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि एवं सिलों में सेल रहता है ।
जिउ वसन्दरु कट्ठ महि, तिल महि तेलु भिजेउ ।
आदि अनादिहि जारिगये, चेतन पुद्गल एष ॥५४॥
एक प्रसंग पर चेतन पदार्थ जड़ से कहता है कि उसे सईव दूसरों का भला करना चाहिए । यदि अपना बुरा होता हो तो भी उसे दूसरों का भला करना चाहिए।
भला करन्तिहि मीत सुणि, जे हुइ बुरहा जाणि । तो भी भला न छोड़िये, उत्तम यह परवाणु ।।७०॥ लेकिन इसका पुद्गल के द्वारा दिया हुआ उत्तर भी पढिए। . भला भला सहु को कहे, मरमु न जाणे कोइ । काया सोई मीत रे, भला न किस ही होह ॥७१।।
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ब्रह्म बूच राज
किन्तु इससे भी अधिक व्यंग निम्न पथ में देखिए
जिम तर आपण खूप सहि, अवरह छांह कराई
लिज इसु काया संग ते मोखही जीवहा जाए 1७३॥
रचना के कुछ सुन्दर पद्य पाठकों के अवलोकनार्थ दिए जा रहे हैं
जिउ समिमंड रमणिका दिन का मण्डणु भार । तिम चेतन का मण्डरा, यह मुद्गल तू जाण ॥७८॥
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काय कलेवरु बसि सुहु, जततु करन्तिहि जा । जिन जिव पाचे तूबड़ी, तिव तिथ अति करवाई ॥८१॥
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फूलु मरह परमलु जीवद्द, तिसु जाणे सह कोई । हंसु चल काया रहइ, किवस बराबर होइ ||८३ ||
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काया की निंदा करइ, आपु न देखइ जोइ ।
जिउ जिउ भीज कांवली, तिज तिज भारी होइ
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जिय विगु पुद्गल ना रहे कहिया आदि अनादि । छह खंड भोगे चक्कर्ष, काया के परसादि ॥ ६६ ॥ X
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कासु पुकार किसु कहउ, हीयडे मीतरि बाहु । जे गुण होवहि गौरडो, तब बन छोडे ताहु
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मोती उपमा सीप महि, विद्धि माथावे लोइ । तिउ जी काया संगते, सिजपुरि बासा होइ ॥ १०४ ॥
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कालु पंच मारुद्द यहु, चित्तु सुखुन मोखु हुई, दोन
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न किसही ठांइ ।
खोबहि काए । ११४ ।।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
यह संजम असिवर अशी, सिसु ऊपरि पगु देहि । रे जीय मूढ न जाएही, इव कत्रु किन सीहह्येहि ॥ १२४ ॥
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उद्दिमु सासु वीरु वलु, बुद्धि पराकमु जाणि 1
ए छह जिनि मनि दिनु किया, ते पहुँचा निरवाणि ।। १३१ ।।
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दीपक राग के तथा
'चेतन पुदगल धमाल' में है, जिनमें १३९ प शेष ५ पद्य मष्ट पर छप्पय छन्द के हैं । कवि ने इस रचना में अपने दोनों ही नामों का उल्लेख किया है। रचना काल का इसमें कहीं उल्लेख नहीं हुआ है किन्तु संभवतः यह कृति रचनाएं संवत् १५९१ के बाद की लिखी हुई हैं क्योंकि भाषा एवं शैली की दृष्टि में इसका रूप अत्यधिक निखरा हुआ है। धमाल का अन्तिम पद्म निम्न प्रकार है.....
जिय मुकति सरूपी, तु निकल मलु राया । इसु जड के संग ते भमिया करमि ममाया
"
टिकवल जिवा गुरिण, तजि कम संसारो । मजिजिरा गुरण हीयडे, तेरा याहू बिवहा । विवहास यह तुझ जारिण जीयडे करहु इंदिय सवरो । निरजर बंधण कम्मं केरे, जान तनि दुकाजरो ।।
जे वचन श्री जिए वीरि भासे, ताह नित धारह हीया । व भग वृचा सदा निम्मल, मुकति राख्मी जीया ॥ १३६ ॥
४. टंडाणा गीत
यह एक उपदेशात्मक गीत है। जिसका प्रधान विषय " इसि संसारे दुःख भंडारे क्या गुण देखि लुभारणावे" है । कवि ने प्राणी मात्र को संसार से सजग रहते हुए शुद्ध जीवन यापन करने का उपदेश दिया है क्योंकि जिस संसार ने उमे अनादि काल से ठगा है, फिर भी यह प्राणी उसी पर विश्वास करता रहता है |
गीत की मापा शुद्ध हिन्दी है, जो प्रपभ्रंश के प्रभाव से रहित है । कवि ने रचना में अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त और कोई परिचय नहीं दिया है।
सिघि सरूप सहज ले खावे, घ्यावे अंतर झाणावे ।
जंपति बूचा जिय तुम पाव, चंछित सुख निरवारणावे ॥ १५ ॥
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ब्रह्म पराज
रचना का नाम 'टंडारणा गीत' प्रारम्भिक पद्य के कारण दिया गया है । पैसे टंडारणा शब्द यहाँ संसार के लिये प्रयुक्त हुमा है। टंडाणा, टांडा शब्द से बना है, जिसका अर्थ व्यापारियों का चलता समूह होता है। संसार भी प्राणियों के समूह का ही नाम है, जहां सभी वस्तुएं अस्थिर हैं।
गीत के छन्द पाठकों के अवलोकनाथं दिये जा रहे हैं.... मात पिता सुत सजन मरीरा, दुहु सब लोगि विराणावे । इयण पंख जिमि तरषर वास, दसहुँ दिशा उडाणाये ।। विषय स्वारथ सब जग बछे, करि करि बुधि विनारणावे ।
छोष्टि समाधि महारस नूपम, मधुर विदु लपटारगावे ॥
इसकी एक प्रति जयपुर के शास्त्र भण्डार दि. जैन मन्दिर गोधा के एक गुटके के संग्रह में है। ५. नेमिनाथ वंसतु
यह वसत आगमन का गीत है । नेमिनाथ विवाह होने से पूर्व ही तोरण द्वार से सीधे गिरनार पर जाकर तप धारण कर लेते हैं। राजुल को लाख समझाने पर भी वह दूसरा विवाह करने को तैयार नहीं होती और वह भी तपस्विनी का जीवन यापन का निश्चय कर लेती है। इसके बाद वसन्त ऋतु प्राती है 1 राजुल तपस्विनी होते हुए भी नवयौवना थी। उसका प्रथम अनुभव कैसा होगा, इसे कवि के शब्दों में पढ़िए....
अमृत अंबु लउ मोर के, नेमि जिणु गढ़ गिरनारे। म्हारे मनि मधुकर निह वसइ, संजमु कुसमु महारो ॥२॥
सखिय वसंत सुहाल रे, दीसइ सोरठ देसो। । कोइल कुहकह, मधुकर सारि सब वह पइसो १३२॥
विबलसिरी मह महकैदरे, भंवरा रुणझुणु कारो। गावहि गति स्वरास्वरि, गंधव गढ गिरनारे ॥४॥
लेकिन नेमिनाथ ने तो साधु जीवन अंगीकार कर लिया था और वे मोक्ष लक्ष्मी का वरण करने के लिए तैयारी कर रहे थे, इसलिये वे अपने संयम के साथ फाग खेल रहे थे। क्षमा का वे पान चबाते और उससे राग का उगाल निकालते 1
मुक्ति रमरिण रंगि रातेउ, नेमि जिणु चेलइ फागो। सरस तंबोल समा रे, रासे राग उगालो ।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
राजुल समुद्र विजय की लाडली कुमारी थी, लेकिन अब तो उसने भी प्राप्त प्रगीकार कर लिए थे । जब नेमिनाथ तपस्वी जीवन बिताने लगे तो वह क्यों पीछे रहती, उसने भी संयम धारण कर लिया....
समुद्रविजयराइ ला डिलर, अपूरव देस विसालो। नब रस रसियउ नैमि जिरगु, नव रस रहित रसालो ।।७।। तिर गिलास रिण भो नमो. समुन नियमावास। नेमि छलि तिहुयरिंग छलियज, माणिणि मलियउ मारू ।।८।। राजुल द्वेन देइत्रत दिनु रमह, संजम सिरिख सुजाणो। जगु जागइ तव सोवइ, जागह सूतह लोगो। रचना में २३ पद्य हैं, ' अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है......., बल्हिं विपक्खणु, सखीय वंघण जाइ । मूल संघ मुख मंडया, पद्ममन्दि सुपसाइ ।
वहि वसंतु जु गावहि, सो सखि रलिय कराई। ६. नेमिश्वर का बारहमासाने
यह एक छोटी सी रचना है, जिसमें नेमिनाथ एवं राजुल के प्रथम १२ महिनों का संक्षिप्त वर्णन दिया हुआ है । वर्णन सुन्दर एवं सरस है, रचना में १२ पद्य हैं। ७. विभिन्न रागों में लिखे हुए आठ पर
कवि के उपलब्ध आठ पद आध्यात्मिक भावों से पूरा बोतप्रोत हैं । पद लम्बे हैं, तथा राग घनासरी, राग गौडी, राग वडस, राग दीपका, राग महड, राग विहागड, तथा राम प्रासावरी में लिखे हुए हैं। राग गोडी वाले पद के अतिरिक्त सभी पदों में कवि ने अपना पूचराज नाम लिखा है। केवल लसी पद में वह नाम दिया है । एक पद में भगवान को फूलमाला चढाने का उल्लेख माया है। उस समय किये गये फूलों का नाम देखिए ।
राइ चंपा, अरू केबडा, लालो, मालवी मरूवा जाइवे कुद मय कंद अरू केवड़ा लालो रेवती बहु मुसकाय ।
गौडो राग काला पद अत्याधिक सुन्दर है,उसे भी पाठकों के एठनाधू अविकस रूप में दिया जा रहा है। WILAWAAAAAAAAAAAAmwamRNAKARMANAMAMMeammmmmmmmmmmmmmar १. इसको एक प्रति महावीर भवन जयपुर के संग्रह में है।
वही
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रंग हो रंग हो रंग करि जिगवा ध्माइये। रंग हो रंग होइ सुरग सिउ मनु लाइये ।। साइये यातु मनुरंग इस सिज प्रवर रंगु पतंगिया । घुक्ति रहइ जिउ मंजीठ कपड़े लेब जिण चतुरंगिया । जिव लगनु वस्तर रंगु तिवला. इसहि काम रमाप हो। कवि बल्ह लालचु लोड भूठा रंगि जिरावरु ध्यान हो ॥१॥ रंग हो रंग हो पंच महारत पालिये। रंग हो या हो सृष्ट गिहाली हे 18 निहालि यहि सुख अनंत जीयडे आठमद जिनि बिउ करे। पंचिदिया दिलु लिया समकतु करम वंधण निरजरे ॥ इस विषय विषयर नारि परधनु देखि चित्त न टाल हो । कवि बल्ह लालच छोडि भूठा रंगि पंच व्रत पास हो ॥२॥ रंग हो रंग हो दिनु करि सीयलु राखीये । रंग हो रंग हो शान वचन मनि मालीये । माषिये निज गुर ज्ञानवाणी रागु रोसु निवारहो। परहरहु मिष्या करहु संवरू हीयद समकतु धार हो। वाईस शीसह सहहु अमुधिनु देह सिउ मंडह बलो। कवि वल्ह लालतु छोष्टि झूटा रंगु दिद करि सीयलो ॥३॥ रंग हो रंग हो मुकति वरणी मनु लाइये। रंग हो रंग हो म संसारि न पाइये ।। प्राइये नहु संसारि सागर जीय बहु दुखु पाइये। जिसु वा चहुं गति फिर्या लोडे सोई मारगु ध्याइये । त्रिभुषणह तारगु देउ अरहंतु सुगुरण निजु माइये। कवि बल्ह लालच छोडि झूठा मुकति सिउ रमु लाइये ।।४।।
८. विजयकोति गीत
यह कवि का एक ऐतिहासिक गीत है जिसमें भ. विजयकीति का तपस्वी जीवन की प्रशंसा की गयी है एवं देश के अनेक शासकों के नाम भी गिनाये हैं जो उन्हें अत्यधिक सम्मानित करते थे।
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८२.
मूल्यांकन
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
काव्यत्व,
'वृचराज' की कृतियों के अध्ययन के पश्चात् यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उन्होंने हिन्दी - साहित्य को अपूर्व सेवा की थी। उनकी सभी कृतियां भाषा एवं शैली की दृष्टि से उच्चस्तरीय कृतियां है, जिनको हिन्दीसाहित्य के इतिहास में उचित स्थान मिलना ही चाहिए। कवि ने अपने तीनों ही रूपक काव्यों में काव्य की वह वारा बहायी है जिसमें पाठकगण स्नान करके अपने जीवन को शान्त, सर्पमित, शुद्ध एवं संतोषपरक बना सकते हैं । कवि ने विभिन्न छन्दों एवं राग-रागनियों में अपनी कृतियों को निबद्ध करके अपने छन्द-शास्त्र का ही परिचय नहीं दिया, किन्तु लोक धुनों की भी लोक प्रियता का परिचय उपस्थित किया है । इन कृतियों के माध्यम से कवि ने समाज को सरल एवं सरस भाषा में अध्यात्मिक खुराक देने का प्रयास किया था और लेखक की दृष्टि में वह अपने मिशन में प्रत्यधिक सफ़ल हुआ है । कवि जैन दर्शन के मुद्गल एवं चेतन के सम्बन्ध से अत्यधिक परिचित था । अनादिकाल से यह जीव जड़ को अपना हितैषी समझता आरहा है और इसी कारण जगत के चक्कर में फंसना पड़ता है। जीव और जड़ के इस सम्बन्ध की पोल 'चेतन पुद्गल धमाल' में कवि ने खोल कर रखदी है । इसी तरह सन्तोष एवं काम वासना पर विजय प्राप्त करने का जो सुन्दर उपदेश दिया है - वह भी अपने ढंग का अनोखा है । पात्रों के रूप में प्रस्तुत विषय को उपस्थित करके कवि ने उसमें सरसता एवं पाठकों की उत्सुकता को जाग्रत किया है । कवि के अब तक जो विभिन्न रागों में लिखे हुए आठ पद मिले हैं, उनमें उन्हीं विषयों को दोहराया गया है । कवि का एक ही लक्ष्य था और वह था : जगत के प्राणियों को सुमार्ग पर लगाने का
1.
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संत कवि यशोधर
हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के ऐसे कडा साहित्य सी हैं जिनकी सेवाओं का उल्लेख न तो भाषा साहित्य के इतिहास में ही हो पाया है और न अन्य किसी रूप में उनके जीवन एवं कृतियों पर प्रकाश डाला जा सका है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात एवं देहली के समीपवर्ती पंजाबी प्रदेश में यदि freतृत साहित्यिक सर्वेक्षण किया जावे तो आज भी हमें सैंकड़ों ही नहीं किन्तु हजारों कवियों के बारे में जानकारी उपलब्ध हो सकेगी जिन्होंने जीवन पर्यंत साहित्य सेवाको यी किन्तु कालान्तर में उनको एवं उनकी कृतियों को सदा के लिये भुला दिया गया 1 इनमें से कुछ कवि तो ऐसे मिलेंगे जिन्हें न तो अपने जीवन काल में ही प्रशंसा के दो शब्द मिल सके और न मृत्यु के पश्चात् ही उनकी साहित्यिक सेवा के प्रति दो
बहाये गये ।
सन्त यशोधर भी ऐसे ही कवि हैं जो मृत्यु के बाद भी जनसाधारण एव विद्वानों की दृष्टि से सदा श्रीमल रहे। के हनिष्ठ साहित्य सेवी थे । विक्रमीय १६ वीं शताब्दी में हिन्दी की लोकप्रियता में वृद्धि तो रही थी लेकिन उसके प्रचार में शासन का किञ्चित भी सहयोग नहीं था । उस समय मुगल साम्राज्य अपने वैभव पर था। सर्वत्र अरबी एवं फारसी का दौर दौरा था | महाकवि - तुलसीदास का उस समय जन्म भी नहीं हुआ था और सूरदास को भी साहित्य गगन में इतनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हो सकी थी। ऐसे समय में सन्त यशोधर ने हिन्दी भाषा की उल्लेखनीय सेवा की । यशोधर काष्ठा संघ में होने वाले जैन सन्त सोमफीति के प्रशिध्य एवं विजयसेन के शिष्य थे । बाल्यकाल में ही ये अपने गुरु की वाणी पर मुग्ध हो गये और संसार को असार जानकर उससे उदासीन रहने लगे । युवा होते २ इन्होंने घर बार छोड़ दिया और सन्तों की सेवा में लीन रहने लगे । ये श्राजन्म ब्रह्मचारी रहे । सन्त सकलकीति की परम्परा में होने वाले भट्टारक विजयकोत्ति की सेवा में रहने का भी इन्हें सौभाग्य मिला और इसीलिये उनकी प्रशंसा में भी इनका लिखा हुआ एक पद मिलता है। ये महाव्रती थे तथा श्रहिंसा, सत्य, श्रचीर्य ब्रह्मचयं एवं अपरिग्रह इन पाँच व्रतों को पूर्ण रूप से अपने जीवन में उतार लिया था। साधु अवस्था में इन्होने गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र एवं उतर प्रदेश आदि प्रान्तों में विहार करके जनता को बुराइयों से बचने का उपदेश दिया । ये संभवतः स्वयं गायक भी थे और अपने पर्थो को गाकर सुनाया करते थे ।
साहित्य के पठन-पाठन में इन्हें प्रारम्भ से ही रुचि थी। इनके दादा गुरु
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सोमकीति संस्कृत एवं हिन्दी के अच्छे विद्वान थे जिनका हम पहिले परिचय दे चुके हैं। इसलिये उनसे भी इन्हें काव्य-रचना में प्रेरणा मिली होगी । इसके अतिरिक्त म. विनय एवं पशनमा २: इ प्पर पोत्साहन मिला था। इन्होंने स्वयं बलिभद्र चौपई (सन् १५२८) में मा विजयसेन का तथा नेमिनाथ गीत एवं अन्य गीतों में भ. यशकोत्ति का उल्लेख किया है। इसी तरह भ० शामभूषण के शिष्य भ. विजयकीति का भी इन पर बरद हस्त घा । ये नेमिनाथ के जीवन से संभवतः अधिक प्रभावित थे । अतः इन्हं ने नेमिराजुल पर अधिक साहित्य लिखा है। इसके अतिरिक्त ये साधु होने पर भी रसिक श्रे और विरह शृंगार आदि की रचनाओं में रुचि रखते थे ।
ब्रह्म यशोधर का जन्म कब और कहां हुआ तथा कितनी आयु के पश्चात उनका स्वर्गवास हुआ हमें इस सम्बन्ध में अभी तक कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी । सोमवोत्ति का भट्टारक काल सं० १५२६ से १५४० तक का माना जाता है। यदि यह सही है कि इन्हें सोमकोत्ति केचरणों में रहने का अवसर मिला था तो फिर इनका जन्म संवत् १५२० के आस पास होना चाहिये । अभी तक इनकी जितनी रचनायें मिली है उनमें से केवल दो रचनामों में इनका रचना काल दिया हुआ है । जो संवत् १५८१ (सन १५२४) तथा संवत् १५८५ ( सन् १५२८ ) है । अन्य रचनात्रों में केवल इनके नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य विवरण नहीं मिलता । जिस गुटके में इनकी रचनाओं का संग्रह है वह स्वयं इन्हीं के द्वारा लिखा गया है तथा उसका लेखनकाल संवत् १५८५ जेष्ठ सुदी १२ रविवार का है। इसके
श्री रामसेन अनुकमि हुआ, यसफोरति गुरु जाणि । श्री विजयसेन पठि यापीया, महिमा मेर समाण ॥१८६॥ सास सिष्य इम उर्चार, ब्रह्म यशोधर नेह । भूमंडलि वणी पर तपि, तारह रास चिर एह ॥१८७॥
श्री यसकीरति सुपसालि, ब्रह्म यशोधर भणिसार । चलण न छोड स्वामी, सह्म तणां मुन्न भवचर्चा दुःख निवार ॥६८॥
क
बाग वाणी वर मांगु मात दि, मुप्त अविरल वाणी रे । यसकोरति गुरु गांउ गिरिया, महिमा मेर समाणी रे ॥
आधु आयु रे भवीयण मनि रलि रे ॥ देखिये भट्टारक सम्प्रदाय-पृष्ठ संख्या-२९८
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संत कवि यशोधर
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अतिरिक्त इन्होंने सोमकीति के प्रशिष्य भ० यदाःकोर्ति को भी गुरु के रूप में स्मरस किया है । जो संवत् १५७५ के आस पास भट्टारक बने होंगे । इसलिये इनका समय संवत् १५२० से १५९० तक का मान लेना युक्ति युक्त प्रतीत होता है ।
यशोधर की न तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी है किन्तु आशा है कि सागवाड़ा, ईवर आदि स्थानों के जैन ग्रन्थालयों में इनका और भी साहित्य उपलब्ध हो सकता है । यशोधर प्रतिलिपि करने का भी कार्य करते थे। अभी इनके द्वारा लिपिबन नैनो (राजस्थान) के शास्त्र भण्डार में एक गुटका उपलब्ध हुआ है जिसमें कितने ही महत्वपूर्ण पाठों का संकलन दिया हुआ है । कवि के द्वारा निबद्ध सभी सभी रचनायें इस गुटके में सग्रहीत हैं। इसकी लिपि सुन्दर एवं सुपाय है । १, नेमिनाथ गीत
इसमें २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन की एक झलक मात्र है। पूरी कथा २८ पद्य में समाप्त होती है। गीत को रचना संवत् १५८९ में सपालपुर (बांसवाड़ा ) में समाप्त की गई थी।
संत पनर एकासहजी सपालपुर सार |
गुण गाया श्री नेमिनाथ जी, नवनिधि श्री संघवार हो स्वामी ।
गीत में राजुल की सुन्दरता का वर्णन करते हुए उसे मृगनयनी, हंसगानी बतलाया है। इसके कानों में झूमके ललाट पर तिलक एवं नाग के समान लटकती हुई उसकी वेशी सुन्दरता में चार चांद लगा रही थीं। इसी वर्णन को कवि के शब्दों में पढ़िये-
रे हंस गमरणीय भृगनमरणीय स्लवण काल शत्रूकती । तप तपिय तिलक ललाट, सुन्दर वेणीय वासुडा लटकती । स्वनिकंत चूड़ीय मुखि वारीय नयन कज्जल सारती 1
मतीय मेगल मास आसो हम बोली राजमतो ॥३॥ गीत की भाषा पर राजस्थानी का अत्यधिक प्रभाव है ।
२. नेमिनाथ गीत
राजुल नभि के जीवन पर यह कवि का दूसरा गीत है । इस गीत में राहुल 'नेमिनाथ को अपने घर बुलाती हुई उनकी घांट जोह रही है। गीत छोटा सा है जिसमें केवल ५ पद्म हैं। गीत की प्रथम पंक्ति निम्न प्रकार है—
नेम जो आवुन घरे घरे
वाटडीयो जो सियामा (ला) इली रे ||
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राजस्थान के जन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिरष
३. मल्लिनाथ गीत
इस गीत में ९ छन्द हैं जिसमें तीर्थकर मल्लिनाथ के गर्म, जन्म, वैराग्य, ज्ञान एवं निर्वाण महोत्सव का वर्णन किया गया है । रचना का अन्तिम पाठ निम्न प्रकार है
ब्रह्म अशोघर बीनवी हूँ, हवि तह तणु दास रे ।
गिरिपुरय स्वामीय मंडणु, श्री संघ पूरवि पास रे।।९।। ४. नेमिनाय गीत
यह कवि का मेमिनाथ के जीवन पर तीसरा गीत है। पहिले गीतों से यह गीत बड़ा है और वह ६९ पद्मों में पूर्ण होता है। इसमें नेमिनाथ के विवाह की घटना का प्रमुस्व वर्णन है। वर्णन सुन्दर, सरस एवं प्रवाह मुक्त है। राजुलि-नमि के विवाह की तम्यारियां जोर शोर से होने लगी। सभी राजा महाराजाओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण पत्र भेजे गये । उत्तर, दक्षिण, पूर्व पश्चिम प्रादि सभी दिशात्रों के राजागरण उस बरात में सम्मिलित हुये । इसे वर्णन को कवि के शब्दों में पहिये:
कु कम पत्री पाठवी रे, शुभ प्रावि अतिसार । दक्षिण मरहटा मालवी रे, कुकरण कन्नड राउ । गूजर मंडस सोरठीयारे, सिन्धु सबाल देश। गोपाचल नु राजाउरे, ढीली मादि नरेस ॥२३॥ मलवारी प्रासु पाड़नेर, स्वरसाणी सवि ईस । वागडी उदक मजकरी रे, लाड़ गउडना वाम ।।२४।।
कवि ने उक्त पद्यों में दिल्ली को डीली' लिखा है 1 १२वीं शताब्दी के अपभ्रश के महाकवि श्रीधर ने भी अपने पास चरिउ में दिल्ली को "दिल्ली' शब्द से सम्बोधित क्रिया था।'
बरातियों के लिये विविध फल्न मंगाये गये तथा अनेक पकवान एवं मिठाइयां मनवायी गई । कवि ने जिन व्यजनों के नाम गिनाये हैं उनमें अधिकांश राजस्थानी मिष्ठाग्न हैं। कवि के शब्दों में इसका आस्वादन कीजिये
१. विषकपरिद सुपसिद्ध कालि, दिल्ली पनि षण कम.बिसालि ।
सबवायी पयाय परगिह, परिवारिए परिवह परिएपहिं ।। .
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संत कवि यशोवर
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पकवान नीजि नित नबोरे, मांडी मुरकी सेव। .... । खाजा खाजड़ली दही थरारे, रेफे घेवर हेव ॥२५॥ मोतीया लालू मूग तणा रे, सेवइया अतिसार । काकरीय पड सूचीयारे, माकिरि मिश्रित सार ॥२६॥ सालीया तंदुल सपडारे, उज्जल प्रखंड अपार । मूग मंडोरा प्रति भला रे, घृत प्रसंडी धार ॥२७॥
राजुल का सौन्दर्य प्रघणनीय था। पांचों के नूपुर मधुर शब्द कर रहे थे वे ऐसे लगते थे मानों नेमिनाथ को ही बुलारहे हों । करि पर मुशोभित 'क्रनकती' चमक रही थी। गुलियों में रलजटित अंगूठो, हाथों में रहनों की ही चूड़ियां तथा गले में नवलख हार सुशोभित था । कानों में झूमके लटक रहे थे । नयन कजसरे थे । हीरों से जड़ी हुई ललाट पर राखड़ी (नोरला) चमक रही थी। इसकी वेणी दण्ड उतार (ऊपर से मोटी तथा नीचे से पतली) थी इन सब आभूषणों से यह ऐसी लगती थी कि मानों कहीं कामदेव के धनुष को तोड़ने जा रही हो
. पायेय नेउर रणचारिणरे, घूघरी नु धमकार ।
कटिर्यत्र सोहि रुडी मेखला रे भूमणु झलक सार। रत्नजड़ित रूड़ी मुद्रकारे, करियस चहीतार । वाहि बिठा रूड़ा बहिरसा रे, हपिडोलि नवलखहार ।। कोटिय' टोडर स्यड्ड रे, श्रघणे झवकि माल । नामविट टीलु तप तपि रे, खोटलि खटकि चालि ।। बांकीय भमरि सोहामणी रे, नमले काजल रेह । कामिधनु जाणे सोडीउरे, नर मग पाडवा एह ।। ४६ ॥ हीरे जड़ी रूही राखड़ी, घेणी दंड उतार। .
मयरिण पन्नग जाण पासीउरे, गोफणु लहि किसार ।। - नेीकुमार ९ खण के रथ में विराजमान पे जो रत्न जड़ित था तथा जिसमें हाँसना; जाति के घोड़े जुते हुये थे । नेमिकुमार के कानों में कुम्हन एवं मस्तक पर छत्र सुशोभित थे । वे श्याम वर्ण के थे तथा राजुल की सहेलियां उनकी ओर संकेत करके कह रही थी याही उसके पति हैं ?
नबखरणु रथ सोवरणमि रे, रयण मंडित सुविसाल । हांसना प्रश्व जिरिए जोतस्यां रे, लह लहघि जाप अपार ॥ ५१ ।।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कानेय कुडल तपि नपि रे, मम्मकि फमोति। सामला प्रण सोहामणुरे, सोइ साजरा होत ॥५२॥
इस प्रकार रचना में घटनामों का अच्छा वर्णन किया गया है । अन्त में कवि ने अपने गुरु को स्मरण करते हुए रचना की समाप्ति की है।
भी पसकीरति सुपसाचलि. ब्रह्म यशोधर मणिसार । चसरण न छोड स्वामी तणा, मुझ मवा दु:ख निवार ।।६८॥ भरणसि जिनेसर सांभलि. रे, धन धन ते पवतार । नव निधि सस घरि उपजि रे, ते तरसि रे संसार ।।६९।। भाषा-गीत की माषा राजस्थानी है । कुछ शब्दों का प्रयोग देखिये
गासु-गागा (१) कांइ करू-क्या करू (१) नीकल्या रे-निकला (६) ताम अह्म (८) तिहाँ (२१) नेउर (४३). आपणा (५३) तोरू (तुम्हारा) मोरू (मेरा) (५०) उतावलु (१३) पाठवी (२२)
छन्द- सम्पूर्ण गीत गुडी (गौडी) राग में निबद्ध है। .. ५. लिभा प्रोपई-यह कवि की अब तक उपलब्ध रचनामों में सबसे बड़ी रचना है। इसमें १८६ पद्य हैं जो विभिन्न बाल, हा एवं चौपई मादि छन्दों में विभक्त है। कवि ने इसे सम्बत् १५८५ में स्कन्ध नगर के अजिमनाथ के मन्दिर में सम्पूर्ण' किया था।
रचना में श्रीकृष्ण जी के भाई बलिम के परिस का वर्णन है । कथा का संक्षिप्त सार निम्न प्रकार है
द्वारिका पर श्री कृष्ण जी का राज्य था। बलभद्र उनके बड़े भाई थे। एक बार २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का उधर बिहार हुआ। नगरी के नरनारियों के साथ के दोनों भी दर्शनार्थ पधारे । बलभद्र ने नेमिनाथ से जब द्वारिका के भविष्य के बारे में पूछा तो उन्होंने १२ वर्ष बाद दीपायन ऋषि द्वारा द्वारिका दहन की भविष्यवाणी की 1 १२ वर्ष बाद ऐसा ही हुआ। श्रीकृष्ण एवं बलराम दोनों जंगल में चले गये और जब श्रीकृष्ण जी सो रहे थे तो जरदकुमार ने हरिण के घोसे में इन पर बाण चला दिया जिससे वहीं उनको मृत्यु हो गई । जरदकुमार को जब वस्तुस्थिति का पता लगा तो वह बहुत पछताये लेकिन फिर क्या होना था । बलभद्र जी areneumonimarawarananamane १. संवत् पनर पध्मासोर, स्काष नगर मझारि ।
भवणि अणित जिनवर तणी, ए गुण गाया सारि ॥१८८।।
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संत कवि यशोधर
श्रीकृष्ण जी को अकेला छोड़कर पानी लेने गये थे, वापिस थाने पर जब उन्हें मालूम हुआ तो वे बड़े शोकाकुल हुए एवं रोने लगे और अपने भाई के मोह से छह मास तक उनके मृत शरीर को लिए घूमते रहे। अन्त में एक मुनि ने जब उन्हें संसार की असारता बतलाई तो उन्हें भी वैराग्य हो गया और अन्त में तपस्या करते हुए निर्वाण प्राप्त किया । छोपई की सम्पुर्ण कथा जैन पुराणों के आधार पर निबद्ध है |
चौपई प्रारम्भ करने के पूर्व सर्व प्रथम कवि ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिखा है कि न तो उसे व्याकरण एवं छंद का बोध है और न उचित रूप से अक्षर ज्ञान ही है । गीत एवं कवित्त कुछ आते नहीं हैं लेकिन वह जो कुछ लिख रहा है वह सब गुरु के प्राशीर्वाद का फल है
न लड्डु व्याकरण नहुन् स अक्षर नहु हू मूरख मानव मतिहीन, गीत कवित्त नवि जा सूरज ऊम् तम हरि, जिय जलहर बुढि ताप । शुरु वय पुण्य पामीर, झडि भवंतर पाप ॥५॥ नूरख परिण जे मति लहि, करि कवित अतिसार । ब्रह्म यशोधर इम कहि ते सहि गुरु उपगार ॥६॥
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भिन्द कही ||२||
उस समय द्वारिका बंभव पूर्ण नगरी थी। इसका विस्तार १२ योजन प्रमाण था । वहां सात से तेरह मंजिल के महल थे। बड़े बड़े करोड़पति सेठ वहां निवास करते थे। श्री जी मानकों को दान देने में हर्षित होते थे, अभिमान नहीं करते थे। वहां चारों ओर बोर एवं योद्धा दिखलाई देते थे। सज्जनों के अतिरिक्त दुर्जनों का तो वहां नाम भी नहीं था ।
कवि ने द्वारिका का वर्णन निम्न प्रकार किया है
नगर द्वारिका देश मझार, जाणे इन्द्रपुरी अवतार । बार जोयरण ते फिर तुवसि ते देखी जन मन उलसि || ११ || नव खरा तेर खणा प्रासाद हह् श्ररिंग सम लागु वाद । acter तिहां रही धरणा, रत्न लेम हीरे नहीं मा ||१२||
याचक जननि देइ दान, न हीयडि ह्रष नहीं अभिमान । सूर सुभट एक दोसि घरा, सज्जन लोक नहीं दुजंगा ||१३|| जि भवने घज बड फरहरि, शिखर स्वर्गं सुवातज करि । हेम मूरति पोढी परिमाण, एके रत्न अमूलिक जाण || १४ ||
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
द्वारिका नगरी के राजा थे श्रीकृष्ण जी जो पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर थे । वे छप्पन करोड़ यादवों के अधिपति थे । इन्हीं के बड़े भाई थे वलभद्र । स्वर्ण के समान जिनका शरीर था । जो हाथी रूपी पात्रों के लिए सिंह थे तथा हल जिनका आयुब था। रेवती उनकी पटरानी थी। बड़े २ वीर एवं योद्धा उनके सेवक थे। वे गुणों के मण्डार तथा सत्यवती एवं निर्मल-धरित्र के धारण करने वाले थे
तस बंधव अति ज्या रोहिए जेहनी मात । बलिभद्र नामि जागयो, वसुदेव तेहनु तात ।।२८।। कनक वर्ण सोहि जिसु, सत्य शील तनुवास । हेमघार वरसि सदा, ईसा पूरि आस ।।२९।। अरीयण मद गज केदारी, हल आयुध करिसार । सुहाइ सुभट सेवि सदा, गिरुउ गुण मंडार ||३०|| पट राणी तस रेवती, शील सिरोमगि देह ! धर्म धुरा झालि सदा, पतिसुप्रबिहउ नेह् ॥३१||
उन दिनों नेमिनाथका विहार भी उधर ही हुआ। द्वारिका की प्रजा ने नेमिनाथ का खूब स्वागत किया। भगवान श्रीकृष्ण, बलभद्र आदि राभो उनकी वंदना के लिए उनकी समागृह में पहुँचे । बलभद्र ने जब द्वारिका नगरी के बारे में प्रश्न पूछा तो नेमिनाथ ने उसका निम्न शब्दों में उत्तर दिया
दहा-सारी वाणी संभली, बोलि नेमि रसाल ।
पूरव मवि अक्षर लखा, ते किम थाइ पाल ||७१।। चुपई–दीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगरी संधार ।
मद्य भांड जे नामि वही, तेह थको वली जलमि सही । पौरलोक सबि जलसि जिसि, चे बंधन नीकमसु तिसि । ता सहोदर जरा कुमार, ते नि हाथि मारि मोरार || बार बरस पूरि जे तलि, ए कारण होसि ले तलि । जिण्यर वाणी प्रमीय समान, सुरणीय कुमर तव चाल्यु रानि ।।८।।
बारह वर्ष पश्चात् वही समय पाया | कुछ यादवकुमार अपेय पदार्थ पीने से उन्मत्त हो गए । न्ने नाना प्रकार की क्रियायें करने लगे । द्वीपायन मुनि को जो बन में तपस्या कर रहे थे वे देखकर चिहाने लगे।
तिरिण अवसरि ते पीछू नौर, विकल रूप ते थया शरीर । ते परवत था पीछावलि, एकि विसि एक घरणी टलि ॥८२।।
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संत कवि यशोधर
एक नाचि एक गाइ गीत, एक रोइ एक हरधि पित्त । एक नासि एक उडलि घरि एक सुइ एक क्रीडा करि ॥८३॥
परि नगरी अवि जिसि, द्विपायन मुनि दीक्षु तिसि । कोप करोनि ताडि ताम, देर गालवली लेई नाम ॥८४॥
द्वीपाचन ऋषि के शाप से द्वारिका जलने लगी और श्रीकृष्ण जी एवं बलराम अपनी रक्षा का कोई अन्य उपाय न देखकर वन की शोर बले गये। वन में श्री कृष्ण को प्यास बुझाने के लिए बलभद्र जल लेने चले गये पीछे से जरदकुमार ने मोते हुये श्रीकृष्ण को हरिण समझ कर वाण मार दिया। लेकिन जब जरदकुमार को मालूम हुआ तो वे पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे। भगवान कृष्ण ने उन्हें कुछ नहीं कहा और कर्मों की विडम्बना से कौन बच सकता है यही कहकर धैर्य वारण करने को कहा
कहि कृष्ण सुहि जराकुमार, मूढ परिण मम बोलि गमार
संसार तरी गतिविषमी होय होयडा माहि विचारी जोड ।।११२ ॥
करमि रामचन्द व नंगल, कम सोता हराज भउ । करमि रावगा राज ज टली, करभि लक विभीषण फली ॥ ११३ ॥
हरचन्द राजा साहस धीर, करमि ग्रषमि घरि प्राधु वीर करमिनल नर चुकु राज, दमयन्तो वनि की भी त्याज ॥ ११४ ॥
१
इतने में बहीं पर बलभद्र आ गये और श्री कृष्ण जी को सोता हुआ जानकर जाने लगे । लेकिन वे तब तक प्राणहीन हो चुके थे । यह जानकर बलभद्र रोने लगे तथा अनेक सम्बोदनों से अपना दुःख प्रकट करने लगे । कवि ने इसका बहुत ही मार्मिक शब्दों में वरन किया है ।
जल विा किम रहि माछलु, तिभ तुहा विरतु बंध |
विरोड़ वनउ सासीद, असला रे संघ ॥ १३०॥
उक्त रचनाओं के प्रतिरिक्त वराभ्य गीत विजय कीर्ति गीत एवं २५ से भी अधिक पद उपलब्ध हो चुके हैं। अधिकांश पदों में मिराज के वियोग का कथानक हैं जिनमें प्रेम, विरह एवं शृंगार की हिलोरें उठती हैं। कुछ पद वैराग्य एवं जगत् की वस्तु स्थिति पर प्रकाश डालने वाले है ।
मूल्यांकन
'ब्रह्म यशोधर' की अब तक जितनी कृतियां उपलब्ध हुई हैं, उनसे वह स्पष्ट है कि वे हिन्दी के अच्छे विद्वान थे। उनकी काव्य शैली परिमार्जित थी। वे किसी
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राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भी विषय को सरस छन्वों में प्रस्तुत करते थे। उन्होंने नेमिनाथ के जीवन पर कितने ही गीत लिखे, लेकिन सभी गीतों में अपनी २ विशेषताएं हैं। उन्होंने राजुल एवं नेमिनाथ को लेकर कुछ शृगार रस प्रधान पद एवं गीत भी लिसे हैं और उनमें इस रस का अच्छा प्रतिपादन किया है। राजुलके सौन्दर्य वर्णनमें वे अपने पूर्व कवियों से कभी पीछे नहीं रहे । उन्होंने राजुलके आभूषणों का एवं बारात के लिए बनने वाले व्यन्जनों का अत्यधिक सुन्दर वर्णन में भी वे पाठकों के हृदय को सहज ही द्रवित कर देते हैं । जब कवि राजुल के शब्दों को दोहसता है, 'नेमजी आवुन धरे घरे' तो पाठकों को नेमिनाथ के विरह से राजुल की क्या मनोदशा हो रही होगी- इसका सहज ही पता चल जाता है।
बलिभद्र रास'-जो उनकी सबसे अच्छी काव्य कृति है-श्री कृष्ण एवं बलराम के सहोदर प्रेम की एक उत्तम कृति है। यह भी एक लघुकाव्य है, जो भाषा एवं शैली की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। यशोधर कदि के काम्यों की एक और विशेषता यह है कि इन कृतियों की भाषा भी अधिक निखरी हुई है। उन पर गुजराती भाषा का प्रभाव कम एवं राजस्थानी का प्रभाव अधिक है । इस तरह यशोघर अपने समम के हिन्दी के प्रच्छे कवि थे ।
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भट्टारक शुभचन्द्र
शुभचन्द्र भद्वारक विजयकीति के शिष्य थे । वे अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक, साहित्य-प्रेमी, धर्म-प्रचारक एवं शास्त्रों के प्रबल विद्वान थे । अब वे भट्टारक बने उस समय भट्टारक सफलकोति, एवं उनके पट्ट शिष्य, प्रशिष्य भुवनकीति, ज्ञानभूपण एवं विजयकीर्ति ने अपनी सेवा, विद्वत्ता एवं सांस्कृतिक जागरूकता से इतना अच्छा वातावरण बना लिया था कि इन सस्तों के प्रति जैन समाज में ही नहीं किन्तु जनेतर समाज में भी अगाध श्रद्धा उत्पन्न हो चुकी थी। शुमचन्द्र ने भट्टारक ज्ञानभूपण एवं भट्टारक विजयकीति का शासनकाल देखा था। बिजयकीति के तो लाइले शिष्य ही नहीं थे किन्तु उनके शिष्यों में सबसे अधिक प्रतिभावान् सन्त थे। इसलिए विजयकीति की मृत्यु के पश्चात् इन्हें ही उस समय के सबसे प्रतिष्ठित, सम्मानित एवं आकर्षक पद पर प्रतिष्ठापित किया गया।
इनका जन्म संवत् १५३०-४० के मध्य कभी हुना होगा। ये जब बालक थे तभी से इनका इन मट्टारकों से सम्पर्क स्थापित हो गया। प्रारम्भ में इन्होंने अपना समय संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के ग्रन्थों के पढ़ने में लगाया । व्याकरण एवं छन्द शास्त्र में निपुणता प्राप्त की और फिर म. शानभूषरण एवं भ. विजयकीति के सानिध्य में रहने लगे । श्री वी. पी. जोहाकरपुर के मतानुसार ये संवत् १५७३ में भट्टारक बने ।' और वे इसी पद पर संवत् १६१३ तक रहे । इस तरह शुभचन्द्र ने अपने जीवन का अधिक भाग भट्टारक पद पर रहते हुये हो व्यतीत किया । बलात्कारगरण की ईडर शाखा की गद्दी पर इतने समय तक संभवतः ये ही भट्टारक रहे। इन्होंने अपनी प्रतिष्ठा एवं पद का खूब अच्छी तरह सदुपयोग किया और इन ४) वर्षों में राजस्थान, पंजाब, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में साहित्य एवं संस्कृति का उत्साहप्रद वातावरण उत्पन्न कर दिया।
शुभचन्द्र ने प्रारम्भ में खूब अध्ययन किया। भाषण देने एवं शास्त्रार्य करने की कला भी सीखी । भ. बनने के पश्चात् इनकी कीर्ति चारों ओर व्याप्त हो गयी राजस्थान के अतिरिक्त इन्हें गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के अनेक गाँध एवं नगरों से निमन्त्रण मिलने लगे । जनता इनके श्रीमुख से धर्मोपदेश सुनने को अधीर हो उठती इसलिये ये जहाँ भी जाते भक्त जनों के पलक पाबड़े बिछ जाते ।
१. देखिये भट्टारक सम्प्रवाम पृष्ठ संख्या १५८
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राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इनकी वाणी में अकर्षण या इसलिये एक ही बार के सम्पर्क में वे किसी भी अच्छे व्यक्ति को अपना भक्त बनाने में समर्थ हो जाते समय का पूरी तरह सदुपयोग करते । जीवन का एक भी क्षण व्यर्थ खोना इन्हें अच्छा नहीं लगता था । ये अपनी साथ ग्रंथों के ढेर के ढेर एवं लेखन सामग्री रखते। नवीन साहित्य के निर्मारण में इनकी अधिक रुचि थी। इनकी वित्ता से मुग्ध होकर भक्त जन इनसे निर्माण के लिये प्रार्थना करते और ये उनके आग्रह से उसे पूरा करने का प्रयत्न करते 1 अपने शिष्यों द्वारा ये ग्रंथों की प्रतिलिपियां करवाते और फिर उन्हें शास्त्र भण्डारों में विराजमान करने के लिये अपने भक्तों से आग्रह करते । संवत १५९० में ईटर नगर के जातीय श्रावकों ने व्र० तेजपाल के द्वारा पुण्याश्रव कथा कोश की प्रति लिया कर इन्हें भेंट की थी। संवत् १५६६ में डूंगरपुर के आदिनाथ चैत्यालय में इन्हीं के उपदेश से अंगप्रज्ञप्ति की प्रतिलिपि करवा कर विराजमान की गयी थी 1 चन्दना चरित को इन्होंने वाग्वर (बागड ) में निबद्ध किया और कातिकेयानुप्रक्षा टीका को संवत् १६१३ में सागवाडा में समाप्त की । इसी तरह संवत् १६१७ में पाण्डव-पुराणको हिसार (पंजाब) में किया गया ।
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वित्रता
1
शुभचन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। ये षट् भाषा कत्रि- चक्रवत कहलाते थे । छह भाषाओं में संभवतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी भाषायें थी। ये विविध विद्याधर (शब्दागग युक्त्यागम एवं परमागम) के अता थे। पट्टावल के अनुसार ये प्रमाण-परीक्षा पत्र परीक्षा, पुष्प परीक्षा (?) परीक्षासुख, प्रमाण - निर्णय, न्यायमकरन्द, न्यायकुमुदचंद्र न्याय विनिश्चय कार्तिक, राजवासिक, प्रमेयकमल मार्त्तण्ड, आप्तमीमांसा, अष्टसहस्रो चितामणिमीमांसा विवरण वाचस्पति, तत्त्व कौमुदी आदि न्याय ग्रन्थों के, जैनेन्द्र शाकटायन ऐन्द्र, पाणिनी, कलाप आदि व्याकरण ग्रन्थों के, त्रैलोक्यसार गोम्मसार, लक्ष्विसार, अपगातार त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति अध्यात्माष्टसहस्त्री (?) और छन्दोंकार आदि महाग्रन्थों के पारगामी विद्वान् थे । '
शिष्य परम्परा
वैसे तो भट्टारकों के संघ में कितने ही मुनि, ब्रह्मचारी, साध्वियां तथा विद्वान्-गरण रहते थे । इसलिए इनके संघ में भी कितने ही साधु थे लेकिन कुछ प्रमुख शिष्य थे जिनमें सकलभूषरण, अ. तेजपाल, वर्णी क्षेमचंद्र, सुमतिकीत्ति, श्रीभूषण आदि के नाम उल्लेखनीय है। आषार्य सकलभूषण ने अपने उपदेश रत्नमाला में
१. देखिये नाथूरामजी प्रेमी कृत--जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ संस्था ३८३
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भट्टारक
भट्टारक शुभचन्द्र का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया है और अपने आपको उनका शिष्य लिखने में गौरव का प्रभुभव किया है। यही नहीं करकुण्ड चरित्र को तो शुभचन्द्र ने सकल भूषण की सहायता से ही समाप्त किया था। वर्णी श्रीपाल ने इन्हें पाण्डवपुराण की रचना में सहायता दी थी। जिसका उल्लेख शुभचन्द्र ने ius की प्रशस्ति में सुन्दर ढंग से किया है:
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सुमतिकोलि इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके पट्ट शिष्य बने थे । ये भी प्रकांड विद्वान थे और इन्होंने कितने ही ग्रन्थों की रचना की थी। इस तरह इन्होंने अपने सभी शिष्यों को योग्य बनाया और उन्हें देश एवं समाज सेवा करने को प्रोत्साहित किया ।
प्रतिष्ठा समारोहों का संचालन
अन्य भट्टारकों के समान इन्होने भी कितनी ही प्रतिष्ठा समारोहों में भाग लिया और वहां होने वाले प्रतिष्ठा विधानों को सम्पन्न कराने में अपना पूर्ण योग दिया । भट्टारक शुभचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित धाज भी कितनी ही मूत्तियाँ उदयपुर, सागवाडा, डूंगरपुर, जयपुर आदि मन्दिरों में विराजमान हैं। पंचायतों की ओर से ऐसे प्रतिष्ठा समारोहों में सम्मिलित होने के लिए इन्हें विवित निमन्त्रण-पत्र मिलते थे । श्रीर में संघ सहित प्रतिष्ठाओं में जाते तथा उपस्थित जन समुदाय को धर्मोपदेश का पान क। ऐसे ही अवसरों पर वे अपने शिष्यों का कभी २ दीक्षा समारोह भी मनाते जिससे साधारण जनता मी साधु जीवन की ओर शरित होगी । संवत् १६०७ में इन्हीं के उपदेश से पश्च परमेष्टि की मूर्ति की स्थापना की गई थी।
'
इसी समय की प्रतिष्ठापित एक १२५ x ३० श्रवगाहना वाली नंदीश्वर द्वीप के त्यों की धातु को प्रतिमा जयपुर के लश्कर के मन्दिर में विराजमान है । यह प्रतिष्ठा सागवाडा में स्थित श्रादिनाथ के मन्दिर में महाराजाधिराज श्री ग्रासकरण के शासन काल में हुई थी। इसी तरह संवत् १५८१ में इन्हीं के उपदेश से बड
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१. शिध्वस्तस्य समृद्धिबुद्धिषियो यस्तर्कवेशीवरो, वैराग्यादिविशुद्धि जनकः श्रीपालवर्णीमहान । संध्यालिपुस्तकं बरगुणं सत्पष्ठवानामिदं । तेनाखि पुराणमर्थनिक पूर्व वरे पुस्तकें ||
१. संवत् १६०७ वर्षे वैशाख वदो २ गुरु भी मूलसं भ० श्री शुभचन्द्र गुरुपदेशात् हूड संवेश्वरा गोत्रे सा० जिना
भट्टारक सम्प्रदाय - पृष्ठ संख्या १४५
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जातीय श्रावक साह हीरा राजू आदि ने प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाया था ।
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साहित्यिक सेवा
शुभचन्द्र ज्ञान के सागर एवं अनेक विद्याओं में पारंगत थे । वे वक्तृत्व कला में पटु तथा आकर्षक व्यक्तित्व वाले सन्त थे । इन्होंने जो साहित्य सेवा अपने जीवन में की थी वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। अपने संघ की व्यवस्था तथा धर्मोपदेश एवं ग्रात्म साधना के अतिरिक्त जो भी समय इन्हें मिला उसका साहित्य निर्माण में ही सदुपयोग किया गया। वे स्वयं ग्रन्थों का निर्माण करते, शास्त्र भण्डारों की सम्हाल करते, अपने शिष्यों से प्रतिलिपियां करवाते, तथा जगह २ शास्त्रागार खोलने की व्यवस्था कराते थे । वास्तव में ऐसे ही सन्तों के सदुप्रयास से भारतीय साहित्य सुरक्षित रह सका है।
पाण्डवपुराण इनकी संवत् १६०८ की कृति है । उस समय साहित्यिक जगत में इनकी ख्याति चरमोत्कर्ष पर यो समाज में इनकी कृतियां प्रिय बन चुकी थी और उनका अत्यधिक प्रचार हो चुका था । संवत् १६०८ तक जिन कृतियों को इन्होंने समाप्त कर लिया था उनमें (१) चन्द्रप्रभ वरित्र (२) श्रेणिक चरित्र (३) जीवंधर चरित्र (४) चन्दना कथा ( ५ ) श्रष्टाह्निका कथा ( ६ ) सद्वृत्तिशालिनी (७) तीन चौबीसी पूजा (८) सिद्धचक्र पूजा (१) सरस्वती पूजा (१०) चिंतामणिपूजा (११) कर्मदहन पूजा (१२) पार्श्वनाथ काव्य पंजिका (१३) पर लोद्यापन (१४) चारि शुद्धिविधान (१५) संदायवदन विदारण (१६) अपशब्द खण्ड ( १७ ) तत्व निर्णय (१८) स्वरुप संबोधन वृत्ति (१९) अध्यात्म तरंगिरणी (२०) चिंतामणि प्राकृत व्याकरण (२१) अंगप्रजप्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। उक्त साहित्य भ० शुभचन्द्र के कठोर परिश्रम एवं त्याग का फल है। इसके पश्चात इन्होंने और भी कृतियां लिखी ।" संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त इनकी कुछ रचनायें हिन्दी में भी उपलब्ध होती हैं । लेकिन कवि ने पाण्डव पुराण में उनका कोई उल्लेख नहीं किया
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१. संवत् १५८१ वर्ष पोष वदी १३ शुक्र श्री मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री ज्ञानभूषण सरपट्टे श्री भ० विजयकीति तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्र गुरूपदेशात् बड जाति साह हीरा भा० राजू सुत सं० तारा द्वि० भार्या पोई सुत सं० माता भार्या होरा वे........... भा० नारंग के भ्र० एनपाल भा० रखभावास नित्यं प्रणमति ।
विराला दे सुत
२. विस्तृत प्रशास्ति के लिए देखिये लेखक द्वारा सम्पादित प्रशास्ति संग्रह पृष्ठ संख्या ७
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भट्टारक शुभचन्द्र
है। राजस्थान के प्रायः सभी प्र भण्डारों में इनकी अब तक जो कृतियां उपलब्ष
हुई है वे निम्न प्रकार हैं
संस्कृत रचनाए
१. चन्द्रप्रभ चरित्र
२. करकण्डु चरित्र ३ कात्तिकेयानुप्रक्षा टीका
४. चन्दना चरिश्र
५, जोवन्धर चरित्र
६. पाण्डवपुराण
७. श्रंशिक चरित्र
८. ज्य
६. पार्श्वनाथ काव्य पंजिका
१०. प्राकृत लक्षरण टीका
११. अध्यात्मतरंगिणी १२. अम्बिका कल्प
हिन्दी रचनायें
१. महावीर छत्र
२. विजयकीति छंद
३. गुरु इंद
नेमिनाथ छंद
१३. अष्टाङ्क्षिका कथा १४. कर्मदहन पूजा १५. चन्दनषष्टिव्रत पूजा
१६. गरगबरवलय पूजा
१७. चारित्रशुद्धिविधान १८. तीस चौबीसी पूजा
१६. पञ्चकल्याणक पूजा jc. पल्यव्रतोद्यापन
२१. तेरहद्वीप पूजा
२२. पुष्पांजलिव्रत पूजा
२३. सार्द्धं द्वयद्वीप पूजा
२४. सिद्धचक पूजा
६
५. सत्यसार हा ६. दान एवं
७. अष्टाङ्गिकागोत क्षेत्रपालगीत एवं
पद आदि ।
7
उक्त सूची के भाधार पर निम्न सभ्य निकाले जा सकते हैं
१. कार्तिकेयानुप्रक्षा टोका, सज्जन चित वल्लभ, अम्बिकाकल्प, गणधर वलय पूजा, चन्दनषष्टिसपूजा, तेरहद्वीपपूजा, पञ्च करुमाणक पूजा, पुष्पांजलि व्रत पूजा, सायद्वीप पूजा एवं सिद्धचक्रपूजा आदि संवत् १६०८ के पश्चात् अर्थात् पाण्डवपुराण के बाद को कृतियां है ।
२. सदवृत्तिशालिनी, सरस्वतीपूजा, चिंतामणिपूजा, संशय वदन- विदारण, अपशब्दस्वन्डन, तत्वनिर्णय स्वरूप संबोधनवृत्ति, एवं मंगलज्ञप्ति आदि ग्रन्थ अभी तक राजस्थान के किसी भण्डार में प्रति उपलब्ध नहीं हो सके है ।
1
३. हिन्दी रचनाओं का कवि द्वारा उल्लेख नहीं किया जाना इन रचनाओं का विशेष महत्व की कृतियां नहीं होना बतलाया जाता है क्योंकि गुरु छन्द एवं
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिरवः
विजयकीति छन्द तो कवि की उस समय की रचनायें मालूम पड़ती हैं जब विजय कीर्ति का यश उत्कर्ष पर था ।
.5
इस प्रकार भट्टारक शुभचन्द्र १६-१७ वीं शताब्दी के महान साहित्य सेवी. थे जिनकी कीति एवं प्रशंसा में जितना भी कहा जाये वही अल्प होगा। वे साहित्य के कल्पवृक्षर थे जिससे जिसने जिस प्रकार का साहित्य मांगा वही उसे मिल गया वे सरल स्वभावी एवं व्युत्पन्नमति सन्त थे । भक्त जनों के सिर उनके पास जाते ही स्वतः ही श्रद्धा ने झुक जाते थे। सकलकोत्ति के सम्प्रदाय के भट्टारकों में इतना अधिक साहित्यकट्टा भी नहीं हुए। कानेक विहार करते तो सरस्वती स्वयं उन पर पुष्प बरती थी । भाषण करते समय ऐसा प्रतीत होता. था मानों दूसरे गरणुधर ही बोल रहे हों। सब यहां उनकी कुछ प्रसिद्ध कृतियों का सामान्य परिचय दिया जा रहा है
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१. करकण्डु चरित्र
करकण्डु राजा का जीवन इस काव्य की मुख्य कथा वस्तु है यह एक प्रबन्ध काव्य है जिसमें १५ सगं । इसकी रचना संवत् १९६११५ में जवापुर में समाप्त हुई थी। उस नगर के आदिनाथ चैत्यालय में कवि ने इसको रचना को । सकलभूषण जो इस रचना में सहायक के शुभद्र के प्रमुख शिष्य थे. और उनको मृत्यु के पश्चात् सकलभूषण को हो भट्टारक पद पर सुशोभित कियह गया था । रचना पठनीय एवं सुन्दर है । 'चरित्र' की अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है-:
"
14।
श्री मूलचे कृति नंदिसं गच्छे बलात्कार इदं चरित्रं । पूजाफलेद्ध' करकुण्डराज्ञो मट्टारक श्रीशुभचन्द्रसूरिः ॥५४॥३ ब्लाष्टे विकमतः शते समहते दशादाधिके
भाद्र मासि समुज्वले युगतिथी खङ्ग जाबापुरे । श्रीमच्छीवृषभेष्वरस्य सिने करि विद
1
SPA
15 राज : श्रीशुभचन्द्रसूरी यत्तिपश्चाधिपस्यादव ॥९५॥ श्रीमत्सकलभूर्येण पुराणे पाण्डवे कृतं ।
साह्रायं येन तेनाऽश्रु तदाकारिस्वसिद्धये ॥५६॥
1
P
75
२. अध्यात्मतरंगारे
As
उत्कृष्ट ग्रन्थ
आचार्य कुन्दकुन्द का समयसार अध्यात्म विषय का माना जाता है । जिस पर संस्कृत एवं हिन्दी में कितनी ही टीकाएं उपलब्ध होती | अध्यात्मतरंगिणी संवत् १५७३ की रचना है जो माचार्य अमृतचंद्र के समयसार के कलशों पर आधारित है । यह रचना कवि की प्रारम्भिक रचनाओ
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भट्टारक शुभचन्द्र' . . :
.. .
· में से है । ग्रन्थ की भाषा विनष्ट एवं समास बहुल है। लेकिन विषय का अच्छा प्रतिपादन किया गया है । ग्रन्थ का एका पद्य देखिये:-:'.
%36
जयतु जितविपक्षः पालिताशेषशिष्यो विदितनिज़स्वतत्त्वश्वोदितानेकसत्वः । अमृतविधुयतीशः कुन्दकुन्दोगणेशः श्रतमुजिनाबबाद याद्विवादाघिकावः ।।
इसकी एक प्रति कामां के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रति १०४४३" आकार की है तथा जिसमें १३० पत्र है। यह प्रति संवत् १७९५ पौष वुदी १ शनिवार की लिखी हुई है। समयसार पर आधारित यह टीका अभी तक अप्रकाशित है। ३. कात्तिकेयामप्रक्षा टीका
प्राकृतभाषा में निबद्ध स्वामी कात्तिकेय की 'बारस अनुपेहा' एक प्रसिद्ध कृति है । इसमें आध्यत्मिक रस फूट २ कर भरा हुआ है । तथा संसार की वास्तविकता का अच्छा चित्रण मिलता है । इसी कृति की संस्कृत टीका मन् शुभचन्द्र ने लिखी जिससे इसके अध्ययन, मनन एवं चिन्तन का समाज में और भी अधिक प्रचार हुआ और इस ग्रन्थ को लोकप्रिय बनाने में इस टोका को भी काफो श्रेय रहा । टीका करने में इन्हें अपने शिष्य सुमतिकीति से सहायता मिली जिसका इन्होंने अन्य प्रशस्ति में साभार उल्लेख किया है। ग्रन्थ रचना के समय कवि हिसार (हरियाणा) नगर में थे और इसे इन्होंने मंदत् १६०० माघ सुदी ११ के दिन समाप्त की थी२
अपनी शिष्य परम्परा में सबसे अधिक व्युत्पन्नमति एवं शिष्य वर्णी क्षीमचंद्र के आग्रह से इसकी टीका लिखी गई थी। टीका सरल एवं सुन्दर है तथा माथाओं
-na-nuare १. तदन्वये श्रोविजयादिकोत्तिः तस्पट्टधारी शुभचन्द्रदेवः ।
तेनेयमाकारि विशुद्धटीका श्रीमरसुमत्यादिसुकीत्तिकोत: ।।४।। २. श्रीमत् विक्रम भूपतेः परमिते वर्षे शते थोडको,
माघे मासिवशाबह्निमाहिते ख्याते वशम्या तिथी। श्रीमझीमहोसार-सार-नगरे त्यालये श्रीपरोः ।
श्रीमछी शुभचन्नदेवविहिता टीका सदा नन्दतु ॥५॥ ३. वी श्री क्षीमचन्द्रण विनयेन कुत प्रार्थना ।
शुभचन्न-गुरो स्वामिन, फुरु टोकी मनोहरों ।।६।।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के भावों की ऐसी व्याख्या अन्यत्र मिशना कठिन है । ग्रन्थ में १२ अधिकार हैं । प्रत्येक अधिकार में एक २ भावना का वर्णन है । ४. जोबम्पर धरित्र
यह इनका प्रबन्ध काव्य है जिसमें जीवन्धर के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है । काव्य में १३ सर्ग हैं । कवि ने जीवश्यर के जीवन को धमकथा के नाम से सम्बोधित किया है । इस की रचना संवत् १६०३ में समाप्त हुई थी। इस समय शुभचन्द्ध किसी नवीन नगर में बिहार कर रहे थे । नगर में चन्द्रप्रम जिनालय था और उसी में एक समारोह के साथ इस काव्य की समाप्ति की थी।
५. चन्द्रप्रभ चरित्र
चन्द्रप्रभ पाठवें तीर्थकर थे । इन्हीं के पावन चरित्र का कवि ने इस काव्य के १२ सगों में वर्णन किया है । काव्य के अन्त में क्रांव ने अपनी लधुता प्रदायांत करते हुए लिखा है कि न तो वह छन्द अलंकारों से परिचित है और न काव्य-शास्त्र के नियमों में पारंगत है । उसने न जैनेन्द्र व्याकरण पढ़ी है, न कलाप एवं शाकटायन व्याकरण देखी है । उसने त्रिलोकसार एवं गोम्मटसार जैसे महान ग्रंथों का अध्ययन भी नहीं किया है । किन्तु रखना भक्तिवश की गई है।
६. चन्दना-चरित्र
यह एक कथा काध्य है जिसमें सती चन्दना के पावन एवं उज्ज्वल जीवन का वर्णन किया गया है । इसके निमरिण के लिए कितने ही शास्त्रों एवं पुराणों का अध्यन यन करना पड़ा था। एक महिला के जीवन को प्रकाश में लाने वाला यह संभवतः प्रथम काश्य है । काव्य में पांच सौ हैं। रचना साधारणतः अच्छी है तथा पतन योग्य है । इसकी रचना बागर प्रदेश के डूंगरपुर नगर में हुई थी -
शास्त्रण्यनेकान्यवमाह्य कृत्वा पुराणसल्लक्षणकानि भूयः । सच्चंदना चारू चरित्रमेतत् 'चकार च श्री शुभचन्द्रदेवः ।।९५।।
वाग्वरे वाग्बरे देशे, वाम्बर विदित क्षिती। चंदनाचरितं चक्र, शुमचन्द्रो गिरीपुरे ॥२०६५
४. श्रीमन् विक्रम भूपतेवंसुहत हूँतेशते सप्तह,
बेबन्यूनतरे समे शुभतरेपि मासे परे च शुचौ । वारे गीष्यतिके त्रयोदश तिथौ सन्नुतने पत्तने । श्री चन्द्रप्रभधाम्नि व विरचित चेवमया तोषयतः ॥७॥
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भट्टारक शुभचन्द्र
हिन्दी कृतियां
संस्कृत के समान हिन्दी में भी 'शुभचन्द्र' की अच्छी गति थी । भम्र तक कवि की ७ से भी अधिक लघु रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं और राजस्थान एवं गुजरात के शास्त्र भण्डारों में संभवतः और भी रचनाएं उपलब्ध हो जायें ।
१ महावीर छन्द- यह महावीर स्वामी के स्तवन के रूप में है। पूरे स्तवन में २७ पद्य हैं। स्तवन की भाषा संस्कृत - प्रभावित है तथा काव्यत्व पूर्ण है। आदि और अन्तिम भाग देखिये :---
आदि भाग
"I
प्रणमीय वीर बिष्ट जरा रे जा, मदमइ मान महाभय भंजरण | गुण गण वर्णन करीय बखार, यतो जण योगीय जोबन जाए । मेह गेह गुह देश विदेहह, कुंडलपुर वर पुहवि सुदेहह । सिद्धि वृद्धि वर्द्ध के सिद्धारथ, नरवर पूजित नरपति सारथ ॥
अन्तिम भाग:
१०१
सिद्धारथ सुत सिद्धि वृद्धि वांछित वर दायक, प्रियकारिणी वर पुत्र सप्तहस्तोन्नत कायक । द्वासप्तति पर वर्ष आयु सिहां मंडित, चामीकर वर वणं शरण गोतम यती मंडित ।
गर्भ दोष दूषण रहित शुद्ध गर्भ कल्याण करण, 'शुभचन्द्र' सूरि सेवित सदा पुहवि पाप पंह हरण ||
२. विजयकोति छन्
यह कवि की ऐतिहासिक कृति है । कवि द्वारा जिसमें अपने गुरू 'म० विजयकांति' की प्रशंसा में उक्त छन्द लिखा गया है। इसमें २६ पद्म हैं- जिसमें अट्टारक विजयकीति को कामदेव ने किस प्रकार पराजित करना चाहा और उसमें उसे स्वयं को किस प्रकार मुंह की खानी पड़ी इसका अच्छा वर्णन दे रखा है। जनसाहित्य में ऐसी बहुत कम कृतियां हैं जिनमें किसी एक सन्त के जीवन पर कोई रूपक काव्य लिखा गया हो ।
रूपक काव्य की भाषा एवं वर्णन शैली दोनों ही प्रच्छी हैं। इसके नायक है 'भ० विजयकीत्ति' और प्रतिनायक कामदेव हैं। मत्सर, मद, माया, सप्त व्यसन बादि कामदेव की सेना के सैनिक थे तथा क्रोध मान, माया और लोभ उसकी सेना
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राजस्थान का संत :
ए कृतिय
के नायक थे । 'भ० विजयकीति' कब घबराने वाले थे, उन्होंने शम, दम एवं यम की सेना को उनसे भिड़ा दिया । जीयन में पालित महावत उनके ग्रंग रक्षक थे तब फिर किसका साहस था, जो उन्हे पराजित कर सकता था । अन्त में इस लड़ाई में कामदेव बुरी तरह पराजित हुप्रा. और उसे वहां से भागना पड़ा
भागो रे मयण बाई अनंग वेगि रे.थाई। पिसिर मनर मांहि मुकरे ठाम । रीति र पारि लागी मुनि काने वर मागी, दुखि र काटि र जोगी जपई नाम ।।। मयण नाम र फेडी मापणी सेना रे तेड़ी, प्रापइ ध्यानती रेडी यतीय वरो। श्री विजयकीति यति अभिनयो,
गछपति पूरब प्रकट कीनि मुकनिकरो ॥२८॥ .. ३. गुरू छन्द :
यह भो ऐतिहासिक छन्द है जिसमें "म० विजमकीप्ति का' गुरणानुवाद किया गया है । इस छन्द से विजयकीत्ति के माता-पिता का नाम कुअरि एवं गंगासहाय के नामों का प्रथम बार परिचय मिलता है । छन्द में ११ पच है।
४. नेमिनाप छन्द :
२५ पद्यों में निबद्ध इस छन्द में भगवान् नेमिनाथ के पावन जीवन का वर्णन किया गया है । इसकी भाषा भी संस्कृत निष्ठ है। बिवाह में किस प्रकार प्राभूषणों एवं वाद्य मन्त्रों के झब्द हो रहे थे-इसफा एक वर्णन देखिये
तिहां तड़ तड़ई तव लीय ना दिन बलीय भेद भंभाबजाइ, भंफारि रूडि सहित चूडी भेर नादह गज्जद । मण भरगण करती टगण धरती सद्ध बोल्लइ झल्लरी । घुम घुमक करती करण हरती एहज्जि सुन्दरी ।। १८ ॥ तरण तणण टंका नाद सुन्दर तांति मन्वर वणिया । धम धमहं नादि घणण करती घुग्घरी सुहकारीया । मुमुक बोला सदि सोहा एह भुगल सारयं । करण करणण क्रों को नादि वादि सुद्ध सादि रम्मरणं ॥ १९ ॥
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*
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ब्रह्म बून्रराज
५. दान छन् :
यह एक लघु पद है, जिसमें कृपणता की निन्दा एवं दान की प्रा की गई है। इसमें केवल २ पद्य है ।
उक्त सभी पांचों कृतियाँ दि० जैन मन्दिर, पाटोदी, जयपुर के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत हैं...:
!
.:
६. तत्वसार हा :
:
-
'तत्वसार हुहा' की एक प्रति कुछ समय पूर्व जयपुर के टोलियों के मन्दिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध हुई थी । रचना में जैन सिद्धान्त के अनुसार सात तत्वों का वर्णन किया गया है। इसलिए यह एक सैद्धान्तिक रचना है । तत्वों के अतिरिक्त साधारण जनता की कसम दिलाने से बिलों कवि ने अपनी इस रचना में लिया है । १६ साब्दी में ऐसी रचनाओं के अस्तित्व से प्रकट होता है कि उस समय हिन्दी भाषा का अच्छा प्रचलन था । तथा काव्य, कथा चरित, फागु, बेलि आदि काव्यात्मक विषयों के अतिरिक्त सैद्धान्तिक विषयों पर भी रचनाएँ प्रारम्भ हो गई थी। ::
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'तवसोर दूहां' में ९१ दोहे एवं श्रीपई हैं। भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि मट्टारक शुभचन्द्र का गुजरात से पर्याप्त सम्पर्क था । यत् रचना 'दुलहा' नामक श्रावक के अनुरोध से लिखी गयी श्री ने उसके नाम का कितने ही पद्यों में उल्लेख किया है
1
१०३:
रोगरहित संगति सुखी रे, संपदा पूरा ठाणः । धर्मं बुद्धि मन शुद्धड़ी दुल्हा' अनुकमिजाण ।। ६ ।। तत्वों का न करता कवि कहता है कि जिनेन्द्र हो एवं परमात्मा है और उनकी वाणी ही सिद्धार्थ है । जीवादि सात तत्वों पर श्रद्धान करना ही सच्चा सम्यग्दर्शन है |
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7.
देव एक जिन देवरे, प्रागम जिन सिद्धान्त ।
12
तरत्र जीतादिक सुबहण, होइ सम्मत प्रभ्रांत ।। १७ ।।
i
मोक्ष तत्व का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है
..::
"
कर्म कलंक विकरनो रे, निःशेष होथि नाश ।
मोक्ष तत्व श्री जिनकी, जावा भानु धन्यास | २६ ।।
1
दाल
ii
1. मामा का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है कि किसी की बारमा उन्न
aur नीम नहीं हैं, कर्मों के कारण हो उसे उच्च एवं नीच की संज्ञा दी जाती है । :
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के नाम से सम्बोधित किया जाता है। बास्मा तो राणा है-वह शूद्ध कैसे हो सकती है।
उच्च नीच नवि अप्पा हुपि, कर्म कलंक तरणो की तु सोई। वंभरा क्षत्रिय वैश्य न शुद्र, बप्पा सजा नवि होय शुद्र ।। ७ ।। बामा प्रश में करने का भी लिखा है :---
अप्पा धनी नवि नवि निर्षम्न, नवि पुर्बल नवि अप्पा धन्न । मूर्ख हर्ष द्वेष नविने जीव, नवि सुखी नवि दुखी प्रतीव ।। ७१ ॥
सुक्ख अमंत बल वली, रे बमन्स पतुष्टय ठाम | इन्द्रिय रहित मनो रहित, शुभ चिदानन्द नाम ।। ७७ ।।
रपना काल :
कवि ने अपनी यह रचना कर समाप्त की पी-इसका उसने कोई उल्लेख नहीं किया है, लेकिन संभवतः ये रचनाएं उनके प्रारम्मिक जीवन की रचनाएं रही हों। इसलिए इन्हें सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की रचना मामना ही उचित होगा । रचना समाप्त करते हुए कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है।
शान निज भाव शुद्ध चिदानन्द चीततो, मूको माया मेह गेह बेहए । सिद्ध तणां सुखणि मलहरहि, आस्मा मावि शुभ एहए । श्री विजय कीर्ति गुरु मनी बरी, घ्याउ शुद्ध चिद्रूप ।। भट्टारक श्री शुभचन्द्र भणि था तु शुद्ध सस्प ॥११॥ कृति का प्रथम पच निम्न प्रकार है -
समयसार रस सांभको, रेसम रवि श्री समिसार । समयसार सुन सिद्धमा सीमि सुक्स विचार ॥१॥ .
मूल्यांकन
भ. शुभचन्द्र की संस्कृत एवं हिन्दी रचनायें एवं भाषा, फाप्यतत्व एवं वर्णन शंखी सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। संस्कृत भाषा के हो ये अधिकारी आचार्य थे ही हिन्दी काव्य क्षेत्र में भी वे प्रतिभावान कवि थे। यद्यपि हिन्दी भाषा में उन्होंने कोई
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ब्रह्म बुचराज
मड़ा काव्य नहीं लिखा किन्तु अपनी लघु रचनामों में भी उन्होंने अपनी काव्य निर्माण प्रतिभा की स्पष्ट छाप छोड़ दी है। उनका कार्य क्षेत्र वागड़ प्रदेश एवं गुमरात प्रदेश का कुश्न माग था लेकिन इनको रचनाओं में गुजराती भाषा का प्रभाव नहीं के बराबर रहा है। कवि के हिन्दी काव्यों की भाषा संस्कृत निष्ठ है । कितने ही मुस्कृत के शब्दों का अनुस्वार सहित ज्यों का त्यों ही प्रयोग कर दिया गया है । वे किसी भी कथा एवं जीवन चरित को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करने में दक्ष थे। महावोर छन्द, नेमिनाथ छन्द इसी श्रेणी की रचना हैं।
-
-
संस्कृत काव्यों को दृष्टि से तो शुमचन्द्र को किमी भी दृष्टि में महाकवि से कम नहीं कहा जा सकता। उनके जो विविध चरित काम्य हैं उनमें काव्यगत सभी गुण पाये जाते हैं। उनके सभी काध्य सर्गों में विभक्त हैं एवं चरित काम्यों में अपेक्षित सभी गुण इन काव्यों में देखने को मिलते हैं। काव्य रचना के साथ साय ही उन्होंने कात्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत भाषा में टीका लिखकर अपने प्राकृत भाषा के ज्ञान का भी अच्छा परिचय दिया है। अध्यात्मतरंगिणी की रचना करके उन्होंने अध्यात्मवाद का मबार किया। वास्तव में जैन सन्तों की १७-१८ वीं शताम्दि तक यह एक विशेषता रही कि वे संस्कृत एव हिन्दी में समान गति से काव्य रचना करते रहे । उन्होंने किसी एक भाषा का ही पल्ला नहीं पकड़ा किन्तु अपने समय की प्रमुख भाषाओं में ही काव्य रचना करके उनके प्रचार एवं प्रसार में सहयोगी बने । म शुभचन्द्र प्रत्यधिक उदार मनोवृत्ति के साधु थे। उन्होंने अपने गुरू विजयकीत्ति के प्रति विभिन्न लधु रचनाओं में भाषभरी श्रद्धांजली अर्पित की है वह उनकी महानता का सूचक है। प्रब समम आगया है जब कवि के काम्यों की विशेषताओं का व्यापक अध्ययन किया जावे।
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सन्त शिरोमणि वीरचन्द्र
भट्टारकीय बलात्कारगण शाखा के संस्थापक भट्टारक देवेन्द्रकीति थे, जो संत शिरोमणि भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्यों में से थे। जब देवेन्द्रकोति ने सूरत में भट्टारक गादी की स्थापना की थी, उस समय भट्टारक सकलकीति का राजस्थान एवं गुजरात में जबरदस्त प्रभाव था और संभवतः इसी प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से देवेन्द्रकोति ने एक और नयी मट्टारक संस्था को जन्म दिया । भट्टारक देवेन्द्रफोसि के पीले एवं वीरचन्द्र के पहिले सीन श्रीर भट्टारक हुए जिनके नाम हैं विद्यानन्द ( ० १४६६ - १५३७ ), मल्लिभूषण (१५४४-५५ ) और लक्ष्मीचन्द्र ( १५५६ - ८२ ) | 'वीरचन्द्र' मट्टारक लक्ष्मीचन्द के शिष्य थे पश्चात् ये भट्टारक बने थे । यद्यपि इसका सूरतगादी से सम्बन्ध था, लेकिन ये राजस्थान के अधिक समीप थे और इस प्रदेश में सब बिहार किया करते थे ।
और इन्हीं की मृत्यु के
1
'सन्त वीरचन्द्र' प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे । व्याकरण एवं न्याय शास्त्र के प्रकाण्ड वेसा थे । छन्द, अलंकार, एवं संगीत शास्त्र के मर्मज्ञ थे। वे जहां जाते अपने भक्तों की संख्या बढ़ा लेते एवं विरोधियों का सफाया कर देते | बाद-विवाद में उनसे जीतना बड़े २ महारथियों के लिए भी सहज नहीं था। वे अपने साधु जीवन को पूरी तरह निभाते और गृहस्थों को संयमित जीवन रखने का उपदेश देते। एक भट्टारक पट्टावली में उनका निम्न प्रकार परिचय दिया गया है.
"तदवंशमंडन- कंदर्प दर्पदलन- विश्वलोकहृदय रंजन महाव्रतीपुरंदराणां, नवसह्प्रमुखदेशाधिप राजाधिराजश्रीमर्जुनजीय राजसभामध्याप्त सन्मानानां षोडशवर्ष -. पर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशात्योदना दिस पिप्रभृतिसरस हारपरिवजितानां, दुर्वारवादिसंगपर्वतीचूर्णीकरणवज्जायमानप्रथमव च नखंड नपंडितानों, व्याकरणप्रमेयक मलमात्तण्डछंदोलंकृतिसारसाहित्य संगीतसकलतर्कसिद्धान्तागमशास्त्रसमुद्रपारंगतानां मूलोत्तरगुरणगण मरिंग मंडित विबुध वर श्रीवीर चन्द्रमद्वारकाणां "
सकल
13
नवसारी के
उक्त प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वीरचन्द्र ने जीवराज से खूब सम्मान पाया तथा १६ वर्ष तक नीरस वीरचन्द्र की विद्वत्ता का इनके बाद होने वाले कितने ही
अहार का विद्वानों ने
है । भट्टारक शुभचन्द्र ने अपनी कात्तिकेयानुप्रक्षा की संस्कृत टीका में
में निम्न पद्य लिखा है :
-
शासक अर्जुन
सेवन किया । उल्लेख किया इनकी प्रशंसा
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सन्त शिरोमणि वीरचन्द्र
भट्टारकपदाधीशः मूलसंबे विदांवराः । रमावीरेन्द्र- चिद्रपः गुरवो हि नसोशिनः ॥१०॥
भ० सुमतिकीर्ति ने इन्हें वादियों के लिए अजेय स्वीकार किया है और उनके लिए वज्र के समान माना है। अपनी प्राकृत पंचसंग्रह की टीका में इनके यश को जीवित रखने के लिए निम्न पद्य लिखा है:
—
दुरदुर्गादिकपतानां वज्रायमानो वरवीरचन्द्रः । तदन्वये सूरिवरप्रधान जानादिभूषो गणिगच्छराजः ||
इसी तरह 'म० वादिचन्द' ने अपनी सुभगसुलोचना चरित में वीरचन्द्र की विद्वत्ता की प्रशंसा की है और कहा है कि कौनसा मुर्ख उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर विद्वान् नहीं बन सकता ।
●
वीरचन्द्रं समाश्रित्य के मूर्खा न विदो मधन् । तं ( श्रमे ) त्यक्त सार्वन्न दीप्त्या निर्जितकावनम् ॥
१०७
'वोरचन्द्र' जबरदस्त साहित्य सेवी थे । गुजराती के पारंगत विद्वान थे । यद्यपि अब तक उपलब्ध हो सकी हैं, लेकिन ही उनकी विद्वत्ता का हैं। इनकी रचनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं
१. वीर विलास फाग
२. जम्बूस्वामी afte
३. जिन ओतरा
४. सीमंधरस्वामी गोत
वे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं उनकी केवल ८ रचनाएं हो परिचय देने के लिए पर्याप्त
५. संबोध सत्तार
६. नेमिनाथ रास
७. चित्तनिरोध कथा
८. बाहुबलि वेलि
१. वीर विलास फाग
'बीर विलास फाग' एक खण्ड काव्य है, जिसमें २२वें तीर्थकर नेमिनाथ को जीवन को एक घटना का वर्णन किया गया है। फाग में १३७ पद्य हैं। इसकी एक हस्तलिखित प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भर में संग्रहीत है । यह प्रति संवत् १६८६ में म० वीरचन्द्र के शिष्य भ० महीं चन्द के उपदेश से लिखी गयी थी। ब्र० ज्ञानसागर इसके प्रतिलिपिकार थे ।
रचना के प्रारम्भ में नेमिनाथ के सौन्दर्य एवं शक्ति का वर्णन किया गया है, इसके पश्चात् उनकी होने वाली परिन राजुल की सुन्दरता का वर्णन मिलता है। विवाह के अवसर पर नगर की शोभा दर्शनीय हो जाती है तथा वहां विभिन्न उत्सव
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मनाये जाते हैं। नेमिनाथ की बारात बड़ी सजधज के साथ भाती है लेकिन तोरण द्वार के निकट पहुँचने के पूर्व ही नेमिनाथ एक चौक में बहुत से पशुओं को देखते हैं और जब उन्हें सारथी द्वारा यह हम होता है पतियों के लिए एकत्रित किये गए हैं तो उन्हें तत्काल वैराग्य हो जाता है और ये बंधन तोड़ कर गिरनार चले जाते हैं। राजुल को जब उनकी वैराग्य लेने की घटना का मालूम होता है, तो वह घोर विलाप करती है, बेहोश होकर गिर पड़ती है । वह स्वयं भी अपने सब आभूषणों को उतार कर तपस्वी जीवन धारण कर लेती है | रचना के प्रान्त में नेमिनाथ के तपस्वी जीवन का भी अच्छा वर्णन मिलता है ।
१०८
फाग सरस एवं सुन्दर है। कवि के सभी वन श्रनु है और उनमें जीवन है तथा काव्यत्व के दर्शन होते हैं। नेमिनाथ की सुन्दरता का एक वर्शन देखिये
वेलि कमल दल कोमल, सामल वरण शरीर । त्रिभुवनपति त्रिभुवन निलो, नीलो गुण गंभीर ||७|| माननी मोहन जिनवर, दिन दिन देह दिपंत | प्रलंब प्रताप प्रभाकर, मबहर श्री भगवंत ॥८॥
लीला ललित नेमीश्वर, भलवेश्वर उदार । प्रहसित पंकज पंखडी, अखंडी रूपि अपार ||९|| प्रति कोमल गल गंदल, प्रविमल वाणी विशाल । अगं अनोपम निरुपम, मदन निवास ॥१०॥
इसी तरह राजुल के सौन्दयं वर्णन को भी कवि के शब्दों में पढ़िये-
कटिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतं ।
चंपक वर्णी चंद्राननी, माननी सोहि सुरंग २।१७, ।
हरणी हरस्त्री निज नयणीउ वयरणीय साह सुरंग । दंत सुमंती दीपती, सोहंती सिरवेणी बंघ ॥ १८॥
कनक फेरी जसी गुतली, पातली पदमनी नारि । सतीय शिरोमणि सुन्दरी, मनतरी अवनि मारि ॥ १६ ॥
ज्ञान-विज्ञान विचक्षरणी, सुलक्षणी कोमल काय | दान सुपात्र देखती, पूजती श्री जिनवर पाय ||२०|| राजमती रलीयामणी, सोह्रामणि सुमधुरीय वारिए । मंभर म्योली भामिनी स्वामिनी सोहि सुराणी ।।२१ ।।
}
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सन्त शिरोमणि बोरचन्द्र
१०६
रूपि रभा सुतिलोत्तमा, उत्तम प्रगि आचार । परणितु पुण्यवंती तेहनि, नेह करी नेमिकुमार ॥२२॥
'फाग' के अन्य सुन्दरतम वर्णनों में राजुल-विलाप भी एक उल्लेखनीय स्थल है । वनों के पढ़ने के पश्चात् पाठकों के स्वयमेव आंसू बह निकलते हैं । इस वर्णन का एक स्थल देखिये:
कर काम ककरण मोड़ती, तोड़ती मिरिणमिहार । लूचती केश-कलाप, विलाप करि अनिवार ।।७।। नयरिण नीर काजलि गलि, टलबलि भामिनी भूर । किम करू कहि रे साहेलड़ी, विहि नडि गयो मझनाह ॥७१।। काव्य के अन्त में कवि ने जो अपना परिचय दिया है, यह निम्न प्रकार है:श्री मूल संधि मह्मिा निलो, जती तिलो श्री विद्यानन्द । सूरी श्री मल्लिभूषण जयो, जयो सूरी लक्ष्मीचन्द ।।१३५।। जयो सूरी श्री वीरचन्द गृरिंगद, रच्यो जिणि फाग । गांता साभलता ए मनोहर, सुखकर श्री वीतराग ।।१३६।। जीहां मेदिनी मेरु महीधर, द्वीप सायर जगि जाम । तिहा लगि ए 'पदो, न दो सदा फाग ए ताम ।।१३॥
रचनाकाल
कषि ने फाग के रचनाकाल का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। लेकिन यह रचना सं० १६०० के पहिले की मालूम होती है।
२. जम्बूस्वामी वेलि
यह कवि की दूसरी रचना है । इसकी एक अपूर्ण प्रति लेखक को उदयपुर (राजस्थान) के खण्डेलवाल जिन-मन्दिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध हुई थी। वह एक गुटके में संग्रहीत है । प्रति जीर्ण अवस्था में है और उसके कितने ही स्थलों से अक्षर मिट गए हैं। इसमें अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जीवन परित परिणत है।
जम्बूस्वामी का जीवन जैन ऋषियों के लिए प्राकर्षक रहा है। इसलिए संस्कृत, अपभ्रश, हिन्दी, राजस्थानी एवं अन्य भाषाघों में उनके जीवन पर विविध कृतियां उपलब्ध होती हैं ।
'वेलि' की माश गुजराती मिश्रित राजस्थानी है, जिस पर डिगल का प्रभाव
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है । यद्यपि वेलि काव्यत्व की दृष्टि से उतनी उच्चस्तर की रचना नहीं है, किन्तु माषा के अध्ययन की दृष्टि से यह एक अच्छी कृति है। इसमें दूहा,त्रोटक एवं चाल छंदों का प्रयोग हुपा है । रचना का अन्तिम भाग जिसमें कवि ने अपना परिचय दिया है, निम्न प्रकार है :
श्री मूलसंघे महिमा निलो, अने देवेन्द्र कीरति सूरि राय । श्री विद्यानंदि वसुधां निलो, नरपति सेवे पाय ॥१॥ तेह वारे उपयो गति, लक्ष्मीचन्द्र जेण आण । श्री महिलभूषण महिमा घणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ॥२॥ तेह गुरुचरणकमलनमी, अने वेल्लि रची है रसाल। श्री वीरचन्द्र सूरीवर कहें, गांता पुण्य अपार ॥३॥ जम्बूकुमार फेवली हवा, अमें स्वर्ग-मुक्ति दातार । जे मवियण भावें भाषसे, ते तरसे संसार ॥४॥
कवि ने इसमें भी रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं किया है।
३. जिन आंसरा
यह कवि की लघु रचना है, जो उदयपुर के उसी गुटके में संग्रहीत है। इसमें २४ तीर्थंकरों के एक के बाद दूसरे तीर्थकर होने में जो समय लगता है--उसका वर्णन किया गया है । काथ्य-सौष्ठव की दृष्टि से रचना सामान्य है। भाषा भी वही है, जो कवि की अन्य रचनाओं की है। रचना का अन्तिम भाग निम्न प्रकार है:
सत्य शासन जिन स्थामीनू, जेहने तेहने रंग। हो जाते वंयो मला, ते नर चतुर सुचंग ॥६॥ जर्गे जनम्यूशय रेहन, तेहन जीव्यू सार । रंग लागे बाने म, जिन शासनह मझार ७|| श्री लक्ष्मीचन्द्र गुरु मच्छपती, तिस पार्ट सार शृगार ।
श्री वीरचन्द्र मोरे कथा, जिन प्रांतरा उदार ॥ ४. संबोष सत्ताणु भावना
यह एक उपवेवामक कृति है, जिसमें ५७ पद्य हैं तथा सभी दोहों के रूप में हैं। इसकी प्रति मी उसपुर के उली गुटके में संग्रहीत है जिसमें कवि की अन्य
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सन्त शिरोमणि वीरचन्द्र
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रचनाएं हैं। भावना के अन्त में कवि ने अपना परिचय भी दिया है, जो निम्न प्रकार है:
सूरि श्री विद्यानन्दजयो, श्री महिलभूषण मुनिचन्द्र । तस पार्टी महिमा निलो, गुरु श्री लक्ष्मीचन्द्र ॥९६॥
तेह कुलकमल दिवसपति, जपती यति वीरचन्द | सुरगतां मात ए भावना, पामीर परमानन्द ||७||
भावना में सभी दोहे शिक्षाप्रद है तथा सुन्दर भावों से परिपूर्ण है । कवि की कहने की शैली सरल एवं अर्थगम्य है। कुछ दोहों का भास्वादन कीजिए:
धर्म धर्म नर उच्चरे, न घरे धर्मनो ममं ।
धर्म कारन प्राणि हो, न गणं निष्ठुर कर्म ॥३॥
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धर्म धर्म सह को कहो, न गहे धमं तु नाम । राम राम पोपट पढे, बूझे न ते निज राम ||६||
X
.X X धनपाले धनपाल ते, धनपाल नामें भिखारो |
लाछि नाम लक्ष्मी तणू, लाछि लाकड़ों वहे नारी ॥७॥
X
X
X
दया बीज विराजे क्रिया, ते सपली श्रप्रमाण । शीतल संजल जल भर्मा, जेम चण्डाल न बारा ॥ १९ ॥
X
X
धर्म मूल प्राणी दया, दया ते जीवनी माय । भाट भ्रांति न आणिए, भ्रांते धर्मनो पाय ॥२१॥
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'x प्राणि दया विरा प्राणी ने एक न हृदय होय । तेल न बेलू पलितां, सूप न तोय विलोय ॥२२॥
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X •फ विणू गान जिम, जिन विण ध्याकरणे. वारिण ।
न. सोहे धर्म दबा बिना, जिम भोया विरण पारि ॥ ३२ ॥
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तोची संगति पर
भारी उत्तम श्राचार
दुर्लभ भव मानव तणो, जीव तूं आलिम हार ॥४०॥
५. सीमन्धर स्वामी गीत
यह एक लघु गीत है - जिसमें सीमन्धर स्वामी का स्तवन किया गया है ।
६. चित्तनिरोधक कथा
यह १५ छन्दों की एक लघु कृति है, जिसमें चित्त को वश में रखने का उपदेश दिया गया है । यह भी उदयपुर वाले गुटके में ही संग्रहीत है । अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है-
सूरि श्री मल्लिभूषण जयो जयो श्री लक्ष्मीचन्द्र ।
तास वंश विद्यानि लाड़ नीति श्रृंगार ।
श्री वीरचन्द्र सूरी भरणी, चित्त निरोध विचार ||१५||
७. बाहुबलि वेलि
इसकी एक प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। यह एक लघु रचना है लेकिन इसमें विभिन्न छन्दों का प्रयोग किया गया है । त्रोटक एवं राग सिंधु मुख्य छन्द हैं ।
८. नेमकुमार रास
यह नेमिनाथ की वैवाहिक घटना पर एक लघु कृति है। इसकी प्रति उदयपुर के अग्रवाल दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। रास की रचना संवत् १६७३ में समाप्त हुई थी जैसा कि निम्न छन्दों से ज्ञात होता है
तेहनी भक्ति करी धरणी, मुनि वीरचन्द दीघी युधि । श्री नमिता गुरवव्या, पामवा सधली रिधि ॥१६॥
संवत सोलताहोत्तरि, श्रवण सुदि गुरुवार । दशमीको दिन पड़ो, रास रवो मनोहार ॥१७॥
इस प्रकार 'भ० वीरचन्द्र' की अब तक जो कृतियां उपलब्ध हुई है - वे इनके साहित्य- प्र म का परिचय प्राप्त करने के लिए पर्याप्त हैं। राजस्थान एवं गुजरात के शास्त्र - भण्डारों की पूर्ण खोज होने पर इनकी अभी और की रचनाएं प्रकाश में श्राने की आशा है।
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संत समतिकोत्ति
'सुमतिकीत्ति' नाम वाले अब तक विभिन्न सन्तों का नामोल्ले न हुआ है, लेकिन इनमें दो 'समणिनीति' एक ही समय में हए और दोनों ही अपने समय के अन्छ विद्वान् माने जाते रहे । इन दोनों में एक का 'भट्टारक ज्ञान भूषण के शिष्य रूप में और दूसरे का "मट्टारक शुभचन्द्र' के शिष्य रूप में उल्लेख मिलता है। आचार्य सकल मूषण' ले 'समतिकोत्ति' का भद्रारक शुभचन्द्र के शिष्य रूप में प्रपनी उपदेशरत्नमाला में निम्न प्रकार उल्लेख किया है :
मट्टारक-श्रीशुभचन्द्रमुरिस्तत्पट्टपकेनहतिश्मरश्मिः ।।
विद्यावंद्यः सफलप्रसिद्धी वादी भसिंहो जयतात्वरिठ्या ।।९।। पट्ट तस्य प्रीणित प्राणिवर्ग शांतोदांतः शीलशाली सुधीमान् । जीयात्सूरिः श्रीसुमत्यादिङ्गीतिः गच्छाधीशः कमुकान्तिकलावान् ॥१०॥
"सकल भूषण' ने 'उपदेशरत्नमाला' संवत् १६२७ में समाप्त कर दी थी और इन्होंने अपने-अापको 'सुमतिकीति' का 'गुरु भाई' होना स्वीकार किया है...
तस्याभूच गुरुनाता नाम्ना सकलभूषणः । सूरिजिनमते लोनमनाः संतोषपोषकः ॥८॥
'ब्रह्म कामराज' ने अपने 'जयकुमार पुराण' में भी 'सुमतिकोत्ति' को भ० शुभचन्द्र का शिष्य लिखा है :
तेभ्यः श्रीशुभचन्द्रः श्रीसुमतिकीति संयमी । गुणकी-ह्वया आसन् बलात्वारगणेश्वर: 1८11
इसके पश्चात् सं० १७२२ में रचित 'प्रा म्न-प्रबन्ध में म० देवेन्द्र कीति ने 'मी सुमतिकीत्ति को शुभचन्द्र का शिष्य लिखा है--
तेह पट्ट कुमुद पूरा समी, शुमचन्ट्र भवतार रे । न्याय प्रमाण प्रचंड थी, गुरुयादी जल दशमी रे ।। तस पट्टोघर प्रगटीया श्री समतिकीत्ति जयकार रे । तस पट्ट धारक मट्टारक गुरगकीति गगा गण धार रे ।।४।। एक दूसरे 'सुमति कीति' का उल्लेख भट्टारक नाम भूपण के शिष्य के रूप
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११४
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
में मिलता है । सर्व प्रथम भट्टारक ज्ञानभूषण ने कर्मकाण्ड टीका में सुमतिकीत्ति की सहायता से टोका लिखमा लिखा है:
तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गुणाकरः । टीको ही कर्मकांडस्य चक्र मुमतिको त्तियुक् ।।२।।
वे 'सुमतिनीति' मुल संघ में स्थित मन्दिसंघ बलात्कारगण एवं सरस्वती गमन के भट्टारक वीरचन्द्र के शिष्य थे, जिनके पूर्व भट्टारक लक्ष्मीभूषण, मल्लिभूषण एवं विमानन्दि हो चुके थे । सुमतिकीति ने प्राकृत पंचसंग्रह'-टीवर को संवत् १६२० माद्रपद शुक्ला दशमी वो दिन ईडर के षभदेव के मन्दिर में समाप्त की थी । इस टोका का सगोधन भी ज्ञानभूपण ने ही किया था। इस प्रकार दोनों 'सुमतिकोति' का समय यद्यपि एक गा है, किन्तु इनमें एक मट्टारक सफल कोक्ति की परम्परा में होने वाले भ० शुमचन्द्र के शिष्य थे और दुसरे भट्टारब, देवेन्द्रकीत्ति की गरम्परा में होने वाले भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे। 'प्रथम सुमतिकोत्ति' भट्टारक शुभचन्द्र के पश्वान् भट्टारक गादी पर बैठे थे, लेकिन दूसरे सुमतिकोत्ति संभवतः भट्टारक नहीं थे, किन्तु अह्मचारी अथवा अन्य पत्र धारी व्रती होंगे। यदि ऐसा न होता तो वे 'प्राकृत पंचसंग्रह टोका' में भट्टारक ज्ञानभूपरप के पश्चात् प्रभाचन्द का नाम नहीं गिनाते
भट्टारको भुवि ख्यातो जीयाछीजानभूषणः । तस्म महोदये भानुः प्रभाचन्द्रो वचोनिधिः ।।७।।
अब हम यहां 'भ० ज्ञानभूषण' के शिष्य 'सन्त सुमतिकीत्ति' की 'साहित्यसाधना' का परिचय दे रहे है ।
'सुमतिकीति' सन्त थे, और मट्टारक पद की उपेक्षा करके 'साहित्यसाधना' में अपनी विशेष रुचि रखते थे। एक 'भट्टारक -विरदायली' में 'शानभूषण' की प्रशंसा करते समय जब उनके शिष्यों के नाम गिनाये तो सुमतिकात्ति को सिद्धांतवेदि एवं निग्रन्धाचार्य इन दो विशेषणों से निर्दिष्ट किया है । ये संस्कृत,प्राकृत, हिन्दी एवं राजस्थानी के अच्छे विद्वान् थे। साधु बनने के पश्चात् इन्होंने अपना अधिकांश जीवन 'साहित्य-साधना' में लगाया और साहित्य-जगत को कितनी ही रचनाए भेंट कर गये । इनको अब तक निम्न रचनाए उपलब्ध हो चुकी हैं:हीका ग्रंथ१. कर्मकाण्ड टीका
२. पंचसंग्रह टीका
१. देखिये-५० परमानन्वनी द्वारा सम्पावित 'प्रवास्ति संग्रह'-पृ० सं०७५
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सन्त सुमतिकोत्ति
हिन्दी रचनायें
१. धर्म परीक्षा रास २. जिनवर स्वामी वीनती ३. जिह्वा दंत विवाद ४. बसंत विद्या-विलास
५. पद-(काल अने तो जीव बढे
परिभ्रमतां। ६. शीतलनाथ गौत
उक्त रघनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न है:१. कर्मकाण्ड टीका
प्राचार्य नेमिचन्द्र पृन कर्मकाण्ड (प्राकृत) की यह संस्कृत टीका है । जिसको लिखने में इन्होंने अपने गुम भट्टानक ज्ञानभूपग को गुरी सहायता दी थी। यह भी अधिक संभव है कि इन्होंने ही इसकी दीका लिखी हो और भ० ज्ञानभुषमा ने उसका संशोधन करके गुरु होने के कारण अपने नाम का प्रथम उल्लेख कर दिया हो । दीका सुन्दर है। इससे सुमतिकीत्ति की विद्वत्ता का पता लगता है।'
२. प्राकृत पंचसंग्रह टीका
'पंचसंग्रह' नाम का एक प्राचीन भावृत्त प्रन्य है, जो मूलतः पांच प्रकरणों को लिए हए है, और जिस पर मूल के साथ भाप्य चूरिय तथा संस्कृत टीका उपलब्ध है । आचार्य अमितिगति' ने सं. १०७३ में प्राकृत पंच संग्रह का मंशोधन परिव नादि के साथ पंच संग्रह नामक अन्य बनाया था। इस दीका का पता लगाने का मुख्य श्रेय पं० परमानन्दजी शास्त्री, देहली, वो है।
३. धर्मपरीक्षा रास
यह कवि को हिन्दी बना है, जिसका उल्लेख पं० परमानन्दजी ने भी अपने प्रशस्ति संग्रह की भूमिका में किया है। इस ग्रन्थ की रचना होमोट नगर (गुजरात) में हुई थी। राम की भापा गुजराती मिश्रित हिन्दी है, जैसा कि कनि की अन्य रचनाओं की भाषा है । सस' का रचना काल संवत् १९२५ है। रास का अन्तिम छन्द निम्न प्रकार है:mmwwwmummmsammmmmmmmwwwxamwamanwwAANAIIm
१. प्रशस्ति संग्रहः पृ०७ के पूरे दो पद्य २. देखिये-५० परमानन्दजी द्वारा सम्पादित-प्रशस्ति संग्रह-पृ० सं०७४ 1. इसकी एक प्रति अग्रवाल दि० अंन मन्दिर उवयपर (राजस्थान) में
संग्रहीत है।
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११६
पंडित हेमे प्रचा वस्तु रणाय गर्ने वीरदास | हासोट नगर पूरी हुबो, धर्म परीक्षा रास ॥
संवत् सोल पंचवीसमे मार्गसिर सुदि बीज बार | यही रतिया
से सार ||
४. जिमबर स्वामी वोनती
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
यह एक स्तवन है, जिसमें २३ छन्द है । रचना साधारण है । एक पद्म
देखिये
धन्य हाथ ते नर तरणा, जे जिन पुजन्स । नेत्र सफल स्वामी हवां, जे तुम निरखत ॥
श्रवण सारवली ते कह्या, जिनवाणी सुरांत | मन हुं मुनिवर तर जे तुम्ह ध्यायंत ॥
थारु रसना ते कहीए जे लीजे जिन नाम ।
जिन चरण कमल जे नमि ते जाणो अभिराम ॥४॥
2
५. जिल्ह्नाबन्त विवाह: —
यह एक लघु रचना है - जिसमें केवल ११ छन्द हैं। इसमें जीभ और दांत एक दूसरे में होने वाले विवाद का वर्णन है । भाषा सरल है। एक उदाहरण देखिए -
कठिन क बचन न बोलीमि, रह्यां एकठा बोयरे । पंचलोका मांहि इम मशो, जिह्वा करे बने होयरे ॥४२॥
प्रह्मी चार्चा चूरी रसकंसू, प्रो करु अपरमादरे । haण विधारी बापड़ी, विठी करेय सवाद रे ॥३॥
बसन्त विलास गोतः
इसमें २२ छन्द हैं - जिनमें नेमिनाथ के विवाह प्रसंग को लेकर रचना की गई है। रचना साधारणतः मच्छी है।
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सन्त सुमति कीत्ति
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'सुमतिकीति' १६-१७ वीं शताब्दि के विद्वान थे । गुजरात एवं राजस्थान दोनों ही प्रदेश इनके पद चिह्नों से पावन बने थे । साहित्य-सर्जन एवं आत्म-साधना ही इनयों का प्रमुत कामालेकि हिना इनका गांव गांव में जन-जाग्रति पैदा करना । लोग अनपढ थे । मुइनाओं के चक्कर में फंमे हुए थे। वास्तविक धर्म की ओर से इनका ध्यान कम हो गया था और मिथ्याडम्बरों की ओर प्रवृत्ति होने लगी थी। यही कारण है कि 'धर्म परीक्षा रास' की सर्व प्रथम इन्होंने रचना की । यह इनकी सबसे बड़ी कृति है। जिमसे 'अमितिगति प्राचार्य' द्वारा निबद्ध 'धर्म परीक्षा' का सार रूप में वर्णन है । कवि की अन्य रचनाएं लघु होते हुए भी काव्यत्व शक्ति से परिपूर्ण है । गोत, पद एवं संवाद के रूप में इन्होंने जो रचनाएं प्रस्तुत की हैं, वे पाठक की रुचि को जाग्रत करने वाली हैं। 'सुमति कीति' का अभी और भी साहित्य मिलना चाहिए और वह हमारी खोज पर माघारित है।
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'ब्रह्म रायमल्ल
१७वीं शताब्दी के राजस्थानी विद्वानों में 'ब्रह्म रायमल्ल' का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। ये 'मुनि अनन्तकी नि' के शिष्य थे । 'अनन्तकीर्ति' के सम्बन्ध में अभी हमें दो लघु रचनाएं मिली हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये उस समय के प्रसिद्ध सन्त थे तथा स्थान-स्थान पर विहार करके जनता को उपदेश दिया करते थे । 'ब्रह्म रायमल्ल' ने इनसे कब दीक्षा ली, इसके विपय में कोई उस्लेख नहीं मिलता । लेकिन ये ब्रह्मचारी थे और अपने गुरु के संघ में न रहकर स्वतन्त्र रूप से परिभ्रमण किया करते थे।
'बह्म रायमल्ल' हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे । अब तक इनकी १३ रचनाए प्राप्त हो चुकी हैं । ये सभी रचनाएं हिन्दी में हैं । अपनी अधिकांश रचनाओं के नाम इन्होने 'रास' नाम से सम्बोधित किया है । सभी कृतियां कथा-काव्य हैं और उनमें सरल भाषा में विषय का वरांन किया हुमा है । इनका साहित्यकाल संवत् १६१५ से आरम्भ होता है और वह संवत् १६३६ तक चलता है । अपने इनकीस वर्ष के साहित्यकाल में १३ रचनाए निबद्ध कर साहित्यिक जगत की जो अपूर्व सेवाए की हैं वे चिरस्मरणीय रहेंगी। 'ब्रह्म रायमल्ल' के नाम से हो एक और विद्वान् मिलते हैं, जिन्होंने संवत् १६६७ में भतामर स्लोन' को संस्कृन टी समाप्त की थी। ये रायमल्ल हूंबड़ जाति के श्रावक थे तथा माता-पिता का नाम चम्पा और महला था। ग्रीवापुर के चन्द्रप्रम त्यालय में इन्होंने उक्त रचना समाप्त की थी। प्रश्न यह है कि दोनों रायमल्ल एक ही विधान है अथवा दोनों भिन्न २ विद्वान् हैं । --m o re- - - --- -- १. श्रीमबहू घड्वंशमंडनमणि म्हो ति नामा अणिक ।
तद् भार्या गुणमंडिता प्रतयुता चम्पेति नामाभिधा ॥६॥ तत्पुत्रो जिनपावकंजमघुपो, सयाविमरुलो प्रती । चक वित्तिमिमां स्तवस्प नितरां, नत्वा श्री (स) बाबीदुकं ॥७॥ सप्तषष्ठ्यकिसे वर्षे पोशाक्ये हि सेवले । (१६६७) । आषाढ़ श्वेतपक्षस्य पञ्चम्या बुधवारके ||८|| ग्रीवापुरे महासिस्नोस्तरभाग समाधिते । प्रोत्त ग-दुर्ग संयुक्त श्री चन्द्रप्रभ-सपनि ॥९॥ वणिनः कर्मसी माम्नः वचनात् मयकारचि । भक्तामरस्य ससिः रायनस्लेन वणिना ।।१।।
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ब्रह्म रायमल्ल
११६.
हमारे विचार से दोनों भिन्न २ विद्वान हैं, क्योंकि 'मत्तामर स्त्रोत्र वृत्ति' में उन्होंने जो परिचय दिया है, वैसा परिचय अन्य किसी रचना में नहीं मिलता । हूंबद्ध जातीय 'बझा रायमल्ल' ने अपने को अनन्तकीति का शिष्य नहीं माना है श्रीर अपने माता-पिता एवं जाति का उल्लेख किया है । इस प्रकार दोनों ही रायमल्ल भिन्न २ विद्वान हैं । इनमें भिन्नता का ॥क और तथ्य यह है कि मत्तामर स्तोत्र की टीका संचन १६६७ में समाप्त हुई थी जबकि राजस्थानी कवि रायमल्ल ने अपनी सभी रखनानों को संवत् १६३६ तक ही समाप्त कर दिया था। इन ३१ वर्षों में कवि द्वारा एक भी ग्रन्थ नहीं रत्रा जाना भी न्याय संगत मालूम नहीं होता । इस लिए १७वीं शताब्दी में रायमल्ल नाम के दो विद्वान् हए । प्रथम राजस्थानी विद्वान् धे जिसका समय १७वीं शताब्दी का द्वितीय चरण तक सीमित था । दूसरे रायमल्ल' गुजरातो विमान थे और उनका समय १७वीं शताब्दी के दूसरे चरण से प्रारम्भ होता है। यहां हम राजस्थानी सन्त 'ब्रह्म रायमल्ल' की रचनाओं का परिचय दे रहे हैं । आलोच्च रायमल्ल ने जिन हिन्दी रचनामों को निबद्ध किया था, उनके नाम निम्न प्रकार हैं :
१. नेमीदवर रास २. हनमन्त तथा रास ३. प्रद्युम्न रास ४. सुदर्शन रास ५. श्रीपाल रास ६. मविष्यदत्त रास ७. परमहंस चौपई
८. जम्बू स्वामी चौपई । २. निर्दोष सप्तमी कथा १०. प्रादित्यवार कथा २ ११. चिन्तामगि जयमाल' १२. छियालीस लागा १३. चन्द्रगुप्त स्वप्न चौपई
इन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :१. नेमोश्वर रास
यह एक लघु कथा काम है, जो १३९ छन्दों में समाप्त होता है। इस में 'नेमिनाथ स्वामो' के जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है । भाषा राजस्थानी novunarnrunnrunnnnnnmanneranmneun nun १. इसकी एक प्रति मन्दिर, संघीजी, जयपुर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। २, इसकी भी एक प्रति शास्त्र भण्डार मन्दिर संघीजी में सुरक्षित है।
इसकी एक प्रति दि जैन मन्दिर पाटोदी, जयपुर के शास्त्र भण्डार में
सुरक्षित है। ४. इसकी एक प्रति जयपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डर में सुर
क्षित है।
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*૨૦
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है । कवि को वर्णन शैली साधारण है । 'रास' काव्यकृति न होकर कथाकृति है, जिसके द्वारा जनसाधारण तक 'भगवान् नेमिनाथ' के जीवन के सम्बन्ध में जानकारी पहुंचाना है । कवि की यह संभवतः प्रथम कृति है, इसलिए इसकी भाषा में श्रोता नहीं आ सकी है। इसे संवत् १६१५ की श्रावण सुदी १३ के दिन समाप्त की थी । रचना स्थल पार्श्वनाथ का मन्दिर था। कवि ने अपना परिचय निम्न शब्दों में दिया है :--
अहो श्री मूल संग मुनि सरस्वती गछि छोड़ि हो चारि कमाइनि भछि । अनन्तकीति गुरु वंदिती, अहो तास तरी सस्ती कीयो बाण | राइमल ब्रह्म सो जाणिज्य, स्वामि हो पारस नाथ को थान ॥
श्री नेमि जिनेश्वर पाय नमो ॥१३७||
श्रहो सोलह पन्द्रहे रच्यो रास, सांवल तेरसि सावण मास । बार ते जो बुधवासर भलं, जैसी जी बुधि दिन्हो अवकास । पंडित कोई जी मति हंसी, ग्रहो तैसि जि बुधि कियो परगास || १३८।।
राम की काव्य शैली का एक उदाहरण देखिये
महो राजमति ऋषि किया हो उपाउ
कामिणी चरित ते गिण्या हो न जाइ ।
बात बिचारि विने धर सुध,
चिपस्यो दोन हो ध्यान |
जैसे होविषु रत्ना जडिउ
रागा बचन सुनवि कानि ।
श्री नेमि जिनेश्वर पाय ननु ॥६७॥
タ
-
रचना अभी तक प्रकाशित है। इसकी प्रतियां राजस्थान के कितने ही भण्डारों में मिलती हैं। रारा का दूसरा नाम 'नैमिश्वर फाग' भी है । २. हनुमत कथा रास
यह कवि की दूसरी रचना, जो संवत् १६१६ वैशाख बुदी ९ शनिवार को समाप्त हुई थी अर्थात् प्रथम रचना के पश्चात् ९ महीने से भी कम समय में कषि ने जनता को दूसरी रचना भेंट की । यह उसकी साहित्यिक निष्ठा का द्योतक है । रचना एक प्रबन्ध काव्य है, जिसमें जैन पुराणों के अनुसार हनुमान का वर्णन किया गया है । यह एक सुन्दर काव्य है, जिसमें कवि ने कहीं २ अपनी विद्वत्ता का भी
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ब्रह्म रायमल्ल
परिचय दिया है । इसमें ८६५ पछ हैं, जो वस्तुबंध, वोहा और चौपई छन्दों में विभक्त हैं । भाषा राजस्थानी है।
कवि ने रचना के अन्त में अपना वही परिचय दिया है, जो उसने प्रथम रचना में दिया था । केवल नेमिश्वर रास चन्द्रप्रभ चैत्यालय में समाप्त हना था
और यह हनुमन्त राम, मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में । कवि ने रचना के प्रारम्भ में भी मुनिसुथतनाथ को ही नमस्कार किया है । काव्य शैली प्रयाहमय है और वह धारा प्रवाह चलती है । काव्य के बीच बीच में मूक्तियाँ भी वरिणत हैं।
दो उदाहरण देखिए
पुरिष बिना जो कामिनी होई, ताको प्रादर कर न कोई । चक्रवती की पुत्री होई, पुरिष बिना दुःख पावै सोई ।।७।।
नाना विधि भुजं इक कर्म, सोग कलेस आदि बह ममं । एक जन्म एक मर, एक जाइ सिधि सबरं ॥४७॥ 'रास' की भाषा का एक उदाहरण देखिए
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देखो सीता तरुनी छाह, रालि मुंदड़ी छोली माह । पड़ी मुबड़ी देखी सीया, अचिरज भयो जनक की घीया।।६०२।। लई मुदड़ी कट लगाई, जैसे मिल छनौ गाई । चन्द्र बदन सीय भयो मानन्द, जानिकि मिलीया दशरथनन्द ॥६०३।।
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३. प्रधान रास
कवि को यह तीसरी रचना है, जिसमें कृषा के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन चरित्र वर्णित है । प्रद्युम्न १६६ पुण्य पुरुषों में से है । जन्म से ही उसके जीवन में विचित्र घटनाएं घटती हैं । पनेक यिद्यानों का वह स्वामी बनता है। वर्षों तक मुख भोगने के पश्चात् वह वैराय धारण कर लेना है और अन्त में आठों बमों का क्षय करके निर्वाण प्राप्त करता है । कवि ने प्रस्तुत कथा को १६५ कष्टा-बन्ध छन्दों में पुर्ण किया है 1 रास की रचना संवत् १६२८ भादवा सुदी २ को समाप्त हुई थी। रचना स्थान था गढ़ हरसोर- जिसे ब्रह्म रायमल्ल ने अपने धूलि करणों से पवित्र किया था । कवि के शब्दों में इस वर्णन को पड़िये -
हो सोलास अठबीस विचारो, भादव सुदि दृतिया बुधवारो।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व:
गढ़ हरसौर महा भलोजी, तिह में भला जिनसुर थान | श्रावक लोग बस भलाजी, देव शास्त्र गुरु रासै मान ॥१६॥
यह लघु कृति है जिसमें मुख्यतः काव्यत्व की ओर ध्यान न देकर कथा भाग को और विशेष ध्यान दिया गया है। प्रत्येक पद्य 'हो' शब्द से प्रारम्भ होता है : एक उदाहरण देखिए
हो कंचन माला बोहो दुख पायो, विद्या दोन्ही काम न सरीयो । ' बात दोउ करि बीगड़ी जी, पहली चित्ति न बात बिचारी ।। हरत परत दोन्यू गयाजी, कूकर साधी टाकर मारी ॥१९८।। हो पुत्र पांचस लीया बुलाय, मारो बेगि काम ने जाय । हो मन में हरव्या भयाजी, मग लेय बन क्रीड़ा चल्या ।।
मांभि. बावड़ी चंपियो जी, ऊपरि मोटो पाथर राल्यो तो ।।१८६।। ४. सुदर्शन रास
चारित्र के विषय में 'सेठ सुदर्शन' की कथा अत्यधिक प्रसिद्ध है । सेठ सुदर्शन" परम शांत एवं दृढ़ संयमी थावक ग्रे । संयम से व्युत नहीं होने के कारण उन्हें शुलो का प्रादेश मिला, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। लेकिन अपने चरित्र के प्रभाव से शूली भी सिंहासन बन गई । कवि ने इस रास को संवत् १६२९ में समाप्त किया था । इसमें २०० से अधिक छन्द हैं। काज्य साधारणतः अच्छा है।
५. श्रीपाल रास
रचनाकाल के अनुसार यह कवि की पांचवीं रचना है । इसमें 'श्रीपाल राजा' के जीवन का वर्णन है। से यह कथा 'सिद्ध चक्र पूजा' के महात्म्य को प्रकट करने के लिए भी कही जाती है । 'श्रीपाल' को सर्य प्रथम कुष्ट रोग से पीड़ित होने के कारण राज्य-शासन छोड़कर जंगम की शरण लेनी पड़ती है । दैवयोग से उसका विवाह मैना सुन्दरी से होता है, जिसे भाग्य पर विश्वास रखने के कारण अपने ही पिता का कोप- भाजन बनना पड़ता है । मैनासुन्दरी द्वारा उसका कुष्ट रोग दूर होने पर वह विदेश जाता है और अनेक राजकुमारियों से विवाह करके तथा अपार सम्पत्ति का स्वामी बनकर वापिस स्वदेश लौटता उसके जीवन में कितनी ही बाधाए माती हैं, लेकिन वे सब उसके अदम्य उ एवं सूझ-बूझ के कारण स्वतः ही दूर हो जाती हैं । कवि ने इसी कथा को अपने काव्य के २६७ पद्यों में चन्मोबद्ध किया है। रचना स्थान राजस्थान के सिद्ध गदरपथम्भोर है तथा
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बम रायमहल
रचना काल है संवत् १६२० को अपाऊ सुदी १३ शनिवार । गढ़ पर उग समय अकबर बादशाह का शासन था तथा चारों ओर सुग्बमम्पदा व्याप्त श्री। इसी को कवि के शब्दों में पढ़िए
हो सोलाम सीसौ शुम वर्ष, मास असाद भरणे सुभ हर्ष। तिथि तेरसि सित सोभिनी हो, अनुराधा नषित्र स्तुभ सर IT : चरण जोस दीस मला हो, भन बार 'लनीसरबार ॥२६४॥
हो रणथंभ्रमर सोभोक विलास भरिया नीर ताल चहु पास । बाग विहर बावड़ी घणी, हो धन कन सम्पत्ति तरणी निघान । साहि अकबर राजई, हो सोभा प्रणी जिसौ सुर थान ।।२९५।।
६. भविष्यवत्त रास
यह कयि का सबसे बड़ा रासक काम्य है, जिसमें भविष्यदत्त के जीवन का विस्तृत वर्णन है। 'भविष्यदत्त' एक श्रीष्टि-पुष था। यह अपने सौतेले माई बन्धुदत्त के साथ व्यापार के लिए विदेश गया। भविष्यदत्त ने वहां खूब धन कमाया। कितने ही देशों में ये दोनों भ्रमण करते रहे। किन्तु बन्धुदत्त और उसमें कमी नहीं बनी। उसने भविष्यदत्त को कितनी ही बार धोखा दिया और अन्त में उसको मन में अकेला छोड़ कर स्वदेश लौट प्राया । वहाँ जाकर वह भविष्यदत्त की स्त्री से ही विवाह करना चाहा, लेकिन भविष्यदत्त के वहां समय पर पहुँच जाने पर उसका काम नहीं बन मका । इस प्रकार भविष्यदत्त का पूरा जीवन रोमाञ्चक कथानों से परिपूर्ण है । वे एक के बाद एक इस रूप में आती है कि पाठकों की उत्सुकता कभी समाप्त नहीं होती है।
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...
'भविष्यदत्त रास' में ९१५ पञ्च है, जो दोहा चौपई आदि विविध साम्दों में विभक्त है । कवि ने इसका समाप्ति-समारोह सांगानेर (जयपुर) में किया था। उस समय जयपुर पर महाराजा भगवंतदास का शासन था। सांगानेर एक स्यापारिक नगर था। जहां जवाहरात का भी अच्छा व्यापार होता था। श्रावकों की वहां अच्छी बस्ती थी और वे धर्म ध्यान में लीन रहा करते थे। रास का रचनाकाल संवत् १६३३ कात्तिक सुदी १४ शनिवार है। इसी वर्णन को कवि के शब्दों में पढ़िये
सौलह से तेतीस सार, कातिग सुदी चौदसि शनिवार । स्वाति नक्षित्र सिद्धि सुमजोग, पीड़ा दुख न व्याप रोग !९०८॥ देस. तू ढाहर सोमा घणी, पूजै तहां आलि मण तणी 1 - निमल तली नदी बहुफेरि, सुबस बस बहु सांगामेरि ।।१०।।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं वृतित्व
चहु दिसि बण्या मला बाजार, भरे पटोला मोतीहार । भवन उत्तग जिनेसुर तणा, सौभे चंदवो तोरण घणा ॥६१०|| राजा राजे भगवंतदास, राज कुवर सेवहि बहुतास । परिजा लोग सुखी सुख बास, दुखी दलिद्री पूरबै मास ॥११॥ श्रावग लोग बसे धनवंत, पूजा कहि जहि मरहंत ।
उपरा उपरी बर न काय, जिम अहिमिन्द्र सुर्ग सुखदाय ॥९१२॥
पूरा काव्य चौपई छन्दों में है, लेकिन कहीं कहीं वस्तु बंध तथा दोहा छन्दों का भी प्रयोग हुमा है । भाषा राजस्थानी है। वर्णन प्रवाहमय है तथा कथा रूप में लिखा हुआ है
भबस दत राजा सुकमाल, सुख सो जातन जाणं काल । घोड़ा हस्ती रथ प्रति घणा, उंट पालिक वर सत खणा ॥६१९।।
दल बल देस अधिक भण्डार छाड़ा से राजकुवार । छत्र सिंघासण दासी दास, सेवक बहु सोसरा खवास ॥६२०॥
७. परमहंस चौपई
यह रचना संवत् १६३६ ज्येष्ठ बुदौ १३ के दिन समाप्त हुई थी। कवि उस समय तक्षकगढ़ (टोडारायसिंह) में थे। यह एक रूपक काव्य है । छन्द संख्या ६५१ है । इसकी एक मात्र प्रति दौसा (जयपुर) के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। चौपई की अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है:
मूल संघ जग तारणहार, सरब गन्छ गरवो आचार । समलकीत्ति मुनिवर गुणवन्त, तास माहि गुणलहो न अन्त ।।६४०॥ तिहको अमृत नांव प्रतिचंग, रत्नकीति मुनिगुणा अभंग । अनन्तकोत्ति तास शिष्य जान, बोले मुख ते अमृतवान ।।६४१॥ तास शिष्य जिन परणालीन, ब्रह्म राइमल्ल बुधि को हीन । भाव-भेद तिहाँ थोड़ो लहो, परमहंस की चौपई कहो ॥६४२।। मधिको बोलो प्रन्यो भाव, तिहको पंडित करो पसाव । सदा होई सन्यासी मणं, भव भव धर्म जिनेसुर सणं ।।६४३।। सौलास छसोस बखान, ज्येष्ठ सावली तेरस जान । सोभवार सनीसरवार, ग्रह नक्षत्र योग शुभसार ।।६४४।।
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ब्रह्म राममाल
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देस भलो तिह नागर चाल, तक्षिक गळू अति बन्यौ विसाल । सोम बाड़ी बाग सुचंग, कूप बावड़ी निरमल प्रग ।।५४५।। चहु दिसि बन्या अधिकबाजार, भरचा पटंबर मोतीहार । जिन चश्यालय बहुत उत्तग, चंदवा तोरण घुजा मुभंग ।।६४६।।
८. चन्द्रगुप्त धोपई
इसमें भारत के प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को जो १६ स्वप्न आये थे और उन्होंने जिनका फल अन्तिम चतके वली मद्रबाहु स्वामी से पूछा था, उन्हींका इस कृति में वर्णन दिया गया है । यह एक लघु कृति है। जिसमें २५ प्रौपई छन्द हैं । इसको एक प्रति महावीर-भवन, जयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है। ९. निदोष सप्तमी व्रतकथा
यह एक व्रत कथा है । यह मादवा सुदी सप्तमी को किया जाता है और उस समय इस कथा को अत करने वालों को सुनाया जाता है। इसमें ५९ दोहा चौपई छन्द है । अन्तिम छन्द इस प्रकार है:
नर नारी जो नीदुष फरे, सो संसार थोड़ो फिर ।
जिन पुराण मही इम सुण्मी, जिहि विघि ब्रह्म रायमल्ल भयो।।९।।
इसकी एक प्रति महाबीर-भवन, जयपुर के संग्रहालय में है । मूल्यांकन
'ग्रह्म रायमल्ल' महाकवि तुलसीदास के पूर्व कालीन कवि थे। अब कवि अपने जीवन का अन्तिम अध्याय समाप्त कर रहे थे, उस समय तुलसीदास साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश करने की परिकल्पना कर रहे होंगे । 5. रायमल्ल में काव्य रचना की नैसर्गिक अमिचि थी। वे ब्रह्मनारी थे, इसलिए जहां भी चातुर्मारा करते, अपने शिष्यों एवं अनुयायियों को वर्षाकाल समाप्ति के उपलक्ष्य में कोई न कोई कृति अवश्य मेंट करते । वे साहित्य के प्राचार्य थे। लेकिन काव्य रचना करते पे सीधी-सादी जन भाषा में क्योंकि उनकी दृष्टि में क्लिष्ट एवं अलंकारों से प्रोत-प्रोत रचना का जन-साधारण की अपेक्षा विद्वानों के ही लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। अब तक उनकी १३ कृतिमा उपलब्ध हो चुकी हैं और वे सभी कथा प्रधान रचनाएं हैं। इनकी भाषा राजस्थानी है। ऐसा लगता है कि स्वयं कवि अथवा उनके शिष्य इम कृतियों को जनता को सुनाया करते थे । कवि हरसौरगढ़, रणथम्भोर एवं सांगानेर में काव्य-रचना से पूर्व भी इसी तरह विहार करते रहे
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राजस्थान के जन संस-घ्यक्तिस्व एवं कृतित्व
थे । सांगानेर संभवतः उनका अन्तिम स्थान था, जहां से वे अन्य स्थान पर नहीं गये होगें । जब वह सांगानेर पाये थे, तो वह नगर धन-धान्य से परिपूर्ण था। उनके समय में भारस पर सम्राट अकबर का शासन था तथा सामेर का राज्य राजा भगवन्तदास के हाथ में था। इसलिए राज्य में अपेक्षाकृत शान्ति थी। जैनों का अच्छा प्रभाव मी कवि को सांगानेर में जीवन पर्यन्त ठहरने में सहायक रहा होगा । उनने यहां आकर आगे पाने वाले विद्वानों के लिए काव्य रचना का मार्ग खोल दिया धीर १७ वीं शताब्धि के पश्चात् तत्कालीन घामेर एवं जयपुर राज्य में साहित्य की ओर जनता की रुचि बढायी । यह अधिकांश पाठकों से छपी नहीं है।
अझ रायमल्ल' के पश्चात् राजस्थान के इस भाग में विशेष रूप से साहित्यिक जाग्नति हुई । पापढे राजमहल भी इन्हीं के समकालीन थे । इसके पश्चात् १७ वी, १८ वीं एवं १९ वीं शताब्दी में एक के पश्चात् दुसरा कवि एवं विद्वान होते रहे, और साहित्य-रचना की पावन-धारा में बराबर वृद्धि होती रही और वह महा पं० टेडरमल जी के समय में यह नदी के रूप में प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार या रायमरुल का पूरे राजस्थान में हिन्दी भाषा की रचनाओं की वृद्धि में जो योगदान रहा, वह सदा स्मरणीय रहेगा।
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भट्टारक रत्नकोत्ति
वह विक्रमीय १७ वीं शताब्दी का समय था । भारत में बादशाह अकबर का पाासन होने से अपेक्षाकृत शान्ति थी किन्तु बागड एवं मेवाड़ प्रदेश में राजपूतों एवं मुगल शासकों में अनबन रहने के कारण सदैव ही युद्ध का खतरा तथा धार्मिक संस्थानों एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के नष्ट किये जाने का भय बना रहता था । लेकिन बागड प्रदेश में म. सकलकीप्ति ने १४ वीं शताब्दी में धर्म प्रचार तथा साहित्य प्रचार की जो लहर फैलायी थो यह अपनी चरम सीमा पर थी। चारों ओर नये नये मंदिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा विधानों की भरमार थी । भट्टारकों, मुनियों, साधुओं, ब्रह्मचारियों एवं स्त्री साद बिहार डोडा गुप्ता का एवं समले दुरगों द्वारा जान मानस को पवित्र किया करते थे । गृहस्थों में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी एवं जही उनके घरण पड़ते थे वहां जनता अपनी पलकें बिछाने को तैयार रहती थी। ऐसे ही समय में घोघा नगर के हूंवड़ जातीय थोडी देवीदास के पहां एक बालक का जन्म हुआ। माता सहालदे विविध कलाओं से युक्त बालक को पाकर फूली नहीं समायी । जन्मोत्सव पर नगर में विविध प्रकार के उत्सव किये गये । वह बालक बड़ा होनहार था बचपन में उस बालक को विस नाम से पुकारा जाता था इरा का कहीं उल्लेख नहीं मिलता।
जीवन एवं कार्य
बड़े होने पर वह विद्याध्यन करने लगा तथा थोड़े ही समय में उसने प्राकृत एवं संस्कृत मथों का गहरा अध्ययन कर लिया । एक दिन अकस्मात् ही उसका भट्टारक अभयनन्दि से साक्षात्कार हो गया । भट्टारक जी उसे देखते ही बड़े प्रसन्न हुये एवं उसकी विव्रता एवं वाकचातयंता ने प्रभावित होकर उसे अपना शिष्य बना लिया । अभयनंदि ने पहिले उसे सिद्धान्त, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष एवं
१. हंब शे विबुध पिल्यात रे,
मात सेहेजलवे देवीदास तातरें । फुभर कलानिधि कोमल काय रे पद पूजो प्रेम पातफ पलाय रे ।
'. .
.: रनकोति गीत-गणेश कृत
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आयुर्वेद आदि विषयों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया ।' वह व्युत्पन्न मति था इसलिमे शीघ्र ही उसने उन पर अधिकार पा लिया। अध्ययन समाप्त होने के बाद अभयनन्दि ने उसे अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया । ३२ लक्षणों एवं ७२ कलाओं से सम्पन्न विद्वान युवक को कौन प्रपना शिष्य बनाना नहीं चाहेगा । संवत् १६४३ में एक विशेष समारोह के साथ उसका महाभिषेक कर दिया गया और उसका नाम रत्नकीति रखा गया । इस पद पर वे संवत् १६५६ तक रहे । अतः इनका काल अनुमानतः मंवत् १६०० से १६५६ तक का माना जा सकता है।
मन्त रत्नकीति उस समय पूर्ण युवा थे। उनकी सुन्दरता देखते ही बनती थी। जब वे धर्म-प्रचार के लिये विहार करते तो उनके अनुपम सौन्दर्य एवं विद्वता से सभी मुग्ध हो जाते । तत्कालीन विद्वान गणेश कवि ने म. रत्नकीति की प्रशंसा करते हुये लिखा है
अरघ शशि सम सोहे शुभ मालरे, वदन चामल शुभ नयन विशाल रे दशन दाडिम सम रसना रसाल रे, अपर बिवीफल विजित प्रवाल रे। कंठ कंबू सम रेखा त्रय राजे रे, कर किसलिय सम नख छवि छाज रे ।।
ने जहां भी विहार करते सुन्दरियां उनके स्वागत में विविध मंगल गीत गाती । ऐसे ही अवसर पर गाये हुये गीत का एक भाग देखिये
कमल वदन करुणालय कहीये, कनफ वरण सोहे कांत मोरी सहीय रे। कजल दल लोचन पापना मोचन
कलाकार प्रगटो विख्यात मोरी सहीय रे ।।
बलसाड नगर में मंत्रपति महिलदास ने जो विशाल प्रतिष्ठा करवायी थी बह रत्नकीति के उपदेश से हो सम्पन्न हुई श्री । मल्लिदास हूंबड जाति के श्रावक
१. अभयनन्द पाटे उदयो दिनकर, पंच महावत धारी।
सास्त्र सिधांत पुराण ए जो, सो तर्क वितर्क विचारी । गोमटसार संगीत सिरोमणि, जाणो गोयम अवतारो। साहा वेवदास फेरो सुत सुख कर सेजलदे उरे अवतारी। गणेश कहे तम्हो वंदो रे, भवियण कुमति कुसंग निवारी ॥२॥
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भट्टारक रत्नकीति
थे तथा अपार सम्पत्ति के स्वामी थे। इस प्रतिष्ठा में सन्त रत्नकीसि अपने स सहित सम्मिलित हुये थे तथा एक विद्याल जल याचा हुई थी जिसका विस्तृत वन तत्कालीन कवि जयसागर ने अपने एक गीत में किया है
1
जलमात्रा जुगते जाय, त्याहा माननी मंगल गाय । संघपति मल्लिदास मोहंत, मंत्रवेश मोहरणदे कंत । सारी श्रृंगार सोलमु सार, मन धरयो हरणा अपार । च्याला जलयात्रा काजे, बाजित बहु विघ बाजे । वर ढोल निशान नफेरी, दष्ट गडी दमाम मुभेरी । सगाई सरूपा साद, भल्लरी कसाल सुनाद । बंधुक निशाण न फाट, बोले, विरद बहुविध माट । पालखी चामर शुभ छत्र, गजगामिनी नाचे विचित्र । घाट चुनडी कुंभ सोहावे, चंद्राननी श्रोटीन आहे ।
शिष्य परिवार
रत्नकत्ति के कितने ही शिष्य थे। वे सभी विद्वान एवं साहित्यप्रेमी थे इनके शिष्यों को कितनी ही कविताएं उपलब्ध हो चुकी हैं। कामें कुमुदचन्द्र गौश जय सागर एवं राघव के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। कुमुदचन्द्र को संवत् १६५६ में इन्होंने अपने पट्ट पर बिठलाया। ये अपने समय के समर्थ प्रचारक एवं साहित्य सेवी थे । इनके द्वारा रचित पद, गीत एवं अन्य रचनायें उपलब्ध हो चुकी है । कुमुदचन्द्र ने अपनी प्रायः प्रत्येक रचना में अपने गुरु रत्नकीति का स्मरण किया है। कवि गश ने भी इनके स्तन में बहुत से पद लिखे हैं- एक वर्णन पढिये
चदने चंद हरावयो सीझले जीत्यो अनंग | सुदर नयरा नीरखामे, लाजा मीन कुरंग । जुगल श्रवण शुभ सोभतारे नास्या सुकनी चंच | अधर अरूण रंगे ओपमा, दंत मुक्त परपंच |
जुहवा जतीणी जाणे सखी रे, अनोपम अमृत वेल । गोवा कंबु कोमलरी रे, उन्नत भुजनी बेल ।
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इसी प्रकार इनके एक शिष्य राघव ने इनकी प्रशंसा करते हुये लिखा हैं कि के खान मलिक द्वारा सम्मानित भी किये गये थे
लक्षण बत्तीस सकलागि बहोत्तरि खान मलिक दिये मान जी ।
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१.३०
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
कवि के रूप में
रत्नकीत्ति को अपने समय का एक अच्छा कवि कहा जा सकता है। अभी तक इनके ३६ पद प्राप्त हो चुके हैं। पदों के अध्ययन से जात होता है कि वे सन्त होते हुये भी रसिक कवि थे । अतः इनके पदों का विषय मुख्यतः नेमिनाथ का विरह रहा है । राजुल की तड़कन से ये बहुत परिचित थे । किसी भी बहाने राजुल नेमि का दर्शन करना चाहती थी। राजुल बहुत चाहती थी कि वे (नयन) नेमि के आगमन का इन्तजार न करें लेकिन लाख मना करने पर भी नयन उनके आगमन को बाट जोहना नहीं छोडते
वरज्यो न माने नयन निठोर ।
सुमिरि सुमिरि गुन भये सजल घन, उमंगी चले मति फोर ॥१॥
चंचल चपल रहत नहीं रोके, न मानत जु निहोर ।
नित उठि चाहत गिरि को मारग, जेहो विधि चंद्र चकोर ||२|| वरज्यो ।
तन मन धन योषन नहीं भावत, रजनी न भाव भार । रनकीरति प्रभु देगो मिलो, तुम मेरे मन के चोर ॥ ३॥ वरज्यो ||
एक अन्य पद में राजुल कहती है कि नेमि ने पशुओं की पुकार तो मुन ली लेकिन उसकी पुकार क्यों नहीं सुनी। इसलिये यह कहा जा सकता है कि वे दूसरों का दर्द जानते ही नहीं हैं
सखी री नेमि न जानी पोर ।
बहोत दिवाजे आवे मेरे घर संग लेई हलवर वीर ॥ १॥
निमि
मुख
निरखी हरषी मनसू, अब तो होइ मन धीर । तामे पसू पुकार सुनी करी गयो गिरिवर के तीर ॥२॥
सखी री० ॥
'चंदवदनी पोकारती डारती, मंडन हार उर चीर । रतनकीरति प्रभू भये बसगी; राजुल चित कियो धीर ॥३॥
सखी री० ॥
सखी रो० ॥
एक पद में राहुल अपनी सखियों से नेमि से मिलाने की प्रार्थना करती है । वह कहती है कि नेमि के विना यौवन, चंदन, चन्द्रमा से सभी फीके लगते है। माता
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भट्टारक रत्नाकीत
१३१
पिता, सखियां एवं रात्रि सभी दुःख उत्पन्न करने वाली हैं इन्हीं शवों को रत्नफीति के एक पद में देखिये
स्खलि ! को मिलावे नेम नरिक्षा। ता विन तन मन यौवा रजत है, चारु चंदन अरु चंदा ।।१।।
सतिः
।
कानन भुवन मेरे जीया लागन, दुःसह मदन को फंदा । नाज मात अरु सजनी रजनी, वे अति दुःख को बंदा ॥२॥
सखि०1
तुम तो शंकर सुख के दाता, करम अति कार मंदा । रतनकीरति प्रभु परम दयालु, सेनत अमर नरिदा ॥३॥
सखि०॥
अन्य रचनाएं
__ इनकी अन्य रचनाओं में नेमिनाथ फाग एवं नेमिनाथ बारहमासा के नाम उल्लेखनीय है । नेमिनाथ फाग में ५७ पद्य हैं। इसकी रचना हांसोट नगर में हुई थी। फाग में नेमिनाथ एवं राजुल के विवाह.. पशुओं की पुकार सुनकर विवाह किये बिना ही बैराग्य धारण कर लेना और अन्त में . तपस्या करके मोक्ष जाने की अति संक्षिप्त कथा ही हुई है। राजुल को सुन्दरता का वर्णन करते हुये कवि ने लिखा है।
चन्द्रवदनी मुगलोचनी, मोचनी संजन मीन । शासग जीत्यो वेणिई, थेरिणय मधुकर दीन । युगल गल दाये शशि, उपमा माया कोर। प्रधर विद्रम सम उपता, दंतन निर्मल नीर । चिबुक कमल पर षट पद, आनंष करे सुधापान ।
ग्रीवा सुन्दर सोमती, कंबु कपोतने वान ।।१२।।
नेमिबारहमासा इनकी दूसरी बड़ी रचना है। इसमें १२ त्रोटक छन्द हैं। कवि ने इसे अपने जन्म स्थान घोघा नगर में चैत्यालय में लिखी थी। रचनाकाल का उल्लेख नहीं दिया गया है। इसमें राजुल एवं नेमि के १२ महिने किस प्रकार व्यतीत होते हैं यहीं वर्णन करना रचना का मुख्य उद्देश्य है।
अब तक कवि की ६ रचनायें एवं ३८ पदों की खोज की जा चुकी है।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इस प्रकार सात रत्नकीति अपने समय के प्रसिस भट्टारक एवं साहित्य सेवा नि थे । इनके द्वारा रचिन्न पदों की प्रथम पंक्ति निम्न प्रकार है
१. सारङ्ग ऊपर सारङ्ग सोहे सारङ्गत्यासार जो २. सुण रे नेमि सामलीया साहेब क्यों बन छोरी जाय ३. सारङ्ग सजी सारङ्ग पर आये ४. वृषभ जिन सेवो बहु प्रकार ५. सखी री सावन घटाई सतावे ६. नेम तुम कैसे चले गिरिनार ७. कारण कोउ पीया को न जाणे ८. राजुल गेहे नेमी जाय ६. राम सतावे रे मोही रावन । १०. अब गिरी बरज्यो न माने मोरो ११. अगि म कामो माय बरे. १२. राम कहे अवर जया मोही भारी १३. दशानन वीनती कहत होइ दास १४. बरज्यो न माने नयन निठोर १५. झीलते कहा कर्यो यदुनाथ १६. सरदी की रयनि सुन्दर सोहात १७. सुन्दरी सकल सिंगार करे गोरी १८. कहा थे मंडन करु' कजरा नैन भरु १९. सुनो मेरी समनी धन्य या रयनी रे २०. रथडो नोहालती रे पूछति सहे सावन नी बाट २१, सखी को मिलाको नेम नरिंदा २२. सखो री नेम न जानी पीर २३. वंदेहं जनता शरण २४. श्रीराग गावत सुर किन्नरों २५. श्रीराग गावत सारङ्गधरी २६. भाजू पाली प्राय नेम नो साउरी ।
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भट्टारक रत्नौति
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२७. बली बंधो का न बरज्यो अपनी २८. आजो रे अखि सामलियो बहालो रथि परि दो पाचे र २९. गोखि चडी 'जू ए रायुल राणी नेमिकुवर वर प्रावे रे ३०. प्रावो सोहामणी सुन्दरी वृन्द रे पूजिये प्रथम जिरपद रे ३१. ललना समुद्रविजय सुत साम रे यदुपति नेमकुमार हो ३२. सुरिण सखि राजुल कहे हैडे हरष न माय लाल रे ३३. सशपर बदन सोहामरिण रे, गजगामिनी गुणमाल रे ३४. वणारसी नगरी नो राजा अश्वसेन गुणधार ३५. धीजिन सतमति जता ना रखी रे ३६. नेम जी दयालुद्वारे तू तो यादव कुल सिणगार ३७. कमल बदन करूणा निलयं
३८. सुदर्शन नाम के में पारि मन्य कृतियां
३६. महावीर गीत ४०. नेमिनाथ फागु ४१. नेमिनाथ का बारहमासा ४२. सिख धूल ४३. बलिमदनी वीनती ४४. नेमिनाथ वीनती
मूल्यांकन
म. रत्नकोत्ति दि० जैन कवियों में प्रथम कवि हैं जिन्होंने इतनी अधिक संख्या में हिन्दी पद लिखे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि उस समय कबीरदास, सूरदास एवं मीरा के पदों का देश में पर्याप्त प्रचार हो गया था और उन्हें अत्यधिक चाव से गाया जाता था। इन पदों के कारण देश में भगबद् भत्ति, की ओर लोगों का स्वतः ही मुकाव हो रहा था । ऐसे समय में जैन साहित्य में इस कमी को पूत्ति के लिए भ० रत्नकोत्ति ने इस दिशा में प्रयास किया और अध्यात्म एवं भक्ति परक पदों के साथ-साथ विरहारमक पद भी लिखे और पाठकों के समक्ष राजुल के जीवन को एक नये रूप में प्रस्तुत किया। ऐसा लगता है कि कवि राजुल एवं नेमिनाथ की
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राजस्थान के जैन संत ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भक्ति में अधिक रुचि रखते थे इसलिए उन्होंने अपनी अधिकांश कृतियां इन्हीं दो पर प्राधारित करके लिखी। नेमिनाथ गीत एवं नेमिनाथ बारहमासा के अतिरक्त अपने हिन्दी पदों में राजुल नेचि के सम्बन्ध को अत्याधिक भावपूर्ण भाषा में उपस्थित किया । सर्व प्रथम इन्होंने राजुल को एक नारी के रूप में प्रस्तुत किया । विवाह होने के पूर्व की नारी दशा को एवं तोरणद्वार से लौट जाने पर नारी हृदय को खोलकर अपने पदों में रख दिया । वास्तव में यदि रत्न कीत्ति के इन पदों का गहरा अध्ययन किया जाये तो कवि की कृतियों में हमें कितने ही नये चरणों की स्थापना मिलेगी। विवाह के पूर्व राजुल अपने पूरे गार के साथ पति की बारात देखने के लिए महल की छत पर सहेलियों के साथ उपस्थित होती है इसके पश्चात पति के प्रकस्मात वैराग्य धारण कर लेने के समाचारों से उसका शृगार वियोग में परिणत हो जाता है दोनों ही वर्सनों को कवि ने अपने पदी में उत्तम रीति में प्रस्तुत किया है।
भ० रत्मकीत्ति की सभी रचनायें भाषा, "माव एवं शैली "सभी दृष्टियों से अच्छी रचनायें हैं। कवि हिन्दी के जबरदस्त प्रचारक थे। संस्कृत के ऊचे विद्वान् होने पर भी उन्होंने हिन्दी भाषा को ही अधिक प्रश्रय दिया और अपनी कृतियाँ इसी भाषा में लिखी। उन्होंने राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात में भी हिन्दी रखनानों का हो प्रचार किया और इस तरह हिन्दी प्रेमी कहलाने में अपना गौरव समझा। यही नहीं रत्नकीत्ति के सभी शिष्य शिष्यों ने इस भाषा में लिखने का उपक्रम जारी रखा मोर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना पूर्ण योग दिया।
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वारडोली के संत कुमुदचंद्र
बारडोली गुजरात का प्राचीन नगर है । सन् १९२१ में यहां स्व. सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भारत की स्वतन्त्रता के लिए सत्याग्रह का बिगुल बजाया था मौर बाद में वहीं की जनता द्वारा उन्हें 'सरदार की उपाधि दी गई थी। आज से ३५० वर्ष पूर्व भी यह नगर अध्यात्म का केन्द्र था। यहां पर ही 'सन्त कुमुदुचन्द्र को उनके गुरु भ० रनकोत्ति एवं जनता ने भट्टारक-पद पर अभिषिक्त किया था। इन्होंने यहां के निवासियों में धार्मिक चेतना जाग्रत की एवं उन्हें सच्चरित्रता, संयम एवं त्यागमय जीवन अपनाने के लिए बल दिया। इन्होंने गुजरात एवं राजस्थान में साहित्य, अध्यात्म एवं धर्म की त्रिवेणी बहायी।
संत कुमुदचंद्र वाणी से मधुर, पारीर से सुन्दर तथा मन से स्वच्छ मे। जहां भी उनका विहार होता जनता उनके पीछे हो जाती 1 उनके शिष्यों ने अपने गुरु को प्रशंसा में विभिन्न पद लिसे हैं। संयमसागर ने उनके शरीर को बत्तीस लक्षणों से सुशोभित, गम्भोर बुद्धि के धारक तथा वादियों के पहाड़ को तोड़ने के लिए बच्च समान कहा है।' उनके दर्शनमात्र से ही प्रसन्नता होती थी। वे पांच महात्रत तेरह प्रकार के चारित्र को धारण करने वाले एवं बाईस परोपड़ को सहने वाले थे। एक दूसरे शिष्य धर्मसागर ने उनकी पात्रकेशरी, जम्यूकुमार, मद्रबाहु एवं गौतम गणधर से तुलना की है।
उनके बिहार के समय कुकम छिटकने तथा मोतियों का चौक पूरने एवं बधावा गाने के लिए भी कहा जाता था। उनके एक और शिष्य गणेश ने उनकी निम्न शब्दों में प्रशंसा की है:
१. ते बहु खि उपमो पीर रे, बत्तीस सक्षम सहित शरीर रे ।
बुद्धि बहोरि छे गंभीर रे, वादी नग खण्डन वज समधार रे ॥ २. पंच महाबत पाले चंग रे, प्रयोदश चारित्र के अभंग रे।
वावीय परोसा सहे प्रगि रे, दरशन दीठे रंग रे ।। ३. पात्रफेशरी सम जांगियेरे, जाणों के अंजु कुमार ।
भद्रबाहु यतिवर अयो, कलिकाले रे गोयम अंग्रतार रे॥ ४. .पुरि रे सह आयो, तहाँ कुकर छडो वेषडावो। . . . . वाई मोतिये चौक पूरावो, रूडा सह गुरु कुमुदचंदने बघावे ।।
..
.
.M.
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिश्व
वाला बहोत्सर धंग रे, सीयले जीत्यो अनंग । पाहंत मुनी पूरसंघ के सेवो सुरसरुजी ।। सेवो सज्जन आनंद धनि कुमुदचन्द मुरिणद, रतनकीरति पाटि बंद के गछपति गुणनिलोनी ॥१॥
जीवों की दया करने के कारण लोग उन्हें दया का वृक्ष कहते थे । विद्याबल से उन्होंने अनेक विद्वानों को अपने बया में कर लिया था। उनकी कोत्ति चारों ओर फैल गयी थी तथा राजा महाराजा एवं नवाब उनके प्रशंसक बन गये थे।
कुमुदचन्द्र का जन्म गोपुर ग्राम में हुआ था। पिता का नाम सदाफल एवं माता का नाम पद्याबाई था । इन्होंने मोह वंश में जन्म लिया था। इनका जन्म का नाम क्या था, इसके विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता । वे जन्म से होनहार थे।
बचपन से ही वे उदासीन रहने लगे और युवावस्था से पूर्व ही इन्होंने संयम धारण कर लिया । इन्द्रियों के ग्राम को उजाड़ दिया तथा कामदेव रूपी सर्प को जीत लिया ।२ अध्ययन की ओर इनका विशेष ध्यान था। ये रात दिन व्याकरण, नाटक, न्याय, आमम एवं छंद अपकार शास्त्र आदि का अध्ययन किया करते थे। गोम्मटसार प्रादि ग्रन्थों का इन्होंने विशेष अध्ययन किया था । विद्यार्थी अवस्था में ही ये म. रत्मकोत्ति के शिष्य बन गये । इनकी विद्वत्ता, वाक्चातुर्मता एवं प्रगाय शान को देखकर य. रत्नकीसि इन पर मुग्ध हो गये और इन्हें अपना प्रमुख शिष्य बना लिया। थीरे २ इनकी कोसि बढ़ने लगी। रत्नकीति में बारडोली नगर में अपना पट्ट स्थापित किया था और संवत् १९५६ :सन् १५९९) वंशाख मास में Mamamimmwwmamewom १. मोठ वंश शृगार शिरोमणि, साह सबाफल सात रे।
जायो जतिबर जुग जयवन्तो, पपाबाई सोहात रे ।। २. बालपणे जिणे संयम लोषो, परीयो घेरग रे।
इन्द्रिय ग्राम उजारया हेला, जौत्यो मद नाग रे ॥ ३. अहमिशि छन्द प्यरकरण नाटिक भणे,
न्याय आपम अलंकार। वावी गज केसरी विरुद्ध यारु बहे, सरस्वती गच्छ सिणगार रे"
नीत धर्मसागर कृत
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बारडोली के संत कुमुदचंद्र
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इन जैनों के प्रमुख संत ( भट्टारक) के पद पर अभिषेक कर दिया । " यह सारा संघपति कान्हू जी, संध बहिन जोनाटे, सहस्त्रकरणा एवं उनकी पत्नी तेजलदे, भाई मल्लदास एवं बहिन मोहनदे गोपाल आदि को या । तथा इन्होंने कठिन परिश्रम करके इस महोत्सव को सफल तभी से कुमुदनन्य बारडोली के संत कहलाने लगे ।
उपस्थिति में हुआ बनाया था । २
बारडोली नगर एक लंबे समय तक आध्यात्मिक, साहित्यिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। संत कुमुदवन्द्र के उपदेशामृत को सुनने के लिए वहां धर्मप्रेमी सज्जनों का हमेशा ही आना जाना रहता । कभी तीर्थयात्रा करने वालों का संघ उनका आशीर्वाद लेने आता तो कभी अपने-अपने निवास स्थान के रजकरणों को संत के पैरों से पवित्र कराने के लिए उन्हें निमन्त्रण देने वाले यहां आते । संवत्
DICT
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१. संवत् सोल छपन्ने वैशाखे प्रकट पटोवर धाप्या रे । नीति गोर बारडोली वर सूर मंत्र शुभ आप्या रे । भाई रे मन मोहन मुनिवर सरस्वती गच्छ सोहं । कुमुदचव भट्टारक उदयो भवियण सम मोहंत रे ||
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बारडोली मध्ये रे, पाट प्रतिष्ठा कीध मनोहार । एक शत आठ कुम्भ रे, ढाल्या निर्मल जल अतिसार || सूर मंत्र आपयो रे, सकलसंघ सानिध्य जयकार | कुमुदचन्द्र नाम का रे, संघवि कुटुम्ब प्रतपो उदार ||
२. संघपति कहांन जो संघवेण जीवावेनो कन्त । सहसकरण सोहे रे तरुणी तेजलदे जयवंत ||
गुरु स्तुति गणेशकृत
संघवो कहान जी भाइया बीर भाई रे । मल्लिबास जमला गोपाल रे ॥
मल्लवास मनहरु रे नारी मोहन दे अति संत । रमादे वीर भाई रे गोपाल बेजलदे मन मोहन्त ||६||
छपने संवत्सरे उछव अति कर्यो रे । उंघ मेली बाल गोपाल रे ॥
गुरुगीत गणेश कृत
गुरु- गीत
गीत-गणेश कुल
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१६८२ में इन्होंने गिरिनार जाने वाले एक संघ का नेतृत्व किया। इस संघ के संचपति नागजी भाई थे, जिनकी कीति चन्द्र-सूर्य-लोक तक पहुंच चुकी थी। यात्रा के अवसर पर ही कुमुदचन्द्र संघ सहित घोघा नगर पाये, जो उनके गुरु रत्नकीत्ति का जन्म--स्थल था । बारडोली वापस लौटने पर श्रावकों ने अपनी अपार सम्पत्ति का दान दिया ।
कुमुदचन्द्र माध्यात्मिक एवं धार्मिक सन्त होने के साथ साथ साहित्य के परम आराधक थे । अब तक इनकी छोटी बड़ी २८ रचनाएं एवं ३० से भी अधिक पद प्राप्त हो चुके हैं। ये सनी रचनाएं राजस्थानी भाषा में हैं, जिन पर गुजराती कर प्रभाव है । ऐसा ज्ञात होता है कि ये चिन्तन, मनन एवं धर्मोपदेश के अतिरिक्त अपना सारा समय साहित्य-सृजन में लगाते थे । इनकी रचनाओं में गीत अधिक हैं, जिन्हें वे अपने प्रवचन के समय श्रोताओं के साथ गाते थे । नेमिनाथ के तोरण द्वार पर आकर वैराग्य धारण करने की अदभुत घटना से ये अपने गुरु रत्नशीत्ति के समान बहुत प्रभावित थे, इसीलिए इन्होंने नेमिनाथ एवं राजुल पर कई रचना लिखी हैं । उनमें नेमिनाथ बारहमासी, नमीश्वर गात, नामजिनीत, ग्रा के नाम उल्लेखनिय हैं । राजुल का सौन्दर्य वर्णन करते हुए इन्होंने लिखा है
रूपे फूटही मिट जठडी वोले मीठड़ी वाणी। विट्ठम उठडो पल्लव गोठडी रसनी कोटड़ी बखाणी रे ॥ सारंग ययणी मारंग नयणी सारंग मनी श्यामा हरी । लंबी काटि भमरी चंकी शंको हरिनी मार रे ।।
कवि ने अधिकांश छोटी रचनाएँ लिखी हैं। उन्हें कांठस्थ भी किया जा सकता है। बड़ी रचनाओं में भादिनाथ विवाहलो, नेमीश्वरलूमची एवं भरत बाहुबलि nuuuuuunananawaren-rreranaauorananerum १. संवत् सोल स्यासीये संघपछर गिरिनारि यात्रा कीया। श्री कुमुदचन्द्र गुरु मामि संघपति तिलक काबा ॥१३॥
गीत धर्मसागर कृत २. इणि परिउछल करता आग्या घोघानगर मनारि ।
नेमि जिनेश्वर नाम अपंता उता जलनिधिपार ॥ गाजते बाजते साहमा करीने आव्या बारडोली प्राम | याचक जन सन्तोष्या भूतलि राख्यो नाम ।। वेश विवेश बिहार फरे गुरु प्रति बोध प्राणी । धर्म कथा रसने वरसन्ती, मीवी के वाणी रे भाय ।।
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बारडोली के संत कुमुदचंद
छन्द हैं । शेष गीत ए के इन में हैं। यद्यपि शशी रचनाएं सुन्दर एवं भाव पुर्ण हैं लेकिन भरत बाहुबलि छंद, आदिनाथ यिया हलो एवं नमीश्वर हमची इनकी उत्कृष्ट रचनायें है । भरत बाहुबलि एक रण्ड काव्य है, जिसमें मुख्यत: भरत और बागबलि के युद्ध का वर्णन किया गया है । भरत चक्रवत्ति को सारा भूमण्डल विजय करने के पश्चात् मालूम होता है कि अभी उन के छोटे भाई बाहुबलि ने उनको अधीनता स्वीकार नहीं की है तो सम्राट भरत बाहुबलि को समझाने को दूत भेजते हैं । दूत और बहुधलि का उत्तर-प्रत्युत्तर बहुत सुन्दर हुआ है।
अन्त में प्रोनों भाइयों में युद्ध होता है, जिसमें विजय बाहुबलि की होती है । लेकिन विजयश्री मिलने पर भी वाहवलि जगत से उदासीन हो जाते हैं और वैरसम्य धारगा कर लेते हैं । घोर तपश्चर्या करने पर भी 'मैं भरत की भूमि पर खड़ा हुआ हूं,"यह शल्य उनके मन से नहीं हटती और जब स्वयं सम्राट् भरत उनके चरणों में जाकर गिरते हैं और वास्तविक स्थिति को प्रगट करते हैं तो उन्हें तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त होकर मुक्तिश्री मिल जाती है। पूरा का पूरा खण्ड काव्य मनोहर शब्दों में गुथिन है । रचना के प्रारम्भ में जो अपनी गुरू परम्परा दी है वह निम्न प्रकार है
पण विवि पद प्रादीश्नर केरा, जेह नामें छूटे भव-फेरा । ब्रह्म सुता समरू मतिदाला, गुण गण मलित जग विख्याता ।। वंदवि गुरू विद्यानंदि सूरी, जेहनी कौति रही भर पूरी । तस पट्ट कमल दिवाकर जाणु, मल्लिभूषण गुरु गुण वस्वा ।। तस पट्ट पट्टोबर पंडित, लक्ष्मीचन्द महाजस मंडित । अमयचद गुरु दीलल वायक, सेहेर वंश मंडन सुखदायक ।। अभयनंदि समरू' मन माहि, भव भूला बल गाई बाहि । तेह तणि पट्ट गुणभूषण, वंदवि रत्नकीरति गत दूषण ।।
भरत महिपति कृत मही रक्षरण, बाइबलि बलवंत विचक्षण ।
बाहुबलि पोवनपुर के राजा थे । पोदनपुर धन धन्य, बाग बगीचा तथा झीलों का नगर था। भरत का दूत जब पोदनपुर पहुंचता है तो उसे चारों छोर विविध प्रकार के सरोवर, वृक्ष, लतायें दिखलाई देती हैं। नगर के पास ही गंगा के समान निर्मल जल वाली नदी बहती है। सात साल मंजिल वाले सुन्दर महन नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं । कुमुदचन्द ने नगर की सुरक्षा का जिस रूप में वर्णन किया है उसे पहिये
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
चाल्यो दूत पयारणे रे हे तो, थोड़ो दिन पोयणपुरी पोहोतो । दीठी सीम सघन कस साजित, वापी कूप तडाग विराजित । कलकार जो नल जल कुडी, निर्मल नीर नदी अति उडी । विकसित कमल अमल दलपंती, फोमल कुमुद समुज्जल फती ।। वन वाडी आराम सुरंगा, ध दब उधर भा। करणा केतकी कमरख केली, नव नारंगी नागर वेली ॥ अगर तगर तरु तिदुक ताला, सरल सोपारी तरल तमाला । वदरी वकुल मदाड बीजोरी, जाई जुई जंबु जमीरी।। चंदन चंपक चाउरउली, वर बासंती वटवर सोली। रायणरा जंबु सुविशाला, दाडिम दमणो द्राष रसाला ॥ फूला सुगुल्ल प्रमूल्ल गुलाबा, मीपनी वाली निबुक निका । करण पर कोमल लंत सुरंगी, नालीपरी दोशे अति चंगी ॥ पाडल पनश पलाश महाधन, लवली लीन लवंग लताधन ।।
बाहुबलि के द्वारा अधीनता स्वीकार न किए जाने पर दोनो ओर की विशाल सेनायें एक दूसरे के सामने आ इटीं । लेकिन जब देवों और राजाओं ने दोनों भाइयों को ही चरम शरीरी जानकर यह निश्चय किया कि दोनों ओर की सेनाओं में युद्ध न होकर दोनों भाइयों में ही जलयुद्ध मल्लयुद्ध एवं नेत्रयुद्ध हो जाये और उसमें जो जीत जावे उसे ही चक्रवर्ती मान लिया जावे । इस वर्णन को कवियों के वाब्दों में पढिये :--
चण्य युद्ध त्यारे सह वेढा, नीर नेत्र मल्लाह वपरदया। जो जोते ते राजा कहिय, तेहनी आज विनयसु वहिए । एह विचार करीने मरवर, घल्या सहु साथै महर भर ।
चाल्या मल्ल अखाड़े बलोआ, सुर नर किन्नर जोवा मलीआ । काछ्या काछ कसी कद तांणी' बोले यांगद बोली वाणी। भुषा दंड मन सुड समाना, ताडता संसारे नाना । हो हो कार करि ते पाया, बछो वच्छ पङ्या ले गया । हक्कारे पश्वारे पाडे, दलगा वलग करी ते बाडे ।। पग पडघा पोहोबी तल बाजे, कडकडता तरुवर से माजे। नाठा वनचर त्राठा कायर, छूटा मयगल फूटा सायर ।।
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वारडोली के संत कुमुदचंद्र
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गड गडता गिरिवर ते पड़ीप्रां, फूत फरता फणिपति डरीआ । गद्ध गडगडीमा मन्दिर पडीओ, दिग दंतीच मक्या चल चकीमा । जन खलभली पावाल कछलोआ, भव-भीरू अवला फल मली। तोपरख ले घरणी धवदूके, लड़ पडता पडता नवि नूके ।
उक्त रचना भामेर शास्त्र मण्डार गुटका संख्या ५२ में पत्र संख्या ४० से ४८ पर है।
२. भाविनाथ विवाहलो
इसका दूसरा नाम ऋषम विवाहलो मी है । यह भी छोटा खण्ड काव्य है, जिसमें ११ ढालें है। प्रारम्भ में ऋषभदेव की माता को १६ स्वप्नों का प्राना, ऋषभदेव का जन्म होना तथा नगर में विभिन्न उत्सवों का प्रायोजन किया गया । फिर : दिवान का गए है। 17ी हाल में उसका वैराग्य धारण करके निर्वाण प्राप्त करना भी बतला दिया गया है।
कुमुदचन्द्र ने इसे भी संवत् १६७८ में घोया नगर में रचा था। रचना का एक वर्णन देखिये
कछ महाकछ रायरे, जे हनू जग जमा गायरे । नस कुअरी करें सोहरे, जोता जनमान' मोहेरे । सुन्दर वेषी विशाल र, अरव शशी सम माल रे । नमन कमल दल छाने रे, मुख पूरणचन्द्र राजे रे । नाक मोहे तिलनु फूल रे, अधर सुरंग तणु नहि भूल रे ।
ऋषभदेव के विवाह में कौन-कौन सी मिठाइयां बनी थीं, उसका भी. रसास्वादन कीजिए
रटि लागे घेवरने दीठा, कोल्हापाका पतासां मोठा। दूध पाक चणा सांकरीआ, सारा सकरपारा कर करीधा। मोटा मोती भामोद कलावे, दलीला कसम सीमा भावे । प्रति सुरवर सेवईयां सुन्दर, मारोगे मोग पुरंदर ।
प्रीसे पापड गोटा तलोमा, पूरी प्राला अति ऊजलीमा । __ नेमिनाथ के विरह में राजुल किस प्रकार तफती थी तथा उसके बारह महीने किस प्रकार व्यतीत हुए, इसका नेमिनाथ बारहमासा में सजीव वर्णन किया
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१४२
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है। इसी तरह का वर्णन कधि ने प्रणय गीत एवं हिडोलना-गीत में भी किया है।
फागृण केमु फूलोयो, नर नारी रमे वर फाग जी। हास विनोद करे घरणा, किम नाहे घरयो वैराग जी ।
नेमिनाथ वारहमामा
सीयाला सगलो गयो, परिण नावियो यदुराय । तेह बिना मुझने झूरता, एह दोहहा रे बरसा सो थापफे।
प्रणय-गीत
बणजारा गीत में कवि ने संसार का सुन्दर चित्र उतारा है। यह मनुष्य बरगजारे के रूप में यों हो संसार से भटकता रहता है। वह दिन रात पाप कमाता हे और संसार बंधन से कभी भी नहीं छूटता।
पाप करयां ते अनंत, जीवदया पाली नहीं । सांचो न बोलियो बोल, भरम मो सानहु बोलिया ।।
शील गीत में कवि ने परित्र प्रधान बीवन पर अत्यधिक जोर दिया है। मानव को किसी भी दिशा में प्रामे बढ़ने के लिए चरित्र-बल की आवश्यकता है। साधु संतों एवं संयमी जनों को स्त्रियों से अलग ही रहना चाहिए-प्रादि का अच्छा वर्णन मिलता है इसी प्रकार कवि की सभी रचनायें सुन्दर हैं।
पदों के रूप में कुमुदचन्द्र ने जो साहित्य रचा है यह और भी उच्च कोटि का है । भाषा, शैली एवं भाव सभी दृष्टियों से ये पद सुन्दर हैं । "मैं तो नर भव वादि गवायो" पद में कवि ने उन प्राणियों की सच्ची आत्मपुकार प्रस्तुत की है, जो जीयन में कोई भी शुभ कार्य नहीं करते है । अन्त में हाथ मलते ही चले जाते हैं।
___'जो तुम दीनदयाल कहावत' पद भी भक्ति रस की सुस्दर रचना है। भक्ति एवं अध्यात्म-पदों के अतिरिक्त नमि राजुल सम्बन्धी भी पद हैं, जिनमें नेमिनाथ के प्रति राजुल की सच्ची पुकार मिलती है । नेमिनाथ के बिना राजुल को न प्यास लगती है और न भूख सताती है। नींद नहीं पाती है और बार-बार उठकर गृह का आंगन देखती रहती है । यहाँ पाठकों के पठनार्थ दो पद दिए जा रहे है
राग-धनश्री
मैं तो नर मन वादि गमायो । न कियो जप तप व्रत विधि सुन्दर, काम भलो न कमायो॥
मैं तो....॥१॥
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वारडोली के संत कुमुदचंद्र
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विकट लोभ तें कपट कूट करी, निपट विषय लपटायो। विटल कुटिल शक संगति बैठो, साधु निकट विवटामो ।।
मैं तो....||२॥ कृपण भयो कछु दान न दीनों, दिन दिन दाम मिलायो। जब जोवन जंजाल पङयो तब, पर त्रिया तनु चितलायो ।।
में तो....॥३॥ अन्त समय कोउ संग न यायत, भूहि पाप लगायो। कुमुवचन्द्र कहे चूक परी मोही, प्रभु पद जस नहीं गायो ।।
में तो... ॥४॥
पर राग-सारंग
सखी री अब तो रह्यो नहि जात । प्राणनाथ की प्रीति न विसरत, क्षण क्षण छीजत गात ।।
सखी .. 1180 नहि न भूख नहिं तिसु लागत, धरहि घरहि मुरझात । मनतो उरमी रह्यो मोहन सु, सेवन ही सुरशास"
सखी ...1111 नाहिने नोंद परती निसियामर, होत विसरत प्रात। चन्दन चन्द्र सजल नलिनीदल, मन्द मास्त न सुहात ॥
सखी .. ॥३॥ गृह प्रांगन देख्यो नहीं भावत, दीनभई बिललात । विरही बाउरी फिरत गिरि-गिरि, लोकन तें न लजात ।।
सखी ||४|| पीउ दिन पलक कल नहीं जीउकून रुचित रासिक गुबात । 'कुमुवश्चन्द' प्रभु सरस दरस जयन चपल ललचात ॥
सखी० ॥५॥
ध्यक्तित्व--
संत कुमुदचन्द्र संवत् १६५६ तक भट्टारक पद पर रहे। इतने लम्बे समय में इन्होंने देश में अनेक स्थानों पर बिहार किया और जन-साधारण को धर्म एवं अध्यात्म का पाठ पढाया । ये अपने समय के प्रसाधारण सन्त थे। उनकी गुजरात
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एव कृतित्व
तथा राजस्थान में अच्छी प्रतिष्ठा थी । जैन साहित्य एवं सिद्धान्त का उन्हें अप्रतिम ज्ञान था। वे संभवतः आशु कवि भी थे, इसलिए श्रावकों एवं जन साधारण को पद्य रूप में ही कमी २ उपदेश दिया करते थे । इनके शिष्यों ने जो कुछ इनके जीवन एवं गतिविधियों के बारे में लिखा है, वह इनके अभूतपूर्व व्यक्तित्व की एक झलक प्रस्तुत करता है। शिष्य परिवार
मे तो भद्वारकों के बहुत से शिष्य हुमा करते थे जिनमें प्राचार्य, मुनि, प्रमचारी, आयिका यादि होते थे। अभी जो रचनाए' उपलब्ध हुई है, उनमें अभय चंद्र, ब्रह्मसागर, धर्मसागर, संयमसागर, जयसागर एवं गणेशसागर प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं । ये सभी शिष्य हिन्दी एवं संस्कृत के भारी ।वद्वान थे और इनको ब्रहत सो रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं । अभमचन्द्र इनके पश्चात् भट्टारक बने । इनके एवं इनके शिष्य परिवार के विषय में प्रागे प्रकाश डाला जावेगा ।
कुमुदचन्द्र की अब तक २८ रचनाएँ एवं पद उपलब्ध हो चुके हैं उनके नाम निम्न प्रकार हैं:
मूल्यांकन :
"भा रलकीति' ने जो साहित्य-निर्माण की पावन-परम्परा छोड़ी थी, उसे उनके उत्तराधिकारी 'भ० कुमुदचन्द्र ने अच्छी तरह से निभाया । यही नहीं 'कुमुद चन्द्र' ने अपने गुरु से भी अधिक कृतियां लिखी और भारतीय समाज को अध्यात्म एवं भक्ति के साथ साथ शृगार एवं वीर रस का भी प्रास्वादन कराया। 'कुमुदचन्द्र के समय देश पर मुगल शासन था, इसलिए जहां-तहां युद्ध होते रहते थे। जनता में देश रक्षा के प्रति जागरूकता थी, इसलिए कवि वे भरत-बाहुबलि छन्द में जो युद्धवर्णन किया है- वह तत्कालीन जनता की मांग के अनुसार था। इससे उन्होंने पह
भी सिद्ध किया कि जैन-कश्चि यद्यपि साधारणतः आध्यात्म एवं भक्ति परक कृतियां लिखने में ही अधिक रचि रखते हैं- लेकिन प्रावश्यकता हो तो वे वीर रस प्रधान रचना भी देश एवं समाज के समक्ष उपस्थित कर सकते हैं।
'कुमुदचन्द्र के द्वारा निबद्ध 'पद-साहित्य' भी हिन्दी साहित्य की उत्तम निधि है । उन्होंने "जो तुम दीनदयाल कहावत" पप में अपने हृदय को भगवान के समक्ष निकाल कर रख लिया है और वह अपने भक्तों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा को ओर भी प्रभु का ध्यान आकृष्ट करना चाहता है और फिर "पनापनि कुक बीजे" के रूप में प्रभु और मक्त के सम्बन्धों का बखान करता है। 'म तो नर भव
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बारडोली के संत कुमुदचंद्र
वादि गमायो'–पद में कवि ने उन मनुष्यों को चेतावनी दी है, जो जीवन का कोई सयुपयोग नहीं करते और यों ही जगत में आकर चल देते हैं। यह पद अत्यधिक सुन्दर एवं भावपूर्ण है। इसी तरह 'कुमुदधन्द' ने 'नेमिनाथ-राजुल' के जीवन पर जो पद-साहित्य लिखा है, वह भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। "सस्त्री रो अब तो रह्यो नहिं जात''--में राजुल की मनोदशा का अच्छा चित्र उपस्थित किया है । इसी तरह "प्राली री अबिरखा ऋतु आजु आई"...में राजुल के रूप में- विरहिणीनारी के मन में उठने वाले भावों को प्रस्तुत किया है। इस प्रकार 'कुमुदयन्द्र' ने अपने पदसाहित्य में अध्यात्म, भक्ति एवं वैराग्य परक पद रचना के अतिरिक्त 'राजुल-मि' के जीवन पर जो पद-साहित्य लिखा है, यह भी हिन्दी-पद-साहित्य एवं विशेषतः जनसाहित्य में एक नई परम्परा को जन्म देने वाला रहा था। आगे होने वाले कवियों ने इन दोनों कवियों की इस शैली का पर्याप्त अनुसरण किया था।
कषि की अब तक उपलब्ध कृतियों के नाम निम्न प्रकार हैं
१. - मि विनती २. प्रादिनाय विवाहलो २. नेमिनाथ द्वादशमासा ४, नेमीश्वर हमश्री ५. अण्य रति गीत ६. हिंदोला गीत ७. वणजारा गीत ८. ६श लक्षण धर्मवत मीत .. शील गौत १०. सप्त व्यसन गीत ११. पठाई गीत १२. भरतेश्वर गीत १३. पार्श्वनाथ गीत १४. अन्धोलड़ी गीत १५. आरसी गीत १६. जन्म कल्याणक गीत १७. चिंतामणि पाश्र्वनाथ मीत
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१८. दीपावली गीत
१६. नेमि जिन गीत
२०. चौबीस तीर्थ कर देह प्रमाण चौप
२१. गौतम स्वामी चोपई
२२. पार्श्वनाथ की विनती
२३. लोड पाश्वनाथ जी
२४. भादीश्वर विनंती
२५. मुनिसुव्रत गीत
२६. गीत
२७. जीवडा गीत
२८. मरत बाहुबलि छन्द
२६. परदारो परशील सभाप
३०.
भरत बाहुबलि छन्द
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतिश्व
पद
१. म करोस पर नारी को संग |
२. संघ जी नाग जी गीत |
३. जागो रे भवियर संघ नवि करीजे |
४. जागि हो भवियरण सफल बिहांणु ।
५. जागि हो भवियरण उघीये नहीं षणु
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६. उति दिन राज रुचि राज सुदि भांत । ७. भावो रे साहेली जत यादव भरणी । ८. जय जय श्रादि जिनेश्वर राय |
६. येई थेई थेई नृत्यति भ्रमरी ।
१०. बिनज वदन रुचि र रदन काम ।
११. श्याम वरण सुगति करण सर्व सौख्यकारी ।
१२. आस्यु रे इम कोंच माहरा नेमजी |
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इनके अतिरिक्त उनके रचे हुए कितने ही पद मिले हैं। इन पदों में से ३३६ वीं प्रथम पंक्ति निम्न प्रकार है
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वारोडोली के संत कुमुदचंद्र
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१३. वंदेहं शीतल चरणं । १४. अवसर भाजू हेरे हवे दान पुष्य काइ कोजे । १५. लाला को मुल पारित्र हनही । १६. ए संसार भमंतहां रे व लहको धर्म विचार । १७, वालि वालि तु वालिय सजनी । १८. लाल लाल लाल तु मां जास रे। १६. सगति कीजे रे साधु तगी बनी। २०. आज सर्वान में हूं बड़ भागी। २१. आजु में देखे पास जिनेंदा । २२. पाली री अ बिरखा ऋतु श्राजु आई। २३. आवो रे सहिह्य सहिलष्टी संगे । २४. चेतन चेतन किउ बावरे । २५. जनम सफल भयो, भयो सुका जरे। २६. जागि हो, मोर भयो कहर सोचत । २७. जो तुम दीन दयाल कहावत । २८. नाथ प्रनाकनि कू कर दीजे । २९. प्रमु मेरे तुम ऐसी न चाहिये । ३०. मैं तो नर-मव वादि गमायो । ३१. सखी गै अर तो रह्यो नहि जात ।
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मनि अभयचन्द्र
'ममयचन्द्र' नाम के दो भट्टारक हुए हैं । 'प्रथम अभयचन्द्र' भ. लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे, जिन्होंने एक स्वतंत्र 'भट्टारक-संस्था' को जन्म दिया । उनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दि का द्वितीय चरण था। दूसरे "श्रमयचन्द्र' इन्हीं को परम्परा में होने वाले 'म. कुमुदचन्द्र' के शिष्य थे। यहां इन्हीं दूसरे 'प्रभयचन्द्र' का परिचय दिया जा रहा है।
'प्रभयपन्द्र' भट्टारक थे और 'कुमुदचन्द्र' की मृत्यु के पश्चात् भट्टारफ़ गादी पर बैठे थे । यद्यपि 'अभयचन्द्र' का गुजरात से काफी निकट का सम्बन्ध था, लेकिन राजस्थान में भी इनका बराबर विहार होता था और ये गांव-गांव, एवं नगर-नगर में भ्रमण करके जनता से सीधा सम्पर्क बनाये रखते थे। 'अभयचन्द्र' अपने गुरु के पोग्यतम शिष्य थे । उन्होंने म० रत्नकीत्ति एवं म० कुमुदचन्द्र का शासनकाल देखा था और देखी श्री उनकी 'साहित्य-साधना' । इसलिए जब ये स्वयं प्रमुख सन्त बने तो इन्होंने मो उसी परम्परा को बनाये रखा । संवत् १६८५ को फाल्गुन सुदी ११ सोमवार के दिन बारडोली नगर में इनका पट्टाभिषेक हुमा और इस पद पर संवत् १७२१ तक रहे।
'प्रभयचन्द्र' का जन्म सं० १६४० के लगभग 'हूंबई' वंदा में हुआ था। इनके पिता का नाम 'श्रीपाल' एवं माता का नाम 'कोडमदे' था । वचपन से ही बालक 'अभयचन्द्र' को साधुओं की मंउली में रहने का सुअवसर मिल गया था । हेमजीकु'अरजी इनके भाई थे-पे सम्पन्न घराने के थे। युवावस्था के पहिले ही इन्होंने पांचों महावतों का पालन प्रारम्भ किया था। इसी के साथ इन्होंने संस्कृत, प्राकृत के ग्रन्यों का उनचाध्ययन किया । न्याय-शास्त्र में पारगतता प्राप्त की तथा अलंकार-शास्त्र एवं नाटकों का गहरा अध्ययन किया । २ अच्छे वक्ता तो ये प्रारम्भ से ही थे, किन्तु बिद्धता के होने से सोने-सुगंध का सा सुन्दर समन्वय होगया ।
जब उन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया, तो त्याग एवं तपस्या के प्रभाव से
१. हूंबड वंशे श्रीपाल साह तात, जनम्यो रूड़ी रतन कोडमवे मात |
लघु परणे लीयो महावत भार, मनवश करी जोत्यो दुद्धरभार ॥ २. तर्क नाटक पागम अलंकार, भनेक शास्त्र भण्या मनोहार ।
भट्टारक पर एहने छामे, जेहवे यश जग मा वास गाणे ।।
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सुनि अमयचंद्र
मा मुखाकृति पदेव नाकाई और माता के लिए ये आध्यात्मिक जादुगर बन गये। इनके संकड़ों शिष्य पे-जो स्थान-स्थान पर शान-दान किया करते पे। इनके प्रमुख शिष्यों में गणेश, दामोदर, धर्मसागर, देवणी व रामवेष के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं.। जितनी अधिक प्रशंसा शिष्यों द्वारा इनको (म० समयचन्द्र) की गई, संभवतः अन्य मट्टारकों की उतनी अधिक प्रशंसा देखने में अभी नहीं प्रायो। एक बार "म० अभयचन्द्र' का 'सूरत नगर' में पदार्पण हुआ-वह संवत् १७०६ का समय था। सूरत-मंगर-निवासियों ने उस समय इनका भारी स्वागत किया। घर-वर उत्सव किये गये, कुकुम छिड़का गया और अंग-पूजा का आयोजन किया गया । इन्हीं के एक शिष्य 'देवजी'-जो उस समय स्वयं वहां उपस्थित थे, ने निम्न प्रकार इनके सूरत नगर-प्रागमन का वर्णन किया है:
राग अश्यासी:
आप आणंच मन अति घणो ए, काई बरत यो जय जयकार । प्रमयचन्द्र मुनि प्रावया ए, काई सुरत नगर मझार रे ।। आज प्राणंद ॥१॥ घरे घरे उछद अति घणाए, काई माननी मंगल गाय रे । अग पूजा ने उबरारणा ए, काई फुकुम छडादेवडाय रे ॥२॥ आजः ॥ श्लोक बखाणे गोर सोभता रे, वाणी भीठी अपार साल रे । धर्मकथा ये प्राणी ने प्रतिबोये ए, काई कुमति करे परिहार रे ।।३।। पंवत् तर छलोतरे, कोई हीरजी प्रेमजीनी पूगी पास रे । रामजी में श्रीपाल हरखीया ए, काई वेलजी कुंअरजी मोहन दास रे ॥४॥ गौतम समगोर सोभतो ए, काई वर्ष जयो अभय :मार रे । सवाल कला गुहा मंडणी ए, काई 'देवजी' कहे उदयो उदार रे ।। आज० ॥५॥
'श्रीपाल' १८ वीं शताब्दी के प्रमुख साहित्य-सेवी थे। इनकी कितनी ही हिन्दी रचनाए अभी लेख को कुछ समय पूर्व प्राप्त हुई थी 1 स्वयं कनि श्रीपाल 'म. अभयचन्द्र से प्रश्यधिना प्रभावित थे । इसलिए स्वयं मट्टारकजी महाराज की प्रशंसा में लिखा गया कधि फा एक पद देखिये। इस पद के अध्ययन से हमें 'समयचन्द्र' के आकर्षक व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक मिलती है । पद निम्न प्रकार है:राग धन्यासी
चन्द्रवदनी मृग लोचनी नारि । अभयचन्द्र गछ नायका बांदो, सकल संघ जयकारि ॥१॥ चन्द्रः ।।
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मदन माहामद मीठे ए मुनिवर, गोयम सम गुणधारी । क्षमावि गंभिर विचक्षण, गरुयो गुण भण्डारो ॥ चन्द्र०॥२॥
राजस्थान के जैन तंत: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निखिलकला विधि विमन विद्या निधि विकटवादी हठहारी । रम्य रूप रंजित नर नायक, सज्जन जन सुखकारी ॥ चन्द्र०||३||
सरसति गछ श्रृंगार शिरोमणी, मूल संघ मनोहारी ॥ कुमुदचन्द्र पदकमल दिवाकर, 'श्रीपाल' तुम बलीहारी || चन्द्र० ||४||
'गणेश' भी अच्छे कवि थे। इनके कितने ही पद, स्तवन एवं लघु कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं। 'भ० अभयचन्द्र' के आगमन पर कवि ने जो स्वागत गान लिखा या थोर जो उस समय संभवतः गाया भी गया था, उसे पाठकों के श्रवलोकनार्थ यहां दिया जा रहा है
-
बाजु भले आये जन दिन घन रमणी ।
शिवया नंदन बंधी रत तुम, कनक कुसुम बचाको मृगनयनी ॥१॥
उज्जल गिरि पाय पूजी परमगुरु सकल संघ सहित संग सथनी । मृदंग बजावते गावते गुनगनी, अभवचन्द्र पदधर थायो गजगयनी ॥२॥
अब तुम आये भली करी, घरी घरी जय शब्द भविक सब कहेनी । ज्यों चकोरी चन्द्र क्रु इयत, कहत गणेश विशेषकर वयनी ||३||
—
इसी तरह कवि के एक और शिष्य 'दामोदर' ने भी अपने गुरु की भूरि २ प्रशंसा की है। गीत में कवि के माता-पिता के नाम का भी उल्लेख किया है तथा लिखा है कि 'भ० अभयचन्द्र ने कितने ही शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त की थी। पूरा गीत निम्न प्रकार है
यांदी वांदो तखी री श्री अमयचन्द्र गोर वांदो । मूल संग मंडण दृरित निकंदन, कुमुदचन्द्र पगी बंदी ॥ १ ॥
शास्त्र सिद्धान्त पूरण ए जाए, प्रतिबोवै भवियण अनेक । सकल कला करो विश्वने रंजे, मंजे वादि अनेक ||२||
हूं बड़ वंश विख्यात वसुधा श्रीपाल साधन तात । आयो जननीं पतिय शवन्तो कोड़मदे धन मात ॥३॥
रतनचन्द पाटि कुमुदचन्दयति, प्रमे पूजो पाय ! तास पाटि श्री अभयचन्द्र गोर 'दामोदर' नित्य गुरणाम ||४||
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मुनि समयचंद्र
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उक्त प्रशंसात्मक गीतों से यह तो निश्चित सा जान पड़ता है कि अमवचन्द्र की जन-समाज में काफी अधिक लोकप्रियता थी। उनके शिष्य साय रहते थे और जनता को भी उनका स्तवन करने की प्रेरणा किया करते थे ।
'अभयपन्द्र' प्रचारक के साथ-साथ साहित्य-निर्माता भी थे। यद्यपि अभी तक उनकी अधिक रचनाएं उपलब्ध नहीं हो सकी है, लेकिन फिर भी उन प्राप्त रचनात्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनकी कोई बड़ी रचना भी मिलनी चाहिए। कवि ने लघु गीत अधिक लिसे हैं । इसका प्रमुख कारण तत्कालीन साहित्यिक वातावरण ही था । अब तक इनकी निम्न कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं --
२८
१५.
१. वासुपूज्यनी धमाल २. चंदागीत ३. सूखड़ी ४, चतुर्विंशति तीर्थकर लक्षण गीत ५. पद्मावती जात ६. गीत
गीत ८. नेमीश्वरनुशान कल्याणक गीत ६. मादीश्वरनाथनु पञ्चकल्याणक गीत १०, बलभद्र गीत
उक्त कृतियों के प्रतिरिक्त कवि के कुछ पद भी मिल चुके हैं। इन पदों को संख्या आठ है।
ये सभी रचनाएं लघु कृतियां हैं । यद्यपि काव्यत्व, शैली एवं भाषा की दृष्टि से वे उच्चस्तरीय रचनाएं नहीं है, लेकिन तत्कालीन समय जनता की मांग पर ये रचनाए लिखी गई थीं । इसलिए इनमें कवि का काव्य-वैमव एवं सौष्ठव प्रयुक्त होने की अपेक्षा प्रचार का लक्ष्य अधिक था । भाषा की दृष्टि से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। राजस्थानी भाषा की ये रचनाएं हैं तथा उसका प्रयोग कवि ने अत्यधिक सावधानी से किया है। गुजराती भाषा का प्रयोग तो स्वमावत: ही हो गया है । कवि की कुछ प्रमुख कृतियों का परिचय निम्न प्रकार है१. चंवागीत
इस गीत में कालिदास के मेघदूत के विरही यक्ष की भांति स्वयं राजुल अपना सन्देश चन्द्रमा के माध्यम से नेमिनाथ के पास भेजती है। सर्व प्रथम चन्द्रमा से अपने उद्देश्य के बारे निम्न शब्दों में वर्णन करती है
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विनयकरी राजुल कहे, चंदा बीनतड़ी अब धारो रे । उज्ज्वल गिरि जई दीनवो, चंदा जिहां दे प्राण प्राधार रे ।। गगने गमन ताहरु रुष, चंदा अमीय पर अनन्त रे । पर उपगारी तू भनो, चंदा बलि बलि बीनव संत रे॥
राजुल ने इसके पश्चात् भी चन्द्रमा के सामने अपनी यौवनावस्था की दुहाई दी तथा विरहाग्नि का उसके सामने वर्णन किया ।
विरह तणां दुख दोहिला, चंदा ते किम में सहे बाय रे । जल बिना जेम माछत्ती, चंदा ते दु:ख में बाप रे ॥
राजल अपने सन्देश-वाड़क गे कहती है कि यदि कदाचित नेमिकुमार वापिस चले आवे तो वह उनके आगमन पर वह पूर्ण शृंगार करेगी। इस वर्णन में कवि ने विभिन्न अंगों में पहिने जाने वाले प्राभूषणों का अच्छा वर्णन किया है ।
२. सूखड़ी :
यह ३७ पचों की लघु रचना है, जिसमें विविध व्यजनों का उल्लेख किया गया है । कवि को पादास्त्र का अच्छा शान था । 'सूखही' से तत्कालीन प्रचलित मिठाइयों एवं नमकीन खाद्य सामग्री का अच्छी तरह परिचय मिलता है । शान्तिनाथ के जन्मावसर पर कितने प्रकार की मिठाइयां आदि बनायी गयी श्री-इसी प्रसंग को बतलाने के लिए इन व्यञ्जनों का नामोल्लेख किया गया है । एक वर्गान देखिए--
जलेबी खाजला पूरी, पतासां फोगा संजूरी । दहीपरां फीणी माहि, साकर भरी ॥२॥
x
x
सकरपारा सुहाली, तल पापड़ी सांकली। थापद्धास्यु थोरा वीय, पालू जीवली ॥५॥ मरकोने चांदखानि, दोठांने दही बड़ा सोनी । बाबर घेवर श्रीसो, अनेक यांनी ॥९
इस प्रकार 'कविवर अभयचन्द्र' ने अपनी लघु रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य की जो महती सेवा की थी, वह सदा स्मरणीय रहेगी।
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ब्रह्म जयसागर
जयसागर म० रत्नकीति के प्रमुख शिष्यों में से थे। ये ब्रह्मचारी थे और जीवन मरे इसी पद पर रहते हुए अपना श्रात्म विकास करते रहे थे। मं० रनको जिनका परिचय पहले दिया जा चुका है साहित्य के अनन्य उपासक थे इसलिए जयसागर भी अपने गुरु के समान ही साहित्याराधना में लग गये। उस समय हिन्दी का विकास हो रहा था। विद्वानों एवं जनसाधारण की रुचि हिन्दी ग्रन्थों को पढ़ने में अधिक हो रही थी इसलिए जयसागर ने अपना क्षेत्र हिन्दी रचनाओं तक हो सीमित रखा ।
जयसागर के जीवन के सम्बन्ध में अभी तक कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। इन्होंने प्रपनी सभी रचनाओं में भ० रत्नकीप्त का उल्लेख किया है । रनकीर्ति के पश्चात होने वाले भ० कुमुदचन्द्र का कहीं भी नामोल्लेख नहीं किया है इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इनका भ० रत्नक्रीति के शासनकाल में ही स्वर्गवास हो गया था । रत्नकीति संवत् १६५६ तक भट्टारक रहे इसलिए ब्रह्म जयसागर का समय संवत् १५८० से १६५५ तक का माना जा सकता है । घोघा नगर इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था।
कवि की अब तक जितनी रचनाओं की खोज हो सकी है उनके नाम निम्न
प्रकार हैं
---
१. नेमिनाथ गीत
३. जसोधर गीत
५.
न
७. संकट हर पाइजिन गीत
९. मट्टारक रत्नकीर्ति पूजा गीत
११- २० विभिन्न पद एवं गीत
२. नेमिनाथ गीत
४. पंचकल्याणक गीत
६. संघपति मल्लिदास नी गीत
८. क्षेत्रपाल गोत
१०. शीतलनाथ भी विनती
जयसागर लघु कृतियां लिखने में विशेष रुचि रखते थे। इनके गुरु स्वयं रत्नकीति भी लघु रचनाओं को ही अधिक पसन्द करते थे इसलिए इन्होंने भी उसी मार्ग का अनुसरण किया । इसकी कुछ प्रमुख रचनाओं का परिचय निम्न प्रकार है ।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१. पंचकल्याणक गौत
यह कवि की सबसे बड़ी कृति है जो पांच कल्याणकों की दृष्टि से पांच दालों में विभक्त है। इसमें शान्तिनाथ के पांचों कल्याणकों का वर्णन है। जन्म कल्याणक ढाल में सबसे अधिक पद्य है । जिनको संख्या २० है। पूरे गीत में ७१ पद्य हैं । गी: ANI रा है। तग 1 सामान्य है। एक उदाहरण देखिए।
श्री शान्तिनाथ केवली रे, व्यावहार करे जिनराय ।
समोवसरण सहित मल्या रे, बंदित अमर सु पाय ।। द्रुपद : नरनारी सुख कर से विये रे, सोलमो श्री शान्तिनाथ ।
अविचल पद जे पामयो रे, मुझ मत राखो सुझ साय ।।१।। सम्मेद सिखर जिन आवयोरे, समोसरण करी दूर। ध्यानधनो क्रम क्षय करीरे, स्थानक गया सु प्रसीध ।।२।। श्री घोघा रूप पूरयलु रे, चन्द्रप्रभ चैत्याल' । श्री मूलसंघ मनोहर करे, लक्ष्मीचन्द्र गुणमाल ॥३॥ श्री प्रभेचन्द पदेशोहे रे, अभयसुनन्दि सुनन्द । .. तस पाटे प्रगट हबोरे, सुरी रत्नकीरति मुनी चन्द ।।४॥ तेह तणा चरण कमलनयनिरे, पंचकल्याणक किंध । . .
अहा जनसागर शम कहे, नर नारी गाउ मु प्रसिद्ध ॥५॥ २, जसोधर गीत
इसमें यशोघर चरित की कथा का राक्षिप्त सार दिया गया है जिसमें केवल १८ पध हैं। गीत की भाषा राजस्थानी है।
जीव हिसाहू नवि करू', प्राण जाय तो जाय ।। हद देखी चन्द्र मती कहे, पीवमी करीये काय ।।६।। मौन करी राजा रह्यो, पाक फडो कीय। . .:.
माता सहित जसोवरे, देवीने बल दीव ॥७॥ . ३. गुर्वावलि गीत
यह एक ऐतिहासिक गीत है जिसमें सरस्वती गच्छ की बलात्कारगण शाखा के भ० देवेन्द्रकीति को परम्परा में होने वाले भट्टारकों का साक्षिप्त परिचय दिया गया हैं । गीत सरल एवं रारस भाषा में निबद्ध है। .
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अह्म जयसागर
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तस पद कमल दिवाकर, मल्लिभूषण गुण सागर । प्रागार विद्या विनय तपो भलो ए। पदमावती साधी एण, ग्यास दीन रज्यो तेणें । जग जेणे जिन शासुन सोहावीयो ए ।'टा
४. घुमड़ी मोर
.
यह एक रूपक गीत है जिसमें नेमिनाथ के बन चले जाने पर उन्होंने अपने चारित्र रूपी चुनड़ी को किस रूप में धारण किया इसका संक्षिप्त वर्णन है। वह चारित्र की कुनड़ी नव रंग की थी। मूल गुणों का उस में रंग था, जिनवाणी का उसमें रस घोला गया था । तप रूपी देज से जो सूख रही थी। जो उसमें से पानी टपक रहा था वह मानो उत्तर गुणों के कारण चौरामी लास यांनियों से छूटकारा मिल रहा था। पांच महाव्रत, पांच समिति एवं तीन गुप्ति को जीवन में उतारने के कारण उस सुनड़ी का रंग ही एक दम बदल गया था। बारह प्रतिमा के धारण करने से वह फूल के समान लगने लगी थो। इसो चुनड़ी को छोढकर राजुल स्वर्ग गई । इस गीत को अविकल रूप से आगे दिया जा रहा है ।
५. रलकीति गीत
ब्रह्मा जयसागर रत्नकीति के कट्टर समर्थक थे । उनके प्रिय शिष्य तो थे ही लेकिन एक रूप में उनके प्रचारक मी थे। इन्होंने रत्नकीति के जीवन के सम्बन्ध में कई गीत लिखे और उनका जनता में प्रचार किया । रनकीति जहां भी काहीं जाते उनके अनुयायी जयसागर द्वारा लिने हुए गीतों को गाते । इसके अतिरिक्त इन गीतों में कवि ने पलकीति के जीवन की प्रमुख घटनाओं को छन्दोबद्ध कर दिया है। यह सभी गीत सरल भाषा में लिखे हुए हैं जो गुजराती से बहुत दूर एवं राजस्थानी के अधिक निकट है।
मलय देश मय चंदन, वेवदास केरो नंदन । श्री रत्नकीर्ति पद पूजिथए । प्रक्षत शोभन साल ए, सहेजलदे मुत गुणमाल रे विशाल ।
श्री रनकोति पद पूजिथए ।
इस प्रकार जयसागर ने जीवन पर्यन्त साहित्य के विकास में जो अपना अपूर्व योग दिया वह इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा।
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प्राचार्य चन्द्रकीत्ति
'भ० रत्नकीति' ने साहित्य-निर्माण का जो वातावरण बनाया था तथा अपने शिष्य-प्रशिष्यों को इस ओर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया था, इसी के फल-स्वरूप ब्रह्मा-जयसागर, कुमुदचन्द्र, चन्द्रकीति, संयमसागर, गणेश और धर्मसागर जैसे प्रसिद्ध सन्त, साहित्य-रचना की प्रोर प्रवृत्त हुए । 'आ. चन्द्रकीति' "म० रत्नकीति' के प्रिय शिष्यों में से थे । ये मेधावी एवं योग्यतम शिष्य थे तथा अपने गुरु के प्रत्येक कार्यों में सहयोग देते थे।
__ 'चन्द्रकीति' के गुजरात एवं राजस्थान प्रदेश प्रमुख क्षेत्र थे। कमी-कमी ये अपने गुरु के साथ और कभी स्वतन्त्र रूप से इन प्रदेशों में बिहार करते थे। वैसे वारडोली, भड़ौच, नगरपुर, सागवाड़ा आदि नगर इनके साहित्य निर्माण के स्थान थे। अब तक इनकी निम्न कृतियां उपलब्ध हुई हैं :
१. सोलहकारण रास २. जयकुमाराख्यान, ३. चारित्र-चुनड़ी, ४. चौरासी लाख जीवजोनि वीनती। उक्त रचनायों के अतिरिक्त इनके कुछ हिन्दी पद भी उपलब्ध हुए हैं ।
१. सोलहकारण रास
यह कवि की लघु कृति है। इसमें षोडशकारण व्रत का महात्म्य बतलाया गया है। ४६ पद्या बाले इस रारा में राग-गोडी देशी, दहा, राग-देशास्त्र, त्रोटक, चाल, राग-धन्यासी आदि विभिन्न छन्दों का प्रयोग हुआ है। कवि ने रचनाकाल का उल्लेख तो नहीं किया है, किन्तु रचना-स्थान 'भडीच' का अवश्य निर्दिष्ट किया है। 'मड़ौच' नगर में जो शांतिनाथ का मन्दिर था- वही इस रचना का समाप्ति -स्थान था । रास के अन्त में कवि ने अपना एवं अपने पूर्व गुरुओं का स्मरण किया है। अन्तिम दो पद्य निम्न प्रकार हैं
श्री भक्ष्यच नगरे सोहामणु श्री शांतिनाथ जिनराय रे । प्रासादे रचना रचि, श्री चन्द्रकीरति गुण गायरे ॥४४॥
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:
आचार्य चंद्रकीत्ति
जिनराय जी पालाय रे ॥४५॥
ए व्रत फल गिरता जो जो श्री जीव भवियरण तिहां जह भावज्ये, पालिग दुरे
पूर्व छापो
चौतीस प्रतिस अतिसय भमा, प्रतिहार्य वसु होस । चार चतुष्टय जिनवरा, ए खेतालीस पद जोय ॥ ४६ ॥ ॥
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२. जयकुमार आख्यान
यह कवि का सबसे बड़ा काव्य है जो ४ सर्गो में विभक्त है। 'जयकुमार' प्रथम तीर्थंकर 'म० ऋषभदेव' के पुत्र सम्राट भरत के सेनाध्यक्ष थे । इन्हीं जय कुमार का इसमें पूरा चरित्र वर्णित है । आख्यान वीर रस प्रधान है। इसकी रचना बारी नगर के १६६५ चैत्र शुक्ला दसमी के दिन
समाप्त हुई थी ।
'जयकुमार' को सम्राट भरत सेनाध्यक्ष पद पर नियुक्त करके शांति पूर्वक जीवन बिताने लगे जयकुमार ने अपने युद्ध कौशल से सारे साम्राज्य पर प्रखण्ड शासन स्थापित किया 1 वे सौन्दर्य के खजाने थे। एक बार वाराणसी के राजा 'अकम्पन' ने अपनी पुत्री 'सुलोचना' के विवाह के लिए स्वयम्वर का आयोजन किया । स्वयम्बर में जयकुमार भी सम्मिलित हुए। इसी स्वयम्बर में 'सम्राट भरत' के एक राजकुमार 'अकंकीर्ति' भी गये थे, लेकिन जब 'सुलोचना' ने जयकुमार के
अकीति एवं जयकुमार में
गले में माला पहना दी, तो वह अत्यन्त क्रोधित हुये । युद्ध हुआ और अन्त में जयकुमार का सुलोचना के साथ विवाह हो गया 1
इस 'आख्यान' के प्रथम अधिकार में 'जयकुमार - सुलोचना-विवाह' का वन है। दूसरे और तीसरे अधिकार में जयकुमार के पूर्व भवों का वर्णन और चतुर्थ एवं अन्तिम अधिकार में जयकुमार के निर्वाण प्राप्ति का वर्णन किया गया है।
'स्थान' में वीर रस, श्रृंगार रस एवं शान्त रस का प्राधान्य है । इसकी भाषा राजस्थानी डिंगल है । यद्यपि रचना स्थान बारडोली नगर है, लेकिन गुजराती दशब्दों का बहुत ही कम प्रयोग किया गया है- इससे कवि का राजस्थानी प्रेम झलकता है ।
'सुलोचना' स्वयम्बर में वरमाला हाथ में लेकर जब भाती है, तो उस समय उसकी कितनी सुन्दरता थी, इसका कवि के शब्दों में ही अवलोकन कोजिए -
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राजस्थान के जैन संस-मस्तित्व एवं कृतित्व
जाणिए सोल कला शीश, मुखचन्द्र सोमासो कहुँ । . अघर विद्रुम राजतारा, दन्त मुक्ताफल लहु । कमल पत्र विशाल नेत्रा, नासिका सुक चंच । अष्टमी चन्द्रज भाल सौहे, देणी नाग प्रपंच ।। सुन्दरी देखी सेह राजा, चिन्तमें मन माहि ।. ए सुन्दरी सूर सूदरी, किन्नरी किम केह वाम !!
सुलोचना एक एक राजकुमार के पास आतो और फिर मागे चल देती। उस समय वहां उपस्थित राजकुमारों के हृदय में क्या-क्या कल्पनाए उठ रहीं थी- इसको भी देखिये :
एक हंसता एक खीजे, एक रंग करे नवा । एक जारण मुझ परसे, प्रेम धरता जुज वा ।। एक कह जो नहीं करें, तो अभ्यो तपमन जाय। एक कहतो पुण्य यो भी, एम वलयथासू ।।
एक कहे जो आवयातो, विमासण सह परहो। पुण्य फल ने बातगोए, ठाम सूम है अंडे धरै ।।
लेकिन जब 'सुलोचना' ने अक कीति' के गले में बरमाला न डाली, तो जयकुमार एवं अम्कोति में युद्ध भड़क उठा । एसी प्रसग में वगित युद्ध का दृश्य मी देखिए :
मला कटक विकट कबहू सुमट सू,
धीर बीर हमीर हठ विकट मू।
करी कोप कूटे चूटे सरबहूँ,
चक्र तो ममर खग म के सह ।। गयो गम गोला गगनांगरणे,
गो अंग प्रावे कोर इम मरणे । मोहो मांहि मूके मोटा महीपती,
चोट खोट न आवे झपम रती ।। बथो थवा करी बेहदूबसू',
___ कोपे करतां कुटे प्रखंड सू।
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t
आचार्य चंद्रकीर्ति
समय :
श्वरी धीर धरणी ढोली नखिता, कोपिन राखण !!
हस्ती हस्ती संघाते पार्थडे,
रथो र सुभट सहू हम भडे
हम हार जब खजयो,
नीसा नादें जग गज्जयो ||
कवि ने अन्त में जो अपना वर्णन किया है, वह निम्न प्रकार है :
श्री मूल संघ सरस्वती गछे रे, मुनीवर श्री पदमनन्द रे देवेन्द्रकीरति विद्यानंदी जयो रे, मल्लीभूषण पुष्प क द रे ॥
श्री लक्ष्मीचंद्र पाटे थापया रे, अभय सुचंद्र मुनीन्द्र रे । तस कुल कम रवि समोरे, अभयनंदी नमें नरचन्द्र रे ॥
ते तर पार्टी सोहावयो रे, श्री रत्नकीरति सुगुण महार रे । तास शीष सुरी गुणे मंडयो रे, चन्द्रकीरति कहे सार रे I
एक मां एह भरणें सांभले रे, लखे भलु एह आख्यान रे । मन रे वांछतिफलले लहे रे, नव भर्वे लहे बहु मान
टे
I
संवत सोल पंचावने रे, उजाली दशमी चैत्र मास रे ।। वाडोरली नमरे रचना रची है, चन्द्रभ सुभ भावास रे
t
नित्य नित्य केवली जे जपे रे, जय जयनाम प्रसीधरे ॥ गरधर प्रादिनाथ केर डोरे, एकत्तरमो बहू रिव रे ।
विस्तार आदि पुराण पांडवे भगोरे, एह संक्षेपे कही सार रे ॥ भरणे सुरणे भविते सुख लहे रे, चन्द्रकीरति कहे सार रे ।
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कवि ने इसे संवत् १६५५ में समाप्त किया था। इसे यदि अन्तिम रचना भी माना जावे तो उसका समय संवत् १६६० तक का निश्चित होता है । इसके अतिरिक्त कवि ने अपने गुरु के रूप में केवल 'रत्नकीर्ति' का ही नामोल्लेख किया है, जबकि संवत् १६६० तक तो रत्नकोति के पश्चात् कुमुदचन्द्र मी भट्टारक हो गए थे, इसलिए यह भी निश्चित सा है कि कवि ने रीति से ही दीक्षा ली थी और उनकी मृत्यु के पश्चात् वे संघ से अलग ही रहने लगे थे। ऐसी अवस्था में
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१६.
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कवि का समय यदि संवत् १६०० से १६६० तक मान लिया जावे तो कोई भश्चार्य नहीं होगा। अन्य कृतियां :
जयकुमाराख्यान एवं सोलह कारण रास के अलावा अन्य सभी रचतार लघु रचनाए हैं। किन्तु भाव एवं भाषा की दृष्टि से वे सभी उल्लेखनीय हैं। कवि का एक पद देखिए :
राग प्रभाति :
जागता जिनवर जे दिन निरस्यो,
धन्य ते दिवस चिन्तामणि सरिलो। सुप्रभाति मुख कमल जु दी,
वचन अमृत थकी अधिकजु मीठु ।।१।। सफल जनम हवो जिनधर दीठा,
करण सफल सुण्या तुम्ह गुण मीठा ॥२॥ धन्य ते जे जिनवर पद पूजे,
श्री जिन'तुम्ह बिन देव न दूजो ॥1॥ स्वर्ग मुगति जिन दरस नि पामे,
'पन्द्रको रति सूरि सीसज नामे ।।४।।
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c
भट्टारक शुभचंद्र (द्वितीय)
'शुभचन्द्र' के नाम से कितने ही भट्टारक हुए हैं । 'भट्टारक-सम्प्रदाय' में '४ शुभचन्द्र' गिनाये गये है:
१. 'कमल कीति के शिष्य
२. पद्मनन्दि के शिष्य३. 'विजयकीति' के शिष्य४. 'हर्षचन्द' के शिष्य
'भ० शुभचन्द्र'
,
et
11
इनमें प्रथम काष्ठा संघ के माथुर गच्छ और पुष्कर मरण में होने वाले 'म० कमलकीत्ति के शिष्य थे । इनका समय १६वीं शताब्दि का प्रथम द्वितीय चरण था । 'दूसरे शुभचन्द्र' म० पद्मनन्दि के शिष्य थे, जिनका भ० काल स १४५० से १५०७ तक था | तीसरे 'भ० शुभचन्द्र' भ० विजयकीर्ति के शिष्य थे जिनका हम पूर्व पृष्ठों में परिचय दे चुके हैं । 'खोथे शुभचन्द्र' म० हर्षचन्द के शिष्य बताये गये हैंइनका समय १७२३ से १७४६ माना गया है। ये भट्टारक भुवन कीर्ति की परम्परा में होने वाले म० हर्षचन्द (सं. १९९८ - १७२३) के शिष्य थे। लेकिन 'आलोच्य भट्टारक शुभचन्द्र' 'म० प्रभयचन्द्र' के शिष्य थे जो म० रत्नकीप्ति के प्रशिष्य एवं 'म० कुमुदचन्द्र' के शिष्य थे जिनका परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
'भट्टारक अभयचन्द्र' के पश्चात् संवत् १७२१ की ज्येष्ठ बुदो प्रतिपदा के दिन पोरबन्दर में एक विशेष उत्सव किया गया। देश के विभिन्न मागों से अनेक साधुसन्त एवं प्रतिष्ठित धावक उत्सव में सम्मिलित होने के लिए नगर में आये । शुभ मुहूर्त में 'शुभचन्द्र' का 'भट्टारक गादी' पर अभिषेक किया गया। सभी उपस्थित श्रावकों ने 'शुभचन्द्र' की जयकार के नारे लगाये । स्त्रियों ने उनकी दीर्घायु के लिए मंगल गीत गाये विविध वाद्य यन्त्रों सभा स्थल गूंज उठा और उपस्थित जन-समुदाय ने गुरु के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की 1
से
'शुभचन्द्र' ने भट्टारक बनते हो अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया ।
१. देखिये- 'भट्टारक- सम्प्रदाय पु. ०.... ३०६
२. तक सज्जन उलट अंग घरे, मधुरे स्वरे माननी गांन करे ।।११।।
ताहां बहुविध वाजित्र वाजता, सुर नर मन मोहो निरवंता ॥१२॥
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राजस्थान के जन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
यद्यपि अभी वे पूर्णतः युवा थे। उनके संग प्रत्यंग से सुन्दरता टपक रही थी, लेकिन उन्होंने अपने आस्म-उद्धार के साथ-साथ समाज के अज्ञानान्वकार को दूर करने का बीड़ा उठाया और उन्हें अपने इस मिशन में पर्याप्त सफलता भी मिली। उन्होंने स्थान-स्थान पर विहार किया। राजस्थान से उन्हें प्रत्यधिक प्रेम था इसलिए इस प्रदेश में उन्होंने बहुत भ्रमण किया और अपने प्रवचनों द्वारा जनसाधारण के नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण योग दान दिया ।
"शुभचन्द्र' नाम के वे पांचवे भट्टारक थे, जिन्होंने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में विशेष रुधि ली। 'शुभचन्द्र' मुजरात प्रदेश के जलसेन नगर में उत्पन्न हुए। यह नगर जैन समाज का प्रमुख केन्द्र था तथा हूंबह जाति के श्रावकों का वहाँ प्रभुत्व था । इन्हीं श्रावकों में 'हीरा' भी एक श्रावक थे जो धन धान्य से पूर्ण तथा समाज द्वारा सम्मानित व्यक्ति थे। उनकी पत्नी का नाम 'माणिक दे' धा। इन्हीं की कोख से एक सुन्दर बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम 'नवल राम' रखा गया। 'बालक नवल' अत्यधिक व्युत्पन्न-मति थे-इसलिए उसने अल्पायू में ही व्याकरण, न्याय, पुराण, छन्द-शास्त्र, अष्टसहस्री एवं चारों वेदों का अध्ययन कर लिया । १८ वीं शतामसी में गुजरात में रामस्थान में महारका साघुनः का अच्छा प्रभाव था । इसलिए नवल राम को वचपन से ही इनकी संगति में रहने का अवसर मिला। 'भ• अमयचन्द्र' के सरल जीवन से ये अत्यधिक प्रभावित थे इसलिए उन्होंने भी गृहस्थ जीवन के चक्कर में न पड़कर आजन्म साधु-जीवन का परिपलन करने का निश्चय कर लिया । प्रारम्भ में 'ममयचन्द्र' से 'ब्रह्मचारी पद' की शपथ ली और इसके पश्चात् वे भट्टारक बन गए ।
'शुभचन्द्र' के शिष्यों में पं. श्रीपाल, गणेश, विद्यासागर, जयसागर, आन्नदसागर प्रादि के नाम विशंयतः उल्लेखनीय हैं । 'श्रीपाल' ने तो शुमचन्द्र के.
'३. छण रजनी कर बदम विलोकित, अर्थ ससी सम भाल । '
पंकज पत्र समान सुलोचन, ग्रीवा कर विशाल रे ॥८॥ नाथा शुक-घंची सम सुन्दर, अधर प्रबालो वृद। रक्त वर्ण द्विज पंक्ति विराजित नीरचंता आनन्द रे ।।६।। विम दिम महन सबलन फेरी, तसाथेई करत ।
पंच शयब वाजिन ते बाजे, ना नभ गज्जत रे ॥२१॥ १. व्याकर्ण तर्क वितर्क अनोपम, पुराण पिंगल भेव । अष्टसहस्री आदि नथ अनेक जु हों विद जामो वैव रे ॥ .
. . . . . . . --श्रीपाल कृत एक गीत
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मट्टारक शुभचंद्र
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कितने ही पदों में प्रशंसात्मक गीत लिखे हैं -जो साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दोनों प्रकार के हैं।
'म० शुभचन्द्र' साहित्य-निर्माण में अत्यधिक रूचि रखते थे। यद्यपि उनको कोई बड़ी रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है, लेकिन जो पद साहित्य के रूप में इनकी कुतियाँ मिली है. वे इनकी साहित्य-रसिकता की ओर पर्याप्त प्रकाश डालने वाली हैं। अब तक इनके निम्न पद प्राप्त हुए हैं:
१. पेखो सखी चन्द्रसम मुख चन्द्र २. प्रादि पुरुष मजो आदि जिनेन्दा ३. कोन सखी सुध ल्याचे श्याम की ४, जपो जिन पाश्र्वनाथ भवतार ५. पावन मति मात पद्मावति पेखता ६. प्रात सममे शुभ ध्यान धरीजे ७. वासु पूज्य जिन विनती-सुणो मासु पूज्य मेरो बिनती ८. श्री सारखा स्वामिनी प्रण मि पाय, स्तबू वीर जिनेश्वर विबुध राय । ६. प्रज्मारा पार्श्वनाथनी वीनती
उक्त पदों एवं विनतियों के अतिरिक्त अभी "मर रामचन्द्र' की और भी रचनाएं होंगी, जो किसी गुटके के पृष्ठों पर अथवा किसी बास्त्रि-भण्डार में स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में अज्ञातावस्था में हुए पड़ी अपने उद्धार की बाट जोह रही होंगी।
पदों में कवि ने उत्तम भावों को रखने का प्रयास किया है। ऐसा मालूम होता है कि 'शुभचन्द्र' अपने पूर्ववर्ती कवियों के समान 'नेमि-राजुल' की जीवनघटनामों से अत्यधिक प्रभावित थे इसलिए एक पद में उन्होंने "कौन सखी सृषल्पावे श्याम की' मार्मिक भाव भरा 1 इस पद से स्पष्ट है कि कवि के जीवन पर मीरां एवं सूरदास के पदों का प्रभाव भी पड़ा है:
कौन सखी सुध त्यावे श्याम की। मधुरी धुनी मुखचंद विराजित, राजमति गुण गावे ॥श्याम.॥१॥ अग विभूषण मनीमय मेरे, मनोहर माननी पाव।। फरो कछू तत मंत भेरी सजनी, मोहि प्रान नाथ मोलावे ॥श्याम,।।२।। गज गमनौ गुण मन्दिर स्यामा, मनमय मान सताये। कहा अवगुन अव दीन दयाल छोरि मुगति मन भावे ॥श्याम.॥३।।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एव कृतित्व
सब सखी मिली मन मोहन के ढिग, जाई कथा जु सुनावे । सुनो प्रभु श्री शुभचन्द्र के साहिब, कामिनी कुल क्यों लजाये ॥श्याम.॥४॥
कवि ने अपने प्रायः सभी पद मक्ति-रस प्रधान लिखे हैं । उनमें विभिन्न तीर्थकरों का स्तवन किया गया है । आदिनाथ स्तवन का एक पद देखिए
आदि पुरुष भजो प्रादि जिनेंदा ।।टेका। सकल सुरासुर शेष सु व्यं तर, नर खग दिनपति सेवित चदा ।।१।। जुग आदि जिनपति भये पावन, पतित उदारण नाभि के नंदा 1 दीन दयाल कृपा निधि सागर, पार करो अक्ष-तिमिर दिनेदा ॥२॥ केवल ग्यान थे सब कछु जानत, काह कर प्रभु मो मति मंदा । देखत दिन-दिन चरण सरते, विनती करत यो सूरि शुभ चंदा ॥३||
समय:
'शुभचन्द्र' संवत १७४५ तक मट्टारक रहे । इसके पश्चात् 'रत्नचन्द्र' को भट्टारक पद पर सुशोमिन किया गया । "म. रत्लचन्द्र' का एक लेख स. १७४८ का मिला है, जिसमें एक गोत को प्रतिलिपि पं. श्रपाल के परिवार के सदस्यों के लिए की गई श्री-ऐसा उल्लेख किया गया है । इस तरह 'भ० शुभचन्द्र' ने २४-२५ वर्ष तक देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भ्रमण करके साहित्य एवं संस्कृति के पुनरुत्थान वा जो अलख जगाया था-वह सदैव स्मरणीय रहेगा ।
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भट्टारक नरेन्द्रकीत्ति
१७ वी शतामिद में राजस्थान में 'भामेर-राज्य' का महत्त्व बढ़ रहा था। प्रामेर के शासकों का मुगल बादशाहों से घनिष्ट सम्बन्ध के कारण यहां अपेक्षाकृत शान्ति थी। इसके अतिरिक्त भामेर के शासन में भी जैन दीवानों का प्रमुख हाथ था। वहां जैनों की अच्छी बस्ती थी और पुरातत्व एवं कला की दृष्टि से भी आमेर एवं सांगानेर के मन्दिर राजस्थान-भर में प्रसिद्धि पा चुके थे। इसलिए देहली के भट्टारकों ने भी अपनी गादी को दिल्ली से आमेर स्थानान्तरित करना उचित समझा और इसमें प्रमुख माग लिया 'म० देवेन्द्रकोत्ति' ने; जिनका पट्टाभिषेक संवत् १६६२ में चाटम में गा था ! इसके पहनात तो मामेर गानेर. नास और टोडारायसिंह प्रादि नगरों के प्रदेश इन भद्रारकों की गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र बन गये। इन सन्तों की कृपा से यहां संस्कृत एवं हिन्दी-ग्रन्थों का पठन-पाठन ही प्रारम्भ नहीं हुअा, किन्तु इन मापात्रों में ग्रन्थ रचना भी होने लगी और पामेर, सांगानेर, टोड़ारायसिंह और फिर जयपुर में विद्वानों की मानों एक कतार ही खड़ी होगयी। १७ वीं शताब्दी तक प्रायः सभी विद्वान् 'सन्त' हुमा करते थे, लेकिन १८ वीं श० से गृहस्थ मी साहित्य-निर्माता बन गये। अजयराज पाटशी, मुसालबन्दकाला, जोधराज गोटीका, दौलतराम कासलीवाल, महा पं० टोडरमल जी व जयचन्दजी छाबड़ा जैसे उच्चस्तरीय विद्वानों को जन्म देने का गर्व इसी भूमि को है ।
'आमेर-शास्त्र-भण्डार' जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्य-संग्रहालय की स्थापना एवं उस में अपभ्रश, सस्कृत एवं हिन्दी-ग्रन्थों की प्राचीनतम प्रतिलिपियों का संग्रह इन्हीं सन्तों की देन है । प्रामेर शास्त्र भण्डार में अपभ्रंश का जो महत्वपूर्ण संग्रह है, वैसा संग्रह नागौर के मट्टारकीय शास्त्र-भण्डार को छोड़कर राजस्थान के किसी भी ग्रन्थ-संग्रहालय में नहीं है । वास्तव में इन सन्तों ने अपने जीवन का लक्ष्य आत्मविकास की भोर निहिन किया। उनका यह लक्ष्य साहित्य-संग्रह एवं उसके प्रचार की ओर भी था । इन्हीं सन्तों की दूरदर्शिता के कारण देश का प्रमुखमा साहित्य नष्ट होने से बच सका । अब यहां आमेर सादी से सम्बन्धित तीम सन्नों का परिचय प्रस्तुप्त किया जा रहा है.. ... ... . . ! .', १. भट्टारक मारेन्द्रकोलि.. ... .. ..... .. . - नरेन्द्रकीति अपने समय के जबरदस्त भट्टारक थे। ये शुद्ध 'बीस पथ' को मानने वाले 4 खण्डवान श्रावक और सिंगाणी' इमेको मात्र था। एक
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भट्टारक पट्टावली के अनुसार मे संवत् १६९१ में भट्टारक बने थे ! इनका पट्टाभिषेक सांगानेर में हुआ था । इसकी पुष्टि बलतराम साह ने अपने बुद्धि-विलास' में निम्न पद्य से की है:
नरोद्र मोरसि नाम, ५: इफ सांगागरिने । भये महागुन धाम, सौलह से इक्यावै ॥६६॥
ये "भ. देवेन्द्रकीति' के शिष्य थे, जो पामेर मादी के संस्थापक थे । सम्पूर्ण राजस्थान में ये प्रभावशाली थे । मालवा, मेवात तथा दिल्ली आदि के प्रदेशों में इनके भक्त रहते थे और जब वे जाते, तब उनका ख़ब स्वागत किया जाता । एक भट्टारक पढ़ायसी' में नरेन्द्रकीत्ति की आम्नायका-जहां २ प्रचार था, उसका निम्न पद्यों में नामोल्लेख किया है:
आमनाइ हिलीय मंडल मुनिवर, अवर मरहट देसयं । प्रणीए बत्तीसी विल्मास, वदि बराइस वेसर्य । मेवात मंडल सवै सुरणीए, परम तिण बांध घरा । परसिध पचवारीस मुरिगए, खलक बंदे अतिखरा ॥११८।। घर प्रकट ढुवा इडर ढाढ़ौ, प्रवर अजमेरौ भरणा । मुरधर संदेश कर महोछा, मंड चपरासी पणा ॥ सांभरि सुथान मुद्रग सुणीज, जुगत इहरं जाण ए। अधिकार ऐती घरा बोप, बिरुद अधिक बखाणए ॥११६॥ नरसाह नागरचाल निसचल वहीत खैराड़ा वर । मेवाष्ट्र देस चीतौड मोटो, महपति मंगल करा मालवे देसि बड़ा महाजन, परम सुखकारी सुरणा । आग्या मुवाल सुधुम सब विधि, माव भगि मोटा भगा ।।१२०॥ मांडौर मांडिल अजब, बून्दी, परसि पाटण धानयं । सीलौर कोटी ब्रह्मवार, मही रिणथंभ मानयं ॥ दीरप चंदेरी चाय निस्चल, महंत घरम सुमंडणा । विदेत लाखहरी विराज, अधिक उरिणयारा तणा ॥१२१।।
१. इसको एक प्रति महावीर भवन, जयपुर के संग्रहालय में है।
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भट्टारक नरेन्द्रनीति : . .
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दिगम्बर समाज के प्रसिद्ध तेरह पंथ की उत्पत्ति भी इन्हीं के समय में हुई पी।यह पथ सुधारवादी था और उसके द्वारा अनेक कुरीतियों का जोरदार विरोध किया था। बस्तराम साह ने अपने मिथ्यास्व खण्डन में इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है:
भट्टारक प्रावैरिके, नरेन्द्र कीरति नाम । यह कुपंथ तिनवः समं, नयो चल्यो अध धाम ॥२४॥
इस पद्म से ज्ञात होता है कि 'नरेन्द्र कात्ति का अपने समय हो से विरोध होने लगाया और इनको मान्यतामों का विरोध करने के लिए कुछ सुधारकों ने तेरहपंथ नाम से एक पथ को जन्म दिया । लेकिन विरोध होते हुए भी नरेन्द्रकीति अपने मिशन के पक्के थे और स्थान २ पर घूमनार साहित्य एवं संस्कृति का प्रचार किया करते थे । मह अवश्य था कि ये सन्त अपने प्राध्यात्मिक उत्थान की ओर कम ध्यान देने लगे में तथा मौकिक लदियों में फंसने आ रहे थे । इसलिए उनका धीरेधीरे विरोध बढ़ रहा था, जिसने महापंडित टोडरमल के समय में जन रूप धारण कर लिया और इन सानों के महत्व को ही सदा के लिए समाप्त कर दिया।
नरेन्द्रकोत्ति' ने अपने समय में आमेर के प्रसिद्ध भधारकीय शास्त्र भण्डार को सुरक्षित रखा और उसमें नयी २ प्रतियां, लिखवाकर विराजमान हाई पई।
"तीर्थकर छोयीसना छप्पय" नाम से एक रचना मिली है, जो स भवतः इन्हीं नरेन्द्रकीत्ति की मालूम होती है । इस रचना का अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है
एकादया वर मंग, बउद पूरव सह जाएउ । चउद प्रकीर्गिक शुद्ध, पंच पूलिका वखाग्रु॥ परि पंच परिकर्भ सूत्र, प्रथमह दिनि योगह । तिहनां पद शत एक, अकि द्वादश कोटिंगह ।। भासी लक्ष अधिक बली, सहस्र अठावन पंच पद । इम प्राचार्य नरेन्द्रकीरति कहर, धीश्रु त ज्ञान पठधरीय मुदं ।
संवत् १७२२ तक ये भट्टारक रहे और इसी वर्ष महापंडित-'आगाधर' कृत प्रतिष्ठा पाठ की एक हस्त लिखित प्रति इनके शिष्य आचार्य श्रीचन्द्रकीति, घासीराम, पं० भीवसी एवं मयाचन्द के पठनार्थ मेंद की गई।
कितने ही स्तोत्रों की हिन्दी मगध टीका करने बाले 'अखगराज' इन्हीं के शिष्य थे। संवत् १७१७ में संस्कृत मंजरी की प्रति इन्हें भेंट की गई थी । टोडारायसिंह
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के प्रसिद्ध पंडित कवि जगन्नाथ इन्हीं के शिष्य थे । पं० परमानन्दजी ने नरेन्द्रकीति के विषय में लिखते हुए कहा है कि इनके समय में टोडारायसिंह में संस्कृत पठनपाठन का अच्छा कार्य चलता था । लोग शास्त्रों के अभ्यास द्वारा अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे। यहां शास्त्रों का भी अच्छा संग्रह था । लोगों को जनधर्म से विशेष प्रेम था । अष्टसहस्री और प्रमाण-निर्णय प्रादि न्याय-ग्रन्थों का लेखन, प्रवचन, 'पञ्चास्तिकाय प्रादि सिद्धान्त अन्थों प्रादि का प्रति लेखन कार्य तथा अनेक नूतन अन्यों का निर्माण हुप्रा था। कवि जगन्नाथ ने श्वेताम्बर-पराजय में नरेन्द्रकीति का मंगलाचरण में निम्न प्रकार उल्लेख किया है:
पदांबुज-मघुम्नता भुषि नरेन्द्रकीतिगुराः ।
सुवादि पद भूधः प्रकरणं जगन्नाथ वाक् ।।२।।
'मरेन्द्रकीत्ति' ने कितनी ही प्रतिष्ठानों का नेतृत्व भी किया था। पावापुर (सं० १७००), गिरनार (१७०८), मालपुरा (१७१०), हस्तिनापुर (सं० १७१६) में होने वाली प्रतिष्ठाएं इन्हीं की देख-रेख में सम्पन्न हुई थीं।
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सुरेन्द्रकोत्ति
सुरेन्द्रकीत्ति भट्टारक नरेन्द्रकीत्ति के शिष्य थे। इनकी ग्रहस्थ अवस्था का नाम दामोदरदास था तथा ये कालागोत्रीय स्वण्डेलवाल जाति के श्रावक थे । ये बड़े मारी विद्वान् एवं संयमी श्रावक थे । प्रारम्भ से ही उदासीन रहने एवं शास्त्रों का पठन पाठन भी करते थे । एक बार भट्टारफ मरेन्द्र वोति का गांगानेर में ग्रागमन हआ तो उनका दामोदरदास ने साक्षात्कार क्षुधा । प्रथम भेट में ही ये दामोदरदास की विद्वत्ता एवं सार चातुर्य पर प्रभावित हो गये और उन्हें अपना प्रमुख शिष्य बनाने को उद्यत हो गये । जब इन्हें अपने स्वयं के शेप जीवन पर अविश्वास होने लगा तो शीघ्र ही भारवा गादी पर दामोदरदास को बिठाने की योजना बनाई गई । एक भट्टा रफ पट्टावलि में इस घटना का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
नीय गुर सोगान इरि मचि, आयो कारण प्रक्रास । मुझ काया तो एभ गति, देखि दामोदरदास ।।१५।। हूं भला कहीं तुम सभली, की दोरा मति कोई। जो दिख्या मनि दिनु करौं, तो अबसि पाटि अब हाइ ॥१२॥ तब पंडित सगझाविमो, तुम चिरजीव मुनिराज । इसी बात हिम उघरी, श्री गछपति सिरताज ॥१२७॥ घणा दीह प्रारोगि पण, काया तुम अवीचार ।
यारि मास पीछे ग्रहो, यो जिण धरम आचार ॥१२८॥ हया वचन पंडित कहै, प्रागम तणा प्ररय । तब गुर नरिद सुजाणियो, बहै पाट समरथ ।।१२।।
सांगानेर एवं आमेर के प्रमुख श्रावकों ने एक स्वर से दामोदरदास को भट्टारक बनाने की अनुमति दे दी। वे उसके चरिन एवं विनय न्या पांडित्य की निम्न दाब्दों में प्रशसा करने लगे
बड़ी जोग्य पंडित सृ अपर बल, सुन्दर सील काइ अतिनमल । यो जैनिधरम लाइक परमारग, ऐम कह्यां मंगपति कलियांग ॥१३॥
दामोदररास को सांगानेर से बड़े हाट बाट के साथ आमेर लाया गया और उन्हें सेंवतु १७२२ में विधि-वत् मट्टारक बना दिया गया। अब दामोदरररास से
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राजस्थान के जन सस : व्यक्तिव एवं कृतित्व
उनका नाम भट्टारक सुरेन्द्रवोत्ति हो गया । इनका पाटोत्सव बड़ी धूम धाम से हुआ । स्वर्ण कलश से स्नान कराया गया तथा सारे राजस्थान में प्रतिष्टित थावकों ने इस महोत्सव में भाग लिया। सुरेन्द्रकीति की प्रशंसा में लिखा हुआ एका पद्य देखिये
रात्रामे साल भरणं वाइसे संजम सावरण मधि ग्रह्यो सुभ पाठ मंगलवार सही जोतिग मिले परिव किसन कायो। मारयो मद मोह मिथ्यातम हर मउ रुप महा वैराग धरयो । धर्मवंत घरारत नागर सागर गोतम सौ गुण ग्यान भरयो । तप तेज सुकाइ अनंत करे सबक तणो तिन मारण हरणे,
थोर थंभण पाट नरिद तरणी सुरीयंद भट्टारिक साध भरणं ॥१६६॥
सुरेन्द्रकीसि की योग्यता एवं संयम को चारों ओर प्रशंसा होने लगी और शीघ्र ही इन्होंने सारे राजस्थान पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। ये केवल ११ वर्ष भट्टारका रहे लेकिन इस अल्प समय में ही इन्होंने सब और बिहार करके समाज सुधार एवं साहित्य प्रचार का बड़ा भारी कार्य किया । इन्हें कितने ही स्थानों से निमन्त्रणा मिलले । अब ये अहार के लिये जाते तो श्रावक इन पर सोने चांदी का सिक्के न्योछावर करते और इनके आगमन से अपने घर को पवित्र समझते । वास्तव में समाज में इन्हें अत्यधिक आदर एवं सत्कार मिला।
सुरेन्द्रवीति साहित्यिक भी थे । इनके काल में भामेर शास्त्र भण्डार की अच्छी प्रगति रही । कितनी ही नवीन प्रतियां लिखवायी गयी और कितने ही प्रयों का जीर्णोद्धार किया गया।
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भट्टारक जगत्कीत्ति
जगत्कीत्ति अपने समय के प्रसिद्ध एवं लोक प्रिय भट्टारक रहे हैं। ये संवत् १७३३ में सुरेन्द्रफीति के पदचात् भट्टारक बने । इनका पट्टाभिषेक आमेर में हुआ था जहां आमेर और सांगानेर एवं अन्य नगरों के सेकड़ों हजारों श्रावकों ने इन्हें अपना गुरु स्वीकार किया था। तत्कालीन पंडित रत्नकति महोबन्द, एवं यशः कति ने इनका समर्थन किया 1 ये शास्त्रों के ज्ञाता एवं सिद्धान्त ग्रंथों के गम्भीर विद्वान थे। मंन्त्र शास्त्र में भी इनका अच्छा प्रवेश था। एक मट्टारक पट्टावली में इनके पट्टाभि षेक का निम्न प्रकार वर्णन किया है
मी मूलसंघ पति माणि धारी, आतमक जीवद्द राग वरं । आराध मन्त्र विद्या, बरवाद्दक, अमृत मूखि उचार कर ।
सत सील धर्म सारी परिस कय, वसुधा जस लिए विसतरीय । श्री जगकोट मारिज गुरु श्री सुरेष पाट राजद १४
आंवैरि नइरि ग्रुप राम राज मनि, विमलदास विधि सहित कोयं । परिमल भरि पंच कलस प्रति कुंदन पंचमिलि कल्याण कोयं ।
प्रांजलि काइसर दास भेलि करि, श्रति श्रानंद उच्छव करीय | श्री जगतकीरति भट्टारक जग र श्रीय सुरिईद पाटि घरि ||१५| सांखोण्यास सिरोर्माण सब विधि, दुनीया प्रम उपदेस दीय | उपगार उदार वडो व्रद छाजत, लोभ्या मुखि मुखि सुजस लीय ।
देवल पतिस्ट संग उपदेर्स अमृत वारिण सउचरीय
श्री जगतकीरति भट्टारक जगगुर, श्रीय सुरिहंद पाटिल भरिय ||१६||
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संवत सत्रात अर तेती सावरण बंदि पंचमी भरिए ।
पदवी भट्टारक अचल विराजित, घरण दान भ्रमण राजलं ।
महिमा महा सर्वे करें मिलि श्रावक, सीख साखा श्रानंद घरीय | श्री जगतकीरति भट्टारिक जगतपुर, श्रीसरिइदं पाटस घरीय ॥१७॥२
जगतकीति एक लम्बे समय तक भट्टारक रहे और इन्होने अपने इस काल को राजस्थान में स्थान स्थान में बिहार करके जन साधारण के जीवन को सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं धार्मिक दृष्टि से ऊंचा उठाया। संवत् १७४१ में आपने
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
party ( जयपुर ) ग्राम में बिहार लिया। उस अवसर पर यहां के एक श्रावक हरनाम ने सोलह कारण व्रतोद्यापन के समय मट्टारक सोममेन कृत रामपुराण ग्रंथ की प्रति इनके शिष्धं शुभचंद्र को भेंट दी थी, इसी तरह एक अन्य अवसर पर संवत् १७४५ में श्रावकों ने मिल कर इनके शिष्य नाथूराम की सकलभूषण के उपदेश रत्न माला को प्रति भेंट की थी ।
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इनका एक शिष्य नेमिचन्द्र अच्छा विद्वान् या उसने संवत् १७६९ में हरिवंशपुराण की रचना समाप्त की थी। इसकी ग्रंथ प्रशस्ति में भट्टारक जगत कीर्ति की प्रशंसा में काव ने निम्न छन्द लिखा है
भट्टारक सत्र उपर जगतकोरती जगत जोति भारत । कोरति बहु दिसि बिस्तरी, पांच प्राचार पा सुभ सारतो t प्रमत्त में जीत नहीं, चहु दिसि में ताकी प्राणती । खिमा खडग स्याँ जीतिया चोराणने पटनायक मारतो ॥२०॥
पूर्व भट्टारकों के समान इन्होंने भी कितनी ही प्रतिष्ठानों में भाग लिया। संवर् २०१ में नरवर में हो। इसी
गढ़ (टोडारायसिंह)
में भी प्रतिष्ठा महोत्सब सम्पन्न हुमा । संवत् १९४६ में चांदखेडी में जो विशाल प्रतिष्ठा हुई उसका सचालन इन्हीं के द्वारा सम्पन्न हुआ था। इस प्रतिष्ठा समारोह में हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई थी और आज वे राजस्थान के विभिन्न मन्दिरों में उपलब्ध होती हैं । इस प्रकार संवत् १७७० तक भट्टारक जगतकीति ने जो साहित्य एवं संस्कृति की जो साधना को वह चिरस्मरणीय रहेगी ।
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अवशिष्ट संत
राजस्थान में हमारे पालोच्य समय (संवत् १४५० से १७५० तक) में संकड़ों ही जैन संत हुए जिन्होंने अपने महान व्यक्तित्वहारा देश समाज सहाय की बड़ी भारी सेवायें की थी । मुस्लिम शासन काल में भारत के प्रत्येक भू भाग पर युद्ध एवं अशान्ति के बादल सदैव छाये रहते थे। शासन द्वारा यहां के साहित्य एवं संस्कृति के विकास में कोई रुचि नहीं ली जाती थी ऐसे संक्रमण काल में इन सन्तों ने देश के जीवन को सदा ऊंचा उठाये रस्ना एवं यहां की संस्कृति एवं साहित्य को विनाश होने से बचाया ऐसे २० सन्तों का हम पहिले विस्तृत परिचय दे चुके हैं लेकिन अभी तो संकड़ों एसे महान् सन्त है जिनकी सेवाओं का स्मरण करना वास्तव में भारतीय संस्कृति को श्रद्धाञ्जलि अपित करना है। ऐसे ही वह सन्तों का सक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है
१. मुनि महनन्दि मुनि महनदि म. वीरचन्द के शिष्य थे इनकी एक कृति बारबखष्टी दोहा मिली है । इनका प्रपर नाम पाहुडदोहा भी है। इसकी एक प्रति पामेर शास्त्र भण्डार जयपुर में लंबत् १६०२ की संग्रहीत है जो चंपावती (पाटसू) के पार्षनाथ चैत्यालय में लिखी गई थी । प्रति शुद्ध एव सुपाठ्य है । लिपि के अनुसार रचना १५ वीं शताब्दी की मालूम होती है। कवि को यद्यपि अभी तक एक ही कृति मिली है लेकिन वही उच्च वृति है। भाषा अपना प्रमावित है तथा काव्यगत गुणों से पूर्णतः युक्त है।
कषि ने रचना में के प्रादि अन्त भाग में अपना निम्न प्रकार नामोल्लेख किया है
बारह विउणा जिरण णवमि फिम बारह प्रक्खरकक्क । मह्यदिण भवियामण हो, णिसुणहु थिरमण थक्क ॥२॥ भवदृश्यह निश्बिणएण, वीरपत्य सिस्सेण । भवियह परिबोहण कया, दोहा कन्व मिसेण ॥३॥
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बारहखड़ी में यष, श, छ, का औरण इन कणों पर कोई दोहा नहीं है । इसमें ३३३ दोहा है जिनकी विभिन्न रूप से कवि ने निम्न प्रकार संख्या दी है।
एक्कु या ६ष शारदुइ डण तित्रिवि मिस्लि। चउबीस गल तिपिणसय, दिरइए दोहा वैहिल ॥४॥ तेतीसह छह छंडिया, विरश्य सत्तावीस । वारह गुणिया तिण्णिसय, हुअ दोहा चउवीस ।।५।। सो दोहा अप्पाणयह, दोहो जोण मुणेह । मुरिण महयविण भासियज, सुणिविर चित्ति घरेइ ॥६॥
प्रारम्भ में कवि ने अहिंसा की महत्ता बतलाते हुये लिखा है कि अहिंसा ही धर्म का सार है
किजइ जिरणवर भासियऊ, धम्मु अहिंसा सारु । जिम छिजइ रे जीव तुहु, यवलीन संसार |६||
रचना बहुत सुन्दर है। इसे हम उपदेशात्मक, अध्यात्मिक एवं नीति रसात्मक कह सकते हैं । कवि ने छोटे छोटे दोहों में सुन्दर नावों को भरा है। वह कहता है कि जिस प्रकार दूध में घी तिल से तेल तथा लकड़ी में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में आत्मा निवास करती है--
खीरह मज्दह जेम घिउ, तिलह मंजिल जिम तिलु । कट्टिह वरसगु जिम बसइ, तिम देहहि देहिल्लु ।।२२।। कृति में से कुछ चुने हुये दोहों को पाठकों के अवलोकनार्थ दिये जा रहे हैदमु दय संजमु णियमु तउ, आज मुषि किड जेरण । तासु मर तह कवरण भऊ, कहियउ महइ देण ॥१७५।। दारण चउबिहु जिणवरह, कहियउ सावय दिज्ज । दय जीवह उसंघदि, भोपणु ऊसह विज्ज ॥१७६।। पीडहि काउ परीसहहिं, जब रण वियंभइ चिन्न । मरणयालि प्रसि भाउसा, दिल चित्तडइ धरंतु ॥२१४।। फिर फिरहिं चक्कु जिम, गुरण उपलद म लोहु । गरय तिरिवलहि जीवडज, अमु चंतउ तिय मोहु ॥२२५।।
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मुनि मन्दि
बाल मरण मुणि परिहरहि, पंडिय मररपु मरेहि । वारह जिरण सासरण कहिय, अणु बेक्खउ सुमरेहि ॥२२६।।
रूव गंध रस' फसडा, स६ किम गुण हीरा । अछइसी देहडि यस उ, घिउ जिम खीरह लीण ॥२७६।।
मसिम पा
जो पढइ पहावद संभलाइ, देविण दबि लिहाबह। महयंदु भण्इ सो नित्त लउ, अक्खइ सोक्षु परायइ ॥३३३।। इति दोहा पाहुड समाप्त ॥शुभं भवतु।।
२. भुवनकीर्ति
भुवन कौसि भ. सकलकत्ति के शिष्य थे ।' मकलवी त्ति की मृत्यु के पश्चात् ये भट्टारक बने लेकिन गे भट्टारक किस संवत् में बने इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। भट्टारक सम्प्रदाय में इन्हें संवत् १५०८ में भट्टारक होना लिखा है। लेकिन अन्य भट्टारक पट्टावलियों में सकलकोसि के पश्चात् धर्मकोत्ति एवं विमलेन्द्रकोत्ति के भट्टारक होने का उल्लेख भाता हैं। इन्हीं पट्टायलियों के अनुसार धर्मकीत्ति २४ वर्ष तथा विमलेन्द्रकीत्ति १८ वर्ष भट्टारक रहे। इस तरह सकलकीति के ३३ वर्ष के पश्चात् भुवनकीत्ति को अर्थात् संवत् १५३२ में मट्टारक होना पाहिए, लेकिन भुवनकोत्ति के पश्चात् होने वाले सभी विद्वानों एवं भट्टारकों ने उक्त दोनों भट्टारकों का कहीं भी उल्लेख नहीं किया इसलिये यही मान लिया जाना
१. आदि शिष्य आचारि जूहि गुरि दौखियाभूतलिभुवनकीति
सकमकीत्ति रास २. देखिये भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ संख्या १५८ ३. त्यारपुळे सकलकीत्ति ने पार्ट की धर्मकीति आचार्य तुमा ते सागवाडा हप्ता तेणे
श्री सागवाडो खने देहरे आदिनाथ नी प्रासाद करावीनं । पाछे नोगामो ने संधे पर स्थापना करि है। पाछ सागवाडे गाई में पिता ने पुत्रकने प्रतिष्ठा करावी पौतोपुर मंत्र वोधो ते धर्मकीत्ति ये वर्ष २४ पाट भोग्यो पर्छ परोक्ष थया । पुठे पोताने वी करें।
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१७६
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
चाहिए कि इन मट्टारकों को भट्टारक सफल कोति की परम्परा के भट्टारक स्वीकार नहीं किया गया और भुवनकीत्ति को ही सकलकोत्ति का प्रथम शिष्य एवं प्रथम भट्टारक घोषित कर दिया गया। इन्हें भट्टारक पद पर संवत् १४६६ के पश्चात् किया भी समय कर दिया होगा। "i
भुवनकोति को प्रांतरी ग्राम में भट्टारक पद पर सुशोभित किया गया | इस कार्य में संघवी सोमदास का प्रमुख हाथ था ।
"वा गांम अत्रोये संश्रवी सोमजी ने समस्त संघ मिली नं भट्टारक भुवनकीति थाप्या"
मट्टारक पट्टावलि हूँगरपुर शास्त्र भंडार |
X
"छे रामस्त श्री संघ मली ने भांतरी नगर मध्ये संघवी सोमदास भट्टारक पदवी वनकति स्वामी बाप्या ।
भट्टारक पट्टावलि ऋषभदेव शास्त्र मंडार |
A111170010463711181119IYEERANA 111
जूना देहरान सम्मुखनि सही करायो । पई धर्मकीत्ति ने पार्ट नोगांमाने संघ श्री विमलेन्द्र कीत्ति स्थापना करी ते वर्ष १२ पाट भोगच्यो ।
भट्टारक पट्टावली- डूंगरपुर शास्त्र भंडार
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स्वामी सकलकोलि ने पाटे धम्मंकोति स्वामी नौतनपुर संधे थाप्या । सागवाडा माहाता अंगारी आ कहावे हेता प्रथम प्रथम प्रसाद करायो श्री आधनाचनी । पीछे बोक्षा लीधो इती ते वर्ष २४ पाट भोगथ्यो पोताने हाथी प्रतिष्टाचार करि प्रासादानो पछे अंत समे समाधीमरण करता देहरा सामीनस करावी दी करे करानो सागवाडे । पछे स्वामी धर्मकीर्ति ने पाटे नौतनपुर ने संघ समस्त मिली ने वीमलेन्द्र कीर्ति आचार्य पद थाप्पा ते गोलालारनी ज्यात हती। ते स्वामी वीमलेन्द्रकीत्ति दक्षण पोहत कुंदनपुर प्रतिष्ठा करावा साद ते श्रीमलेन्द्रकोसि स्वामोरक्षण जे परो के परोक्ष थपा । स्वामी प्रष्टा प्रसावा वी ४ तथा ५ नागड मध्ये करि वर्ष १२ पाट भोगथ्यो। एतला लगेण आचारय
बाट चास्या ।
+
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भ० पट्टावली भ० यशःकीति शास्त्र भंडार ( ऋषभदेव )
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अवशिष्ट संत
व्यक्तित्व
संस्कृत तथ
E
संत भुवनकी विविध शास्त्रों के ज्ञाता एवं प्राकृत राजस्थानी के प्रबल विद्वान थे । शास्त्रार्थ करने में वे अति चतुर ये वे सम्पूर्ण कलाओं में पारंगत तथा पूर्ण अहिंसक थे । जिधर भी आपका विहार होता था, वहां आपका अपूर्व स्वागत होता । ब्रह्मजिनदास के शब्दों में इनकी कीर्ति विश्व विस्मात हो गयी थी। वे अनेक साधुओं के अधिपति एवं मुक्ति-मार्ग उपदेष्टा थे । विद्वानों से पूजनीय एवं पूर्ण संयमी ये । वे अनेक काव्यों के रचयिता एवं उत्कृष्ट गुणों के मंदिर थे । '
ब्रह्मजिनदास ने अपने रामचरित्र काव्य में इन्हीं मट्टारक भुवनकीति का गुणानुवाद करते हुये लिखा है कि वे अगाध ज्ञान के बेत्ता तथा कामदेव को चूर्ण करने वाले थे । संसार पाश को त्यागने वाले एवं स्वच्छ गुणों के धारक थे । अनेक साधुओं के पूजनीय होने से वे यतिराज कहलाते थे । २
१. जयति भुवनकीत्ति विश्वविख्यातकीति
बहु सिजनयुक्त मुक्तिमात्र समशर विजेता, भव्यसन्मार्गता ॥३॥
२.
भुवनकोत के बाद होने वाले सभी भट्टारकों ने इनका विविध रूप से
NAM
विदुधजन निषेव्यः सत्कृतानेककाव्म । परमगुणनिवासः सकुताली विलासः
विजितकरणमारः प्राप्तसंसारपारः सभवतु गतघोषः शर्मणे वा सतोषः ॥४॥
जम्बूस्वामी चरित्र (व० निवास)
पट्टे तबीये गुणावान् मनीषी क्षमानिधाने भुवनादिकीतिः । जोयाच्चिरं भष्यसमूहको नानाय तिव्रातनिषेवणीयः ॥ १८५ ॥
जगति भुवनकीर्तिभूर्त लख्यातकी तिः, तजलनिधिवेत्ता अनंगमानप्रभेता
I
१७७
विमल गुण निवास छिन्संसारपाशः
सम्रयति यतिराजः साधुराः ।। १८६ ॥
रामचरित्र ( ० जिनवास )
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गुणानुवाद गया है। इनके व्यक्तित्व एवं पांडित्य से सभी प्रभावित थे । भट्टारक शुभचन्द्र ने इनका..निम्न शब्दों में स्मरण किया है.। . ।
तत्पधारी भुवनादिकीतिः, जीयाच्चिरं धर्मधुरीणदक्षः ।
चन्द्रप्रभचरित्र शास्त्रार्थकारी खलु तस्य पट्टे भट्टारकभुवनाविकीतिः ।
पार्श्वकाव्यपंजिका
भट्टारक सकल भूपरा ने अपनी उपधेशरत्न माला में अापका निम्न पशब्दों में उल्लेख किया है।
भुवनकीतिगुरुस्तत जितो भुवनभासन शासनमानः । अजनि तीव्रतपश्चरणक्षमो, विविधधर्मसमृद्धिसुदेशकः ।।३।।
भट्टारक रत्मचंद्र ने भुवनफीति को सकलकीति की प्राम्नाय का सूर्य मानते हुये उन्हें महा तपस्वी एवं वनवासी शब्द से सम्बोधित किया है:
गुरुभुयन कीत्यत्यिस्तत्पट्टोदय भानुमान् ।
जातवान् जनितानन्दो वनवासी महातपः ॥४॥
इसी तरह भ ज्ञानकीत्ति ने अपने यशोधर चरित्र में इनका कठोर तपस्या के कारण उत्कृष्ट कीति वाले साधु के रूप में स्तवन किया है
पट्ट तदीये भुवनादिकोत्तिः
तपो त्रियागाप्तसुकीतिमूर्तिम्
भवनाहीत्ति पहिले मुनि रहे और भट्टारया सकलकीति की मृत्यु के पश्चात् किसी समय भट्टारक बने । भट्टारक बनने के पश्चात् इनके पांडित्य एवं तपस्या की चर्चा चारों ओर हल गयी। इन्होंने अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य जनता को सांस्कृतिक एवं साहित्यिक दृष्टि से जाग्रत करने का बनाया और इसमें उन्हें पर्याप्त सफलता मिली । इन्होंने अपने शिष्यों को उत्कृष्ट विद्वान एवं साहित्य-सेवी के रूप में तैयार किया।
म० भुवनकीर्ति की अब तक जितनी रचनायें उपसम्घ हुई हैं उनमें जीवन्धररास, जम्बूस्वामीरारा, प्रजनाचरित्र आपकी उत्तम रचनामे हैं। साहित्य रचना के अतिरिता इन्होंने कितने ही स्थानों पर प्रतिष्ठा विधान सम्पन्न कराये तथा प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया।
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अवशिष्ट संत.
१७६
१. संवत १५११ में इनके सपदेश से हबष्ट जातीय श्रावक करमण एवं उसके परिवार ने चौबीसी की प्रतिमा ( मुल नायक प्रतिमा शांतिनाथ स्वामी ) स्थापित की थी।
२. मवत् १५१३ में इनकी देखरेख में चतुर्विंशति प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई गयी।
३. संवत् १५१५ में गंधारपुर में प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई नया फिर इन्हीं के प्रदेश से जूनागढ़ में पूर्फ शिवर बाले मदिर का निर्माण करवाया गया और उसमें धातु पीतल) की प्रादिनाथ की प्रतिमा की स्थापना की गई। इस उत्सद में सौराष्ट्र के छोटे बडे राजा महाराजा भी सम्मिलित होथे। भ० भवनकीति इसमें गुरुम तिथि थे।
४. संवत् १५२५ में नागबहा जातीय धावक पूजा एवं उसके परिवार वालों ने इन्हीं के उपदेश से आदिनाथ स्वामी की धातु की प्रतिमा स्थापित की।
१. संवत् १५११ वर्षे वंशाख बुदी ५ तियो श्री मूलतंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्री कुदकुदाचार्यान्वये भ० सफलफोति तत्प? भट्टारक श्री भुवनकोति उपदेशात हू बड जातीय श्री करमण भार्या सूम्ही सुत हरपाल भार्या खाडी मुक्त
आसाधर एते श्री शांतिनाय नित्यं प्रणमति । २. संवत् १५१३ वर्षे वंशाख बुदि ४ गुरौ श्री मूलसंघे भ० सकलफोति तत्प?
भुवनकोत्ति-देवड भार्या लाडी मुत जगपाल भार्या सुत जाइया जिणवास एते
श्री चतुर्विभातिका नित्यं प्रणमति । शुभं भवतु । ३. प्रसस्य पनर पनरोत्तरिई गुरु श्री गंधार पुरीः प्रतिष्ठा संघवह रागरिए।।१९॥
शूनीगढ गुरु उपदेसइ सिखरबंध अतिसव । सखि ठाकर भदराज्यसंघ राजिप्रासाद मांडीउए ॥२०॥ मंडलिक राइ बहू मानी देश व देशी अ क्यापीसु । पतीलमा आदिनाय थिर थापोया ए ॥२१॥
सफलकोत्तिनुरास ४. संवत् १५२५ वर्षे ज्येष्ठ सदी ८ शुक्र श्रीमूलसंधे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये श्री सकलकोत्तिदेवा तत् पट्टे भत भुधनकौति गुरूपदेशात् नागवहा जातीयवेष्ठि पूजा भार्या वाचू सुत सोहा भार्या वारु सुत काला, तोल्हा सुक्त बेला-एते श्री आदिनाथ नित्यं प्रणमंसि ।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
५. संवत् १५२७ वैशाख बुदि ११ को आपने एक और प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रवसर पर बड जातीय जयसिंह आदि श्रावकों ने धातु की रलत्रय चौबीसी की प्रतिष्ठा करवाई।
३. भट्टारक जिनचन्द्र
मट्टारक जिन चन्द्र १६ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भट्टारक एवं जैन सन्त थे । भारत की राजधानी देहली में भट्टारकों की प्रतिष्ठा बढाने में इनका प्रमुख हाथ रहा था । यद्यपि देहली में ही इनकी भट्टारक गादी थी लेकिन वहां से ही ये सारे राजस्थान का भ्रमण करते और साहित्य एवं संस्कृति का प्रचार करते । इनके गुरू का नाम शुभचन्द्र था और उन्हीं को स्वर्गवास के पश्चात् संवत् १५०७ की जेष्ठ कृष्णा ५ को इनका बडी धूम-धाम से पट्टाभिषेक हुआ। एक भट्टारक पट्टावली के अनुसार इन्होंने १२ वर्ष की आयु में ही घर बार छोड़ दिया और भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य वन गमे । १५ वर्ष तक इन्होंने शास्त्रों का खूब अध्ययन किया । भाषण देने एवं वाद विवाद करने की कला सीखी तथा २७ में वर्ष में इन्हें भट्टारक पद पर अभिषिक्त कर दिया गया। जिनचन्द्र ६४ वर्ष तक इस महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे । इतने लम्बे समय तक मट्टारक पद पर रहना बहुत कम सन्तों को मिल सका है। ये जाति से बघेरवास जाति को श्रावक थे ।
जिनचन्द्र राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाज एवं देहली प्रदेश में खूब बिहार करते : जनता को वास्तविक धर्म का उपदेश देते । प्राचीन ग्रन्थों को नमी नयी प्रतिया लिखवा कर मन्दिरों में विराजमान करवाते, नये २ ग्रथों का स्वयं 'निर्माण करते तथा दूसरों को इस ओर प्रोत्साहित करते । पुराने मन्दिरों का डीगोंद्वार करवाते तथा स्थान स्थान पर नयी २ प्रतिष्ठायें करवा कर जैन धर्म एवं मस्कृति का प्रचार करते । आज राजस्थान के प्रत्येक दि जैन मन्दिर में इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक दो मुत्तियां अवश्य ही मिलेंगी। संवत् १६४८ में जीवराज पापड़ीवाल ने जो बड़ी भारी प्रतिष्ठा करवायी थो वह सब इनके द्वारा ही सम्पन्न हुई थी। उस प्रतिष्ठा में सैकड़ों ही नहीं हजारों मूर्तियां प्रतिष्ठापित्त करवा कर राजस्थान के अधिकांश मन्दिरों में विराजमान की गयी थी।
५. संवत् १५२७ वर्षे वैशाख वदी ११ वषे श्री मूलसंघे भट्टारक श्री भुवनकीत्ति
उपदेशात् हूंबड श्र० असिंग भार्या भूरी सुत धर्मा भार्या होरु माता वीरा भार्या मरगदी सुत माज्या भूघर खोमा एते श्री रत्नत्रयविंशतिका नित्यं प्रणमति ।
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अवशिष्ट संत
१८१
आवां (टोंक, राजस्थान) में एक मील पश्चिम की ओर एक छोटी सी पहाड़ी पर नासियां हैं जिसमें भट्टारक शुभचन्द्र, जिपचन्द्र एवं प्रमाचन्द्र की निषेधिकार्य स्थापित की हुई हैं ये तीनों निषेषिकाएं संवत् १५९३ व्येष्ठ सुदी ३ सोमवार के दिन भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य मंडलाचार्य धर्मचन्द्र ने साह कालू एवं इसके चार पुष एवं पौत्रों के द्वारा स्थापित करायी थी । भट्टारक जिनचन्द्र की निषेधिका की ऊंचाई एवं चोड़ाई १४३ इंच है।
इसी समय आयां में एक बड़ी भारी प्रतिष्ठा भी हुई थी जिसका ऐतिहासिक लेख वहीं के एक शांतिनाथ के मन्दिर में लगा हुमा है । लेख संस्कृत में है और उस में भ० जिनचन्द का निम्न शब्दों में यशोगान किया गया है
तत्पदृस्थपरो श्रीमान् जिनचन्द्रः सुतत्ववित् ।
अभूतो ऽस्मिन् , विख्यातो ध्यानार्थी पग्धकर्मक ।। साहित्य सेवा
जिनचन्द्र का प्राचीन ग्रंथों का नवीनीकरण की ओर विशेष ध्यान था इसलिये इनके द्वारा लिखवायी गयी कितनी ही हस्तलिखित प्रतियां राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। संबत् १५१२ की अषाढ कृष्ण १२ को नेमिनाथ चरित की एक प्रति लिखी गयी थी जिसे इन्हें घोषा बन्दगाह में नयनन्दि मुनि ने समर्पित की थी ।' सबत् १५१५ में नए वा नगर में इनवे. शिष्य अनन्तको त्ति द्वारा नरसे नदेव की सिद्धचक्र कथा ( अपभ्रंश ) को प्रतिलिपि धावक नारायण के पठनार्थ करवायी । इसी तरह संवत्' १५२१ में ग्वालियर में पसमचरिट की प्रतिलिपि करवा कर नेत्रनन्दि मुनि को अर्पण की गयो । ३ संवत् १५५८ को श्रावण शुल्क १२ को इनकी माम्नाय में ग्वालियर में महाराजा मानसिंह के शासन काल में नागमार चरित की प्रति लिखवायी गयी।
मूलाचार की एक लेखक प्रशस्ति में भट्टारक जिमचन्द्र की निम्न शब्दों में प्रशंसा की गयी है
तदीपपट्टाबरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली । भट्टारकी जिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकानां भुवि योस्ति सीमा ।।
इसकी प्रति को संवत् १५१६ में मुभुनु ( राजस्थान) में साह पार्श्व के पुत्रों aimamaAIMILAIMARIKAmraeminatammanamamimarw १. वेलिये भट्टारक पट्टायली पृष्ठ संख्या १०८ २. वहीं
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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ने तपंचमी उद्यापन पर लिखवायो यो । सं. १५१७ में भुगु में ही तिलोयपत्ति की प्रति वायी गयी थी। पं० मैद्याची इनका एक प्रमुख शिष्य था जो 'साहित्य रचना में विशेष रुचि रखता था । इन्होंने नागीर में धर्मसंप्रावकाचार की संवत् १५४१ में रखना समाप्त की थी इसकी प्रवास्ति में विद्वान् लेखक ने जिनचंद्र की निम्नं शब्दों में स्तुति की है—
1
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तस्मान्नीरदिदुरभवछ्रीमज्जनंद्रगणी ।
स्याद्वादांबर मंडलैः कृतगति दिगवाससां मंडनः ॥
यो व्याख्यानमरीचिभिः कुवलये प्रल्हादनं चक्रवान् । सद्वृत्तः सकलकलंक विकलः पटुतर्कनिष्णातधी ॥१२॥३
स्वयं भट्टारक जिमचन्द्र की अभी तक कोई महत्त्वपूर्ण रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन देहली, हिसार, आगरा आदि के शास्त्र भण्डारों की खोज के पश्चात् संभवतः कोई इनकी बड़ी रचना भी उपलब्ध हो सके। अब तक इनकी जो दो रचनायें उपलब्ध हुई हैं उनके नाम है सिद्धान्तसार और जिनचविंशतिस्तोत्र । सिद्धान्तसार एक प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है ओर उसमें जिननन्द्र के नाम से निम्न प्रकार उल्लेख हुआ है
पवयरणपमाणलकखरण छंदालंकार रहियहियए । जिस देण पचत्तं' इसमागमभत्तिजुते
||७८ ।।
( माणिकचन्द्र ग्रंथमाला बम्बई )
जिनचतुविंशाति स्तोत्र की एक प्रति जयपुर के विजयराम पांड्या के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत है। रचना संस्कृत में है और उसमें चौबीस सीर्थकरों की स्तुति की गयी है ।
साहित्य प्रचार के अतिरिक्त इन्होंने प्राचीन मन्दिरों का खूब जीहार करवाया एवं नवीन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें करवा कर उन्हें मन्दिरों में विराजमान किया गया। जिनचन्द्र के समय में भारत पर मुसलमानों का राज्य था इसलिये वे प्रायः मन्दिरों एवं मूर्तियों को लोड़ते रहते थे । विन्तु भट्टारक जिनचन्द्र प्रतिवर्ष नयी नयी प्रतिष्ठायें करवाते और नये नये मन्दिरों का निर्माण कराने के लिये rasi को प्रोत्साहित करते रहते । संवत् १५०९ में संभवतः उन्होंने महारक बनने के पश्चात् प्रथम बार धोपे ग्राम में शान्तिनाथ की मूर्ति स्थापित को थी । सं. १५१७ मंगसिर शुल्क १० को उन्होंने चाँबोसी की प्रतिमा स्थापित की। इसी तरह १५.२३ में भी चोबीसी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करके स्थापना की गयी । संवत् १५४२,
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शझिंप्र संत
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१५४३, १५४८ आदि वर्षों में प्रतिष्ठापित की हुई किसनी ही मूत्तियां उपलब्ध होती है। संवत् १५४८ में जो इनकी द्वारा शहर मुडासा ( राजस्थान ) में प्रतिष्ठा की गयी थी । उस में मैकड़ों ही नहीं किन्तु हजारों की संख्या में मूत्तियां प्रतिष्ठा पित की गयी थी। यह प्रतिष्ठा जीवराज पापडीवाल द्वारा करवायी गयी थी। भट्टारक जिन चन्द्र प्रतिष्ठाचार्य थे।
म० जिनचन्द्र के शिष्यों में रत्नकीति, सिंहकीति, प्रमाचन्द्र, जगतकीति, चास्कीति, जयकीनि, भीमसेन, मेघावी के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । रत्नकीत्ति ने संवत् १५७२ में नागौर (राजस्थान) में भट्टारक गादी स्थापित की तथा सिहकीति ने प्रदर में स्वतंत्र भद्वारक मादी की स्थापना की।
इस प्रकार मट्टारक जिन चम्न ने अपने समय में साहित्य एवं पुरातत्व की ओ रोवा की थी वह सदा ही स्वणक्षिरों में लिपिबद्ध रहेगी।
४. भट्टारक प्रमाचन्द्र
प्रमाचन्द्र के नाम से चार प्रसिद्ध भट्टारक हो । प्रथम भट्टारक प्रभाचन्द्र भालचन्द के शिष्य थे जो सेनगण के भट्टारक थे तथा जो १२ वीं शताब्दी में हम थे। दूसरे प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोत्ति के शिष्य थे जो गुजरात की बलात्कारगरणउत्तर शाखा के भट्टारक बने थे । ये चमत्कारिक मट्टारक थे और एक बार इन्होंने प्रमावस्या को पुणिमा कर दिखायी थी । देहली में राघो चतन में जो विवाद हुआ पा उसमें इन्होंने विजय प्राप्त की मौ। प्रपनी मन्त्र शक्ति के कारण ये पालकी सहित ग्राकान में उड़ गये थे । इनकी मन्त्र शक्ति के प्रभाव से बादशाह फिरोजशाह की मलिका इतनी अधिक प्रभावित हुई कि उन्हें उसको राजमहल में जाकर दर्शन दंने पड़े। तीसरे प्रमाचन्द्र भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य थे और पौधे प्रभाचन्द्र भ. ज्ञानभूषण के शिष्य थे। यहां भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के जीवन पर प्रकाश डाला जावेगा।
एक महारथः पावली के अनुसार प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जाति के श्रावक थे और बंद इनका गोल था । । १५ वर्ष तक ग्रहस्थ रहे। एक बार भ. जिनचन्द्र विहार कर रहे थे कि उनकी दृष्टि प्रभा चन्द्र पर पड़ी। इनकी पूर्व सूझ-बूझ एवं गम्भीर ज्ञान को देख कर जिनचन्द ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया । यह कोई संवत् १५५१ की घटना होगी । २० वर्ष तक इन्हें अपने पास रख कर खूब विद्याध्यन . कराया और अपने से भी अधिक शास्त्रों का ज्ञाता तथा बादबिबाद में पटु बना दिया । संवत् १५७१ को फाल्गुण कृष्णा २ को इनका दिल्ली में धूमधाम से पट्टाभिषेक हुप्रा । उस समय थे पूर्ण युवा थे । और अपनी अलौकिक वाक शक्ति
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एव कृतित्व
एवं साधु स्वभाव से बरबस हृदय को स्वतः ही आकृष्ट कर लेते थे। एक भट्टारक पट्टायलि के अनुसार ये २५ वर्ष तक भट्टारक रहे। श्री वी० पी० जोहरापुरकर ने इन्हें केवल १ वर्ष तक मट्टारक पद पर रह्ना लिखा है।' भट्टारक बनने के पश्चात् इन्होंने अपनी गद्दी को दिल्ली से वित्तौड़ (राजस्थान) में स्थानान्तरित कर लिया और इस प्रकार से भट्टारक सकलकीत्ति की शिष्य परम्परा के भट्टारकों के सामने कार्यक्षेत्र में जा उद। इन्होंने अपने समय में ही मंडलाचार्यों की नियुक्ति की इनमें धर्मचन्द को प्रथम मंडलाचार्य बनने का सौभाग्य मिला 1. संवत् १५९३ में मंडलाचार्य : धर्मवन्द द्वारा प्रतिष्ठित कितनी ही मुत्तियां मिलती है । इन्होंने ने आंवा नगर में अपने तीन गुरुपों की निषेधिकायें स्थापित की जिससे यह भी ज्ञात होता है कि प्रमाचन्द्र का इसके पूर्व हो स्वर्गवास हो गया था।
प्रभाबन्द्र अपने समय के प्रसिद्ध एवं समर्थ भट्टारक थे। एन. लेन प्रशस्ति में इनके नाम के पूर्व पूर्वाचलदिनमणि, षड्तर्कताकिकचूडामणि, आदिमवकुद्दल, अवुष-प्रतिबोधक प्रादि विशेषण लाईसमे इनको दर.।
एनातिना परिज्ञान होता है।
साहित्य सेवा
प्रभाषन्द्र ने सारे राजस्थान में बिहार किया । शास्त्र-मण्डारों का अवलोकन किया और उनमें ममी-नयी प्रतियां लिखवा कर प्रतिष्ठापित की । राजस्थान के शास्त्र मण्डारों में इनके समय में लिखी हुई सैकड़ों प्रतियां सग्रहीत है और इनका यशोगान गाती है । संवत् १५७५ को भांगशीर्ष शुक्ला ४ को बाई पार्वती ने पूष्पदन्त कृत जसहर चरित की प्रति लिखवायी और मट्टारक प्रभाचन्द्र को भेंट स्वरूप दी ।
संवस्' १५७६ के मंगसिर मास में इनका टोंक नगर में विहार हमा । चारों ओर आनन्द एवं उत्साह का वातावरमा या भया । इसी विहार को स्मृति में पंडित नरसेनकृत्त "सिद्धचक्रकथा" की प्रतिलिपि खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न टोंग्या गोत्र वाले साह घरमसी एवं उनकी भार्या खातू ने अपने पुत्र पौत्रादि सहित करवायी और उसे बाई पदमसिरी को स्वाध्याय के लिये भेंट दी।।
संवत् १५८० में सिकन्दराबाद नगर में इन्हीं के एक शिष्य प्र. वीडा को सण्डेलवाल जाति में उत्पन्न साह दौद् ने पुष्पदन्त कृप्त असहर चरित की प्रतिलिपि लिमका कर भेंट की। उस समय भारत पर बादशाह इब्राहीम लोदी का शासन RewammRIDINAwaamanMANORAMNIWANAMAmawww
१. रेपिये भवसारक सम्परसय पृष्ठ ११०. २. देखिये लेखक द्वारा सम्पाक्ति प्रवास्ति संग्रह पृष्ठ संख्या १८३.
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अवशिष्ट संत
.१८५
था। उसके दो वर्ष पश्चात् संवत १५८२ में घटियालीपुर में इन्हीं के प्राम्नाय के एक मुनि हेमकीति को श्रीचन्दकृत रत्नकरण्ड की प्रति मेंट की गयी । भेंट करने बाली थी बाई भोली। इसी वर्ष जब इनका चंपावती (चाटन) नगर में बिहार हुआ तो वहां के साह गोत्रीय धावकों द्वारा सम्यवत्व- कौमुदी की एक प्रति ब्रह्म बूचा (बूचराज) को भेंट दी गयी । ब्रह्म बुचराज्ञ भ प्रभाव के शिष्य थे और हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् थे। संवत् १५८३ की अषाढ शुदला तृतीया के दिन इन्हीं के प्रमुख शिष्य मंडलाचार्य धर्मचन्द्र के उपदेश से महाकवि श्री यशःकीति विरचित 'चन्दपहचरित' को प्रतिलिपि वो गयी जो जयपुर के प्रामेर शास्त्र भण्डार में सग्रहीत हैं।
रांवत् १५८४ में महाकवि धनपाल कृत बाहुबन्नि चरित की बघेरवाल जाति में उत्पन्त.साह माघो द्वारा प्रतिलिपि करवायी गयी और प्रभाचन्द्र के शिष्य अ० रत्ननीति को स्वाध्याय के लिये भेट दी गयी। इस प्रकार भ० प्रभाचन्द्र ने राजस्थान में स्थान-स्थान में बिहार कर अनेक जीर्ण अन्यों का उद्धार किमा और उनकी प्रतियां करवा कर शास्त्र मण्डारों में संग्रहीत की । वास्तव में यह उनकी सच्ची साहित्य सेवा श्री जिसके कारण नंकड़ों ग्रन्थों की प्रतियां गुरक्षित रह सकी अन्यथा न जाने कब ही काल के गाल में समा जाती।
प्रतिष्ठा कार्य
भट्टारमा माचन्द्र ने प्रतिष्ठा पार्यों में भी पूरी दिलचस्पी ली । मट्टारक गादी पर बैठने के पश्चात् कितनी ही प्रतिष्ठानों वा नेतृत्व किया एवं जनता को मन्दिर निर्माण की ओर आकृष्ट किया। संवत् १५७१ की ज्येष्ठ शुबला २ को पोडा. कारमा यन्त्र एवं दशलक्षण यन्त्र की स्थापना की। इसके दो वर्ष पश्चात् संवत् १५७३ की फाल्गुन कृष्णा ३ को एक दशलक्षगा यन्त्र स्थापित किया । संवत् १५७८ की फाल्गुण सुदी ९ के दिन तीन मोयीसी की मूर्ति की प्रतिष्टा करायी और इसी तरह संवत् १५८३ में भी चौबीसी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा इनके द्वारा ही सम्पन्न हु६ । राजस्थान के कितने ही मन्दिरों में इनके द्वारा प्रतिष्टित मुत्तियां मिलती है।
संयत् १५९३ में मंडलाचार्य धर्मचन्द्र ने आंदा नगर में होने वाले बड़े प्रतिष्ठा महोत्सव का नेतृत्व किया था उसमें शान्तिनाथ स्वामी की एक विशाल एवं मनोज मूत्ति की प्रतिष्ठा की गयी थी। चार फीट ऊँची एवं ३॥ फीट चौड़ी श्वेत पाषाण की इतनी मनोज्ञ मूत्ति इने गिने स्थानों में ही मिलती हैं । इसी समय के एक लेख में धर्मचन्द्र ने प्रभाचन्द्र का निम्न शब्दों में स्मरण किया है
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सलम शताथारी प्रभाबन्द्रः श्रियानिधिः । । दीक्षितो सोलसत्कीतिः प्रचंरः पंडितामणी ।..
प्रभाचन्द्र में राजस्थान में साहित्य तथा पुरातत्य के प्रति जो जन साधारण में आकर्षण पैदा किया था वह इतिहास में सवा चिरस्मरणीय रहेगा । ऐसे सन्त को शतशः प्रणाम ।
५. ब्र० गुणकीर्ति
गुणकत्ति ब्रह्म जिनदास के शिष्य थे। ये स्वयं भी अच्छे विद्वान थे और ग्रंथ रचना में रुचि लिया करते थे। अभी तक इनकी रामसीतारास की नाम एक राजस्थानी कृति उपलब्ध हुई है जिनके अध्ययन के पश्चात् इनकी विद्वत्ता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। रास का अन्तिम भाग निम्न प्रकार है
श्री ब्रह्मचार जिणदास तु, परसाद तेह तणोए । मन वांछित फल होइ तु, बोलीइ फिस्यु घरगुए ॥३६॥ गुणकीरति कृत रास तु, विस्तारु मनि रलीए । भाई धनश्री शानदास नु, पुण्यमती निरमतीर ॥३७॥ गावउ रली रंमि रास तु, पावर रिद्धि वृद्धिए ।
मन वांछित फल होइ तु, संपजि नव निषिए ॥३८॥
'रामसीतारास' एक प्रबन्ध काव्य है जिसमें काव्यगत सभी गुण मिलते है। यह रास अपने समय में काफी लोकप्रिम रहा था इसलिये इसकी कितनी ही प्रतियां राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती है । ब्रह्म जिनदास की रचनाओं की समकक्ष की यह रचना निश्चय हो राजस्थानी साहित्य के इतिहास में एक प्रमूल्य निषि है। ६. आचार्य जिनसेन
आचार्य जिनसेन भ० यश:कोत्ति के शिष्य थे। इनकी प्रमी एक कृति नेमिनाय रास मिली है जिसे इन्होंने संवत् १५५८ में जवाछ नगर में समाप्त की थी। उस मगर में १६ वे तीथंकर शान्तिनाथ का चैत्यालय था उसी पावन स्थान पर रास की रचना समाप्त हुई थी।
नेमिनाथ रास में भगवान नेमिनाथ के जीवन का ९३ छन्दों में वर्णन किया गया है । जन्म, मरात, विवाह कंकरण को तोड़कर वैराग्य लेने की घटना, कैवल्य प्राप्ति
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अवशिष्ट संत
१८७
एवं निवारण इन सभी घटनाओं का कवि ने साक्षप्त परिचय दिया है । रास की भाषा राजस्थानी है जिस पर गुजराती का प्रभाव झलकता है।
रास एक प्रबन्ध काव्य है लेकिन इसमें काव्यत्व के इतने दर्शन नहीं होते जितने जीवन की घटनामों के होते हैं, इसलिये इसे कथा कृति का नाम भी दिया जा सकता है। इसकी एक प्रति जयपुर के दि० जैन बड़ा माँदर तेहरपंथी के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है। प्रति में १०१"x४" प्राकार पाले ११ पत्र हैं । यह प्रति संवत् १६१३ पोप सुदि १५ की लिखी हुई है ।
. ध का आदि अन्त भाग निम्न प्रकार है:
आदि भाग
सारद सामिशि मांगु माने, तुझ चालणं चित लागू व्याने । अविरल प्रक्षर आलु दाने, मुझ मुरम्य मनि अविशांत रे। गाउं राजा रलीयामा रे, यादवना कुल मंइणसार रे । नामि नेमीश्वर जाणि ज्यो रे, तसु गुण पुहुवि न लाभि पार रे । राजमती वर रुयन रे, नवह भवंतर मगीय भूतरे ।
दशमि दुरधर तप लीड रे, पाठ कर्म चउमी आणु अत रे ॥ अन्तिम भाग
श्री यशकिरति सूरीन सूरीश्वर कहीइ, महीपलि महिमा पार न लही रे । तात रूपवर रसि नित वाणी, सरप्स सकोमल अमोय सयासी रे । तास चलणं चित लाइउ रे, गाइउ राइ अपूरव रास रे। जिनसेन युगति करी दे, तेह ना वयरण तणउ वली वास रे ॥२१॥ जा लगि जलनिधि नसिनी रे, बा लगि अचल मेरि गिरि धी रे । जा गया मरिण चंदनि सुर, ता लगि रास रहू भर करि रे । प्रगति सहित यादव तण रे, माव सहित भासि नर नारि । तेहनि प्राय होसि घणो रे, पाप तरण करसि परिहार रे ॥९२।। चंद्र वास संबच्छर कोषि, गंधाण पुण्य पासि दीजि । माघ सुदि पंचमी भणी जि, गुरुवारि सिद्ध योग ठवीजिरे । जावा नयर अगि जाशीइ रे, तीर्थकर बली कहीं सार रे। शांतिनाथ तिहाँ सोलमुरे; कस्यु. राम तेह भरण मझार रे ।।९३।।
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राजस्थान के जंन सत व्यक्तित्व एवं कृतित्
२.८८
७. ब्रह्म जीवन्धर
ब्रह्मजीवंबर भ० सोमकीत्ति के प्रशिष्य एवं भ० यशःकीति के शिष्य थे। सोमकीत्ति का परिचय पूर्व पृष्ठों में दिया जा चुका है। इसके अनुसार ब्र० जीवंधर का समय १६ वीं शताब्दि होना चाहिए। अभी तक इसकी एक 'ठाणा वेलि' कृति ही प्राप्त हो सकी है अन्य रचनाओं की खोज की अत्यधिक आवश्यकता है । गुठारणा वेलि में २८ छन्द है जिसका अन्तिम चरण निम्न प्रकार है ।
चौदि गुणठाणां सुण्या जे मध्धा श्रीजितराह जी, सुरनर विद्याधर सभा पूजीय वदीय पाय जी । पाय पूजी मनहर जी भरत राजा संच, प्रयोध्यापुरी राज करवा सयल सज्जन परव ।
विद्या गणवर उदय भूधर नित्य प्रकटन भास्कर, भट्टारक यशकीरति सेवक भणिय पर ॥२२॥
वेलि की भाषा राजस्थानी है तथा इसकी एक प्रति महावीर भवन जयपुर के संग्रह में है ।
८. धर्मं रुचि
1
भ० लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा मे दो श्रभयचन्द्र भट्टारक हुए एक अभयचन्द्र (सं० १५४८) श्रभयनन्द के गुरु थे तथा दूसरे अभयचन्द्र न० कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। दूसरे प्रभयचन्द्र का पूर्व पृष्ठों में परिचय दिया जा चुका है किन्तु ब्रह्म धर्मरुचि प्रथम अभयचन्द्र के शिष्य थे। जिनका समय १६ वीं शताब्दि का दूसरा 'चरण था | इसकी ब तक ६ कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं जिनमें सुकुमालस्वामीनी रास" सबसे बड़ी रचना है। इसमें विभिन्न छन्दों में सुकुमाल स्वामी का चरित्र
ति है । यह एक प्रबन्ध काव्य है । यद्यपि काव्य सर्गों में विभक्त नहीं है लेकिन विभिन्न भात छन्दों में विभक्त होने के कारण सर्गों में विभक्त नहीं होना खटकता नहीं है। रास की भाषा एवं वर्णन शैली अच्छी है । भाषा को दृष्टि में रचना गुजराती प्रभावित राजस्थानी भाषा में निबद्ध है ।
ते देखो भवमीत हवी नागभी कहे तात
कव पातिग एणे कीया, परिपरि पामंद छे घात ।
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१. रास को एक प्रति महावीर भवन जयपुर के संग्रह में है ।
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भवशिष्ट संत
तब ब्राह्मण कहे सुन्दरी सुशो तपो एणी बात । जिम आनंद बहु उपजे जग माहे छ विख्यात ॥२॥
रास की रचना घोघा नगर के चन्द्रप्रभ चैत्यालय में प्रारम्भ की गयी थी और उसी नगर के आदिनाथ चैत्यालय में पूर्ण हुई थी 1 कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
श्रीमूलसंघ महिमा निलो हो, सरस्वती गच्छ सणगार। बलात्कार गण निमंलो हो, श्री पद्भनन्दि भवत्तार रे जी० ।।२३।। तेह पाटि युक गुणनिलो हो, श्री देवेन्द्रकीत्ति दातार । श्री विद्यानन्दि विद्यानिलो हो, तस पट्टोहर सार रे जीना२४॥ श्री मल्लिभूषण महिमानिनो हो. तेह कुल कमल विकास । भास्कर ममपट तेह तणो हो, श्री लक्ष्मीचंद्र रिछरु वासरे जी० ॥२५॥ तस गापति जगि जागियो हो, गौतम सम अवतार | श्री प्रभयचन्द्र वधारणीधे हो, मान तणे मंडार रे जीवा ।।२६। तास शिष्य भरिण रुबड़ी हो, रास कियो मे सार 1 सुकुमाल नो भाबइ जट्ठो हो, सुरगता पुण्य अपार रे १० ॥२४।। क्यालि पूजानि नवि कोय हो, नवि कीयु कविताभिमान । कर्मक्षय कारगड कीयु हो, पांमवा यलि रूइशान रे जी० ॥२८।। स्वर पदाक्षर व्यंजन हीनो.हो, मइ कीयु होयि परमादि । साधु तम्हो सोधि लेना हो, क्षमितवि कर जो आदि रे जी ॥२९।। श्री घोषा नगर सोहागरण हो, श्रीसंघय रो दातार । त्याला छोइ भामरण हो, महोत्लव दिन दिन तार रे जी० ॥३०॥
कान्त्रि की अन्य कृतियों के नाम निम्न प्रकार हैं
१. पोहरमासा गीत, २. वशियडा गोत ३. मीणारे गीत ४. अरहंत गीत ५. जिनवर तीनती ६. प्रादिजिन विनती ७. पद एवं गीत
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६. मट्टारक श्रमयनन्दि
भट्टारक प्रभयचन्द्र के पश्चात् अभयनन्दि भट्टारक पद पर अभिषिक्त हुए । ये भी अपने गुरु के समान ही लोकप्रिय भट्टारक थे, शास्त्रों के ज्ञाता थे, विद्वान् ये और उपदेष्टा थे । साहित्य के प्रेमी थे । यद्यपि अभी तक उनकी कोई महत्वपूर्ण रचना नहीं उपलब्ध हो सकी है लेकिन सागवाड़ा, सूरत एवं राजस्थान एवं गुजरात के अन्य शास्त्र मण्डारों में संभवतः इनकी अन्य रचना भी मिल सके। एक गीत में इन्होंने अपना परिचय निम्न प्रकार किया है
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
अभयचन्द्र वादेन्द्र ह.. अनंत गुण निधान । तास भाट प्रयोज प्रकासन, अभयनन्दि सुरि भाग ।
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श्रमयनंदी व्याख्यान करता, प्रभेमति मे थल पासु । चरित्र श्री वाई तो उपदेशे ज्ञान कल्याणक गाउ ॥
उनके एक शिष्य संयमसागर ने इनके सम्बन्ध में दो गीत लिखे हैं । गीतों के अनुसार जालापुर के प्रसिद्ध बबेरवाल श्रावक संघवी प्रासवा एवं संघवी राम ने संवत् १६३० में इनको भट्टारक पद पर अभिषिक्त किया। वे गौरव एवं शुभ देह वाले यति थे-
कनक कांति शोभित तस गात, मधुर समान सुर्वारण जी । मदन मान मर्दन पंचानन, भारती गच्छ सन्मान जी ।
श्री अभयन न्विसूरी पट्ट घुरंधर, सकल संघ जयकार जी । सुमतिसागर तस पाय प्रणमें, निर्मल संयम धारी जी || ९ ||
१०. ब्रह्म जयराज
ब्रह्म जयराज भ० सुमतिकीत्ति के प्रशिष्य एवं म० गुणकीर्ति के शिष्य थे । संवत् १६३२ में भ० गुणकीति का पट्टाभिषेक हंगरपुर नगर में बड़े साथ किया गया था। गुरु छन्द में इसी का वर्णन किया गया है। में देश के सभी प्रान्तों से श्रावक गण सम्मिलित हुए में क्योंकि उस सुमतिकत्ति का देश में अच्छा सम्मान था ।
संवत् सोलोमि, वैशाख कृष्णा सुपक्ष | दशमी सुर गुरु जातिय, लगन लक्ष सुभ दन |
उत्साह के
पट्टाभिषेक समय म०
wil no
१. इसको प्रति मावीर भवन जयपुर के रजिस्टर संस्था ५ पृष्ठ १४५ पर
लिखी हुई है ।
1
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भविष्ट संत.
१६१
सिंहांसरगरूपा तणि, विसाऱ्या गुरु संत । श्री सुमतिकोत्ति सूरि रिगं मरी, ढाल्या कुभं महंत ।
श्री गुणकीत्ति यतीन्द्र चरण सेवि नर नारि, श्री गुरणकोक्ति यसीद्रं पाप तापाविक हारी। श्री गुणकीत्ति यतीन्द्र ज्ञानदानादिक दायक, श्री गुणकीत्ति यतीन्द्र, चार संघाष्टक नामक । सकल यतीश्वर मंहरणो, श्रीमतिकीति पट्टोधरण । जयराज ब्रह्म एवं वदति श्रीसकलसंघ मंगल कररस ।।
इति गुरु छन्द
११. सुमतिसागर
सुमसिसागर म० अमयनन्दि के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे तथा अपने गुरु के संघ में ही रहा करते थे। प्रभयनन्दि के स्वर्गवास के पश्चात् ये भ० रत्नफीति के संघ में रहने लगे। इन्होंने अभयनन्धि एवं ररमकीत्ति दोनों भट्टारकों के स्तषन में गीत लिखे हैं। इनके एक मीत के अनुसार अभयनन्दि सं० १६३० में भट्टारक गादी पर बैठे थे । ये पागम काथ्य, पुराण, नाटक एवं छंद शास्त्र के वेत्ता थे।
संवत् सोलसा त्रिस संवच्छर, बंशाख सुदी त्रीव सार जी । अभयनन्दि गौर पाट थाप्या, रोहिणी नक्षत्र शनिवार जी ॥६।। आगम काव्य पुराण सुलक्षण, तक न्याय गुरु जाणे जी। छंद नाटिक पिगल सिद्धान्त, पृथक पृथक बखाणे जी ॥७॥
सुमतिसागर अच्छे कवि थे। इनकी अब तक १० सधु रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार है
१. साधरमी गीत २-३ हरियाल वेलि ४-५ रनमत्ति गीत ६. अभयनन्दि गीत
७. गणधर दोनती ८. मसारा पार्श्वनाथ गीत ६. नेमिवंदना १०. गीत
उक्त समी 'रचनायें काव्य एवं भाषा की दृष्टि से अच्छी कृतियां हैं एक उदाहरण देखिये
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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं तिर
ऊजल पूनिम चंद्र सम, 'जस राजीमती जामि होई। ऊजलु सोहई अबला, रूप रामा जोह। . मजल मुखवर भामिनी, साये मुख तंबोल । .. उजल केवल न्यान जानू, जीव भव कलोल ।। कजलु रुपानु भल्लु, कटि सूत्र राजुल धार । अल दर्शन पालती, दुख नास जय सुखकार ।
ने मिवंदना
समय—सुमतिसागर ने अभयनन्दि एवं रत्नकीति दोनों का शासन काल देखा था इसलिये इनका समय संभवत; १६०० मे. १६६५ तक होना चाहिए ।
१२. ब्रह्म गणेश
गणेश ने तीन सन्तों का म० रत्ननीति, में कुमुदचन्द य भ० अभयं चन्द का शासनकाल देखा था। ये तीनों ही भट्टारकों के प्रिय शिष्य थे इसलिये इन्होंने भी इन भट्टारकों के स्तवन के रूप में पर्याप्त गीत लिखे हैं। वास्तव में ब्रह्म गणेश जैसे साहित्यिकों ने इतिहास को नया मोड दिया और उनमें अपने गुरुजनों का परिचय प्रस्तुत करके एक बड़ी भारी कमी को पूरा किया। बं गणेश के अब तक करीब २० गीत एवं पद प्राप्त हो चुके हैं और सभी पद एवं गीत इन्हीं सन्तों की प्रशसा में लिखे गये हैं। दो पद 'तेजाबाई की प्रशंसा में भी लि.ग । तेजाबाई उस समय की अच्छी श्राविका थी तथा इन सन्तों को संघ निकालने में वि. सहायता देती थी।
१३. संयमसागर
मे भट्टारक कुमुदचन्द्र के शिष्य थे । ये ब्रह्मचारी थे और अपने गुर. को साहित्य निर्माण में योग दिया करते थे । ये स्वयं भी कषि थे । इनके अब तक कितने ही पद एवं गीत उपलब्ध हो चुके हैं। इनमें नेमिगीत, पीतलनाथगीत, गृणावलि गीत के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। अपने अन्य साथियों के समान इन्होंने भी कुमुदचन्द्र के स्तवन एवं प्रशंसा के रुप में गीत एवं पद लिखे हैं। ये सभी गीत एवं पद इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
१. भ. कुमुबचन्द्र गीत २. पद (प्रायो साहेलडीरे सह मिलि संगे) ३. , (सकल जिन प्रणामी मारती समरी)
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अवशिष्ट संत
४. नेमिगोत
५.
१४. शिवनकीर्ति
शीतलनाथ गोत
६.
गीत |
७. झुरावली गोत
विषय
त्रिभुवनकीत मट्टारक उदयसेन के शिष्य थे। उदयसेन रामसेनान्वय तथा सोमकीति कमलकीति तथा यशःकोति की परम्परा में से थे। इनकी अब तक जो ररास एवं जम्बूस्वाभीरास के दो रचनायें मिली हैं । जीवंधररास को कवि ने. कल्पवल्ली नगर में संवत् १६०६ में समाप्त किया था। इस सम्बन्ध में ग्रन्थ की अन्तिम प्रशारित देखिये
-
नंदीयच गछ मझार, राम सेन्दान्वयि हवा |
श्री सोमकोरति विजयसेन, कमलकीरति यशकीरति हवउ ॥ १५०॥
तेह पाटि प्रसिद्ध चारित्र मार धुरंधुरो |
P
बाथीम भंजन वीर श्री उदयसेन सूरीश्वशे ॥५१॥ प्रणमीय हो गुरु पाय, त्रिभुवनकीरति इस बीनवद । यो त गुणग्राम, नेरो कांई वांछा नहीं ॥१५॥ कल्पवल्ली मझार, संवत् सोल छहोत्तरि । राम र मनोहारि रिद्धि यो संघह धरि ॥५१॥
१३
दुहा जीवंधर मुनि तप करी, पुहुतु सिव पद ठाम । त्रिभुवनकीरति इस वीनवइ, देयो तह म गुणग्राम ।।१४।।
॥ व ।।
उक्त रास की प्रति जयपुर के तेरहपंथी बड़ा मन्दिर के शास्त्र भंडार के एक गुटके में संग्रहीत है। रास गुटके के पत्र १२९ मे १५१ तक संग्रहीत है । प्रत्येक पत्र में ६९ पंक्तियां तथा प्रति पंक्ति में ३२ अक्षर है। प्रति संवत १६४३ पौष वदि ११ के दिन आसपुर के शान्तिनाथालय में लिखी गयी थी। प्रति शुद्ध एवं स्पष्ट है ।
प्रस्तुत रास में जीवंधर का चरित वर्णित है। जो पूर्णतः रोमाञ्चक घटनाओं
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
से युक्त है। जीवन्धर अन्त में मुनि बनकर घोर तपस्या करते हैं और निवारण प्राप्त करते हैं।
भाषा--
रचना की भाषा राजस्थानी है जिस पर गुजराती का प्रभाव है। रास में दूहा, चौपई, वस्तुबन्ध, छंद ढाल एवं रागों का प्रयोग किया गया है।
जम्बूस्वामीरास त्रिभुवनधीति को दूसरी रचना है। कवि ने इसे संवत् १६२५ में जनाछनगर के शान्तिनाथ चैत्यालय में पूर्ण किया था जैसा कि निम्न अन्तिम पश्च में दिया हुआ है
संवत्, सोल पंचवीसि जवाछ नयर मझार । भुवन शांति जिनवर तरिण, रच्यु सस मनोहार ॥१६॥
प्रस्तुत रास भी उसी गुटक के १६२ से १९० तक पत्रों में लिपि बद्ध है।
विषय
रास में जम्बूस्वामी का जीवन चरित आणत है ये महावीर स्वामी के पश्चात् होने वाले अन्तिम केवली हैं । इनका पूरा जीवन प्राकर्षक है । ये श्रेष्ठि पुत्र थे अपार वैभव के स्वामी एवं चार सुन्दर स्त्रियों के पति थे । माता ने जितना अधिक संसार में इन्हें फंसाना चाहा उतना ही ये संसार से विरक्त होते गये और अन्त में एक दिन सबको छोड कर मुनि हो गये तथा घोर तपस्या करके निर्वाण लाम लिया ।
भाषा---
रास की माषा राजस्थानी है जिस पर गुजराती का प्रभाव है । मर्णन शेली अच्छी एवं प्रभावक है । राजग्रही का वर्णन देखिये...
देश मध्य मनोहर प्राम, नगर राज ग्रह उत्तम ठाम । गढ मन मन्दिर पोल पगार, चउटा हाट तरणु नहिं पार ॥१३॥
.
धनवंत लोक दोसि तिहां घरणा, सज्जन लोफ तणी नहीं मणा । दुर्जन लोक न पीसि ठाम, चोर उपट नहीं तिहाँ ताम ॥१४।।
घरि घरि वाजित वाजि भंग, घिर घिर नारी धरि मनि रंग । घरि घरि उछव दोसि सार, एह सह पुण्य तरणु विस्तार ।।१५।।
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अवशिष्ट संत
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१५. भट्टारक सम्मानन्द (पशम)
ये भ. सकलचन्द्र के शिष्य थे । इनकी अभी एक रचना 'चौबीसी' प्राप्त हुई है जो संवत् १६७६ की रचना है। इसमें २४ तीर्थकर का गुणानुवाद है तथा अन्तिम २५ वें पद्य में अपना परिचय दिया हुआ है । रचना सामान्यतः अच्छी है
अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है:
संवत् सोल छोत्तरे कवित्त रच्या संघारे, पंचमीशु शुक्रवारे उदेष्ठ वदि जान रे । मूलसंघ गुणचन्द्र जिनेन्द्र सकलचन्द्र, मट्टारक रत्नचन्द्र बुद्धि गछ भांगरे । त्रिपुरो पुरो पि राज स्वतों ने तो अमराज, भामोस्यो मोलत राज त्रिपुरो बासागरे । पीछो छाजु ताराचदं, छीतरवचंद, ताउ खेतो देवचंद एहु' की कल्याण रे ।।२५।।
१६. ब्रह्म अजित
ब्रह्म अजित संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। ये गोलशृगार जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम बीरसिंह एवं माता का नाम पीथा था। ब्रह्म अजित भट्टारक सुरेन्द्रकीति के प्रशिष्य एवं भट्टारक विद्यामन्दि के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और इसी अवस्था में रहते हुए इन्होंने भृगुकच्दनपुर (महौच ) के नेमिनाथ चैत्यालय में हनुमच्चरित को समाप्ति की थी। इस चरित की एक प्राचीन प्रति आमेर शास्त्र मण्डार जयपुर में संग्रहीत है। हमुमच्चरित में १२ सर्ग हैं और यह अपने समय का काफी लोक प्रिय काव्य रहा है।
ब्रह्म अजित एक हिन्दी रचना 'हंसागीत' भी प्राप्त हुई है। यह एक उपदेशात्मक प्रथवा दिक्षाप्रद कृति है जिसमें 'हंस' ( आत्मा ) को संबोधित करते हुए ३७ पद्य हैं । गोत की समाप्ति निम्न प्रकार की है
१. सुरेनकोतिशिष्यविद्यानं धनंगमवनेकपंडित: कलाधर ।
स्तदीय वेशनामवाप्ययोषमाश्रित्तो जितेंद्रियस्य भक्तितः ॥
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रास हंस तिलका एह, जो भावद द चित्त रे हंसा । श्री विद्यानंदि उपदेसिज, बोलि ब्रह्म प्रजित रे हंसा ।।३७|| हंसा तू करि संयम, जम न पडि संसार रे हंसा ।।
ब्रह्म अजित १५ वो शताब्दि के विद्वान् सन्त थे । १७, आचार्य नरेन्द्रकीर्ति
ये १७ वीं शताब्दि के सन्त थे। भबादिभूषण एवं भ. सकलभूषण दोनों ही सन्तों के ये शिष्य थे और दोनों को ही इन पर विदोष कृपा थी। एक बार वादिभूषण के ग्यि शिष्य ब्रह्म नेमिदास ने जब इनसे 'सगाप्रबन्ध' लिखने की प्रार्थना की तो इन्होंने उनकी इच्छानुसार 'सगर प्रबन्ध' कृति को निबद्ध किया । प्रबन्ध का रचनाकाल सं० १६४६ पासोज सुदी दशमी है। सह कवि की एक प्रच्छी रचना है। प्राचार्य नरेन्द्र कीत्ति की ही दूसरी रचना 'तीर्थकर चीनीमना छप्पय' है। इस में कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई परिचय नहीं दिया है। दोनों ही कृतियां उदयपुर के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत है। --- ---
ranMwu-.-- गोलगार अशे नप्ति दिनमणि बोरसिंहो विपश्विस । भार्या पीया प्रतीता तनुविदितो ब्रह्म दोकाभितोऽभूत ।। २. भट्टारक विद्यामन्दि बलात्कारगणसूरत शाखा के भट्टारक थे ।
भट्टारक सम्प्रदाय पर सं० १९४
तेह भवन मोहि रहा चौमास, महा महोत्सव पूर्ण अस | श्री बाविभूषण देशनां सुधा पान, कीरति आभमना ।।१६।। शिष्य ब्रह्म नेमिदासज राणी, विनय प्रार्थना देखी घणो । सूरि नरेन्द्र कीरति शुभ रूप, सागर प्रवन्ध रचि रस कप |॥२०॥ मलसंघ मंडन मुनिराध, फलिफालि ले गणधर पाय ! मुमतिफोरति गछपति अवधीत,, तस गुरू बोधव जग विख्यात ।।२१॥ सकलभूषण सूरीदपर बेह, कलि माहि जंगम तीरथ तेह । ते चोए गुरू पद कंज मन धरि, नरेन्द्रकीरति शुभ रचना करी ॥२२॥ संदत सोलाछितालि सार, आसोज सुदि दशमी बुधव र । संगर प्रवन्ध रच्यो मनरंग, घिस नको का सायर गंग ।।२।।
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भवशिष्ट संत
१८. कल्याण कीर्ति
___ कल्याणकोत्ति १७ वीं शताब्दी के प्रमुख जैन सन्त देवकीति मुनि के शिष्य थे । कल्यागाक्रीति भीलोहा ग्राम के निवासी थे । वहां एक विशाल जैन मन्दिर था । जिसके ५२ शिखर थे और उन पर स्वर्ण कलश सुशोभित थे । मन्दिर के प्रांगण में एक विशाल मानस्तंभ था । इसी मन्दिर में बैठकर कवि ने चारुदत्त प्रबन्ध की रचना की थी। रचना संवत् १६९२ मासोज शुक्ला पंचमी को समाप्त हुई थी। कथि ने उक्त वर्णन निम्न प्रकार किया है।
चारुदत राजानि पुत्यि भट्टारक सूखकर सुखफ र सोमागि अति विचक्षा । वादिवारसा केशरी भट्टारक श्री पदमनं दि चरण रज सेवि हारि ।।१०।। ए सह रे गळ नायक प्रणमि करि, देवनी गति मुनि निज गुरु मन्य धरी । धरि चित्त चरणे नम कल्याण कीरति' इम भरिण। चारूदत्त कमर प्रबध रचना रचिमि आदर घणि ॥११॥ राय देश मध्यि रे जिलोउ उ वाँस, निज रचनांसि रे हरिपुरिनि हमी। हा अमर कुमारनि, तिहां धनपति वित्त विलसए । प्राशाद प्रतिमा जिन मति करि सुकृत सांचए ।।१२।। सुकृत संचिरे यत बहु माचार, दान महोछव रे जिन पूजा करि । करि उछव' गान गंनव चंद्र जिन प्रसादए । बावन सिखर सोहागणी ध्वज कनक कलश विमालए ॥१३॥ मंडप मधिरे समवसरणा सोहि, श्री जिनविद रे मनोहर मन मोहि । मोहि जन मन प्रति उन्नत मानस्थं विसालाए । तिहां विजय विख्यात सुन्वर जिन सासन रक्ष पायलये ॥१४॥ तिहां चोमासिके रचना करि सोलवाणुगिरे :१६१२: आसो अनुसरि । अनुसरि आसो शुक्ल पंचमी श्री गुरुचरण हृदयधरि । कल्याणको रति कहि सज्जन भरको मुणो आदर करि ।।१५।।
ब्रहा आदर ब्रह्म संधजीतणि विनयसहित सुखकार । ते देखि चारूदत्तनो प्रबंध रच्यो मनोहर ॥१॥
कवि ने रचना का नाम 'चारूदत्तराम' भी दिया है। इसको एक प्रति
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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जयपुर के दि० जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रति संवत् १७३३ की लिखी हुई है।
कवि को एक और रचना 'लघु वाहवलि बैल' तथा कुछ स्फुट पद भी मिले हैं। इसमें कवि ने अपने गुरु के रूप में शान्तिवास के नाम का उल्लेख किया है। यह रचना भी अच्छी । दसा इसमें पोक छ, इ. उपयोग हुआ है : चा का अन्तिम छन्द निम्न प्रकार है--
भरतेस्वर भावीया नाम्यूनिज वर शीस जी। स्तयन करी इम जंपए,हूं किंकर तु ईस जी । ईश तुमनि छोडी राज मझनि' आपीड । इम कहीमदिर गया सुन्दर शान भुबने व्यापीउ । श्री कल्याणकीरति सोममूरति चरण सेवक इम भरिण । शांतिदास स्वामी बाहुबलि सरण राखु मझ तह्म तरिण ।।६।।
१६. भट्टारक महीचन्द्र
___ मट्टारक महीचन्द्र नाम के तीन भट्टारक हो चुके हैं । इनमें से प्रथम विशालकीत्ति के शिष्य थे जिनकी कितनी ही रचनायें उपलब्ध होती है। दूसरे महीचंद्र मट्टारक वादिचन्द्र के शिष्य थे तथा तीसरे म० सहस्रमीत्ति के शिष्य थे। लबांकुश छप्पय के कवि भी संभवतः वादिचन्द्र के ही शिष्य थे । 'नेमिनाथ समवधारण विधि' उदयपुर के खन्देलवाल मंदिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है उसमें उन्होंने अपने को भ० यादिचन्द्र का शिष्य लिखा है ।
धी मूलसंघे सरस्वती गच्छ जाणो, बलातकार गण बखाणों । श्री वादिचन्द्र मने आणों, श्री नेमीश्वर चरण नमेसू॥३२॥ तस पाटे महीचन्द्र गुरु श्राप्यो, देश विदेश जग बहु व्याप्यो। श्री नेमीश्वर चरण नमेसू ॥३३॥
उक्त रचना के अतिरिक्त आपकी 'आदिनाथविनति' 'आदित्यत्रत कथा' आदि रचनायें और भी उपलब्ध होती है।
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अवशिष्ट संत
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'लवांकुश छप्पय' कवि की सबसे बड़ी रचना है। इसमें छप्पय छन्द के ७० पद्य हैं। जिनमें राम के पुत्र लव एवं कुश को जीवन गाथा का वर्णन है । भाषा राजस्थानी है जिस पर गुजराती एवं मराठी का प्रभाव है। रचना साहित्यिक है तथा उसमें घटनाओं का अच्छा वर्णन मिलता है। इसे हम लन्डकाव्य का रूप दे सकते हैं । कथा राम के लंका विजय एवं अयोध्या आगमन के बाद से प्रारम्भ होती है। प्रथम गद्य में कवि ने पूर्व कथा का सारांश निम्न प्रकार दिया है।
के अहनि कटक मेलि रघुपति रण चल्यो । रावण रसा भूमीय पड्यो, सायर जल छल्यो ।
जय निलान बजाय जानकी निज घर बरिंण दशरथ सुत कोरति भुवनत्रय मांहि बखानी ।
राम लक्ष्मण एम जीतिने, नयरी अयोध्या आवया । मचन्द्र कहे एक पुन्य थिएडा, बहु परे चामया ॥ १ ॥
एक दिन राम सीता बैठे हुए विनोद पूर्ण बातें कर रहे थे। इतने में सीता ने अपने स्वप्न का फल राम से पूछा। इसके उत्तर में राम ने उसके दो पुत्र होंगे, ऐसी भविष्यवाणी की। कुछ दिनों बाद सीता का दाहिना नेत्र फड़कने लगा । इससे उन्हें बहुत चिन्ता हुई क्योंकि यही नेत्र पहिले जब उन्हें राज्यभिषेक के स्थान पर बनवास मिला था तब भी फड़का था । एक दिन प्रजा के प्रतिनिधि ने आकर राम के सामने सीता के सम्बन्ध में नगर में जो चर्चा थी उसके विषय में निवेदन किया । इसको सुन कर लक्ष्मण को बड़ा क्रोध प्राया और उसने तलवार निकाल ली लेकिन राम ने बड़े ही धयं के साथ सारी बातों को सुनकर निम्न निर्णय किया ।
सदा रहो आता त में छाना । केनो नहि छे वालोक अपवाद जनाता । साव हुवु लोक नहीं कोई निश्चय जाने । या तद्वा क तेज खल जन सह मानें ।
एमविचार करी तदा निज प्रपवाद निवारवा सेनापति र जोड़िने लड़ जावो वन घालवा ||७||
सीता घनघोर वन में अकेली छोड़ दी गई । वह रोई चिल्लाई लेकिन किसी ने कुछ न सुना । इतने में पुंडरीक युवराज 'वज्रसंघ' वहां भाया । सीता ने अपना परिचय पूछने पर निम्न शब्दों में नम्र निवेदन किया ।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सीता कहे सन सात तात तो जनका हमारी । मामंडल मुल भात दियर लक्ष्मण भट सारी। तेह तम्गों बड भ्रात नाथ ते मुझनो जानो । जगमा जे विक्षात तेही माननी मानो । एहव वचन साभली कहे, बहीन भाव जु मुझ परे । बहु महोत्सव आनंद करी सीता ने प्राने घरे ।।१०।।
कुछ दिनों के बाद सीता के दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम लय एवं कुश रखा गया । वे सूर्य एवं चन्द्रमा के समान थे। उन्होंने विद्याध्य मन एवं शास्त्र संचालन दोनों की शिक्षा प्राप्त की । एया दिन ने बैठे हुए थे कि नारद ऋषि का वहां आगमन हुया । लव कृश वारा राम लक्ष्मण का वृत्तान्त जानने की इच्छा प्रकट करने पर नारद ने निम्न शब्दों में वर्णन किया।
कौरा गांम कुण ठाम पूज्यने कहो मुझ आगल । तेब हापि कहें छे पात देश नामे में कोशल । नगर प्रधौया घनीयंहा इस्चार मनोहर । राज्य करे दशरथ चार सुत नेहना सुन्दर । राज्य बाप्पु जब भरत ने बनदास जथ पोरा मने । सती सीतल लक्ष्मण समो सोल परत दंडक बने ।।२।। तव दशवदनों हरी रामनी राणि सीता। युद्ध करीस जथया राम लक्ष्मण दो भ्राता ।। हणुमंत सुग्रीव घणा सहकारी कीषा । के वियाघर तना धनी ते साथै लोधा ।। युद्ध करी रावरण हणी सीता लई घर प्रावया । महीचन्द्र कहे तह पुन्य थी जगमाहि जस पामया ॥२६॥ सीता परधर रही तेह थी थयो अपवादह । रामे मूकी बने कीधो ते महा प्रमादह ॥ रोदन करे बिलाप एकलो जंगल जहः । वनजंघ नृप एह पुन्य थि आयो ते हवे ।। भगनि करि घर लान्यो तेहषि तुम्ह दो सूत प्रया। भाग्ये एह पद पामया वनजंघ पद प्रामया ॥२७॥
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अवशिष्ट संत
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बिना अपराध ही राम द्वारा सीता को छोड़ देने की बात सुनकर सब कुश बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने राम से युद्ध करने की घोषणा कर दी। सीता ने उन्हें अहूत समझाया कि राम लक्ष्मण बड़े भारी योद्धा है, उनके साथ हनुमान, सुग्रीव एवं विभीषण जैसे वीर हैं, उन्होंने रावण जैसे महापराक्रमी योद्धा को मार दिया है इसलिये उनमें युद्ध करने की प्रावश्यकता नहीं है लेकिन उन्होंने माता की एक बात न सुनी और युद्ध की तैयारी कर दी। लाखों सेना लेकर वे प्रयोध्या की ओर चले । साकेत नगरी के पास जाने पर पहिले उन्होंने राम के दरबार में अपने एक दूत को भेजा । लक्ष्मण और दूत में खूब वादविवाद हुमा । कवि ने इसका अच्छा वर्णन किया है । इसका एक वर्णन देखिये ।
दूस बात सामलि कोपे कंप्यो ते लक्ष्मण,
एह बल पाल्पो कोण लेखवे नहि हमने परण । राषण मय मायो तेह थिये कुणा अधिको,
वनजंघते कोरा कहे दूत ते छे को ।। दूत कहे रे सांभलो लव कुश नो मातुरलो,
जगमा जेहना काम छे जाने माह केभ सासुला ।।६।।
दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ लेकिन लक्ष्मण की सेना उन पर विजय प्राप्त न कर सकी । अन्त में लक्ष्मण ने चक आयुध चलाया लेकिन बज भी उनकी प्रदक्षिणा देकर वापिस लक्ष्ममा के पास ही आ गया। इतने में ही वहां नारद ऋषि मा गये और उन्होंने आपसी गलत फहमी को दूर कर दिया। फिर तो लव कृश का अयोध्या में शानदार स्वागत हुना और नीता के चरित्र की अपूर्व प्रशमा होने लगी। विभीषण प्रादि सीता को लेने गये। सौता उन्हें देखकर पहिले तो बहुत क्रोधित हुई लेकिन क्षमा मांगने के पश्चात उन्होंने उनके साथ अयोध्या लौटने की स्वीकृति दे दी 1 अयोध्या माने पर सीता को राम के प्रादेशानुसार फिर अग्नि परीक्षा देनी पड़ी जिसमें वह पूर्ण सफल हुई। प्राखिर राम ने सीसा से क्षमा मांगी
और उससे घर चलने के लिये कहा लेकिन सीता ने साध्वी बनने का अपना निश्चय प्रकट किया और सत्यभूषण केवली के समीप आर्यिका अन गई तथा तपस्या करके स्वर्ग में चली गई। राम ने भी निर्वाण प्राप्त किया तथा अन्त में लय और कुश मे भी मोक्ष लाभ किया।
भाषा
मट्टीचन्द्र की इस रचना को हम राजस्थानी डिंगल भाषा की एक कृति कह सकते है । जिसम की प्रमुख रकमा कृष्ण सरिमयी बेलि के समान है इसमें भी
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
शब्दों का प्रयोग हुना है। यद्यपि छप्पय का मुख्य रस शान्त रस है लेकिन बावे से अधिक छंद धीर रस प्रधान हैं । शब्दो को अधिक प्रभावशील बनाने के लिये चस्यो, छल्यो, पामया. लाज्या, आन्यो, पान्यो, पाया, चल्यो,नम्यां, उपसम्यां, बोल्या आदि क्रियाओं का प्रयोग हुआ है। "तुम" "हम" के स्थान पर तुह्म, अह्म का प्रयोग करना कधि को प्रिय है । हिंगल बोली क कुछ पंच निम्न प्रकार ।।
रण निसाण वजाय सकल संन्या तव मेली। चड्यो दिवाजे करि कटक करि दश दिश भेली ॥ हस्ति तुरंग मसूर भार करि शेषज शंको। खगादिक हथियार देखि रवि शशि पण कंप्यो । पृथ्वी नांदोलित थई छत्र चमर रवि छादयो । पृथु राजा ने चरे कहो, व्याघ्र राम तवे प्रावो 1॥१५॥
रू'ध्या में प्रसवार हणीगय वरनि बंटा। रथ की धाप कूचर हणी बली हयनी घटा ।। लव कुश युद्ध देख दशों दिशि नाठा जाये । पृथुराजा बहु बढ़े लोहि पण जुमति न पावे ॥ वन जघ नृप देखतों बल साये भागो या । फुल सील हीन केतो जिते पृथु रा पगे पखयो तदा ॥२ ॥
२०, ब्रह्म कपूरचन्द
ब्रह्म कपुरचन्द मुनि गृणचन्द्र के शिष्य थे। ये १७ वीं शताब्दि के अन्तिम चरण के विद्वान थे। अब तक इनके पाश्र्वनाथरास एवं कुछ हिंदी पद उपलब्ध हुये हैं । इन्होंन रास के अन्त में जो परिचय दिया है, उसमें अपनी गुरु-परम्परा के अतिरिक्त आनन्दपुर नगर का उल्लेख किया है, जिसके राजा जसवन्तसिंह श्रे तया जो राठौड जाति के शिरोमणि थे । नगर में ३६ जातियां सुखपूर्वक निवास करती थी। उसी नगर में ऊंचे-ऊचे जैन मन्दिर थे । उनमें एक पार्श्वनाथ का मन्दिर घा सम्भवतः उसी मन्दिर में बैठकर कवि ने अपने इस पास की रचना की थी।
पार्श्वनाथराग की हस्तलिखित प्रति मालपुरा, जिला टोंक ( राजस्थान ) . के चौधरियों के वि. जैन मन्दिर के शास्त्र-भण्डार में उपलब्ध हुई है। यह रचना एक गुटके में लिखी हुई है, जो उसके पत्र १४ से ३२ तक पूर्ण होती है। रचना राजस्थानी भाषा में निबद्ध है, जिसमें १६६ पद्य है। "रासको प्रतिलिपि बाई
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J
- वशिष्ट संत
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रत्नाई की शिष्या श्राविका पारवती गंगवाल ने संवत् १७२२ मितो जेठ बुदी ५ को समाप्त की थी।
श्रीमुल जी संघ बहु सरस्वती गछि । मी जी मुनिवर बहु चारित स्वछ ||
वहां श्री नेमचन्द गछपति भयो ।
तास के पाट जिम सौमे जो भारत ॥
श्री जसको रति मुनिपति भयो ।
जागो जी तर्क प्रति शास्त्र पुराणा ॥ श्र० १५९ ।।
लास को शिष्य मुनि अधिक ( प्रवीन ) । पंच महाव्रत स्यो नित लीन ||
तेरह विधि चारित धर
1
ध्यंजन कमल विकासन बन्द ||
शान गो इम जिसी अवि
मुनिवर प्रगट सुमि श्री
'ले
चन्द || श्री || १६० ॥
सासु तर सिषि पंडित कपुर जी चन्द | कीयो रास चिति धरिवि आनंद ||
जिena कह मुझ ग्ररूप जी मति । जसि विधि देख्या जो शास्त्र-पुराण |1
बुधजन देखि को मति हसं ।
संसो जो विधि में कीयो जी बखारा || श्री ।। १६१ ।।
सोलासँ सत्ताराचे मामि वैसाख ।
पंचमी तिथि सुम उजल पाखि ॥
नाम नक्षत्र आद्रा भो । बार बृहस्पति अधिक प्रधान ॥
रास कीयो दामा सुत तणो ।
स्वामी जी पारसनाथ के थान || श्री० ॥ १६२॥
मही देत को राजा जी जाति राठोर ।
सकल जी छत्री या सिरिमोट ||
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नाम जसवंतसिंघ ससु तणो । तास आनंदपुर नगर प्रधान ॥
पोरिण छत्तीस लोला करें ।
सो जी जैसे हो इन्द्र विमान || श्री० ॥ १६३॥
सोमो जी तहां जीण भवरण उत्तंग | मंडप देदी जी अधिक अमंग ||
जिरण तरणा बिंब सोमं मला ।
जो नर वंदे मन वचकाइ ॥
दुख कलेस न संचरे ।
तीस घरा नव निधि थिति पाइ ॥ श्री० ॥ १६४॥
इस रास की रचना संवत् १६९७, वैशाख सुदी ५ के दिन समाप्त हुई थी, जैसा कि १६२ में पथ में उल्लेख आया है ।
रास में पार्श्वनाथ के जीवन का पद्य - कथा के रूप में बन है। कमर ने पार्श्वनाथ पर क्यों उपसर्ग किया था, इसका कारण बताने के लिए कवि ने कमठ के पूर्व-भव का भी वर्णन कर दिया है। कथा में कोई चमत्कार नहीं है। कवि को उसे प्रति संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना था सम्भवत: इसीलिए उसने किसी घटना का विशेष Teja नहीं किया।
पाश्वनाथ के जन्म के समय माता-पिता द्वारा उत्सव किया गया। मनुष्यों न ही नहीं स्वर्ग से प्राये हुये देवताओं ने भी जन्मोत्सव मनाया-
अहो नगर में लोक प्रति करे जी उछाह ।
खर्चे जो द्रव्यं मनि अधिक उमाह ॥
घरि घरि मंगल प्रति घणा,
धरि घरि गावे जी गीत सुचार ॥
सब जन अधिक आनंदिया |
वनि जननी तसु जिस अवतार ||श्री० ॥ १२४॥
पार्श्वनाथ जब बालक ही थे। तभी एक दिन वन-क्रीडा
के लिए अपने साथियों के साथ गये । वन में जाने पर देखा कि एक तपस्वी पंचाग्नि तप तप रहा है और मति श्रुत एवं
बालक पाने, जो तपस्वी मिथ्याज्ञान
1
अपनी देह को सुखा रहा है । प्रवधि- ज्ञान के धारी थे, कहा- यह
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अशिष्ट संत
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के वशीभूत होकर तप कर रहा है। सपस्वी के पास जाकर कुमार ने कहा तपस्वी महाराज ! आपने सम्यफ-सप एवं मिथ्या सप के भेव को जाने बिना ही संपन्था करना प्रारम्भ कर दिया है । इस लकड़ी को भाप जला तो रहे हैं, लेकिन इसमें एक सर्प का जोडा अन्दर-ही-अन्दर जल रहा है। तपस्वी यह सुनकर बड़ा कुन हुमा मोर उसने कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काट की। लकमे काटने पर उसमें से माये जले हुए एवं सिसकते हुए सर्प एवं सपिणी निकले । कवि ने इसका सरल भाषा में परणंन किया है
सुरिण बिरतांत बोलियो जी कुमार। एह सपयुगी नवि तारणहार।। एह अज्ञान तप निति करे। सुणि तहां तापसी बोलियो एम ।। वित में कोन सपानी घणे । कहो जी अज्ञान तप हम तसो केम ॥श्री०॥१३९॥
सुणि जिरणवर तहां बोलियो जाणि । लोक तिथि जारणों जी अवधि प्रमारिए । सुरिण रे अज्ञानी हो तापसी। बल छ जो काष्ट माझ सप्पणी सर्प। ते तो जी भेद जाण्यों नहीं । कर यो जो वृथा मन में तुम्ह दपं ॥श्री ॥१४०।। करि प्रति कोप करि गृहो जी ठार । काठ हो छदि कीयो तिरा छार। सर्पगो सपं तहां निसरया । अर्धे जी दग्ध तहां भयो जी सरीर ।। आकुला व्याकुला बहु करें। करि कृपा भाव जीरावर वरवीर |श्री०।१४१॥
पाश्वकुमार ने मौवन प्राप्त करने पर माता-पिता ने उनसे विवाह करने का वह किया, लेकिन उन्हें तो भात्मकल्याण अभीष्ट था, इसलिए वे क्यों इस पर्वकर में फंसते । प्राखिर उन्होंने जिम-दीक्षा ग्रहण करली और मुनि हो गये। एक दिन जब ध्यानमग्न थे, संयोगवश उधर से ही वह वेव भी विमान से या
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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रहा था। पार्थ को सपस्या करते हुए देखकर उससे पूर्व मव का और स्मरण हो पाया और उसने बदला लेने की दृष्टि से मसलाधार वर्षा प्रारम्भ कर दी। वे सर्पसपिरणों, जिन्हें बाल्यावस्था में पावकुमार ने बचाने का प्रयत्न किया था, स्वर्ग में देव-देवी हो पायेगे । उन्होंने इस पर्व पर उपसर्ग देखा, तव ध्यानस्थ पाश्वनाथ पर सपं का रूप धारण कर अपने फण फैला दिये । कवि ने इसका संक्षिष्त वर्णन किया किया है
वन में जी आई धो जिमा (ध्यान)। थम्यो जी गगनि सुर तरणो जी विमान ।। पूरव रिपु अधिक तहां कोपयो । करे जी उपसर्ग जिरण नै बढ्न आइ ।। की वृष्टि तहां प्रति करें। तही कामनी सहित आयो अहिराइ ॥श्री०॥१५३।।
बेगि टाल्या उपसर्ग अस (जान)1 जिण जी ने उपनो केवलज्ञान ॥
२१. हर्षकीर्ति
हर्षकीप्ति १७ वीं शताब्दि के कवि थे। राजस्थान इनका प्रमुख क्षेत्र था। इस प्रदेश में स्थान स्थान पर बिहार नारके साहित्यिक एव प्राकृतिक जाति उत्पन्न किया करते थे । हिन्दी के ये अच्छे विद्वान थे। अब तक इनकी चतुर्गति वेलि, नेमिनाथ राजुल गीत, नेमीबरगीत, मोरडा, फर्महिंडोलना, की भाषा छहलेश्याकयित्त, आदि कितनी ही रचनायें उपलब्ध हो चुकी है। इन सभी कृतियों राजस्थानी है । इनमें काव्यगत सभी गुण विद्यमान है। ये कविवर चनारसीदास के समकालीन थे । चतुगंति वेलि को इन्होंने संवत् १६५३ में समाप्त किया था। कवि की कृतियां राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में अच्छी संख्या में मिलती हैं जो इनकी लोकाप्रियता का घोतक है !
२२. भ. सकलभूषण
सफलभूषण भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य थे तथा भट्टारक सुमतिकीत्ति के गुरु प्राता थे। इन्होंने संवत् १६२७ में उपदेशरत्नमाला की रचना की थी जो संस्कृत की अच्छी रचना मानी जाती है । मट्टारक शुभचन्द्र को इन्होंने पान्हवपुराण एवं करकंडुचरित्र की रचना में पूर्ण सहयोग दिया था जिसका शुभचन्द्र ने उक्त
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अवशिष्ट संह
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ग्रन्थों में वर्णन किया है। अभी तक इन्होंने हिन्दी में क्या क्या रचनायें लिखी थी, इसका कोई उल्लेख नहीं मिला था, लेकिन प्रामेर गास्त्र मण्डार, जयपुर के एक गुटके में इनको लघु रचना 'सुदर्शन गीत,' 'नारी गीत' एवं एना पद उपलब्ध हृये हैं। सुदर्शन गीन में सेठ सुदर्शन के चरित्र की प्रशंसा का गई है। नारी गीत में स्त्रो जाति से संसार में विशेष अनुराग नहीं करने का परामर्श दिया गया है। सकलभूषण की भापा पर गुजराती का प्रभाव है। रचनाए अच्छी हैं एवं प्रथम बार हिन्दी जगत के सामने आ रही है ।
२३. मुनि राजचन्द्र
राजचन्द्र मुनि थे लेकिन मे किसी भट्टारक के शिष्य थे अथवा स्वतन्त्र रूप से विहार करते थे इसकी अभी कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। ये १७वीं शताब्दि के विद्वान थे । इनकी अभी तक एक रचना 'चंपावती सील कल्याणक' ही उपलब्ध हुई है जो संवत् १६८४ में समाप्त हुई थी। इस कृति की एक प्रति दि० जन खण्डेलवाल मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। रचना में १३० पद्य हैं । इसके अन्तिम दो पद्य निम्न प्रकार है--
सुविचार धरी तप करि, ते संसार समुद्र उत्तरि । नरनारी सांभल जे रास, से सुख पामि स्वर्ग निबास ॥१२६।।
संवत सोल चुरासीयि एह, करो प्रबन्ध श्रावण यदि तेह । तेरस दिन प्रादित्य सुद्ध वेलावही, मुनि राजचंद्र काहि हरखज सहि ॥१३॥
इति चंपावती सील कल्याणक समाप्त ।।
२४. ३० धर्मसामर
ये भअभयचन्द्र (द्वितीय) के शिष्य थे तथा कवि के साथ साथ संगीतज्ञ भी थे। अपने गुरू के साथ रहते और बिहार के अवसर पर उनका विभिन्न गीतों के द्वारा प्रशंसा एवं स्तवन किया करते। अब तक इनके ११ से अधिक गीत उपलब्ध हो चुके हैं। जो मुख्यतः नेमिनाथ एवं भ• अभय चन्द्र के स्तवन में लिखे गये हैं। नेमि एवं राजुल के गीतों में राजुल के विरह एवं सुन्दरता का अच्छा वर्णन क्रिया है । एक उदाहरण देखिये--
दूखडा लोउ रे ताहरा नामनां, बलि बलि लागु छुपायन रे । बोली पोरे मुझने नेमजी, निठुर न यइये यादव रामनरे ।।१।।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
किम रे तोरण तम्हें माविया, करि समस्यु घणो नेहन रे । पशुभ देखी ने पाछा बल्या, स्यु ये विमास्यु मन रोहन रे ।।२।। इम नहीं मोजे रहा न होला, तम्हे बति मतुर सुजाणन रे। लोकह सार तन कीजोमे, छह न दीजिये निरवारिपन रे ||६
नेमिगीत कवि को अब तक जो ११ कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं उनमें से कुछ के नाम निम्न प्रकार है
१. मरपालडागीत २. नेमिगीत २. नेभीश्वर गीत ४. लालपछेवडी गीत ५. गुरुगीत
२५. विद्यासागर
विद्यासागर भ० शुभचन्द्र के गुरु भ्राता ये जो भट्टारनः प्रमयचन्द्र के शिष्य थे । मे बलात्कारमण एवं सरस्वती गम्छ के साधु मे। विद्यासागर हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे। इनकी प्रश्च तक 11) सोलह स्वप्न, (२) जिन अन्म महोत्सब, (३) सप्तव्यसन सवैप्या, (४) दर्शनाएमांग, (५) विषाणहार स्तोत्र भामा, । ६) भूपाल स्तोत्र भाषा, (७) रविवतकथा (८) पद्मावतीनीयोनति एवं (e) इन्द्रप्रभनीबीनती ये ६ रचनायें उपलब्ध हो चुकी है। इन्होंने कुछ पद भी मिले हैं जो भाव एवं भाषा की दृष्टि से प्रत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । यहां दो रचनामों का परिचय दिया जा रहा है।
जिन जन्म महोत्सव षट पद में तीर्थकर के जन्म पर होने वाले महोत्सव का पएन किया गया है। रचना में केवल १२ पञ्च है जो सबंग्या सन्द में हैं। रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं मिलता । रचना का प्रथम पद निम्न प्रकार है
श्री जिनराज नो जन्म जाणा शुरराज जमा । वात वयणे कीर सार श्वेत बरावण ज्यावै ।। प्रति बयणे बसवंत दंत दंतेक सोबरः। सरोवर प्रति पानीस समलनिसीहे सुकर ,
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अवशिष्ट संत
कमलनि कमलनि प्रति भला कवल सबासो जागीये।
प्रति वमले शुभ पालड़ी वसुधिक सत बखासीये ।।१।। २६. म० रत्नचन्द्र (द्वितीय )
भ० प्रभयचन्द्र की परम्परा में होने वाले म शुभचन्द्र के ये शिष्य थे तथा ये अपने पूर्व गुर.ओं के समान हिन्दी प्रेमी सन्त थे। अब तक इनकी चार रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं
., मादिनाथगीत
• बनिनुमीत ३. चितामणिगीत
४. बावनगजागीत उक्त रचनात्रों के अतिरिक्त इनके कुछ स्फुट गीत एवं पद भी उपलब्ध हुये हैं। 'बावनगजागीत' इनकी एक ऐतिहासिक कृति है जिसमें इनके द्वारा सम्पन्न चूलगिरि की संसथ यात्रा का वर्णन किया गया है। यह यात्रा संवत् १७५७ पौष सुदि २ मंगलवार के दिन सम्पन्न हुई थी।
संवत् सत्तर सतबनो पोस सुदि बीज मोमवार रे। सिद्ध क्षेत्र अति सोभतो तेनि महि मानो नहि पार रे ।।१४।। श्री शुभचंद्र पटुं हवी, परखा वादि मद भंजे रे । रत्नचन्द्र सुरिवर फहें भव्य जीव मन रंजे रे ॥१५॥
चितामणि गौत में प्रकलेश्वर के मन्दिर में विराजमान पार्श्वनाथ की स्तुति की गयी है।
रत्नचन्द्र साहित्य के अच्छे विद्वान् थे। ये १८वीं पातान्दि के द्वितीय-तृतीय चरण के सन्त थे।
२७. विद्याभूषण
विद्याभूषण भ० विश्वसेन के शिष्य थे। ये संवत् १६०० के पूर्व ही भट्टारक बन गये थे। हिन्दी एवं संस्कृत दोनों के ही में प्रच्छ विद्वान थे। हिन्दी भाषा में निबद्ध प्रय तक इनकी निम्न रचमा उपलब्ध हो चुकी है
संस्कृत मथ १. लक्षण चौवीसी पद १. बारहसचौतीसो विधान
१. देखिये ग्रंप सभी भाग-३ पृष्ठ संख्या २१४
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२१०
राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
२. द्वादशानुप्रेक्षा ३. भविष्यदत्त रास
भनि प्रपत्त साताको सपना सावरका परिचय निम्न प्रकार है
भविष्यदत्त के रोमाञ्चक जीपन पर जैन विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी राजस्थानी आदि सभी भाषानो में पचासों कृतियां लिखी है। इसकी कथा जनप्रिय रही है और उसके पढने एवं लिखने में विद्वानों एवं जन साधारण ने विशेष रुचि ली है। रचना स्थान सोजत्रा नगर में स्थित सुपार्श्वनाथ का मन्दिर धा। रास का रचनाकाल संवत् १६०० श्रावण सुदी पञ्चमी है। कवि ने उक्त परिचय निम्न छन्दों में दिया है
काष्ठासंघ नंदी तट गच्छ, विद्या गुण विद्या स्वछ ।
रामसेन वंसि गुणनिला, धरम सनेह मागुर भला ॥४६७।। विमलसेन तस पाटि जारिण, विशालकीत्ति हो प्रावुच जाण । तस पट्टोधर मद्दा मुनीश, विश्वसेन सूरिवर जगदीस' ।।४६८।। सकल शास्त्रु तण मंडार, सर्व दिगंबरनु शृगार। विश्वसेन सूरीश्वर जाण, गछ जेहनो मांनि आंग ।।४६९।। तेह तरणु दासानुदास, सूरि विद्याभूषण जिनदास । आणी मन मांहि उल्हास, रचीन्द्र रास शिरोमणिदास 1॥४७०।। महानयर सोजत्रा ठाम, त्यांह सुपास जिनबरनु घाम । भट्टै रा ज्ञाति अभिराम, नित नित फरि धर्मना काम ॥४७१।। संबत सोलसि थावण मास, सुकल पंचमी दिन उल्हास । कहि विद्याभूषण सूरी सार, गस ए नंदु कोड वरीस ॥४७२॥
भाषा
रास की भाषा राजस्थानी है जिस पर गुजराती भाषा का प्रभाव है ।
छन्द
इसमें दूहा, चउपई, वस्तुबंध, एवं विभिन्न हाल है । ' wwwwwww ---maunware -
२. मट्टारक सम्प्रवाय-पृष्ठ संख्या-२७१
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अवशिष्ट संत
प्राप्ति स्थान-रास की प्रति दि. जैन मन्दिर बड़ा तेरह पंथियों के शासन भंडार के एक गुटके में संग्रहीत है। गुटका का लेखन काल सं० १६४३ से १६६१ तक है । रास का लेखनकाल सं० १६४३ है।
२८. ज्ञानकीर्ति
ये वादिभूषण के शिष्य थे । आमेर के महाराजा मानसिंह (प्रथम) के मत्री नानू गोधा की प्रार्थना पर इन्होंने 'यशोधर चरित्र' काव्य की रचना की थी।' इम कृति का रचनाकाल संवत् १६५९ है । इसकी एक प्रति आमेर शान्त्र भंडार में संग्रहील है।
श्वेताम्बर जैन संत
अब तक जितने मो सन्तों की साहित्य-सेवाओं का परिचय दिया गया है. वे सब दिगम्बर सन्त थे, किन्तु राजस्थान में दिगम्बर सन्तों के समान श्वेताम्बर सन्त भी सैकड़ों की संख्या में हुए है-जिन्होंने संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानो कृतियों के माध्यम से साहित्य की महती सेवा की थी। श्वेताम्बर कवियों की साहित्य सेवा पर विस्तृत प्रकाश कितनी ही पुस्तकों में डाना जा चुका है । राजस्थान के इन सन्तों को साहित्य सेवानों पर प्रकाश डालने का मुख्य श्रेय श्री अगरचन्द जी नाहटा, डा० हीरालाल जी माहेश्वरी प्रभृति विद्वानों को है जिन्होंने अपनी पुस्तकों एवं लेखों के माध्यम से उनकी विभिन्न कृतियों का परिचय दिया है। प्रस्तुत पृष्ठों में स्वेताम्बर समाज के कतिपय सन्तों का परिचय उपस्थित किया जा रहा है:२६. पुनि सुन्दरमरि
ये तपागच्छोय साधु थे 1 संवत् १५०१ में इन्होने 'सुदर्शन किरास' की रचना की थी। कवि की अब तक १८ से भी अधिक रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं । जिनमें 'रोहिणीय प्रवन्धरास', जम्बूस्वामी चौपई', 'वनस्वामी चौपई', अभय
इति श्री यशोषरमहाराजचरित्र भट्टारकधीव विभूषण शिष्याचार्य श्री शानकीतिविरचिते राजाधिराज महाराम मान सिंह प्रधानसाह श्री नानूनामांकि भट्टारकश्रीअभयस्यावि दीक्षानहम स्वर्गादि प्राप्त वर्णनो नाम नवमः सर्गः ।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एनं कृतित्व
कुमार | सिकरास' के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । श्री अगरचन्द जी नाहटा के अनुसार मुनि सुन्दर मूरि के स्थान पर मुनिचन्द्रप्रभ सूरि का नाम मिलता है ।' ३०. महोपाध्याय जयगसागर
__ जयसागर खरतरगच्याच यं नि म रेमिय: हीरालाल जी माहेश्वरी ने इनका संवत् १४५० से १५१० तक का समय माना है । जब कि डा० प्रेमसागरजी र इन्हें संवत् १४७८-१४६५ तक का विद्वान माना है। ये अपने समय के अच्छे साहित्य निर्माता थे । राजस्थानी भाषा में निबस कोई ३२ छोटी बड़ी कृसिया अब तक इनकी उपलब्ध हो चुकी है। जो प्रायः स्तवन, धोनती एव स्तोत्र के रूप में हैं । संस्कृत एवं प्राकृत के भी ये प्रतिष्ठित विद्वान थे। 'सन्देह दोहावाली पर लघुवृत्ति', उपसर्गहरस्तोत्रवृत्ति, विज्ञप्ति त्रिवेणी, पर्वरश्नावलि कथा एवं पृथ्वीचन्दचरित्र इनकी प्रसिद्ध रचनायें हैं । ३१. वाचक मतिशेखर
१६वी शताब्दि के प्रथम चरण के श्वेताम्बर जैन सन्तों में मतिशखर अपना विशेष स्थान रखते हैं। ये उपकेमागच्ट्रीय शीलसुन्दर के शिष्य थे। इनकी अब सक सात रचनायें सोजी जा चुकी है जिनके नाम निम्न प्रकार है
१. धन्नारास (सं० १५१४) २. मयणरेहारास (सं० १५३७) ३. नमिनाथ बसंत फुलडा ४. कुरगढ़ महर्षिरास ५. इलापुत्र चरित्र माथा ६. नेमिगीत ७. बावनी
३२. हीरानन्दमूरि
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ये पिप्पलगच्छ के श्री वीरप्रभसूरि के शिष्य थे। हिन्दी के पे मच्छे कवि थे। are -one
-oranara - -- - १. परम्परा-राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल-पृष्ठ संख्या ५६ २. राजस्थानी भाषा और साहित्य--पृष्ठ संख्या २४८ ३. हिन्वी जन भक्तिकाध्य और कवि-पृष्ठ संख्या ५२ ४. राजस्थानी भाषा और साहित्य-पृष्ठ सं० २५१ ५. हिची जैन भक्ति काव्य और कवि-पृष्ठ संख्या ५४
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भवशिष्ट संत
२१३
अब तक इनकी वस्तुपाल तेजपाल रास (सं० १४८४) विद्याविलास पचाडो (वि०सं० १४८५) कलिकाल रास ( वि० सं० १४८६ ) शार्णमदरास, जंबूस्वामी वीवाहला (१४६५)ौर स्यूलिभद्र बारहमासा आदि महत्वपूर्ण रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं। विद्याविलास का मंगलाचरण देखिये जिसमे ऋषभदेष, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पाश्चं नाथ, महावीर एवं देवी सरस्वती को नमरकार दिया गया है
पहिसुप्रणमीय पढम जिणेसर सत्तु जय अवतार। हथियारि भी शांति जिणेसर उज्जति निमिकुमार ।
जीरा लिपुरि पास जिणेसर, सांचटरे वर्तमान । कासमीर पुरि सरसति सामिरिण, दिउ मुझ नई बरदान ॥
३३. वाचक विनय समुद्र
ये उपफेशीयगन्छ वाचक हर्ष समुद्र के शिष्य थे। इनका रचना काल संवत् १५८३ से १६१४ तक का है। इनकी बीस रचनाओं की खोज की जा चुकी है । इनके नाम निम्न प्रकार है
पत्र संख्या ५६३ पद्य संख्या २४८
पद्य सख्या २४७
पद्म संख्या ४४
१ विक्रम पंचदंड चौपई (सं० १५८३) २. आराम शोभा चौपई ३. अम्बड चौपई
१५९९ ४. मुगावती चौपई
१६०२ ५. चित्रसेन पमा वस्तीरास ६. पद्मचरित्र
१६०४ ७. शीलरास ८. रोहिशोगस ९. सिंहासनबत्तीसो १०. पाश्र्वनाथस्तवन ११. नलदमयन्तीरास
१६१४ १२. संग्राम सूरि चौपई १३. चन्दनबालारास १४. नमिराजषिसंधि १५. साघु वन्दना १६. ब्रह्मपरी गाथा
पद्य संख्या ३९
पच संख्या ६६
१०२
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१. देखिये परम्परा-राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल--पृष्ठ सं० ६६-७६
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२१४
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१७. सीमंघरस्तवन १८. शाजय प्रादिश्वरस्तवन १६. पादनाथरास २०. इलापुत्र रास
३४. महोपाध्याय समयसुन्दर
'समयसुन्दर' का जन्म सचिोर में हुआ था। इनका जन्म संवत् १६१० के लगभग माना जाता है । डा० माहेश्वरी ने इसे सं० १६२० का माना है । इनकी माता का नाम लीलावे था । युवावस्था में इन्होने दीक्षा ग्रहण करली और फिर काष्य, चरित, पुराण, व्याकरण शE, ज्योतिष अदि विषम प्राहिम का पहिले लो अध्ययन किया और फिर विविध विषयों पर रचनाएं लिखीं । संवत् १६४१ से अापने लिखना प्रारम्भ किया और संवत् १७०० तक लिखते ही रहे। इस दीर्घकास्त में इन्होंने छोटी-बड़ी सैकड़ों ही कृतियां लिखी थीं। समय सुन्दर राजस्थानी साहित्य के प्रभूतपूर्व विद्वान थे, जिनकी कहावतों में भी प्रशंसा परिणत है।
उक्त कुछ सन्तों के अतिरिक्त संघकलश, ऋषिवर्द्धनमूरि, पुण्यनन्दि, कत्याग तिलक, क्षमा कलश, राजशील, बारक धर्मसमुद, पाश्वचन्द्र सूरि, वाचक वितयस मुद्र, पुण्य सागर, साधु कत्ति, विमलकीति, याचक गुणस्न, हेमनदि सूरि, उपाध्याय गुण विनय, सहजकीति, जिनहर्ष, व जिन समुद्रसूरि प्रभृति पचासों विद्वान् हरा हैं जो महान व्यक्तित्व के धनी थे, तथा अपनी विभिन्न कृतियों के माध्यम स जिन्होने साहित्य की महती सेवा की थी। देश में साहित्यिक जागरूकता उत्पन्न करने में एवं विद्वानों को एक निश्चित दिशा पर चलने के लिए भी उन्होने प्रशस्त मार्ग का निवेश किया था।
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कतिपय लघु कृतियां लघु कृतियां और उद्धरण
भट्टारक सकलकीर्त्ति (सं० १४४३-१४६६ )
सार सोखामणि रास ( पृष्ठ संख्या १-२१/१७ )
मवि जिावर वीर, सीखामणि कहिसु समरवि गोतम धीर, जिरावाणी पसरणे ॥१॥
लाल चुरासी माहि फिरं तु, मानव भव लीनु कुलवतु । इन्द्रयु निरामय देह, बुधि बिना विफल सहु एह ||२||
एक मनां गुरु वारिण सुगीजि, बुद्धि विवेक सही पामीजि । पढ पढाबु आगम सार सात तत्व सीखु सविचार || पढ कुशास्त्र में काने सुरपु नमोकार दिन रमणीय गुणु ॥१३॥
एक मन जिनवर भाराष्ट्र, स्वर्ग मुगति जिन हेला साधु । जाख सेष जे बीजा देव तिह तरणी नवि कीजे सेब ||४||
गुरु नियथ एक प्रामीजि, कुगुरु तरणी नदि सेवा कीजि । धर्मवंत ती संगति करु, पापी संगति तम्हे परिहरु ||५||
जीव दया एक धर्म करोजि, तु निश्चेि संसार तरीजि । भावक धर्म करु जंगिसार, नहि भुल्यु तम्हे संयम भार ||६||
धर्म प्रपंच रहित तम्हे करु, कुधर्म सबै दूरि परिहरु । जीवत माइ माप सुनेह, धर्म करावु रहित संदेह ||७||
मूयां पूठि जं कांई कीजि, ते सहूइ फोकि हारीजि । हट समकित पालु जगिसार, मूढ परंतु मूकु सविचार ॥८॥
रोग क्लेश उप्पना जागी, धर्म करावु शकति प्रभारणी । महल पूछ कहि नवि कीजि, करम तां फल नवि छूटीजि || ९ ||
प्राय मररण तम्हें दृढ होज्यो, वीक्ष्या अणसा वन्हि लेयो । धर्म करो निफल मनमांगु, मारमि भुगति क्षणि तम्हे लागु ॥१०॥ ॥
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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
फुलि माव्या मध्यात न कीजह संका सवि टाली पालीजि । जे समकित पालि नरनार, से निश्चि तिरसि संसार ॥११॥ ये मिथ्यात घणेरु फरेसि, से संसार घणु दूबेसि ।
--वस्तु--
जीव राखु जीव राखु काम छह भेद । असोय लक्ष चिहूँ अगली एक चित्त परणाम प्राणीह । चालत दिसत सूयतां जीव जंतु सठाण जारणीय । जे मर मन कोमल करी, पालि हया अपार । सार सौख सवि मोगयी, ते तिरसि संसार ।।
--ढाल बीजीजीब दया दृह पालीइए, मन कोमल कीजि । आप सरीखा जीव सबे, मन माहि घरीजड ।) माहण धोयण काज सवे, पाणी गली फरु । प्रण गल नीर न जडीलीहए दातण मन मोड ।। गाढि घाई न मारीइए सवि चुपद जाणु । कणसह का मन वगण करु, मन जिम वा आगु ।। पसूय गाडू नवि गांधीहए, मवि छेदि करीजि । भामउ पहिरु लोम करी, मवि भार करीजि ॥ लहिरिण देवि काज करी, लोपरिण म करा । च्यार हाथ जोईय भूमि, तम्हे जाउ पाच ॥ फामु प्राहार जामिलु, मन प्राफरणी रांधू । अंगीठु मन तम्हे करु मन बायुध सांषु ।। लाकड न विकयावीइए नालाम चडा । संगा तणा वीवाह सही, म करु म करा ।। लोह मधु विष लाल तोर विषसा छोड । मिण महर्जा कंद मूल मोखण मत वावु ॥ कंटोल साबू पान पाहि घाणी नवि की जा । खटकसाल हथीयार आगि मांग्या नपि दीजि ।।
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सारसीखामणिरास
नारी चालक रीस करी फातर मन मारु। तिल विट जल नधि घालीइए मूपां मन सारु ।। भूठा पचन न बोनीहए करकस परिहरु । मरम म बोलु किहि तसा ए चाडो मन का ।। धर्म करता न वारीइए नवि पर नंदीजि । परगुण दांकी आप तरणा गुरण नवि बोलीजइ ॥ नाल जवाई न वोलीइए हासुमन कर। आसन जि का परि नवि दुषरण धर । अप्रीछयं नपि ओलिइए नयि बाप्त करीमइ । गाल न दीजि वचन सार मीठु बोलीजि ॥ परिधन सवि तम्हे परिहरू ए चोरी नावे की जइ। चोरी आरपी वस्तु सही मूलि नवि लीजि । अधिक लेई निकोहीय परि उछु मन बालु । सखर विसाणा माहि सही निखर मन धालु ।। थांपास मोसु परिहाए पड़ीउ मन लेयो। कूष्ट लेस्नु मन करुए मन परत्यह कीयो । धानारी विण नारि सवे माता सभी जारगृ । परनारी सोभाग रूप मन हीयच पाणु ।। परनारी सु' बात गोठि संगति मन करु | रूप नरीक्षण नारि तणु धेश्या परिहरू ।। परिग्रह संख्या तम्हे करुए मन पसर निवारु । नाम विना नदि पुण्य हुइ हुइ पाप अपारु ।
-बस्तु
तप तपोजइ तप तपीजइ भेद छि बार। करम रासि इचण अग्नि स्वगं मुगति पग थीय जाणु । तप चितामरिण कलपतरु वस्य पंच इद्रीप प्राणु । जे मुनिवर सकति करी तप करेसि घोर । मुगति नारि वरसि सही करम हणीय कठोर m
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
----अथ ढाल श्रीजी--
देश दिशानी संग्या करु, दूर देवा गमन परिहरु । जिरिए नयर धर्म नवि कीजि, तिरिस नयर वासु न वसीजि ! देश वत्त' तम्हे उठी लेयो, गमन तणी मरयाद करेयो। दुषगा सहित भोग रहे टालु, कंद मूल प्रचार राल !! सेलर फूल सवे बीली फल, पत्र साफ विंगरण कालीगड ।। बोर महूजां प्रण जापयां फल, नीम फरेयो तम्हे जोब फल । धानसाल नां घोल कही जि, दिज बिहु पूठि नीम फरोजि । स्वाद चस्यां जे फूल्या धान, नाम नही ते मारणस खान ।। दीन सहित तम्हे ज्यालू करु, राति प्राहार सबि परिहरु । उपवास अथलु फल पामीज, पाणु फल दासन परीणि ।। एक बार बिघार जमीजइ, अरता फिरता नदि खाईजइ । बस्तु पाननी संख्या कीजि, फूल सचित्त टाली घालीजि ॥ . श्रण काल सामायक लेयो, मन र धानि ध्यान करेयो । आदमि चौदिश पोसु धरू, घरह तणा पातिक परिहरू । उत्तम पात्र मुनीश्वर जाण, श्रावक सध्यम पात्र बखाण ।। आहार ऊपध पोथी दोजह, अभयदान जिन पूजा कीजइ ।। धाडु दान सुपात्रां दीजि, परिवि फल अनंत लहीजइ । दान बुपात्रां फल नवि पावि, असर भूमि बीज व आदि । दया दान तम्हे बेयोसार, जिरणवर निबं का उचार ।। जिरावर भवननी सार करेज्यो, लक्ष्मीनु फल तम्हे लेज्यो ।।
--वस्तु--
दमु इन्द्री दमु इन्द्री पंच छि चोर घर्भ रहन चोरी करीय नरग माहि सेईय मूकि। सबहु दुःखनी खाण जीय रोग सोक मंडार हूकि । जे तप खड़ग घरीय पुरुष इन्द्री. करि संघार । देवलोक सुख भोगवी ते तिरसि संसार |
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सारसीखामणिराम .
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--अथ ढाल चुथी-- योवन रे कुटंब हरिधि लक्ष्मीय चंचल जाणीइए। जीव हरे सरण न कोई धर्म मा सोई आदि । संसार रे काल बनादि जीव बागि घर फिरयुए। एकलु रे आवि जाइ कर्म आठे गलि धरयुए। काय थोरे जू जूउ होइ कुटंब परिवारि वेगलुए। शरीर रे नरग मंडार मूबीय आसि एकलु ए। खिमा रे खडग घरेवि क्रोध विरी संघारीइए। माहव रे पालीद सार मान पापी पलं टालीइए। सरलु रे बित्तकरेवि माया सवि दूरि फरुए। संतोष रे आयुध लेवि लोभविरी संघारीइए । वेराग रे पालीइ सार, राग टालु सकलकोत्ति कहिए । जे भरिगए रास ज "सार सीखा मणि" पठते लहिए ।
इति सीखामणिरास समाप्त:
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ब्रह्म जिनदास ( समय १४४५ - १५१५ ) सम्यक्त्व - मिथ्यात्वरास '
ॐ नमः सिद्ध ेभ्यः
[ १ ] ढाल वीनतीनी
सरसति स्वामिरिण जीनवड मांगू एक पसाउ । तह परसादेइ गाइस्यु रुवडो जिरावर राउ ।। १ ।। सहीए समाणीए तम्हे सुखो सुरगड अम्हारीए बात । जिण चैत्यालइ जाइस्यु छांड़ि घरकीय तात ॥२॥ ग पखाली आपणो, पहिरो निरमल चीर । जिन चेत्याह पंसतां निरमल होइ सरीर ||३|| जिरावर स्वामिह पूंजी बांदी सह रुपाय | तत्व पदारथ सांभलि निरमल कीजिए काय ||४||
}
•
सहगुरु स्वामि तम्हे कह, श्रावक धर्म वीचार | उतीम धरम जगि जारिए उतीम कुलि अवतार ॥१५॥ सहगुरूस्वामिय बोलीया मधुरीय सुललीत बाणि । श्रावक धरम सुणी निरमलो जीम होइ सुखनीय लाश ॥६॥
समिति निरमल पालीए, टालि मिश्रातह कंद | जिवर स्वामिय व्याइए, जैसो पूनिम चंद ॥७॥
वस्त्राभरण थाए वेगला जयमालि करी नवि होइ । नारी ग्रायुध थका वेगला, जिन तोलें अवर न वोइ ||८|| सोम मूरति रलीयावरणा बीकार एक न अगि । दीसंता सोहावरणा, ते पूजी मनरगि॥६॥
इन्द्र नरेन्द्र पुजीया न जिरावर भुमति दातार । निरदोष देव एह्वा घ्याइये, जोम रामो भवपार ॥१०॥
अवर देव नवी मानी दुखरा सहीन वीचार | मोहि कमि जे मोहीया ते अजू भमिसो संसारि ॥११॥
१. ब्राजिनवास कृत विशेष परिचय बेखिये पृष्ठ संस्था ३८-३९ तक
NAV
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सम्यक्त्व मिथ्यात्व रास
वस्त्राभरणई मंडीया, सरसीय दीसे ए नारी । आयुध हाथि बीहावरण, अजीय नमु कीय मारी ॥ ११२ ॥
जे पानि जीव मारेए ते, क्रीम कहीय ए देव । जें धरमन पामी, झणी करो तेहनीय सेव ॥ १३॥
दोसता वाचरणा देवदेवो तह जाणो । रौद्रध्यान दीठें उपजे मरणोकरी तेह...
१४
बडपीपल नवि पुजीए, तुलसी मरोय उबारि । दोष लाड नवि पूजिए, एक बीचारउ नारि ॥१५॥
उबर थमन पूजीए, कात्रिणी चुरहट प्राणि ॥ घागर मडका पूजी करी ते कान्हं फल मन मागि ।।१६।।
1
सागर नदोधन पुजीए, वावि कुबा अडसोड | जलवा एन जुहारीय ए, सवे देव न हो६ ॥ १७॥
राजघोडा नवि पुजीए, पसुव गाइ सवे मोर । काग वास जे नाबि से, माणस नहीं ते ढोर ।। १८ ।।
खीचड पीतर न पुचीए, एकल टिम घालो । मूलां पुठे नवि कलपीए, कुदान की हानम भालो ॥ ११ ॥
उकरडी नवि पुजोए होलीय तम्हे म जुहारी | गाजर नवि मानी, भवा मिथ्यात नी बारो ॥२०॥
f २
]
दाल बीजी
मिथ्यात सयल नीवारीए, जाग म रोपट नारि । माटी कोउतु करीए पछे किम मोडीए गंवारि ॥ १ ॥ ॥
ताम धान बोवावीए कहीए रना देदि तेह | सात दीवस कागें यूजीए, पछे किम बोलीए तेह ॥२॥
जोरतादेवि पुत्र दे, तो कोई बाभीयो न होइ । पुत्र धरम फलं पामीड, एह बीचार तु जोइ || ३ ||
धरम पुत्र सोहावरणाए, धरमइ लागि भण्डार 1 धरमइ घरि बधावरणा, घरमइ रूप प्रपार ||४||
२२१
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राजस्थान के र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इम जाणी तम्हें धरम करो, जीवदया जगि सार । जीम एहां फल पामीइ, वली तरीए संसारि ।।५।। सील साताभ ब्रीय मामि, नवाज नलि दुखखारिए । जीवरती सयल निवारीइ, जीम पामो सुखखाणि ।।६।। आदित रोट तम्हे झणी करो, माहा माई पुज निवारि । फलप्प कहो किम खाइए, थावक धरम मशारि ।।७।। गुरुणा रोट तम्हे झरणी करो, नारीय सपल सुजाणि । रोट दी नवि भुझीए, गृझीए पापं बखागि ॥८॥ रोट तु नबि सोभाग रहें दोमागजि होइ। धरमें सोमाग पामीऐ, पापें दो भाग जिहोइ ||६|| रोट बरत जे नारि करे, मनि धरि अति बहभाउ । घीय गुल दहि काकडि, ए खवा को उपाय ॥१०॥ जाग भोग सतारणा, मंडल सयल मिथ्यात । संका सबल निवारीए, बाडीए मूढ तरणी वात ॥११॥ नव राव मोडण न पुजीए, एह मिथ्यातजी होई। नबराति जीवा मेरे घगा, एह वीचार तु जोइ ।।११॥ कुल देवता नवि मानई, दोराडी मिथ्यातमी होह। जिण सासण ध्याउ निरमलो, एह वीचार तु जोई ॥१३॥
हाल सहेलडी की म्वा बारसी म करो हो, सराधि मिथ्यातजि होइ। परोलोकी जीव किम पामिसि हो, एह वीचारतु जोइ साहेलडी ॥११॥ जिन घरम प्रराधि सुचंदो, छेदि मिथ्यातहं कंदो। पीतर पाटा तम्हे मलीखोहो, एह मीच्या तजिहोइ । मूवो जीव कीम पाछो आवे, एह योचार तुजोइ स हेलड़ी ग्रहणममानो राहतणी हो, एह मिथ्यात जी होइ । चांद सूरिज इंद्र निरमला हो, एह ने ग्रहण न होइ सलेलडी ॥३॥ माहम ना हो सुधार हो, एह, मिथ्यात जी होइ। अनगलि नीर जीव मरे प्रणाहो, एह वीचार तु नोह ॥ सहे. 11४।।
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सम्यवाव मिथ्यात्व राम
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ग्यारसि सोमवार दितबार हो,ए लोकीक परम होइ । सांच्यो दितवार म करो हो, एह वीचार त जोइ ।। सहे० ॥५।। डावें हाथि तम्हे म जीमो हो, नवसीईफलनवि होह। अपवित्र हाथ ए जाणीइ हो, ए बीचार तु जोह ॥ सहे० ॥६॥ कष्ट भक्षण तम्हे म करोहो, एह मिथ्यातजि होइ । प्रातमा हत्याय नीय जो हो, पह वीचार तुजोइ ।। सहे० ॥७॥ सीता मंदोबरि द्रौपदी हो, अजना सुपरी सती होइ । कष्ट भक्षण इणे नवी कीयाए, एह वीचार लु जोई ।। सहे. तारा सुलोचना राजमती हो, चंदन बाला सती हो । कष्ट भक्षरा नवि इगा कीया, एह वीचार तु जोह ।। सहे. ॥६॥ नीलीय चेलणा प्रभावती हो, श्शनमती सती हो। कष्ट भक्षण नबि इन्हु कीघो, एह वीचार तु जोइ ।। सहे. ॥१०॥ प्राझिय सुंदरि अहिल्यामती हो, मदनमंजूषा सती होड । कष्ट मक्षरंग नवि इन्हु कोधो, एह वीचार तुजोइ ।। सहे० ॥११|| रुकुमीरिंग जांबुवती सतीभामाहो, लक्षमीमती सती हो । कष्ट भक्षण नवि इन्हु कोधो, एह वीचार तु जोइ ।। सहे० ।।१। पही मरण न बांछीए हो, कुमरणे सुगति न होइ । समाधि मरण मीत बांछीए हो, जीम परमापद होइ ।। स है ० ।।१३।। ना जप ध्यान पुजा कीधे हो, सीयल पाले सती होइ । सीयली आगि सम्ह मनदिनसाधो, जीम परमापद होइ ॥ सहे. ॥१४॥ छम जारिण निश्च्यो करिहो, मिथ्यात झरणी करो कोइ । समिकीत पालो निरमलो हो, जीम पर मापद होइ ।। सह ० ।।१५।। पाणि मथिइजीम घी नहीं हो, तुष माहि चीउल न होइ । तीम मिथ्या धर्म सम बहु कीये, श्रावक फल ननि होइ ।। सहे. ॥१६॥
भास रासनी
पंचम कालि अज्ञान जीव मिथ्यात प्रगट्यो अपारतो। मू लोकें बहु आदर्योए, कोण जाणे एह पारतो॥१।।
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राजस्थान के जैन संत : यक्तित्व एवं कृतित्व
वैवली मास्यु घरम फरोए, श्वावक तुम्हें इसुजाणतो। निग्रंथ गुरु उपद्वैसीयाए तेहनी करउ बखाणतो ।।२।। जीव दया वत पालोयए, सत्य वमण बोलो सारतो। परधन सयल निवारीमए, जीम पामो भवचारतो |॥३॥ शीयल वरत प्रतिपालीथए, त्रिभुवन माहि जे मारतो। परनारी सवे परह रोए, जीम पामो भव ए पारसो॥४॥ परिग्रह मक्षा (स्या) तम्ह करो ए, मन पसरतो निवारितो। नीम घणा प्रतिपालीयए, जीम पामो भव पारतो ॥५॥ दान पुजा निस निरमःलए, माहा मंत्र गणों एवकारतो । जिणबर भुवन करावीथए, जीम पामो भव पारतो ॥६॥ चरम पात्र घृत उदकए, छोती सबल नीवारि तो। प्राचार पालो तिरमलोए, जीम पामो भव पारतो ॥७॥ सोलकारण व्रत तम्हें करोए, दश लक्षण भव पारतो । पुष्पांजनि रत्नत्रयह, जीम पामो भय पारतो ॥८॥ अक्षयनिधि वस तम्हे करो, सुगंध दशमि भव पारतो । आकासपांचमि निझरपोचमीम, जीय जीम पामो मत्रपारतो ॥६। चांदन छटो अत तम्हे करो ए, अनंतबरत भव तारतो। निर्दोष सातमि मोड सातमिह, जीम पामो भव पारतो ॥१०॥ भुगतावलि व्रत तम्हे करोए, रतनावलि भव तारतो। कनकावलि एकावलिए, जीम पामो भवपारतो ।।११।। सबघवोधान व्रत तम्हे करोए, तमंद भव तारतो। नक्षत्रमाला कर्म निर्जलीयं, जीम पामों मव पारतो ॥१२॥
नंदोस्वर पंगति तम्हे करोए, मेर पंगति भक तारतो । विमान पंगति लक्षण पंगतीय, जीम पामो भवपारतो ।।१।।
शीलकल्याएष यत तम्हे करोए, पांच ज्ञान भव तारतो। सुख संपति जिणगुण संपतीय,जीम पागो भव पारतो ॥१४॥
बोवीस तीर्थकर तम्हे करोए, भावना पौपीसी भव तारतो । पल्योपम कल्याणक तम्हे करोए, जीम पामो नव पारतो ॥१५॥
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सम्यक्त्व मिथ्यात्व रास
चारित्र सुधि तप तम्हे करोए, धरम चक्र मव तारतो । जतिय वरत सये निरमलाए, जीम पामो भवपारतो ॥१६॥ दीवाली प्रब तम्हे करोए, भाखातीज मच तारतो। चीजय दशमि बलि राखीडी ए, जीम पामो भव पारतो ।।१७|| आठमि चोदसि परब तीथि, उजालि पांचमि भव तारतो। पुरंदरविघान तम्हे करोए,जीम पामो भव पारतो ॥१८॥ जोण सासण अनंत गुण कहो, कीम लाभ ए पारतो। केवल भाक्षो (स्यो) धर्म करोए, जीम पामो भव पारतो ॥१६ समिकित रासो निरमलो ए, मिथ्यातमोज एकंदतो। गावो भवीयरण रुवडोए, जीम सुख होइ अनंदतो॥२०॥ श्री सफलकोति गुरु प्रणमीनए, श्री भवन कीति भवतारसो। ब्रह्म जिणदास भरणे ध्याइए, गाइए सरस अपारतो ।।२१।।
॥ इति समिकितरासन मीच्यात मोड समाप्तः ।।
पामेर शास्त्र भंडार जयपुर
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सुत्रवलि' ( रचनाकाल सं० १५१८ १
बोली
तेह श्री पद्मसेन पट्टोवरण संसारसमुद्र तारपतरण सन्मार्ग्रचरण पंचेन्द्रिय विकिरण एकासीमइ पाटि श्री भुवनकीर्ति राउलजपना पूरा जिशि श्री भुवनकीतिर ढोली नवर मध्य शुलतान श्री वडा महिमुदसाह समातर आपण विद्यानि प्रमाणि निराधार पालखी चलावी । सुलतारण महिमुदसाह सह यइ भान दी | तेह्र नयर मध्य पत्रालबन बांधी पंच मिथ्यात्ववादी वृदराज सभी समस्त लोकविद्यमान जीता। जिनधर्म प्रगट कीधु । अमर जस इणी परि लीघु । श्रनि देह श्री गुरु तरिष पाटि श्री भावसेन अनि श्री वासचसेन हुया । जे श्री बासवन अलमलिन गात्र चारित्रमात्र नित्य पक्षोपवास अनि अंतराइ निसंयोग मासोपवास इसा तपस्वी इरिए का लिहूया न कोसि । प्रनि तेति नामित पीनस्पति समस्त कुष्टादिक व्याधि जाति । ते गुरुंना गुण केतला एक बोली ।। हृवि श्री मासेन देव तरिश पाटि श्री रत्नकीर्ति उपन्ना ।
बंद त्रिवलय
श्रीमंदीच्छे पट्टे श्रीभावसेगस्य । नयाा गारी उपन्नो रमणकीत्तियां ||१
उपनु कति सोहि निम्मल वित्त | विस्यात क्षिति मति ॥ जोतु जीतु रे मवन बल संयु न दाहीछलि जिनवर धम्म बली बुरा-धरो ।।
जाणि जारिए रे गोयम स्वामि तम नासि जेह नामि । रहा उत्तम ठामि मंडोवरा ||
छांड्य छां रे दुर्जय क्रोध अभिनवू एह योध | पंचेही की रोत्र एकक्षणं ||२||
उद्धरण ते पाव नरयती भांजी वाट मांडीला नवा अवाट विवह पार ||
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१. आचार्य सोमकीति को इस कृति का परिचय देखिये पृष्ठ संख्या-४३ पर देखिये ।
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गुर्वावल
प्रारण आणि रे जेन मारा सर्वविद्या तर जाता । नरवरहि धारण रंग भार ॥
दीसि दोसि रे जति फार लामाटि जीतु मार । घडीयन लागी बार वरहु गुरो ॥
इणी परि प्रति सोहं भवी
ध्यान
मन मोहि ।
प्रारोहि श्रीलक्ष्मसेन आणंद करो ॥१३॥
कहि कहि रे संसार सार में जागु तम्हे असार श्रत्थि अति प्रसार भेद करी ॥
पूजु पूजु रे अरिहंत देव सुरनर करि सेव हवि मलाउ सेव भाव घरी ॥
पालु पालु रे अहंसा धम्म मरणूयन् लाघु जम्म | म करु कुत्सित कम्म भव हुबरी ॥
तरुतरे उत्तम जन अवर म धातु मनि । ध्याउ सर्वज्ञ धन लक्ष्मसेन गुरु एम भगी ॥४॥
दीठि दोटि रे अति प्रारग्रंथ मिथ्यातना टालि गरण विहूरगड चंद कुलहितिलु ।
जोड़ जोड़ रे रयरणी दीसि तत्वपद लही कीशि । घरि आदेश शीशि तेह्र भलु ॥
तर तर संसार कर तिजगुरु मुफिइए । मोकलु कर दान भरणी ॥
छंडि छंडि रे रडी बाल ले बुद्धि विशाल | वाणीय प्रति रसाल लक्ष्मसेन मुनिराज ती ॥५॥
श्री रयणकीति गुरु पट्टि सरणि सा उज्जल सर्प । छडावी पाखंड सम्मि मागि आरोप ||
पाप ताप संताप मयरण मछर भय टाले। क्षमा युक्त सुरमराशि लोभ लीला करि राके ॥ बोलिज बारिश अम्मी अगाली सावयजन घन चित्त हर । श्री लख्मयेन मुनिवर सुग्रह सवल संघ कल्याण कर ||६||
सगुण जमुरण भंडार गृह करि जण मरण रंजं । उवसमय वर चडने मय भडइ वांइ भजे ॥
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राजस्थान के जैन तंत्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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रमणावर गंभीर वीर मंदिर जिम सो है । लख्म सेन गुरु पार्टि एह भवीयरण मन मोहे | दीपति तेज दरणीयर सिसुमच्द्धत्ती मरणमारणहर | जयवंताच वय संघसु श्रीधर्मसेन मुनिवर पर || १ ||
पहिरवि सील सनाह तयह चरगु कडि कष्ट्रीय | क्षमा खडग करि धरवि गहीय भुज बलि जय लखो । काय कोह मद मोह लोह आवंतु टालि । कटू संघ मुनिराज गछ इणी परि अजूवाति ||
श्री लक्ष्मसेन पट्टोधरण पाव पंक छिप्पि नहीं 1 जे नरह नरिये बंदी श्री भीमसेन मुनिवर सही ॥ ॥
सुरगिरि सिरि को चर्ड पाउ करि अति बलवंती | केवि रायर नीर तीर हुतउय तरंती ॥ कोई श्रामालय मास हृत्य करि गहि कर्मतौ ॥ कटु संघ गुण परिलहिउ विह कोई महंती |
श्री भीमसेन पट्टह धरण गछ सरोमणि कुल तिलो । जाति सुजाण जाप नर श्री सोमकीर्ति मुनिवर मलौ ॥३॥
पनरहसि अठार मास आषाढह जा । मक्कवार पंचमी बहुल पष्य बखार ॥ पुण्या भद्द नक्षत्र श्री सोभीत्रिपुर वरि । सत्यासीवर पाट तर प्रबंध निरिपरि ॥
जिनवर सुपास भवन कोड श्री सोमकीति बहु भाव धीर । जयवंत रवि तसि विस्तरु श्री शांतिनाथ सुपसाउ करि ॥४॥
गुटका दि० जैन मन्दिर वषैरवाल रगवां
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आदीश्वरफाग'
( जन्म कल्याणक वर्णन ) आहे चत्र तणी वदि नवमीय सुन्दर वार अपार । रवि जनमी त जनमोया करइ जय जय कार ॥७३॥ प्राहे लगनादि कयू वरणव जेएइ जनम्या देव । बाल पणइ जस सुरनर प्राध्या करवा सेव ।।७४। माहे घंटा रव तब वाजीउ गाजीउ अम्बरि नाद । बिबर जनम मुसीपीघट साद ।७५।
आहे एरावरण गज स न करयु सज करा वाहन सर्व। निज निज घरि थका नीवल्या कुण्इ न कीघउ गर्व ॥७६।। पाहे नाभि नरेसर प्रगण न गगणंगण देश । देवीय देवइ पूरीम नहींय किहींय प्रवेश ||७७॥ आहे माहिमई इन्द्राणीय प्राणीय वापत बाल 1 इन्द्र तबाह करि सुन्दरी गावह गीत विशाल ||७८1। आहे छत्र चमर करि घरता करता जय जय कार । गिरिवर शिखिर पहूत बहूत न लागीय वार ७६॥ प्राहे दीठ पंड्डक कानन पर पंचानन पीठ । तिहां जिन थापीय आसलि पातलि इन्द्र बईठ ||10|| आहे रतन जड़ित अति मोटाउ मोटाउ लीधउ कुम्म | क्षीर समुद्र थकू पूरीय पूटीय आएपीयू' अम्भ ||१|| प्राहे कुम्भ अयम्भ पराइ लेई ढाल्या सहस नह आठ। कांकण करि रणझणतई भरगतइ जय जय पाठ ।।८२।। आहे दुमि मि तवलीय बज्ज घुमि धूमि महल नाद । टणण टण्ण टंकारव झिरिणझिरिए झल्लर साब ।।८।।
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१. भ. शानभूषण एवं उनकी कृतियों का विशेष परिषय पृष्ठ संख्या
४९-९३ पर देखिये।
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आहे अभिषव पूर सीध की अगि विलेप । प्रांगीया शिकारवाद कीघउ बहू आक्षेप ||८४
आहे आणीय बहुत विभूषण दूषया रहीत अभंग । पहिराया ते मनि रसी बली वली जोअद अंग || ८५ ||
जिन टीचर की
आहे नाम लूंग ! रूपनिरूपम देखीय हरि भरियां प्रांग ॥ ८६ ॥
आहे आगलि वालि के.ईय केईय जमला देव । लेईय जिनपति सुरपति चाजी करत सेव ||८७ ||
आहे अवीवा गगन गमनि नवि लागीय वार लगार । नाभि धरणि देवीय वंय न लाभह पार ||८८||
आहे नाभि पिता सखि व बइठीय मरुदेवी मात । खोलड़ मु'कीय बाल विशाल कही सहू वात ॥८६
आहे आपी साटक हाटक नाटक नाइ इन्द | नरल पागति परखइ हरखद्द नाभि नरिन्द ||६||
आहे जनम महोत्सव कोघउ दीघउ भोग कदम्ब । देव गया नृप प्ररणमीय प्रमीय जिनवर अब ॥१॥
आहे दिनि २ बालक यावर बीज तगु जिम चन्द | रिद्धि विबुद्धि विशुद्धि समाधि लसा कुल कंद ॥६२॥१
श्राहे देवकुमार रमा भात जमाडइ क्षीर | एक अरइ मुख आगलि आगीय निरमल नीर ।।१२।।
हे एक हसाव त्यावर कछडि चडावीय माल । नीति नहीय नहीय सलेखन नइ मुखिलाल ॥९४॥
आहे प्रांगीय अगि अनोपम उपभ रहित शरीर | टोपीय उपीय मस्त कि बालक छड़ पर वीर ॥६५॥
आहे काय कुण्डल झलकइ खलक नेउर पाइ । जिम जिम निरखइ हरखर हिवदइ तिमतिम भाई ||६||
आहे सोहरू हाटकन शुभ घाटि ललाटि ललाम | राहुअ बधाया नई सिसि जोवा आवद्द गाम ॥६७॥
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आदीश्वर फाग
आहे कोटह मोटा मोतीयनु पहिराच्य हार । पहिरीयां भूषण रंगि न अंगि लगा रज मार
आहे करि पहिराब सांकली सांकली प्रापर हाथि । रीखतु रोखुत चालइ चाइ जननी साथि ॥६६॥
श्राकटिकट मेल बांध बविद अंगद एक । कटक सुकट पहिरावर जासाइ बहुत विवेक ॥१००॥
चाहे प्रण घण घुघरी बाजद्द हेम ती बिहु पाइ । तिमतिम नरपति हरखइ हरलाइ मरुदेवी माइ ॥ १०१ ॥
आहे वगनाउ वगनाउ भगवाउ बाहुआ मूक आणि । बाल मरी नइ गमताच गमताउ लिइ निजपाणि ॥१०२॥
आहे क्षिणि जोवर क्षिणि सोदइ रोवइ लहीअ रुगार । आलि कर कर मोडइ त्रोट नवसर हार ||१०३ ||
आहे आप एक अकाल रसाल लगी करि साख । एक बार खारिक खरमास दाड़िम द्वाख ॥ १०४॥
आहे आगलि मूकइ एक नेक अखोड बदाम । लेई व ठाकर साकर बहु ठाम ॥१०५॥
ओह आवई जे तर तेवर घेवर आपि हाथि | जिम जिम बालक बांध तिम तिम बाधइ श्राधि ॥१०६॥
आहे प्रवर व सह छांडीय मांडीय मरकीय लैंषि । पपई आलि रमति बहु मरुदेवि ॥ १०७॥
आहे खांड मिलीय गलीय तलीय सवारइ रोव 1 सरगि यका नित सेबाउ जोगाउ भाव देव ॥१०८॥
खांड मिली हरखिद्द तली गली खवार सेव | कड़ आवई सेविया केई जोत्रा देव ॥१०२॥
हे आप एक अहोणीय फोरणीथ श्रीरणीय रेख । अयि देबीय देव तपी देखाइ देख ||११०॥
आप फीणी मनिरलो माह कोणी रेख । देवी आवइ सरगिथी देखाउ६ वे देख ३।१११०
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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आहे कोइ न मारणइ अमरख कमरख में कइ पासि । बेलांइ वेलां सुनेला केलानी बहु रासि ॥ ११२ ॥
सूनेलां वेलां मला काठेलांनी रासि ।
hs ल्याes कूकरणां कमरख कइ पासि ॥ ११३॥
आहे एक बजावर बाजाउ निर्वजांउ प्रापह एक । गावई गायण रायगा आप एक अनेक ॥। ११४।।
बाज बाब श्राप रावण कोकडी पाकां रायण एक ॥। ११५ ।।
आहे व तल्य गुरु 'द वड वर गूद विपाक । आप लिरि चोलीय चोलीय आरणीय बाक ।। ११६ ।।
आई तू वडां बहां सरिस्यु गूंद विपाक |
गुद लिख कुलेरि सराउ बोली भाई वाक ॥११७॥
आहे एक आह वर सोलाउ कोहलां फेरत पाक । गिरण आणीय बांध एक अनेक पताक ११११८ १ आहे साकर दूध विसूघउ दूध विपाक ।
प्रापइ एक जणी धरणी खांडती वर चाक ।। ११९ ।। साकर दूब कचोडी सुध दूध favan | आप एक जणी धरणी खांडवणी वर चाक ।। १२० ।।
·
आहे कोमल कोमल कमल तरगां फल प्रापद्म सार | नहींय दही दहीधरांनउ धोक लगार ।। १२१ । । कमल तर फल टोपरा पस्तां आपइ सार । दही दहीयथ संत बांक नहीय जगार ॥ १२२ ॥
आहे तर पूरढ पस तस खस खस आप एक । उन्हऊ पारणीय आरणीय अंगिकर नित सेक ।। १२३ ।।
आप रू खाडनू खसखस आप एक | चांपेल बहड़ चोपडी अंगि कर जल रोक ।। १२४ ।।
श्रहे कोठइ मोटा मोतीय मोतीय लाडू हाथि । जोवाज नित नित श्रावइ इन्द्र इन्द्राणी साथि ।। १२५ ।।
कोट मोतो अति मलां मोती लाइ हाथि | जोवान प्राव वली इन्द्र सची बहु साथि ॥ १२६ ॥
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श्रादोश्चरफाग
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आहे चारउ लीनी वाचकी साकची मापई एक । एक मापद गुड बीजीय बीजीय फणस अनेक ।।१२७।। आहे माथइ कूचोय ढीलीय नीलीय प्रापइ द्राख । निप्त निल खूण ऊतारइ जे मन लागह चाख ॥१२८।। पार तणा फल साकची सूको केला एक । पहूं आगुड़ बोजी धरणी आप फनस अनेक ॥१२६।। सिरि कूची मोती भरी हाथिइ नीली द्राख । लूण उतारइ माडली जे मन लागइ चास्वं ॥१३०॥ माहे मान तणीया साहेलड़ी सेलड़ी आपइ नारि । छोलीय छोलीय अपइ बइठीय रहइ घर वारि ॥१३१॥ आहे जादरीया फाकरीया घर या लाडूमा हाथि । सेवईया मेवईया आपइ तिलष्ट साथि ॥१३२।। सेव तणा आदिई करी लाष्ट्र मूकद हाथि । आरएछ गृलभेला करी आपइ तिलवट साथि 1।१३३॥ माहे तोंगण काईय पाईय प्राणीय प्रापह हाथि । तेवड़ा तेवड़ा चालक जमला चालइ साथि ।।१३४।। नालिकेर नीला भलां माडी प्राप' हाथि। जमला तेवड तेवडा बालक चासइ साथि ३१३५।। आहे आप लोबुन बीजांड वीजजरा धीर । जोईय जोईय मूकइ जिनधर बाबन वीर ॥१३६॥ प्रापइ लीडू अतिभला बौजुरा जवीर । हाथि लेई जो अइ रयद जिनवर बावन वीर ।।१३७।। माहे साजार साजाउ करेउ कीघउ चूर खजूर 1 प्रापइ केईय जोबइ गाइ वाप्र तूर ॥१३८॥ आपइ फलद खजूर शु केई खाजां यूर । कई गाव गीतड़ा एक बजाउद तुर ॥१३९॥ प्राहे श्रीयुत मित नित आबा देव तपउ संपात । अमिरिन प्रापइ पाएीय क्षारणीयनी कुरणवात ॥१४॥
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मन्तोम जय तिलक
। संवत् १५६१)
साटिक
जा अजान अवार फेडि करणं, सन्यान दो बंद्यते । जा दुःस्त्रं वह कग एण हरणं, वाइक सुग्गैसुहं ।। जादे वंम गुणा तियंच रमगी, मंक्किख तारणी : साजे जे जिणबीर वयरण सरियं वारणी अते निम्मलं ।।१।।
विमल उपजल सुर सुर सगहि,
सुविमल उज्जल सुर सुर सणेहि । सुरण भवियण गह गहह, मन, सु सरि जणु कवल खिल्ल हि । कल केवल पयदि पहि, पाप-पटल मिथ्यात पिल्लाह ।। कोटि दिवाकर तेउ तपि, निधि गुण रतनकरडु । सो वधमानु प्रसंनु नितु तारण तरणु तरंडु ।।२।।
भषिय चित्त यह विधि उल्हासः । अउ कम्महं खिउ करगु सुद्धं घम्मु दह दिसि पयासणु ॥ पावापुरि श्री वीर जिणु जने सु पहुँत्ता आइ। तव देविहि मिलि संख्यउ समोस रणु बहु भाइ ।।३।। जब सुदेवइ इंद्र धरि ध्यानु नहु वारणी होह जिण । तव सुर (फ) पट मन महि उपायउ, हुइ वंभणु डोकरउ मच्च लोड सुरपत्ति आयउ ।। गोतमु नोतमु मह वर्म अघर सरोतमु वीरु । तत्य पढतउ आइ करि मघव गुणिहि गहीर ||४|| थिवरु वोलइ सुगाह हो विप्प तुम्ह घीसर विमल मति । इकु सन्देहु हम मनिहि थक्कर, w wwinimummmmmmmmmmwwwmmmmmmmmmmmmmmwwwmwwwmomsane १. ब्रह्म चराज एवं उनकी कृतियों का परिचय पृष्ठ ७० पर देखिये।
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संतोष जय तिलक
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म साके निज भासु हत नई ठिं नुक्काइ । वीरु ता मुझ गुरु मोनि रह्या लो सोइ । हउस लोकु लीए फिरउ अत्यु न कहइ कोइ ।। ।।
गाथा
हो कह हुथि वर वंभरण को अच तुम्ह चित्ति संदेहो। खिण माहि सयल फंडउ, हउ अबिरुल्नु बुद्धि पंडितु ॥६||
पटप
तीन काल षटु दब्दि नब सु पद जीय खटुक्कहि । रस ल्हेस्मा पंचास्तिका व्रत समिति सिगकहि ।। ज्ञान अबरि चारित्त भेदु यह मूल सु मुक्तिहि । सिटु वण महर्व फद्दिड वचनु यह परिहि न रुत्तिहि ।। यह मूलु भेदु निज मारिण यह सुद्ध भाइ जे के. गहहि । समक्कत्त दिहि मति मान ने सिव पद सुख वंछित लहहि ॥७॥ एय बयण सदणि संभाल चयकिउ चितपुरई न प्रत्थो । उट्टिपउ सत्ति गोडम, चस्लिउ पुरिण तत्थ जथ जिशाह ।।८।।
तब सुगोइमु चालिउ गजंतु, जणू सिघरू मत्तमय । तरफ छंद व्याकरण अस्थह । खटु अ गहु वेय धुनि, जोति कलंकार सत्थह ।। तुलइ सुविद्या अवल वलु चडिउ तेजि अति वंभु । मान गल्या तिसु मन तगर देखत मानथंभु ॥६॥
गाणा
देखत मान थंमो, गलियउ तिस मानु मनह मझम्मे । हूवउ सरल पणामो, पूछ गोहमु वित्ति संदेहो ॥१०॥
गोइम पूछइ जोडि कर स्वामी कहहु विद्यारि । लोभ बियाये जीम सहि लूरिहि केर संसारि ॥११॥
लोम लग्गउ पाण वुच कर ।
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२३६
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अलि जंपइ लीमिरतु, ले अदतु जब लोभी पानइ । लोभि पसरि परगहु वधावइ । पंचइ वरतह खिउ फरह देह सदा अनचारु । सुरिण गोइम इसु लोम का कहज प्रगटु विथारु ॥१२॥
मूलह दुषस तरउ सनेहु । सतु विसनह मूलु क कम्मह मूल प्रासउ भरिण जाइ । जिव ईदिय मूल मनु नरय मूलु हिस्या कहिज्जइ ।। जा शिवा कपट मणि र सिर का लो। सुण गोइम परमारयु यह पापह मूलु सुलोहु ॥१३॥
गाषा
भमियउ अनादि काले, 'चइंगति मम्मि जीउ यह जोनी। बसि करि न तेनिसक्कियउ, यह धारण, लोभ प्रचंड ॥१४॥
पोहडा
दारण लोभ प्रचंडू यह, फिरि फिरि बह दुख वीय । व्यापि रहा बलि अप्पई, लख चउरासी जीय ॥१५॥
पदडी छंद
यह च्यापि रहा सहि जीय जल ।
करि विकट बुद्धि परमन हडंत ॥ करि छलु पपसे धू रत जेंव।
परपंसु करिवि जगु मुसहर एव ।।१६।। संफुड मुडइ वठलु कराह ।
वग अंउ रहद लिव ध्यान लाड वा जैज गगौ लिय सीसि पाइ।
पर चित्त विस्वास विविह भाइ ॥१७॥
मंडार जेउ प्रासरण वहुत्त ।
सो करइ जु करणउ नाहि जुत्त ।। जे वेस जैव करि विबिह ताल ।
मतियावह सुख दे वृद्ध वाम ॥१८॥
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संतोष जयतिलक
भापणं न प्रोसरि जाइ चुवित्र ।
तम जेज रहा तलि दीय लुक्कि । जब देखइ डिगतह जोति तासु ।
तव पसरि करइ अप्पण, प्रगासु ॥१९॥
जो करइ कुमति तव अण विचार ।
जिसु सागर जिन लहरी अपार ॥ कि चडहि एक उत्तरि विजाहि ।
बहु घाट घणइ नित हीय मांहि ॥२०॥
परपंच करइ जहरं जगत्त, ।
___ पर प्रस्युन देखइ सत्त, मित्त । खिरण ही अगासि हिरण ही पया लि ।
खिए ही म्रित मंडल रंग तालि ॥२१॥ जिव तेल बुद जल महि पडाइ ।
सा पसरि रहै भाजन छाइ ॥ तिव लोभु करइ राई स चारु ।
प्रगटा जगि में रह विचारु ।।२२।।
को अघट घाट दुघट फिराइ ।
जो लगन जैव सग्गत घाइ॥ इकि सवरिण लोभि सरिंगप कुरंग ।
देह जीउ आइ पारथि निसंग ॥२३॥ पत्तग नया लोभिदि भुलाहि ।
कंचरण रसि दीपग महि पाहि ।। इस धारिण सोभि मधकर ममति ।
तमु केवइ कटर वेघि यति ॥२४॥
जिह लोमि मछ जल महि फिराहि ।
लग्गि पप्पच अप्पण', गमाहि ।। रसि काम लोभि गयवर भमति ।
मद अधसि बघ बंधन सहति ॥२५।।
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२३८
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एक कृतित्व
एक छक्कइ ईदिय तणे सुःख ।
तिन नोभि दिखाए विविह दुख । पंच इदिय लोभहि तिन रखुत्त।
करि जनम मरण ते नर विगुत्त ॥२६॥
जंगमसि तपो जोगी प्रचंड ।
ते लोभी भमाए भमहि खंड ।। द्राधि देव बहु लोभ मत्ति ।
ते पंछहि मन महि मरण जगत्ति ।।२७।। चषका महिम्य हुइ हक्क छसि ।
सुर पदइ वंछई सदा चित्ति ।। राइ राणो रावत मंडलीय ।
इनि लोभि वसी के के न कोय ॥२८॥
वण मक्षि मुनीसर जे वसंहि।
___ सिव रमरिण लोभु तिन हिंयइ माहि ।। इकि लोमि लग्गि पर भूम जाहि ।
पर करहि सेव जीउ जीउ भणहि ||२६||
सकुलीणो निकुलीरप हे दुवरि ( दुवारि )
लेहि लोम डिगाए करु पसारि॥ वसि लीभि न सुरण ही धम्मु कामि।..
निसि दिवसि फिरहि पारस यानि ॥१०॥
ए कीट पड़े लोमिहि 'भमाहि ।।
सहि सु मनु ले परणि मांहि ॥ ले वनरस हेट नोभि रत्त ।
___मखिका सुमधु संचह बहुत ॥३१॥
ते किपन ( कृपण ) पश्यि लोमह मझारि ।
धनु संचहि ले धरणी भडार ॥ जे दानि धम्मि नह देहि खाहि ।
देखतन उठि हाथ झाडि जाहि ॥३।।
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सतीष जयतिलक
गाथा
जहि हथ अधिक वरणं धनु संचहि सुलह करिवि मंडारे । तरहि केव संसारे, मनु बुद्धि ऐ रसी जाह ।।३३।।
वसह जिन्ह मनि सिय नित बुद्धि। धनु विस्वहि अहकि जगु सुगुर वचन चितिहि न मावइ । में में में करह सुणत बुम्मु सिरि सूलु पावर । अप्पणु चित्त न रंजही जरग रंजापहि लोइ। लोभि वियाये जेइ नर तिन्ह मति ऐसो होइ ।।३४||
गाथा
निन होइ इसिय मते, वित्तं मय मलिन मुहुर भुहि बाणी । विदहि पुन न पायो, वस किया लोमि ते पुरिष ॥३५॥
मडिल
इसउ लोभु काया गढ़ अंतरि, रयरिण दिवस संतबाइ निरंतरि । करइ दीवु अप्पण बलु मंडइ, लज्या न्यानु सोलु कुल खंडइ ।।१६।।
कोह माया मानु परचंड। तिन्ह मझिहि राउ यहु, इसु सहाइ तिनिउ उपजहि । यह तिष तिव बिस्फुरइ उप तेय वलु अधिक सज्जहि ॥ यह चहु महि कारण अब घट घांट फिरतु । एक लोभ विण वसि किए चौगय जीउ भमंतु ॥३७॥
जासु तीयइ प्रीति प्रप्रीति ते जग महि जारिण यह, अणिउ रागु तिनि प्रीति नारि । अप्रीति हुदोष हुव, दहू कलाय परगट पसारि || अशा फेरी आपणी षटि घटि रहे समाइ । इन्ह राहु वसि करि ना सके ता जीउ नरकिहि जाइ ॥३८।।
योहा
सपउ रह जैसे गरल उपने विष संजुत । तैसे जाणहु लोम के राग दोष बह पुत्त ॥३६।।
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२४०
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पदरी छंच कुछ राग दोष तिसु लोभ पुत्त ।
जापहि प्रगट संसारि घुप्त । जह मित्त त्ता तह राग रंगु।
बह सत्त तहो दोषह प्रसंगु ।।४०||
बह राग तहां तह ग्राहि थुक्ति ।
जह दोष तहां तह छिद्र विसि ।। जह रान तहां तह पति पत्तिट्ठ।
जह दोष तहां तह काल दिट्ट ।।४।।
जह राण तहां सरलर सहाउ ।
जह दोषु तहां किमु वक्र भाउ ।। जह रागु तह भनह प्रबारिण।
जह दोषु सहाँ अपमानु जाणि ॥४२॥
ए दोनउ रहिय वियापि लोह ।
इन्ह वाझुन दीसइ महिय कोइ ।। नत हियह सिसलहि राग दोष ।
बट वाडे दारण मगह मोख ।।४३।।
पुत्त श्रीसिय लोम परि छोइ। बलु मंडिङ अप्पराउ, नाद कालि जिन्ह दुक्ख दीयउ । ईद जाल दिखाइ करि, वसी भून सद्ध लोग कीयउ ।। जोगी अंगम जतिय मुनि सभि रक्खे लिखलाइ । अटल न टाले जे टलहि फिरि फिरि जगह बाद ॥४४॥
लोभु राबउ रहिउ जY व्यापि । चउरासी लस महि जथ जोड पुरिण तत्थ सोईय । जे देखउ सोधि करि तासु वा नहु अस्थि कोइय ।। विकट बुद्धि जिनि सहिमु सिय घाले कंम्मह फंध । लोभ लहरि जिम्ह कहु चहिय दीसहि ते नर घ॥४५॥
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संतोष जयतिलक
बोहा
मणव तिजचह नर सुरह हीडगवं गति चारि । वीर भाइ गोइम निमुरिण लोभु वरा संसारि ।।४।।
काहिउ स्वामी लोम बलिवंड। तष पूरिउ गोइमिहि इसु समत्त गय जिज गुजारहि । इसु तनिइ त बलु. को समस्यु कहुइ सु विदारक ।। कवण बुद्धि मनि सोचियइ कीज कवरण उपाय | किस पौरिषि यहु जीतियइ सरवनि काहहु सभाउ ॥४७॥ सुबह गोइम कह्इ जिणगाह । मह सासरण निम्मलइ सुरात धम्मु भव बंध तुहि । अति सूषिम भेद सुरिश मनि संदेह खिण माहि मिट्टहि ॥ काल अनंतिहि ज्ञान यहि कहियउ प्रादि अनादि । लोभु दुसह इव जित्तयइ संतोषह परसादि ।।४८॥ कहहु उपजइ कह संतोषु । कह वासइ थानि उहु, किस सहाद वलुइ तउ मंडइ । क्या पौरिषु सैनु तिमु, कास वुद्धि लोमाह विहंडइ ।। जोरु सखाई भविय हुइ पयडावं पहु मोस्तु । गोइम पुछइ जिण कहहु किस उ समटु संतोषु ॥४६॥ महजि उपज्जद चिति संतोषु । सो निमसइ सप्तपुरि, जिण सहाइ बलु करइ इत्तउ । गुण पौरिषु सन धम्मु, ज्ञान बुधि लोभह जित्तइ ।। होति सखाई भवियर, टालइ दुरगति घोषु ।
सुगिा गोइम सरवनि कहउ इसउ सूरू संतोषु ।।५०॥ रासा छंद
इसउ सुरु संतोषु जिनिहि घट महि कियउ। सकयस्थत तिन पुरिसह संसारिहि जिमउ ।। संतोषिहि जे तिय ते ते चिह नंदियहि । देवह जिउ ते मारशुस महियलि बंदियहि ॥५१॥
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२४२
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जग महि तिन्ह की नीह जि संतोषिहि रम्मित्र । पाप पटल धारसि अन्तर गति दम्मिय ।। राग दोष मन मशिन खिरण इकु आशियद। सस मित्त चितंतरि सम करि पारिण्य ह ।। ५२।।
जिन्ह संतोषु सरवाई नित रहइ कला । नाद कालि संतोष करई जीयह कुसला ।। . दिनका यह संतोषु विगासह हिद कमला । सृरु तह यहु संतोषु कि वंछित देइफला ||५३।। रयगा यह संतोषु कि रतनह रासि निधि । जिमु पसाइ संडहि मनोरथ सकल विधि ।। ............ ............ ...............। जे सतोषि संमाण तिन्हमन सझु गयउ ॥५४।।
जिन्हहि राउ. संतोषु सु सुट्टउ भाउ परि | परखती पर दवि न छीपहि तेइ हरि ।। कूड कपटु परपंचु सुचित्ति न लेखिहहि । तिणु कचरा मणि लुद्धसि सम करि देखिहहि ॥५५।।
पियउ अमिय संतोषु तिन्हहि नित महासुषु । लहिउ अमर पद ठागु गया पर भमरण दुखु ।। राइहंस जिउ नीर खीर गुण उद्धरइ । सम्म अद्धम्म परिख तेव हीय करइ ॥५६||
आय सुहमति ध्यानु मयुखि हीय भज्जड | कलहि कलेसु कुण्यानु कुबुधि यि तजइ ॥ लेड न किसही दोसु कि गुगा सयह महइ । पडइन प्रारति जीउ सदा चेतन रहा ।।५७॥
जाहि वाक परणाम होहि तितु सरल गति । छप्प जिउ निम्मलउ न लग्गाहि मलण चित्ति ।। ससि जिव जिन्ह पर कीत्ति सदा सोयच रहा । धवल जिय धरि कंधु गरुष मारह सहइ ॥५८।।
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संलोष जयतिलक
१४३
सूरधीर घरबीर जिन्हहि संतोषु चलु । पुड यरिए पति सरीरि न लिपइ दोष जन्नु ॥ इसज अहं संतोषु गुरिणहि पनि जिया । सो लोभई खिउ करइ कहिउ सरवनि इवा ||५||
कहिउ सस्वन्नि इसउ संतोषु। सो फिज्जा चित्ति चिद जिसु पसाह सभि सुख उपजहि । नहु आरति जीउ पडइ, रोर बोर दुख लख भज्जहि ।। जिस ते कल बडिम चम होइ सकल जगिप्रीय । जिन्ह पटि यह भब होपिय पुन्न प्रिकिति जे जय ॥६०||
मडिल्ल
पुन्न प्रिकिति जिय सपरिणहि सुरिगयहि ।
. जै जै लोहि महि भरिशयहि ।। गोइम सिउ परवीषु पयंपिउ।
इसउ सतोषु भवप्पति अंपिउ ॥६१।।
चंदाइगु खंदु जपिर्म एह संतोषु भूबपति जासु 1
नारीय समाधि प्रछी थिते 11 जे ससा सुवरी चित्ति हे प्रावए ।
जीउ तत्त खिणे बंछिय पाबए ।।६२॥
संदरो पुत्त सो पयजाणिज्जए।
जासु औलवि संसारु तारिखए । छेदि सो मासर दूरि नै वारण ।
मुत्ति मम मिले हेल संचारए ।।६३||
स्वतिय तासु को लंगरणा वतियं ।
दुजणं तेउ भंजेइ पास निय॥ कोह अगै गाह दझंति जे नरा।
ताह संतोस ए सोम सीयंकरा ॥६४||
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२४४
राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एव कृतित्व
एड कोर्ट संतोष राना तरी ।
शासु पसाइ व शांति वंती महो।। सासु नै रिहि को दुदना प्रावए ।
। सो भडो लोभ हो जुग वायए.॥६५॥
बोहा
खो जुग' वायइ लोभ कउ, ए गहहि जिस पाहि । सो संतोषु मनि संगह, कहियउ तिहुँ धरणगाहि ॥६६॥
गाथा
कहियज तिह बगा गाहो, जाणहु संतोषु एहु परमाणो । मोइम चिति दिनुकर, जिउ जिसहि लोमु यह दुसहु ॥१७॥ सुरिण वीर वमणा गोइमि आणिउ, संतोषु सूर घटम: । पज्जलिज लोह तंखि खिरिण मेले घउरंगु सयमु प्रप्परषु ।।६८॥
चित्ति चमकिउ हिया श्ररहरिन । रोसा इशु तम कियउ, लेइ लहरि विषु मनिहि घोलह । रोमावलि उद्धसिम, काल रूई हुई भुवह तोलइ॥ दावानल जिउ पज्वलिउ नयनि लायि बाडि । आज संतोषह खिज करउ जड मूल हं उम्पाहि ॥६६॥
दोहा
लोभिहि कीयउ सोचाउ हवउ प्रारति ध्यानु । प्राइ मिल्पा सिरु नाश करि, भूख सयलु परषानु ॥७॥
षटप
प्रायज' झूठु पचानु मंतु तंत खिरिश कीयउ । मनु कोहुँ अरु दोह मोह इक यह थीम उ ।। .. माया फल हि कलेसु यापु संतापु छदम दुख । कम्म मिथ्या प्रासरउ प्रार प्रद्धाम्मि कियज पक्ष ।। कुविसभु कुसोलु कुमतु जुडित, रागि दोषि आइरू लहिउ । अप्पणज सयनु वसु देखि करि, लोहुराउ सब गहगहिउ ॥७१।।
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संतोष जयतिलक । ।
२४५
मल्लि गह गहियर तब लोह चिततरित
वज्जिय कपट निसाय गहिर सरि || .। . विषय तुरंगिहि दिया पलाएउ ।
संतोषह दिसि कियउ पयारणउ ॥७३॥ अावात सुणि संतोष तसं निरिण ।
मनि प्रानंदु कीयउ सु विचशिरिण ।। तह ४ सयनह पति सतु प्रायज ।
__ तिनि दलु अप्पणु बेगि बुलायउ ।।७४॥
गाथा
खुल्लामउ दलु प्रप्पशु, हरषिउ संतोषु सुरु बहु भाए। जिस ढा महस अग सो मिलिया सीनु भ? आई ।।७५॥
पोतिका छंदु
पाईयो सोलु सुद्धम्मु समकतु न्याम चारित संवरो। वैरागु तपु करुणा महावत खिमा चिति संचम थिरू ।। प्रज्जउ सुमद्दउ मुर्ति उपसमु सम्म सो आकिंचरणो । इव मेलि दल संतोष राणा सोभ सिउ मंडइ रणो |॥७६।।
सासरियहि जय जय कार हवउमग्गि मिथ्याती दहे | नीसारण सुत बज्जिय महायुनि. मनि हि कि दूर लडेखः ।। केसरिय जीव गज्जत वलु करि चिसि जिसु सासण गुणो। इव मेलि दल संतोषु राजा लोम सिउ मंडइ रणो ।।७।। गज बल्ल जोग प्रचल गुढ़ियं तत्वह यही सार है। अड फरसि पंचिउ सुमति जुट्टहि पिनि धान पवार हे ॥ अति संबल सर आगम छुट्टहि असरिण जणू पावस घणो । इव मेलि दलु संतोषु, राजा लोभ सिउ मंडइ रणो॥७८।।
षट पदु
मंडिउ रणु मिनि सुभटि सैनु सभु अप्पण सजिउ । भाव खेतु तह रविड़ तुरु सुत प्रागम विज्जउ ।
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२४६
राजस्थान के बैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पन्यान्यो ध्यातमु पयउ पप्परपु दल प्रतरि । सूर हिलं गह गहहि धसहि कादर क्ति तरि । उतु दिसि सुलोमु अनु तक वैधलु परिय रिणय तरण तुलद ।। संतोषु गरुख मे रह ,सरि सुर सुकिय वरण भय लिए खला ॥८॥
गाथा
कि स्खलि है भय पवरणं, गरुवर संतोषु मेर सरि अटलं ।
चबरंगु सयम गजिवि रमिण गरिण सूर बहु जुड़ियं ।।८।। तोटक छंदु रण पगरिण जुट्टय सूर नरा ।
तहि बजहि भेरि गहीर सरा। तह बोलङ लोभु प्रचंड भडो।
हणि जाइ संतोष पयालि दलो ॥२॥ फिटु लोभ न वोसह गब्द करे ।
हुए कासुपस्या है तुम्ह सिरे: तइ मूढ सतायउ सयल जणो ।
- जहं जाहिन छोडध तथ खिरणो ।।८।। जह सोभु तहां थिरु लछि वहो ।
दरि सेवद उझाउ लोड सहो ।। जिव इट्ठिय चिसि संतोषु करि ।
ते दोसहि भिख्य भयंति परे १८४।। जह लोमु तहां कहु करय सुखो।
निसि वासुरि जीउ सहत दुखो। सयतोषु जहां तह मोति उसो ।
. पय चंदहि इद नरिंद तिसो ॥८५।। संयतोष निवारहू गट चित्त। .
हउ व्यापि रह्या जगु मंझि तिसो ॥ हउ प्रादि अनादि जुगादि जुगे
. सहि त्रीय सि बीयहि मुह्यू लगे ॥८६।।
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संतोष जयतिलक
सुरगु लोभ न कीजद्द राडि घणी ।
1
सव वित्ति उपाउउ तुम्ह तरी ॥
हउ तुझ विदारउ न्यानि खगे ।
सहि जीय पठावर मुलि मगे ॥८७॥
हज लोभ मचलु महा सुमटो ।
जगु मैं सहू जिति बंघ पटो ||
सभि सूर निवारण तेज मले ।
मन जित्त कौणु समत्युकले ॥८८॥
नइ प्रस्थि सतायज लोन घरा ।
इव देखहु पौरिषु मुझ ता ॥
करि राइज खंड विंड घरणा ।
तर जेवउ पाडउ मूत्र जडा ॥ ८९॥१
सुरिंग इस कोपित लोनु मने ।
तब झूठ जायज वेणि तिने ॥
साथ आप सूरु उठाव करो ।
सतिश इहि छेदिउ तासु सिरो ॥६०॥ ॥
तब बीडच लीयउ भनि भने ।
उठि चल्लिउ संमुह गज्जि गुडे ॥
वलु कोयल मद्दवि अप्पु घरणा ।
पुरषो जुग वायउ तासु तथा ॥९१॥
छव दुक्क उछोहु सुजीहि धरणी ।
मनि संक न मानइ प्रोर तरणी ॥
तब उद्दि महायत लग्नु थले ।
लिए ममि सुवाल्यो छोड़ दले ॥६२॥
भड उडि मोहु प्रचंतु गजे ।
चलु पौरिष अप्पय संन सजे ॥
तय देखि ववेक चड्या अटलं ।
वह वट्ट किया सुद्द भनि वलं ॥ ९३ ॥
२४७
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२४८
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वह माय महा करि रूप चली ।
___ महु अम्गद सूरउ कवरपु वली ॥ दृषिक पौरप अज्ज विचीरि किया ।
तिसु जोति जयपतु वे गि लिया ॥१४॥ जब माय पडी रण म स्खले ।
___ तक आइय कंक गर्जति बले ।। सब उट्टि खिमा जब घाउ दिया।
तिनि वेगिहि प्राणनि नासु किया ।।१५।। अयज्ञानु चल्या उटि घोर मते ।
तिसु सोचन आईया कंपि चिते ।। उहु आवत हाक्या ज्ञानि जयं ।
___ गय प्राण पख्या घरि भूमि तवं ॥१६॥ म यातु सधा सहि जीय रिपो।
रूद कपि चङ्या सुइ सज्जि अपो।। समक्कतु डह्या उठि ओरिण अणी ।
धरि धुलि मिल्या दिय चूर घणी ॥९॥ कम्म असि सज्ज पड़े विषमं ।
जर छायउ अवरु रेस्मृ भमं ॥ तपु मानु प्रगासिज जाम दिसें ।
गय पाटि दिगंतरि मझि घुसे ॥९॥ जगु थ्यापि रहा सयु पास रयं ।
तिनि पौरिषु ठिा ता करयं ।। जव संवरू गजिज घोरि घट ।
उहु झाडि पिछोडि कियाद घटं १९९॥ स रागिहि धुत्तउ लोउसहो ।
रण प्रगणि लग्गउ मंझि गहो। अपराष्ट्र सुधायउ सज्जि करे ।
__ इव जुशि वितान्यो दृढ अरे ॥१०॥ यह दोषु जु शिव गहंति परं।
रए अगरण उहाहि सिरं ।।
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संतोष जयतिलक
रड
उठि व्यानिय मुक्किय अग्गि धरणं ।
त्रिगण गा जलाय दोषु दि १॥१०१॥
कुमतिहि कुमा रगि सयमुनाया ।
गय जेड' गर्जनउ आउ जुड़या ।
त्रिण मत्तु परक्कम संघ गरे । लिंग हांकां लग
पर जीय कुसील जु टु करें ।
भवन्त, समीर धाइ नगं ।
ममिभिनुन संकचरै ॥
कुर विदजि बागय पाटि दिगं ।। १० ।।
दुखहुं तजिंदु गय दर सलो |
साइज दिउ आइ निशंक मलो ||
परमा सुखु प्राय पूरि घट
प धम ॥
उहु भाडि पिलोड किमाद वटं ॥ १०४ ॥ ।
बहु जुझिय सूर पारि बले ।
उद दीसहि जुटन मज्भि र ॥
किय दिन्सु रसातलि वीर बरा ।
किय तज्जित गए वलु मुक्कि घरा ॥ १०५ ॥
अन दंसण कंद रहूंत जहां |
यहु तु संतोषहरा
इकि मज्जि पट्टिय जाइ तहां ॥ था ।
द दिवस लोभिहि सेमुपया ||१०||
लोभि दिवस पहिल दलु जाम |
तव धुरिणम सोस कर अन्य जेल सुभिउ न अग्गज । जणु धैरिज लहरि विषु कच कचाइट विधाइ लम्म ॥
करइ सूत्रकरण आकलन किचिन बुझइ पट्टु | जेस चराउ जति छलह तर्फि मउ भनइ भट्टु ॥ १०७॥
२०४९
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२५.
राजस्थान के जग संस : अस्तित्व एवं कृतित्व
रोसाहरण थरहरियं धरिमं मन मझि सद तिनि ध्यानो ।
- मुक्का चित्ति न मानो, अज्ञानो लोनु गज्जेइ ॥१८॥ रंगिका छन्
लोमु उठिउ अपरशु गज्जि, मंडिज वलु नि लाजि । चडिड दुसह साजि रोसिहि भरे ।। सिरि तारिणउ कपटु छत्, विषम खड्गु किनु । छदमु फरिवलितु समुह थरे । गुर्ण समंद ठाण लगु, जाइ रोक्यो सूर मगु । देइ बहु उपसग्गु जगत परे ।।
से चरिउ लोभ विकट, धूतद्द धूरत नटु । संतवध प्रांगाह षटु पौरिषु वारं ॥ ०९।। खिरणु उठइ अणिय जुरि स्थिरिणहि चालइ मुष्टि। . खिरणु गयजे व गुडि पिरिणहि चालइ मुडि ।। खिशु रहइ गगनु छाइ, थिगिह पयालि जाई । खिगिण मचलो आज। चउपछठे दाकै चरत न जाणे कोड, व्यापद सकल लोइ। अवेक पिहि होइ जाइ सचरं । असे पहिउ लोभ विकद्ध, धूतइ धूरत नहुँ । संतकइ प्रामगृह षटु पौरिण करै ।।११०।। जिनि समि जिय. लिबलाइ, पाले तत बुधि छाइ। राखेप बडह काइ देखत पर्थे । पास इज परवथु, देस मेनु राजु गथु। . जानकारि आप तथु, लाल चिपड़े ।। जाकीर अनंत परि, घोरहं सागर सरि । सफर कजणु तरि हिय अन्ध ॥ . . असे घडिउ लोभ विकटु, धूतइ घूरत नह। संतवह प्राणह पद पौरिषु. करि ।।११
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मंतोष जयतिलक
जैसी करिगय पायक होइ, तिसहि न जाणइ कोइ । पडि तिरण संगि होइ, कि कि न करें । तिसु तरिण यवि विहि रंग, कौगुहु जाणं के ते ढंग । प्रागम लंग विलंग, खिरिणहि फिरै ।। उह अनतप सारं जाल, कर एक लोल पलाल । मूल पेड़ पत्त डाल देइ उदरै ।। असे नडिव लोभ विवाद, पुतद धूरत नह। संत येइ प्राणह षटु पौरिण करि ॥११२।।
पटप
लोम विक पारि कपटु अमिटु रोसाइणु चहियउ। लपटि दवटि नटि कुटि झपटि झटि इवजगु नयिउ ।। धरणि खंडि प्रहा डि गमनि' पया लिहि धावइ । मोन कुरंग पतंग निंग मातंग सलावद ।। जो इद मुलिद फरिणद सुर चंद सूर संमुह अडइ । उहु लाइ मुडइ खिणु गठवडइ खिए सुखवि समुह जुइ ।।११३।।
महिल जब सुलोभि इतउ बलु कीयउ।
____अधिक कष्टु मिन्ह जीयह दीयउ ।।। तब जिरणच नमतु लै चिति गज्जित ।
राउ संतोत्रु हनह परि सज्जिउ ।।११४|| रंगिका छन्दु
इव साजिउ संतोष साज, हुबउ धम्म सहाउ। उठिउ मनि हि भाउ आनदु भयं ॥ गुणा उत्तिम मिलिउ माणु, हूबउ जोग पहा । ". आय ३ सुक्ल जाणु तिमझ गयं ॥ जोति दिपइ केवल कल, मिटिय पटल मल । . . हृदय कला दल सिडि पतदै
::पैसे गोइम बिमलमति, जिरग वच धारि चिति । छेदिय लोभइ थिति चठित पदे ।।११५।।
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२५२
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एन असिरक
तनिक पचु संजमु धारि, सत दह परकारि । तेरह विधि सहारि, चारितु लियं ॥ तपु द्वादस भेदह जारिण, आपरणु भगिहि आरिंग । बैठउ गुणह ठाणि उदोत कियं ।। तम कुमतु गइय धुसि, पोलिउ जगतु जसि । जैसेज पुनिउ ससि, निसि सरदे ।। यसे गोइम विमलमति, जिस वच घारि चिति । छेविय लोभह थिति, चहिउ पदे ।।११।।
जिन वंधिय सकल दृट्व, परम पाय निघट्ट । करत जीयह कठ, रमणि दिरणो । अगि हो तिय जिन्हहि प्राण, देतिय नमुति जाण । नरय तशिय वारण भोगत घणे ।। उइ मावत नरीहि जेइ, खडा समुह लेइ । सुपनि न दीसे तेहप्रवर केंदे ।।
से गोहम विमलमति, जिण बच धारि चिति । छेदिय लोमहि थिति, चडिउ पदे ॥११७।। देव दुघही वाजिय घण सुर मुनि मह गण ! मिलिय भविक जण, हुबर लियं ।। मंग ग्यारह चौदह पूव, विधारे प्रगट सब्य । मिथ्याती सुगत गश्च, मनि गलियं ।। जिसु वारिणय सकल पिय, चितिहि हरषु किम । संतोष उतिम जिय, धरमु वंदे ।।
से गोहम विमलमति, जिए क्व धारि किय । छेदिम लोमह थिति, चडिउ पक्षे ॥११८।।
घटपद
पडिउ सुपदि मोइमु लवधि तप वलि अति गधि । उदउहु वउ सासरिणहि सयमु आगमु मनु सज्जिउ ॥ हिंसा रहि हप वर तु सुभदु चारितु बसि जुठ्ठिल । हाकि विमलमति यारिंग कुमतिदल बरडि पट्ठिल ।।
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संतोष अतिक
१५
-
वंघिउ प्रचंडु दुद्धरु सुमन जिनि जगु सगलउ धुत्तियउ । जय तिलज मिलिज संतोष कहु लोभह सह इव जित्तियउ ॥११९||
गाथा
जव जित्त दुसह लोह, कोयत तव चित्त मझि आनंदे। हूब निकट रजो गह गहिवउ राज संतोषु ।।१२०|| संतोषुह जय तिलउ जंपिउ, हिसार नयर मंझ में । चे सुणहि भबिय इक्क मनि, ते पावहि बंझिम सुक्ख ।।१२१॥ संबति पनर इक्यारण भवि, सिय पक्खि पंचमी दिवसे । सुनक वारि स्वाति वृखे, लेउ तह जारिग बमना मेण ।।१२२॥
पद्धहि जे. के. मुद्ध भाएहि । जे सिक्वहि सुद्ध लिखाव, सुद्ध ध्यानि जे सुणहि ममु धरि । ते उतिम नारि नर अमर सुक्ख भोगवहि बहुधार । यह संतोषह जय तिलय जंपिउ बल्हि समाइ । . मंगल चौविह संघ कहु फरीह बीरु जिगराइ ॥१२३५
इति संतोष जय तिलकु समाप्ता
[दि० जैन मंदिर नागदा, बून्दी ।]
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पई
:
१
बलिभद्र चौपई
[ रचनाकाल सं० १५८५ . )
एक दिवस माली बनी गज, अचरित देखी उभु र । फल्या वृक्ष सवि एक काल, जीवे और तज्यां दुःख बाल ||४||
फरी २ जी वाला गुवन, समोसंररिण जिन श्रीठा पनि । श्राव्या जागी नेमकुमार, मनस्करी जंपि जयकार ||४८|| लेई भेट भेद्य भूपाल कर जोड़ी इम मणि रसाल 1 विगिरि जगगुरु प्रात्रीया, सभा सहित मिव द्वाबियां ॥ ४६ ॥ कृष्ण राय उस वारणी सुणी, हरष वंदन हड त्रिकुखंड धणी । आलिजीष पंचाग पसाउ, दिशि सबमुख चाई नमो ॥५०॥
राई अपदेश शेरी ल कोया कोनि होडि हरषीया । करिता एक मन मनहि हसि ॥५१॥
भव्य जीव धाइ समसि
1
·
जाणे ऐरावण अवतरयु ।
पट हस्ती पासरि परिग घंटा रखना घर धाणकार, विचि २ धर घूम घम सार ॥५२॥
मस्तकि सोहि कुकुम पुज, भरिदान के मधुकर गुंज ॥ वांसि ढाल नेजा फरिहरि, सिणगारी राइ आमिल घरि ॥५३॥
ढाल - सही की
चड् भूप मेगलनी पूठि देर दान मागल जन मूठ नयर लोक का उर साथि धर्म तरि घुरि दोधु हाथ ||१४||
समहर राज करी कृष्ण सांवरिया |
छपन कोड परिवरीया ।
छत्र ऋण शिर उपरि घरीया ।
राही रूखमण सम सरीया ||
साहेलडी जिसवर बंदर जाइ, नेमि तर गुण गाइ । साहेलडी रे जग गुरु बंदरण जाई ॥ ५५ ॥ ॥
M53
१. ब्रह्म यशोधर कूल इस कृति एवं कवि की अभ्य रचनाओं का परिचय पृष्ठ ८३ पर देखिये ।
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अविमान चौपई
. डोद तिवस घरगु वाणां वाजि
ससर सबद सदि छाजि । गहिर दो गाजि
- वेणा वसवि राजिसा
प्रागलि अपर नाचि सुरंगा, पामर द्वालि चंगा। देइय दान ए धार जिम गंगा; हीयलि हरष प्रभंगा।
साहेलडी० ।।५७॥
भेगल उपरि चहाज हो राजा, घरइ मान मन माहि ।। अबर राव मुज्ञ सम उन कोई, नयमाडे निम जिन चाहि ।।
__ माहेलडी० ॥५८
मान यंभ दीहि मद भाजि, लहल हि धजायए कड़ी। परिहरी कुजर पानु चान, धरउ मान मति घोडी ॥
साहेलडी० ।।५।।
समोसरग माहि कृष्णा पधारमा साथि संपरिवार । रयण सिंघासग बिठादीठा, सिवादेधी तरण्ठ मल्हार ।।
साल डी०१॥६॥
समुद्र विजय ए अबर बहू राजा. वसुदेय बलिभद्र हरषि । फरीय प्रदक्षरण कुष्ण सु नमोया, नयडे नेम जिननरषि ||
साहेलडी० ॥६॥
बस्तु
हरषीया यादव र मनह आगंदि । पुरषोतम पूजा च नंमिनाथ चलणे निरोपम । जल बंधन असत करि सार पुष्प वल परु अनोपम !! दीप धूप सविफल धरणा रचाय पूज धन होय । कर जोड़ी करि वीनती तु बलिमद्र वंधव साथी ।।६२।।
स्तवन करि बंधवसार, जेठउ बमिलभद्र' अनुज मोरार। कर संपुट जोडी अजुली, नेमिनाथ सनमुख संमली ॥३॥
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राजस्थान के जैन संत : यकिन एवं कृतित्व
भवीयग हृदम कमल तू सूर,जाई दुःख तुझ नामि दूर। धर्मसागर तु सोहि चंद, ज्ञान का इव वरसि इंदु ॥६४॥ तुझ स्वामी सेनि एक घड़ी, नरम पंथि तस भोगल जड़ी। वाइ यागि जिम बादल जाह, तिम तुझ नामि पाप पुलाइ ॥६५||
तोरा गुण नाथ अनंता कह्या, त्रिभुवन माहि घणा गहि गह्मा । ते सुर म बाच्या नवि जाउ, अल्प बुधिमि किम कहा ॥६५।।
मनाथ' नी अनुमति नहीं, बल केशव व बिठासही। धर्मादेश कसा जिन तणा, स्वचर अमर नर हरख्या घरणा ।।६६।। एके दीक्षा निरमल धरी, एके राग रोष परिहरी । एके व्रत वारि सम चरो, भव सायर इम के तरी ||६८।।
दुहा
प्रस्तावलही जिरावर प्रति पूछि हलधर बात । देवे वासी द्वारिका ते तु अतिहि विख्यात ।।६६।। निहुँ बंड केरु राजीउ सुरनर सेवि जास । सोह नगरी नि कुष्णनु कोणी परि होसि नास ||७|| सीरी वाणी संभली बोलि नेमि रसाल । पूरव भवि अक्षर लिखा ते किम थाइ बाल ॥७१॥
चुपई
दीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगरी संधार। मद्य भांड जे नामि कही, तेह थकी बली चलमि सही ॥७२॥ पौरलोक सथि जलसि जिसि, ये बंधव निकलसुतिसि । ताह सहोदर अराकुमार, तेहनि हाथि मरि मोरार ॥७३॥
शर वरस पूरि जे तलि, ए कारण होसि ते ताल । जिपवर वारणी प्रमीय समान, सुरणीय कुमार तष चास्यु रानि ॥७४।। कृष्ण द्वीपायन जे रविराय, मुकसावी नियर खंड जाइ । बार संबछर पूरा थाह, नगर द्वारिका आ चुराइ ॥५! ए संसार प्रसार ज कही, धन मोवन से घिरता नहीं । कुटंब सरीर सहू पंपाल, ममता छोड़ी धर्म संभाल ।।७६॥
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बलिभद्र चौपई
२५७
फ्जून संबुनि मानकुमार, ते पादव कुल कही सार । तीर्ण छोड्यु सचि परिवार, पंच महावय लो भार |१७
कृष्ण नारि जे आठि कही, सजन राय मोकलावि राही । अह म आदेश देउ हवि नाथ,राजमति नु लोधु साथ ।।७८१५ वसु देव नंदन विलखु थइ, नमीय नेगि निज मंदिरगउ । बार बसनी अवधि ज कही, दिन सवे पुने प्रावी सही ॥७४।।
सिरिस अवसरि आब्यु रविराय, लेईय ध्यान ते रंहयू वनमाहि । अनेक कुमर ते मादत्र तणा, धनुप घरी इमवाग्या घशा ||८॥
घन खंड परवत होडिमाल, वाजिल्य तप्पा ततकास । जोता नीर न झाभि किहा, प्रपंच थान दौठा ते तिहां ॥८१॥
[गुटका नणया पत्र-१२१-१२३]
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महावीर छंद'
प्रणमीम वीर विबुह जण रंजरण, मदमह मान महा भय मंजण । गुण गण वर्णन करीय वखारण, यती जम योगीय जीवन जाए । नेह गेह शुह देश विदेहह, कुडलपुर बर पुद्द विसुदेहह । सिद्धि वृद्धि वर्द्धक सिद्धारथ, नरवर पूजित नरपति सारथ ॥१॥
सरस सुदरि सुग्रण मंदर पीयु तसु प्रयकारिणी । मागि रंग अनंग सगति सयल काल सुधारिणी ।। दर अमर अमरीय छपन कुमरीय माय सेवा सारती। स्मान मान सुदान भोजन पक्ष दार सुकारती ।।२।।
धनद यक्ष सुपक्ष पुरीय रयण अगरिश वरपती । सव धम्म रम्म महप्प देखीय समल लोकने हस्सतो ॥३॥ मृगयनयगी पछिम रयरणी सयन सोल सुमाण । विपुल फल जस सकल सुरकुल तित्थ जन्म वखारणइ ।।४।। दीटो मद मातंग मनोहर, गौहरि हरि प्रीउदाम शसी । पूपाय जझस युग्म सरोवर सागर सिंहासन सुनसी ।। देव विमान असुर पर मणिकद निरगत घुम कशामुचयं । पेस्त्रीय जानीय पूछीय तस फल पति पासि संतोष भयं ॥५॥ पुष्पक पति अवसरीयो जिनपति ।।
इद्र नरेंद्र कराव्या बहु नति ।। जात महोछव सुरवरि कीधो ।
___ दान मान दंपतिनि दीयो।।६।।
वाधिइ गरभ मान नाहि निवलोहार करिद सम्व निहार शोक हरि । वरसि रयरण रंगि, घरसह घरद धनद चंगि छपन' कुमारी संग सेव करि ।। पूरीय पूरा रे गात, पुरबि सयल प्रास, हृयोज जनम तास मासि भलो। जाणी सयल इद्र-भावि विगद तंद्र, आवीय सुमति मंद्ररणागा निलो ।।७।।
AIIMALAIMIMIRMWAmAamaana १. भट्टारक शुभचन्द्र एवं उनको कृतियों का परिचय पृष्ठ ९३ पर देखिपे ।
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महावीर छन्द
सुहम आपगि हाणि शाशी मंदर माथि अमरनि कर साथिरणहन कीयो। देश्य सन्मति माप गारी काम, पामीय परम घाम माइन दीयो । नाचीय नाटक इंद, भरीय भोगनुकंव नमिय मह जिणंद इदे गया । बाषि विबुध स्वामी धरि प्रवधि भामी, थयासुभगगामीरणारा मयरा ॥८॥
जुगि जोवन अगि धरिए *गि श्रीस वरस विभुभयो। एक निमित देखीय धरम पेली निगंध मारगि तेगयो ।। चउ अधिक बीसह मुंकी परीसह गाण रूप मुनीश्वरो।
श्री वीरस्वामी मुगति गामी गर्भहरण से क्रिम हउयो। ते कवयानंदन जगतिवंदन जनक नाम ते कुरण भये ||९|| रमण वृष्टि छमास श्री दिस दनि त कहिनि करी । स्वप्न सोल सुरीय सेवा गर्म शुद्धि सु संचरी ।। ऋषभदत्त विशाल सृकि देवनंदा शोणितं । वपु पिंड हदि शिवायो वृद्धि बाधि उन्नतं ॥१०॥
यासी दिवस रमसि श्रीमरीया । इन्द्र ज्ञान तिही नवि सररीया ।। जाणी मक्षुक कृति अनमगया । गर्भ कल्याण किहां करीया ॥११॥
तिहाँ समस सुरसति वीर जिनपति गर्म कर्म ने जागोयं । कुल कमल भूषण विगतदूषण नीच कुल ते पाणीयं ॥ तस हरण स्वरखि हरण कश्यप पुदि परिण पाठव्यो। ते सुण्ड लोहा विनत
ोल किम नाट व्यो ।।१२।।
जे जिन नाथि नही निषडयो।
ते हर वा मघवा किम वेध्यो ।। मरती साधी मयीय न राती ।
ए चिन्ता तेरिण किम माखी ॥१३॥
गर्भ हर्यो ते के द्वार।
जम मि
शकार।
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२६०
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जनम महोब वली तिहां जोईइ ।
मर्म गर्म कल्मारक खोइई ॥ १४ ॥
विचारि बिचारि वोजि वारि किम नीकलते गर्भमली । उदारि उन्नत स्थूलत परिशात श्रवर कहु एक कलितफली ।
नर नरकावासी कम्मा नविन देण शीता सुरपति लक्ष्मण नरपति नवि काड्या दृष्टोतल घणा ।। १५ ।।
बली नाल त्रुटि प्रायु खुटि फिमहं जीविते वली 1 जे सुफल आंनू सरस लांबु अनेथि हृष्टि कम भली
उदर कमलि गरभ ज मलि नाल मार्ग सहलहि । पाप पाक नाल वा (स) कि गर्भ पातकर सहकहि ॥१६॥
रोषि रोपी रोपनि प्पि बाप व अन्येधि थी प्रन्यत्र लेता गरभ कुरण निषेधए ||
भ्रष्ट नष्ट ष्टांत दास्ती लोकनि थिर कारइ । वर वीरवाणी विचार करता तेति वली बारइ || १७||
रोप सम सहु माय जागु गर्भ फल सम साभलो | अथ यी अन्थ धरती कोरण कहिलो नीमलो ॥
दोइ लात दूषण पाप लक्षण जिननि संभारि | अभाखि पाम दाखि शास्त्र ते किम तारइ ||१८||
जिननाथ सबसि करण उपर खोल खोसि गोवालीया | असम साहस साम्य मुकी जिन्ह छू बंगालीया ||
बच रूप सरीर भेदी लीला सन क्रिम सुच्चइ । दोइ वीस परीसह प्रतिहि दुसह जिन्न कहो किम इ ॥ १९३॥
राज मूकी मुगती शंकी देवदूते किम घरि
इन्द्र अपि थियापि शुरू होइ ले हम कर ||
मुद्र समता घरइ ममता यस्त्र बीटि सहु सुरिइ । हारि नामा अचेलभामा परिसह किम जिन मरण २२०॥
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महावीर अन्य
२६१
जे माषि प्रथी निलिखि.
मारग मुगति तणि मनरंगि । हे नवि जाइ सत्तम पुडवो,
अल्प पापि भथी माहची ।।२१॥
माधवी पुरवी नहीं जरवा यस्स पाप न रांचउ । ते मुगति मार्ग किम मारणइ एह महिमा खंघउ ।
सह वरि अजो करि क ज्जासत्तनगनु दीक्षीउ। बंदरण नमसण तेह नेलि काइतह्यो लक्षीउ ॥२२॥
स्त्री रूप पडिमा काइ न मानु जो उपामि विवपुरं । नाम अबला कर्म सवला जीयवा किय प्रादरं ॥ कबल केवली करि आहार अरमंतु सहते किहीं धरे । वेदशीय सत्ता आहार करता रोग सघला संचरि ।।२३।।
नरकादि पीड़ा मरत कीडा देखिनि किम भुजइ । पाण झाए विनाश बेदन शुधा की सहु सीझाइ । सर सरस वली पाहार करता वेदना बहु बुशह । एक्क घरि अनेक आहार घरि घरि मम्मलां किम सुभइ ।।२४।। एक परि वर आहार जाणी जायतां जीह लोलता । * प्राहार कारणि गेह गेहि हीडता प्रणाणता ॥ समोसरणि जा करइ भोजन तोहि मोटी मम्मता। भूख लागि अपरनीपरि माहार ले जिन गम्मता ।।२५।।
अठार दूषण रहित बीरि केवलणाण सुपामीउ । जन नयन मन ला सुघट हरण हर करण वर भरमामीउ । इ'द मंद्र खगेंद्र शुभचंद नाथ परपति ईश्वरो। सयल संघ कल्या (ण) कारक धर्म वैश यतीश्वरी ।।२६३५
सिद्धारथ सुत सिद्धि वृद्धि वांछित वर दायक । प्रियकारिणी वर पुत्र सप्तहस्तोन्नत कायकं ।। द्वासप्तति वर वर्ष आयु सिंहाक सुमंडित । चामीकर वर वर्ण कारण गोत्तम यती पंडित ।।
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२१२
राजस्थान के जैन संत :यक्तित्व एवं कृतिवं
गर्म दोष दूषण रहित शुद्ध गर्भ कल्याण करण । शुमचंद्र सूरि सोवित सदा पुहषि पाप पंकह हरण ॥२७॥ इति श्री महावीर छन्द समाप्त
[धि० जैन मंदिर पाटौदी, जयपुर]
श्री विजयकीर्ति छन्द
अविरल गुण गंभीरं वीर देवेन्द्र वंदितं वंदे, श्री गौतम सु जंबु भद्र माघनंदि गुरु ।।१।। जिनचंद कुदकुद मृन्तरवार्थप्ररूपकं सारं । बंदे समंतभद्रं पूज्यपादं जिनसेनमुनि ॥२॥ अकलंकममलमखिलं मुनिदपनदि । यतिसारं सकलादिकीर्ति मोडे बोधभरं शानभूषणकं ॥३।। वक्ष्ये विचित्र मदनयंति राजत विषयकोत्ति विज्ञानं । चंद्रामरेद्वनरवरविरुमपदं जगति विख्यातं ॥४॥ विण्यात मदनपति रति प्रीति रंगि। सेल्ला खड खड हसाइ सुचंगि ।। सव सुप्योउ ददमट्ट इम छदामह । जय जय नादि चूजई निज धामह ।।५।। सुणि सुणि प्रीयि फस्यो रे ददामो, कोण महिपति मझ पायो सामो। रंगि रमनि रीति सुण्यो निजादह । नाह नाह तुम परि विसादह ॥६॥ नाद एह बैरि यग्गि रंगि कोइ नावीयो। मूलसंघ पट्ट बंध विविह भावि भावीयो।
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विषमकोत्ति इन्द
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तसट भेरी ढोल नाद वाद तेह उपन्नो । भरिण मार तेह नारि कवण आज नोपन्नो ॥७॥ महा मइ मूलसंघ' गरिद, सुबह्मी गछ सुवछ वरिष्ठ । गुणह बलात्कार सीझइ काम, नंदि विभूषण मुतीयदाम ॥८॥ बए धरण वंदि पुचि नंदीय जनीम घरो। सुज्ञानभूषण दुमद दूसरण बिह्मधरो ।। तस पट्ट समुत्ती विलयन फीति ह थिरो। गुणनाथ सुद्धंदि यतिवर वृदि पट्टि करो ॥९॥ पिये नरो मुनसरो सुमझ प्राण । दुधरो समारए ए नहीं कयं । मबुद्ध युद्ध शु. भयं ।।१०॥ नाह बोल संमली रीति वाचे उलोली बोल्लइ विचाखणा। आलि मूकि भोजता ||१|| तव आणि न मारिण बुद्धि पमाथि सत्य सुजाणि बुद्धि वलं । सुरिंण काम सकोदह नाना दोहह टालि मोहह दूरि मलं ।। सुरिण कामह कोप्यो बयण विसोप्यो जुखह अप्यो मयण मरिण । बोलावू से नार हीया केला वेरीय तेहना विये सुरिण ।।१२।। घयण सुणि नव कामिणी दुख परिह महंत । कही विभासण मशहदी नवि डासो रहि कंत ।।१३।। रे रे कामणि म फरि तृख ह । इद्र नरेन्द्र मगाव्या भिसह ।। हरि हर बभमि कीया बाह । लोग मम मम घसीहुँ' निसंकह । १४।। दम कही इस टक में लावो । . तर सणह तिहा राह आवीयो । मद मान कोष विभीसा । तिहां चालइ मिथ्या दी जणा ॥१२॥
करि कामिनी गहरू भाल्ला मयंका । यण भारउडी यारण चाल्या मयंका 1
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एव कृतित्व
कोकिल नाद भम्यर झंकारा। भेरि भभो बाजि चित्त हारा ||१६|| खोल्लंत खेलंत चालत चावंत धूणत । जंत हावत पूरंत मोडत ।। तुदंत भंजत झंजंत मुक्कन मारंत रंगेगा । फाडत जात बालंत फेइंत नग्गेश ।।१७।।
जारणीय मार गमरा रमरणं यती सो। बोल्यावइ निज वलं सफल सुधी सो॥ सन्नाह बाहु बहु टोप सुषार दंती । रायं गण्यता गयो बहु युद्ध कंती ॥१८॥ तिहाँ मल्या रे आज नई बाजड़ पाना : पर: मुकि मुकह रे मोटा रे बाण आपणु बल प्रमाण कंपइधरा ॥ धजइ धजि रे धनुषधारी मुकइ अगल्यामारी आपणिवलि । फैडि फेडि रे वैरी नाना म सारइ स्वामीनुफाम माहिमलि ।।१९।। अंपाइ जपि रे कठोरनाद करि विषम वाद वेरीय जपा । कादि कादि रे खडग खंड करिह अनेक रंड मारिइ घणा ।। बलगि बलगि रे वीर नि दीर पडि सुरंग तीर अस्यू भरिए । मुक्यो मुक्यो रे जाहि न जाहि मारु अनहीं वोसाहीवयण मुरिंग ॥२०॥ तब मम्मुय देख्यु रे वल करि , आपणो । बस मिथ्यात महामल उट्टीय बझ्यो । बोरु समकित महा नाउ मोठ उत्तम । भारण करिय घणु फरिय घर परागभलुय भन्यो । सहि रे झूटा नइ झूटि मुकइ मोट रे।। मुठि करइ कपट गूदि वीर बरा । उौ रे अबोध बोध भूमइयों घनि । योध करीय विषम क्रोध घरि घरा ॥२१॥ वली भगइ मयण राय उठतु कुमत भाइ । इंसायो सपल ठाय सुरणीय अस्यो। तब देखीय यतीय जंपह हवि प्रापनी सेना रे । कंपड उठो रे तरिक्षन अप्पिड कुमइ हण्यो ॥२२॥
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श्री विजयीत्ति खंद
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तव खंङ्ग खंङ्गि भल्लमल्लि वाण वारिण मोकला। सर जुष्ट यष्टि मुष्ट मुष्टि दुष्ट दुष्टि फोकला ॥ एफ नाथ नाथि हाम हाथि माय माथि कुट्टइ । बली रूह रूडि मुंड मुडि तुडतु'डि तुट्टइ ।।२३।। इद्रिय ग्रामह फीट उठामह मोहनो नामह टलीय गयो । निज कटक सुभग्गो नासरण लग्गो चिंता मग्गो तवह भयो । महा मयण महीयर चड़ीयों गयवर कम्मह परिकर साथ कियो। मछर मद माया व्यसन विकाया पाखंड राया साथि लियो ॥२४॥ विजयकोत्ति यति मति अतिरंगह । भावना झांण कीया पली चंगह ।। शम दम यम प्रगलि वल्लावि । भार कटक मंडी बोलावि १२५॥ तिहां तवलि दंदामा होल ध्रस्त कइ । भेरी भंमा मुगल फुकर॥ बिरद बोलइ जाचक जन साथि । वीर वदिव श्रुटि माथि ।।२६|| झूदा भूट करीय तिहां लग्गा । मयणराय तिहाँ ततक्षण भगा ।। आगलि को मयणाधिप नासइ । ज्ञान खंङ्ग मुनि अतिहं प्रकासइ ॥२७॥ मागो रे मन्या जाइ प्रनंग वेगि रे। काइ पिसि रे गन रे मांहि मुकरे ठाम । रीति रे पाप रि लागी मुनि कहिन पर | मामी दुखि रे काडि रेजांगी जपई नाम ।। मयरण नाम रे फेड़ी आपणी सेना रे। तेडी आपइ ध्यान नी रेडी यतीय वरो । श्री विजय मनावीयु यति अभिनयो । गलपति पूरव प्रकट रोति मुगति वरो॥२८॥ मयरण मनावीयु आरण जाण जण जुगति चलावि । वादीय वृद विवंध नंद निरमल महलावि ।।
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२६
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लब्धि सु गुम्मटसार सार त्रैलोक्य मनोहर । कर्क शतर्क वितर्क काव्य कमला कर दिएयर ॥
जी मूल संधि विख्यात नर विजयकीत्ति वांछित करण । जा बांद सूर ता लागि तपो जगह सूरि शुभचंद्र सरग ||२६||
इति श्री विजयकीत्ति छंद समाप्ता
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[दि० जैन मन्दिर पाटौदी ]
वीर विलास फाग
५
ॐ नमः सिद्धभ्यः ॥ श्री भ० श्री महिचंद्र गुरुभ्यो नमः ॥
अकल अनंत आदीश्वर इश्वर प्रादि अनादि । जयकार जिनवर जग गुरु जोगोश्वर जैगादि ॥१॥
आयी करि संभाल ।
कवि जननो जग जीवनी अपितु शुभमती भगवती भारतो देवी दयाल ||
I
सिंहि गुरु सुखकर मुनीवर गणधर गौतम स्वामि ॥३॥२
श्री नमि जिन गुण गाय सुं पाय सु पुण्य प्रकार । समुद्र विजय नृप नंदन पावन विश्वाधार ॥४॥
शिवा देवी कुमर कोडामणी सोहामणी सोहायसु प्रधान । सकल कला गुण सोहरण मोहरण बलि संगान ॥१५॥
सहि जसो भागि समावड़ी खुलूगू हरी कुलचन्द । निरुपमरूप रसालुडो जादूयड़ो जगदानंद ||६
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१. वीरचन्द्र एवं उनकी कृतियों का वर्णन पृष्ठ १०६ पर देखिये । २. मूल पाठ में मात्र एक ही पंक्ति की गई है।
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वीर- विलास फाग
केलि कमल श पोल सावरण परी त्रिभुवनपति त्रिभुवनतिलो नुनीलो गुण गंभीर ||७||
माननी मोहन जिनवर दिन दिन देह दिपंत | प्रलंब प्रताप प्रभाकर भवहर श्री भगवंत ||८||
लोला ललित नेमीश्वर अलवश्वर उदार । प्रहसित पंकज पखंडी प्रखडी उपि अपार ॥ अति कोमल गल कंदल, प्रमिल वाणी विलाश । अगि अनोपम निरुपम मदन निवास ॥१०॥
भराया वन प्रभु घर बस्यो संचय सभा मकारि । अमर खेचर नर हरीया नरखीया नेमि कुमार ॥। ११ ॥
देव दानव समान सहू बहू मल्या यादव कोडि । फणी पति महीपति सुरपती बीनती करु कर जोड़ि ॥ १२ ॥
सुरिए शि स्वामी सामला सबला साह सुतंग | प्रथम तं बहु सुख सम्पदा सुप्रदा भाग विचंग ||१३||
पीख परमारथ मनि घरि आचरि चारित्र चंग | आप अपराधज्यो साधज्यो शिव सुख संग ||१४||
उग्रसेन यां केरी कुमरी मनोहरी मनमथ रेह । साव सणा गोरड़ी, उरडी गुण तरणी रेह ॥ १५ ॥
मंगल ती प्रतिमलयती चालती चउरसु चंग | कटि सटि लंक लघुतर उदर त्रिवली मंग ।। २६ ।।
कठिन सुपीन पयोधर मनोहर प्रति उतंग | चंपक चंद्राननी माननी सोहि सुरंग ॥२७॥
हरणी हरावी निज नयगाडि वय साह सुरंग । दंतसुती दीपती सोहली सिर देखी यंत्र ||१८|
कनक फेरी जसो पूतली पातली पदमनी नारि । सतीय शिरोमणि सुंदरी श्रवतरी अवनि मारि ॥१६॥
ज्ञान विज्ञान विचक्षणी सुलक्षणी कोमल काय | दान सुपात्रह पोखती पुजसी श्री जिन पाय ॥२०॥
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२६७
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राजस्थान के जैन सत: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
राज्यमती रलीयाभरणी सोहामणी सुमधुरीय वारिण । भंभर तोली भामिनी स्वामिनी सोहि सुराणी ॥२१॥ रूपि रंभा सु तिलोत्तमा उत्तम प्रगि प्राचार। परिसऊं पुण्यवती तेहनि नेह करि नेमि कुमार ॥२२॥ तब चितवि सुख दायक जग नायक जिनराय । चारित्र वरणीय कर्म मर्महनीमज आम ॥२३॥
जय जिन पाणी ग्रहण तरणी हमरगी हडि विचारि । सुर नर तव आनंदीया वंदीया जय जयकार ||२४|| तष बलदेव गोविंद नरिंद सृरिद समान । रवि विठ जगपती जब तब सहु चालिजान ||२५|| घंटा टंकार वयमटम कथा चमकथा चतुर सुजाण । देवद दामादकथा उमकथाढोल नीसरण ॥२६॥ भेरी न भेरी मह अरि झल्लरि झं झंकार । वीणा वंश वर चंग मृदंग सु दोंदों कार ॥२७|| करडका हाल कसाल सूताल विशाल विचित्र । सांगां सरण इव संख प्रमुख बहु वाजिन ॥२८॥
पाखरा तार तो खार ईसार ता नेजीरंग । मद भरि मेगल मलपता मलकाता चाला सुर्चग ||२६|| सबल संग्रामि सबुझजे भूम झालिक भूधार । धाया धार धसता हसता हाथि हथीयार ॥३०॥ समरथ रथ सेजवाला पालां नर पुह बिन माय । वाहारण विमारण सुजाण सुखासन संख्यन पाइ ॥३१॥ उध्वज ने जारा स सिरि सीस करि सोह समान । विचित्र सुछ चामर भरि अबरी छाह्यो भाण ॥३२।। सुगंध विविध पकवान भोजन पान अमीय समान । जमण जमती जाय जान सुवान वाधंती विधान ॥३३॥ मृग मद चंदन धोलत बोल सुरोल अपार । सुर तर भवर भरा केसर कपूर सार ॥३४॥
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वीर बिलास फाग
सर
केतकी मालती माल गोजास सु चंपक चंग । बोलसरी वेल्य पाउल परिमल मळया भुंग ॥३५॥ बहु विध भोग पुरंदर सुन्दर साहिजि स्वरूप । चतुर परिण चालि जान सुभान मली बहु भूप ॥३६।। दुख दालित दुरि गया आपयाँ दान उदार । सजन सहु संतोषीया पोखीया बहु परिवार ॥३७॥
बंधी जन घरद बोलि घणा जिव तथा विविध विसाल । वरवाजाय बाय लगाय रस गाय गुण माल ।।३८।। इन्द्र इन्द्राणी उवारणा जुछणां करि धरणेस । नव रसि नाचि विलासणी मुहासशि भरे सेस ।।२९॥ धवल मंगल सोहामणां भामगा लेव नर नारि । लूणा उतारे कुमारी स मारी सहु सार सएिगा ॥४०॥ जयतू जीवित नन्द जिगणंद जगंद जगीस । युवती जगती यम जपतो कुलवती दिय प्राशाश ।।४।। इम प्रभु परणे वासांत तोरणि जाइ जाम । जान जारणी जन आवती नरपती उग्रसेन ताम ।।४२।। संघरी साहामो संभ्रमकरी प्राणद भरी अणमेवि । मझया महा जनमन रंगे अंगे आलिंगन लेवि ॥४३॥ युगति जोइ जानीवासि उल्लासि उतारी जान । प्रासन सयन भोजन विधि मन सिविदोधांमान ॥४४!! नयरि मझारि सिरपगारी सूनारी ताहि मुविचार । तहतिब हासव मांडीया छड़ीया अवर व्यापार ॥४५॥ ध्वजि तोरण सोहि घरि घरि घरि घरिवानरवाक । फूल पगर भरला परि घरि घरि घरि झाकममाल ॥४६॥ परि धरि कुकृम चंदन तणां छादणां छड़ा देवराथि । धरि धरि मणि मुगता फल बाउल याक पुराय ॥४॥ मम नयां नाटिक रि धरि धरि परि हरष न मारि । गिरिनारिपूरि केरी सुन्दरी रंग मरि मंगल गाइ ॥४८॥
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२७०
राजस्थान के जन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
चोवा चहूटा सणगारीयां मारी बाध्यां पटक : पंच शबद वाजि घरि घरि घरि घरि तंबोल ।।४।। धरि धरि गाय वधामणां रसीयो मणा मन मिली। घरि घरि अंग उल्लास सुरासुर मिरलि ॥५०॥
भट्टारक रत्नकीर्ति के कुछ पद
[१] राग-नट नारायण नेम तुम कैसे चले गिरिमारि । फंसे विराग घरयो मन मोहन, प्रीत विसारि हमारी ॥१॥ सारंग देखि सिंधारे सारंगु, सारंग नयनि निहारी। उनपे तंत मंत मोहन हे, येसो नेम हमारी |नेम०।२।। करो रे संभार सांवरे सुन्दर, चरण कमल पर वारि। 'रतनकी रसि' प्रभु तुम बिन राजुल विरहानलहु जारी ॥नेम०||३|
[२] राग-कन्नडो कारण कोउ पिया को न जाने । भन मोहन मंडप ते बोहरे, पसु पोकार बहाने ।कारण ०॥१॥ मो थे चूक पडी नहिं पलरति, भ्रात्त तात के ताने ।। अपने उर की आली वरजी, सजन रहे सव छाने कारण ॥२।। आये वहोल दियाजे राजे, सारंग मय धूनी ताने । 'रतनकी रति' प्रभु छोरी राजुल, मुगति बघू विरमाने ।।३।।
. [३] राग-देशाख
सखी री नेम न आनी पीर । वहोत दिवाजे पाये मेरे परि, संग लेर हलधर वीर स०१|| नेम मुख निरखी हरषीयन सू, अव तो होइ मन धीर । तामें पशुय पुकार सुनि करि, गयो गिरिवर के तीर संखी०॥२॥
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भ० रत्नकीत्ति के कुछ पद
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चंद्रवदनी पोबारती डारती, मंडन हार उरनीर । 'रतनकी पत्ति' प ग वेगगी, राहुल नित कियो घोर ॥सखी०॥३॥
[४] राग-देशाख
सखि को मिलावो नेम नरिदा । ता बिन तन मन योवन रजत है, चार चंदन अस चंदा सखि०।१।। कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुःसह मदन को फंदा । तात मात अरु सजनी रजनी, वे प्रति दुख को कंदा सखि०।१२॥ तुम तो शंकर सुख के दाता, करम काट किये मंदा । 'रतनकीरति' प्रभु परम दयालु, सेवत अमर नरिंदा सखि ॥३॥
[५] राग-मल्हार सखी री सावनि घटाई सतावे । रिमि झिमि बून्द बदरिया बरसत, नेम नेरे नहिं आवे सखी ॥१॥ कूजत कीर कोकिला बोलत, पपीया वचन न भावे । दादुर मोर घोर घन गरजत, इन्द्र धनुष डरावे ||ससी०||२|| लेख लिखु री गुपति वचन को, जदुपति कु जु सुनाये ।। 'रतनफीरति' प्रभु अव निरोर भयो, अपनी वचन विसरावे ।।सखी॥३॥
[६] राग-केदार कहां थे मंडन करू फजरा नन भरु, होऊ रे वैरागन नेम की चेरी । शीश न मेजन देउ मांग मोती न लेउ, अब पोरहु तेरे गुननी बेरी ॥१॥ काहं सू बोल्यो न भावे, जीया में जू ऐसी भावे ।
नहीं गये तात मात न मेरी ।। आलो को कह्मों न करे, बावरी सी होइ फिरे ।।
चकित कुरंगिनो यु सर घेरी ॥२॥ नितुर न होइ ए लाल, वलिहूं नैन विशाल ।
कैसे री तस दयाल भले भलेरी ॥ 'रतनकीरति' प्रभु तुम बिना रामुल ।
यों उदास गृहे क्यु रहेरो ।।३।।
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भट्टारक कुमुदत्तनत के कुछ पढ़
[१] राग-नट नारायण आजु मैं देखें पास जिनेंदा ।
सांवरे गात सोहामनि मूरति, शोभित शीस फरेंदा |प्राजु ||१||
कमठ महामद भंजन रंजन । भविक चकोर सुचंदा ।
पाप तमोपह भुवन प्रकाशक । उदित अनुप दिनँदा माजु०॥२॥
भुविज-दिविज पत्ति दिनुज दिनेसर 1 सेवित पद अरविंदा ।
कहत कुमुदचन्द्र होत सवे सुख । देखित वामा नंदा ||आजु०।।३।।
[२] राग-सारंग जो तुम दीन दयाल कहावत। हमसे अनायनि होन दोन फू काहे नाथ निवाजत ॥ जो तुम०||१|| सुर नर किन्नर असुर विद्याधर सब मुनि जन जस गावत । देव महारह कामधेनु ते अधिक जपत सच पावत ।। जो तुम ॥२॥ चंद चकोर जलद जु सारंग, मीन सलिल ज्यु घ्यावत' । कहत कुमुद पति पावन भूहि, तुहि हिरदे मोहिभावत ।। जो तुम०॥३॥
[३] राग धन्यासी मैं तो नरभव वाघि गमायो । न कियो जप तप व्रत विधि सुन्दर ।
काम भलो न कमायो ।। मैं तो० ॥११॥ विकट लोभ ते कपट कूट करी।
निपट विर्ष लपटायो ।।मैं तो।। विटल कुटिल शंठ संगति बैठो।
साधु निकट विघटायो ।मैं तोगा।
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म.कुमुदचंद्र के पद
कृपण भयो कछु दान न थीनों ।
दिन दिन दाम मिलायो । जब जोवन जंजाल पयो तब ।
परत्रिया तनुचित लायो । मैं तो०१३|| अंत समै कोउ संग न आवत |
झूलहि पाप लगायो॥ 'कुमुदचन्द्र' कहे चूक परी मोही।
प्रभु पद जस नहीं गायो । मैं तो०॥४||
[४] राग-सारंग नाथ अनाथन कू कछु दीजे । विरद संभारी धारी हरू मन तें, काहे न जग जस लीजे ।।
नाथ॥१॥ तुही निवाज कियो हूं मानष, गुरण प्रवगुण न गणीजे । व्याल बाल प्रतिपाल सत्रिषतरु, सो नहीं आप हणीजे ।।
नाथ०॥२॥ में तो सोई जो ता दीन हतो, जा दिन को न छूईज । जो तुम जानत और भयो है, बाघि बाजार बेचीजे ॥
नाथ ॥३॥ मेरे तो जीवन धन बस, तमहि नाथ तिहारे जीजे । कहत 'कुमुदचंद्र' चरण शरण मोहि, जे भावे सो कीजे ॥
नाथYI
[५] राग-सारंग सखी री अबतो रह्यो नहि जात । प्राणनाथ की प्रीत न विसरत ।
दरण छग छीजत गात सखी०॥१॥ नहि न भूख नहीं तिसु लागत ।
घरहि घरहि मुरमात ।। मन तो उरझो रहो मोहन सु।
सेवन ही सुरमात सखो०१२।।
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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नाहि ने नीद परती नितिवासर ।
होत विसुरत प्रात ।। चन्दन चन्द्र सजल नलिनीदल ।
मन्द मरुद न सुहात ॥सखी०॥३॥ गृह आंगनु देख्यो नहीं भावत ।
दीन भई विललात । विरही वाउरी, फिरत गिरि गिरि ।
लोकन ते न लजात सखी०॥४॥ पीज धिन पलक कल नहीं जीउ को।
न रूचित रसिक गुबात ।। 'कुमुदचन्द्र' प्रमु बरस सरस ।
नयन चपल ललचात सखी॥५॥
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* चन्दा गीत *
(म० अमयचन्द)
विनय करी रायुल कहे मन्दा बीनतडी अब धारो रे । उज्जलगिरि जई वीनयो, चन्दा जिहां के प्राण आधार रे ॥१॥ गगनं गमन ताहरुबह, चया अभीय वरषे अनन्त रे। .:. पर उपगारी तू मलो, 'पंदा वलि बलि वीनवु संत रे ॥२॥.. तोरण प्रापी पाछा चल्या, चंदा कवण कारण मुझ नापारे। अम्ह तणो जीवन नेम जी, चंदा खिण खिण जोक खू पंथ रे ।।३।। विरह तणा दुख दोहिला, चंदा ते किम में सहे वाप रे । अल विनां जेम माइली, चंदा ते दुख में न कहे वाप रे ॥४॥ में भाष्य पीज प्राबस्मे, चंदा करस्ये हाल विलास रे । " सप्त भूमि ने उरदे चंदा भोगवस्यु सुख राशी रे ॥५॥ . . सुन्दर मंदिर जालीया चंदा झल के छ रत्ननी जालि रे। रत्न खचित स्टी सेजड़ी, चंदा मगमगे धूप रसाल रे ॥ छत्र सुखासन पालखी चंदा गज रथ तुरंग अपार रे। .. वस्त्र विभूषण नित नवा चंदा मंग विलेपन सार रे ॥७॥.. बट रस भोजन नव नवां, चंदा सूखड़ी नो नही पार रे.. राज ऋधि सहू परहरी चन्दा जई चढ्यो गिरि ममारि रे.1८। भूषण भार करे धरण, घन्दा पग में नेउर झमकार रे । कटि तटि रसनानडे घनि चन्दा न सहे मोती नो हार रे ॥६ झलकति मालि हूं झब्ब हूँ चन्दा नाह बिना किम रहीये रे ।
खोटलीखंति करे मुझने चन्दा नागला नाम सम कहीये रे ॥१०॥ ., टिली मोरु नल वट दहे चन्दा नाक फूली नडे नांकि रे। ..
फोकट फरर के गोफणो, चन्दा चाट्लस्यु कीजे चाक रे ॥११॥
सेस फूल सीसें नविधा, चन्दा लटकती लन न सोहोवर। ..' 'छम छम करता घूषरा चन्दा बीछीया विछि सम भावरे ।।१२।।
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* चुनड़ी गीत *
ब्रह्म जयसागर
नेमि जिनवर नमीयाचो, चारित चुनही मागेंराजी। गिरिनार विभुषण नेम, गोरी गज गति कहे जिनदेव ।। राजिमति राजीव नयणी, कहे नेम प्रति पीक श्यणी 1 घम.पमति घुघरी जंगी, आपो चारिक चुनड़ी नवरङ्गो राजी॥३॥ पर भव्य जीव शुम वास, समकीन इरडांनो पास | पीलो पीलो परम रङ्ग सोह्यो, देखी अमरनि कर मन मोह्यो ।।राजी०२॥ मुल गुण रङ्ग फटको कीघ, जिनवाणी प्रमौरस दीघ । तप तेजे हे जे सुके, पटको रङ्ग नो नवि मुझे ॥राजी०॥३॥ एइ भाष्य करि ग्रज रूड़ो, टाले मिथ्या मत रङ्गभूड़ो। पंच परम मुनी ग्रह्यो छायो, भागत भीरी मली प्रासायो ।राजी०॥४॥ खाजली खरी च्यार नियंग, पांच माहावत कमल ने संग । पंच सुमति फूल अपंग, निरुपम नीलवरण सुरङ्ग ॥राजी०।।५।। उत्तर गुण लक्ष चौरासी, टवकती टबको शुभ भासी। क्रोया कर को संभे पासी, चढ को चढयो रङ्ग खासी ॥राजी०॥६॥ नीला पीला रङ्ग पालव सोहे, गुप्ति भयना मन मोहे ।। शिल सहस्त्र या यांच्य हो पासे, मजया भ""परव्रत सारे ॥राजी॥७॥ रंगे रागे बहु माहे रेख, नौसीकाली नबलड़ी शुम वेख । भवभृग भंगननी देख, कानी करुण नी रेम्स ।।राजीनामा मुख मंडण फूलड़ी फरति, मनोहर मुनि जन मन हरति । शुभ शान रङ्ग बहु चरति, वर सीध तणां सुख करति ॥राजी कपटाधिक रहीत सुबेली, सुखकरी करणा तणी केली । मोती चोक नुनी पर सेली च्यारदान चोकही भली मेहेली ॥राजी०॥१०॥ प्रतिमा द्वादश बर फूली, राजीमसो मुल तेज अमूली । देखी समरी चमरी बहु भूली, मेरू गिरि अदे ससु कूली ।।राजी०॥११॥
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चुनड़ी गीत
२७७
द्वादस अंग घूघरी भूर, तेह सुग्गो नाचे देव मयूर । पंच ज्ञान वरणं हीर करता, दौत्य ध्वनि फुमना करना ॥राजी॥१२॥ एह चुनी उडी मनोहारि, गई राजुल स्वर्ग दुमारि । वसे अमर पुरि सुखकारी, सुख भोगवे राज्जुल नारी ॥राजी०॥१३॥ भावी भव बंघन छोड़े, पुत्रादिक मामें कोडे । धन थन बोमन मर कोडे, गजरथ बनुरा चित चुनड़ी ए जे धरसे, मनवांछित नेम सुख करसे 1 संसार सागर से तरसे, पुन्य रन नो भंडार भर से ॥राजी०॥१५॥ सुरि रत्नकीरति जसकारी, शुभ धर्म शशि गुरण पारी। नर नारि चुनड़ी गावे, ब्रह्म जय सागर कहे भावे ॥राजी०।१६।।
--इति चुनड़ी गीत
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हंस तिलक रास' . * हंसा गीत * . . . . "राग देशीय"
गविवि जिरिणदह पय लमल, पलष्ट , एक मणेग रे हंसा । पापविनाशने धर्म कर बारह मावका एह रे हंसा । हंसा तु करि संबलजजि मन पडइ संसार रे ।। हंसा ॥१॥ धन जोवन पुर नगर घर, बंधव पुत्र कला रें। हंसा। जिम आकासि बीजलीय, दिट्ठ पणट्ठा सव्व रे ।। हंसा ।।२।। रिसह जिणे सुर भुवन गुरु, जुगि धुरि उपना सोजि रे । हंसा । भूमि विलासिणि तिणि तिजिय नीलंजसा विनासि रे हिंसा ॥३॥ नंदा नंदन चक्कवइ मरह भरह पति राउ रे । हंसा 1 जिण साघीय षट खंड घरा सो नवि जाउ रे ।। हंसा ॥४॥ सगरु सरीवर गुरण तराउ सुर नर सेवइ जास रे । हंसा । नंदण सादि कहस्स तस विडिय एका सासि रे 11 हंसा ॥५।। करयल जिम जिम जलु गलइ तिम तिम खुठइ आउ रे । हंसा । नंद्र धनुष खर देह इह काचा घट जिम जाइ रे ।। हंसा ॥६।। नर नारायण राम नूप पंडव कूरव राउ रे । हंसा। रूखह सूकां पान जिम ऊडिगया जिह वाय रे ।। हंसा ।।७।। सुरनर किनर असुर गरण मह सरण न कोइ रे । हंसा। यम किंकर बलि सितमह होइन आड थाइ रे ॥ हंसा ||८|| मव मछर जोवन नडीय कुमर ललित घट राउ रे । हंसा । भव दुह बीहियुत पलीयु ए तिनि कोइ सरण न जाल रे ।। हंसा ।।। जल थल नह पर जोणीयहि ममि ममि छेहन पत्त रे । हंसा ।
विषया सत्तउ जीवडड पुदगल लीया अनंत रे ॥ हंसा ॥१०॥ -wrmanormoummaravaourammarrianane
ब्रह्म अजित कृत इस कृति का परिचय पृष्ठ १९५ पर देखिये । इसका दूसरा नाम हंसा गीत भी मिलता है।
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हिंस. तिला रास ...
माइ पडिट गम मालदा पाय रे ! मा। : इंदिय सवर संवा विउए बूटता लागि माफेन रे ।। हंसा ॥११॥ बोहाइ घउगइ गमणतर जगि होहि कयच्छ रे । हंसा । जिम भरहेसर नंदाइ गमीय सिंवपुरि पंथि रे ।। हंसा ॥१२॥ एक सरगि सुख भोगवइ एक नरम दुःख खाणि रे । हंसा। एकु महीपति छत्र धर एक मुकति पुरडाणि रे ।। हंसा ॥१३॥ बंधव पुत्र कलत्र जीया माया पियर कुडंब रे । हंसा । रात्रि रूखह पंखि जिम जाइवि दह दिसि सब्ब रे ॥ हंसा ॥१४॥ अनु कलेवर अन्नु जिउ प्रनु प्रकृति विवहार रे । हंसा । अन्नु भन्नेक जाणीय इम जाणी करि सार रे ॥ हंसा ॥१५॥ रस यस श्रोणित संजटिउ रोम चर्म नह हुड्स रे । हंसा। शनि उत्तिम किम रमइ रोगह तरणीय जपड़ रे ।। हूंसा ॥१६॥
आश्रव संवर निर्जरा ए चिंतनु करि द्रढ चित्त रे । हूंसा । जिम देवइ द्वारावतीय पिसिधि हुईय पवित रे ।। हंसा ॥१७|| लोकु वि त्रिहु विधि भावोयह प्रध ऊरघ नइ मध्य रे । हंसा । जिम पावइ उत्तिम गति ए निर्मलु होहि पवित्त, रे ।। हंसा ।।१८।। परजापति इन्द्रिम कुलई देस घरम्म कुल माउ रे। हंसा ।। दुलहउ इक्कई इन्कु परा मनुयत्तणू बइ राउ रे ।हंसा ॥१९॥
कुशुरु कुदेवह रणझरिणउ खलस्म कहा सुवण रे । हंसा। बोघि समाधि बाहिरउ कूडे घमंदरनित्तु रे ।। हंसा ॥२०॥ प्रग्य रे पग च त पारगज मुनिवर सेम अभव्य रे । हंसा । बोधि समाधि बाहि रुए पडिउ नरक असभ्य रे ।। हंसा ॥२२॥ .मसगर पूरण मुनि पबरु नित्य निगोद पहूंतु रे । हंसा । भाव चरण विरण वापंडउ उत्तिम बोघन पत्त रें। हंसा ॥२२॥ तष मासह पोखंत. यह सिब भूषण मुनि राउ रे । हंसा । केवल रणाणु उपाइ करि मुकति नगरि थिउ राउ रे ।। हंसा ॥२३॥ तीर्थंकर चउवीस यह घ्याईनि ग्या मोक्ष रे । हंसा । सो भ्यायि जीव एकु सिंउ जिम पाम बहु सौख्य रे ।। हंसा ॥२४॥
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________________
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं इतिश्य
सिद्ध निरंजन परम सिंउ युद्ध बुद्ध गुण पाहू रे । हस । परिसइ कोटी कोडि जस गुण हण लाभइ छेतु रे ।। हंसा ॥२५|| एहा बोधि समाधि लीमा प्रवर सह कफयत्यु रे । हंसा । मनसा वाचा करणयह ध्याईयाहु पसत्थु रे ।। हंसा ॥२६॥ इम जाणी मण कोष करि क्रोबई मह वासु रे । हंसा । दीपाइन मुनि हुयि गयु एनि वा बिती नास रे ॥ हंसा ॥२७॥ चित्त सरलू जीब तू करहिं कोमल करि परिणाम रे । हंसा। कोमल वागि सिम टलट कमाइ केहत ठप रे : हंसा ।।२।। माया म करिसि जीव तह माया धम्मह हाणी रे । हंसी। माया तापस क्षयि गयू ए सिवभूती जगि जाणि रे ॥ हृया ।।२।। सत्य वचन-जीब तू करहिं सत्ति सुरन गमन रे । हंसा । सस्य विहुणउ राउ वसु गयु रे सासलिट्ठामि रे ॥ हंसा ॥३०॥ निर्लोहि तशु गुण परिहिं प्रक्षालहि मन सोसु रे । हंसा । अति लाभह पुरण नरि गयु सरि अति गिद्ध नरेस रे ॥ हसा ॥३॥ पाहि संयम जीवन कू श्री जिन शासन सार रे । हंसा । पालिसखी चक्कवाई जोइन सनत कुमार रे ॥ हंसा ॥३२।। बारह बिधि तप बेलडीया धार तण जलि संचि रे । हंसा। सौख्य अनंता फलि फूलए जातु मन जिय खंचि रे ।। ईसा ।।३३॥ त्याग धरमु जीष पापरहिं आकिचन गुण पाल रे । हंसा । धम्म सरोवर पोल गुगु तिणि सरि करि प्रालि रे ॥ हंसा ॥३४॥ श्रेकि सिरोमणि शीलगुण नाम सुदर्शन जाउ रे । हंसा । ब्रह्म धरिज दृढ पालि करि मुगति नगरि थु राज रे ॥ हंसा ॥३५॥ ए बारइ विहि भावरएइ जो भावइ दृढ चित्त रे । हंसा । श्री मूल संघि गछि देसीजए बोलाइ ब्रह्म अजित रे ।। हंसा ॥३६॥.
* इति श्री हंस तिलक रास समाप्तः *
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ग्रंथानुक्रमणिका
२५
.
९७
नाम पृष्ठ संख्या नाम
पृष्ठ लाया अजितनाथ रास २५, ३०, ३१ प्रादिनाथ चरित्र अझारा पार्वनाथ गीत १९१ । प्रादिनाथ पुराण (हि०) २५, ३६ प्रासाई गीत
१४५ । प्रादिनाथ विनती ४२, ४६, ४७, अठावोस मूल गुणा रास २५
४८, १९८ अध्यात्म सरंगिणी ९६, ६७, ६८ | प्रादिनाथ विवाहलो १३८, १६, अध्यात्माष्टसहस्री
१४१, १४५ प्रन्योलड़ी गीत
१४५ / आदिनाथ स्तवन अनन्तयत पूजा
२४ | प्रावीश्वरनाथनु पञ्चअनन्तवत रास
कल्याणक गीत
५५१ अपशब्द खंडन
९६, ६७ | मादिनाथ फागु ५४, ५५, ५::, ६२ अभयकुमार श्रेणिकरास २११,२१२ | यादीम्बर विनती अम्बड़ चौपई
२१३ । आप्तमीमांसा अम्बिका कल्प
| आरतीगीत अम्बिका रास
२५, ३४ | आरती छंद अरहंत गीत
१८९ आराचनाप्रतिबोवसार १०,१६,१७ प्रष्टसहनी
१४, १६८ यागमशोभा चौपई अष्टांग सम्यकत्व कथा २६ । आलोचना जयमाल अष्टाह्निका कथा ९६, ९७ । इलागुत्र चरित्र गाया अष्टाह्निका गीत
इलागुत्र गस
२१४ प्रष्टाहिला पूजा ९, १०, १५ | उत्तरपुराण ८, २०. अक्षयनिधि पूजा
६. उपदेशरत्नमाला ५, ६६, ११३, अङ्गप्रज्ञरिन ९४, ६६, ६७
२७२, २०६ अंजना चरित्र
। उपमर्गहरस्तोत्र वृत्ति २१२ ग्राममसार
८, ९, २० ऋपभनाथ की धूलि ४, ८ आत्मसंबोधन ५४ । ऋषभ विवाहलो
१४१ आदिजिन बीनती
१८६ प्रधिमंडल पूजा आदिपुराण ८, ९, १०, २०,२७ ऐन्द्र व्याकरण आदिन्यत्रत कथा
१९८ ! दाग पक्मिणी वेलि आदित्यवार कथा
११६ । कराहु चरित्र ९५, ६७, ६८, प्रादिनाथ गीत
२०६
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________________
( २८२ )
२०९
करकण्ड रास
२५ । चन्दना चरित्र ९४, १.० करग महर्षि रास २१२ / चन्द्रप्रभ चरित्र १४, ६६,६७,१०० 'कर्मदहन पूजा ६६,६७ चन्दप्पह चरित कर्मकाण्ड पूजा
चन्द्रप्रमनी बीनती कर्मविपाक ९, १०, १५, २० चन्द्रगुप्तस्वप्न चौपई ११९, १२५ कमविपाया रास
चन्दा गीत
१५१ क महिंडोरना
२०६ चंपावती सील कल्याण २०७ कालाप प्याकरण
१०० चारित्रं चुनड़ी कलिकाल रास
चारित्र शुद्धि विधान ६६, ६७. कातन्त्र रूपमाला
| चारुदत्तप्रबंप रास कात्तिकेयानुप्रेक्षा
चारुदत्त प्रबन्ध
१९७ कात्तिकेयानुप्रक्षा टीका ९७, ९९ | चित्तनिरोध कथा . १०७, ११२ क्षपणासार
चित्रसेन पद्मावती रास २१३ होत्रपाल गीत
७ १५३ । चितामणि गीत गणधरवलय पूजा ६, १०, १५, ६७ |
चितामणि जयमाल गाधर वीनती
१९१
चितामणि पार्श्वनाथ गीत १४५ मिरिनार पचल
चितामनि प्राकृत व्याकरण ६६ गीत
चितामणि पूजा ९६, ९७ गीत
१५१
चितामरिण मीमांसा गुणाशा वेलि
१८८ चुनड़ी गीत
१९२ चेतनपुग्दल धमाल ७१, ७५, गुर्वावलि गीत .१५४
७६, ७८,८२ गुरु गीत
२०८ चौरासी जाति जयमाल ९७, १०२
चौबीस तीर्थकर देह प्रमारण-- गुरु जयमाल
चौपई गुर पूजा
२४, २६ | चौरासीलाख जीवजोनि वीनती गुर्वावली
४२ गोम्मटसार १४, १००, १६६ छह लेश्या कवित्त गौतमस्वामी चौपई १४६ छियालीस ठागा चतुर्गति वेलि
जन्मबल्याण मीत
१४५ चतुर्विशति तीर्थक र लक्षण गीत १५१ जम्बुमार चरित्र चन्दनबाला रास
२१३ , जस्तूस्वामी चरित्र चन्दनपष्ठिवत पूजा
९७
५, ६, २२, २४, २६ चन्दनाकथा ६५, ६७ ' जम्बूद्वीप पूजा
२४, २६
गुरगावलि गीत
२६
गुरु छंद
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________________
( २८३ ।
१४५
२०८
१८२ |
जम्बूस्वामी चौपई ११२, २११ । तीनचौकीसी पूजा जम्बूस्वामी रास २५, ६७, | तीर्थकर चौबोसना छप्पय १७८, १६३, १६४
१६७, १६६ जम्बूस्वामी वीवाहला २१३ तेरहवीप पूजा जम्बुस्वामी श्रेलि १०७ [ त्रिलोकसार
६४, १०० जयकुमार आल्यान १५६; १५७ | चनक्रियागीत ४२. ४६ जयकुमार पुराण ६६, ११३ पनक्रिया विनती अलगालगा रास ५५, ६०, १२ त्रैलोक्यसार जलयात्रा विधि
वण्यरति गोत जसहर चरिउ
१८४ दर्शनाष्टांच असोघर गीत
१५३ दसलक्षण रास जिगन्द गीत
दसलक्षणधर्मयत गीत जिन आंतरा १०७, ११० दशलक्षणोडापन जिनचतुर्विशति स्तोत्र
दशाभिद्र रास जिनजन्म महोत्राव
दानवाथा रास जिनवर स्वामी वीनती
दान रुंद जिनवर वोनती
दीपावली गीत जिवादत विवाद
हैदशानुप्रथा जीवडा गीत
२८, १३६ धनपाल रास जीवघर चरित्र ९६, ९७, १०० चन्नारास लीबंधर रास २५, १७८, १९६ धन्यकुमार रास ज्येष्ठ जिनवर पूजा २४ ] धन्यकुमार चरित ५, ८, ९, ११ ज्येष्ठ जिनवर रास २५, ३२ । धर्मपरीक्षा रास २५. ३१, ६२, ११५ जैन साहित्य और इतिहास ५०, ५५ | धर्मसार
२६७ जैनेन्द्र च्याकरण १४, १०० धर्ममग्रह श्रावकाचार टंडाणा गोल ७१, २८, ५६ पामृतपंजिका णमोकारफ़ल गीत १०, १६ नमिराजषि संधि तत्वकौमुदी
नलदमयन्ती रास तत्वज्ञानतरगिणी
नागकुमार चरित्र
१८१ ५१, ५४, ५५, ५६, ६.५ नागकुमार रास तत्वनिर्णय
नागद्रारास तत्वसार दहा ६७,१०३ नागश्रीरास
२५, ३४ तत्वार्यसार दीपक ९, ११, १५, २० । नारी गीत
२०७ तिलोयपात्ति
१८२ ' निजामार्ग
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________________
६४
निर्दोष सप्तमी कथा ११६, १२५ | पृथ्वीचन्द चरित्र २१२ * निर्दोष सप्तमी व्रत पूजा २६ ! पंचकल्याणक गीत १५३, १५४
मिगीत १६२, १६३, २०८, २१२ । पंचकल्याण पूजा नेमिजिनगीत १३८, १४६ पंचकल्याणकोद्यापन पूजा ५५. नामिजिन परित
पंचपरमेष्ठी पूजा नेमिनाथ गीत ८४, ८५, १५३ | पंचपरमेष्टिगुणवर्णन नेमिनाथचरित्र १४ १८१ ! पत्रसंग्रह।
१०७ नेमिनाथ छंद
पंचास्तिकाय
५४, १६८ नेमिनाथ छन्द
१०२ पपरीक्षा नेमिनाथ द्वादशमासा १४५ । पद्मचरित्र
२१३ नेमिनाथ फाग १३१, १३३ पद्मपुराण नेमिनाथ बसंतु ७१, ७६ पपावतो गीत
१५१ नेमिनाथ वसंत फुलड़ा २१२ पहायतोनी चीनति २०८ नेमिनाथ बारह मासा १३१, १३३, | परदारो परपील सज्झाय
१३४, १३८, | परमहंस चौपई ११९, १२४
१४१, १४२, | परमहंस रास २३, २५, ३० नेमिनाथ राजुन गीत १०६ ! परमात्मराज स्तोत्र नेमिनाथ रास २८, १०७ ११२. ११६, १८६ ! परीक्षामुख
६४ नेमि वन्दना १९१ पर्यरत्नावली कथा
२१२ नेमिनाथ वीनतो
पल्यनतोद्यापन
१६, ६७ नेमिनाथ नमवशरणविधिः १९८ | | पाणिनी व्याकरण मिनिर्वाण
| पाण्डवपुराण ६४, ९५, ९६, नेमीवर गीत १०, २१, १३८,
२०६, २०८ पानाध काव्य पंजिका ९६, ९७. ने मीश्वर का बारहमासा ७१.८० | पार्श्वनाथगीत
१४५ नेमीश्वर फाग
१२० पार्थनाथ चरित्र ८, ९, ११, १४ नेमीदवर रास २५, ११६, १२१ | पाश्वनाथ की विनती १४६ नेमीश्वर हमनी १३६. १३६, १४५ | पार्श्वनाथ रास २०२, २१४ नमीश्वरन ज्ञानकल्याण गीत १५१ | पार्श्वनाथ स्तवन २१३ न्याकुमुदचन्द्र
६४ / पासरित स्वायमकरन्द
६४ | पाहड़ दोहा न्याय विनिश्चय
पीहरसालड़ा गीत पउमपरिउ
१८१ । पृण्याम्नवकथाकोश
थोपदेश
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________________
पुराणसार संग्रह पुरारण संग्रह
पुष्पपरीक्षा
पुष्पांजलिवत कथा
पुष्पांजलिवत पूजा पुष्पांजलि रास पूजाष्टक टीका
पोपहास
प्रणयगीत प्रद्युम्न चरित्र
प्र म्नप्रबंध
अञ्चरून रास
प्रभात निर्णय
प्रमाणपरीक्षा प्रमेयक मालमाण्ड
प्रशस्ति मंत्रह
प्राकृतपंचसंग्रह
प्राकृतलक्षण टीका
बकलरास
बलिभद्र चोप
बरास
बभनी बीनती
६ २८५ ।
बलिनु गोत
बारडी दोहा बावनगजा गीत
बावनी
मारन अनुहा बारहयत गीत
बारसचौतीस विधान
बाहुबलि चरित
" बाहुबल वेलि
१० | बुद्धिविलास ब्रह्मचरीगाथा भक्तामरोद्यापन
८, ६, १४
£?
२४
६७
܀
५५, ५६
५५, ५६, ६२
१४२
४२, ४३
६६
प्रश्नोत्तरावकाचार १४, २०, ६१
प्रश्नोत्तरोपासकाचार
९, १४
११४
९७
२५
८४,८८
११६, १२१
६४, १६८
६४
६४
६, ७०, ९६
१७३ १७४
२०६
भक्तामर स्तोत्र
भट्टारक विद्यावर कथा
भट्टारक विरुदावली
भट्टारक संप्रदाय
२१२
९९
२६
२०६
१८५
१०७, ११२
भद्रबाहुरास
भरत बाहुबलि छन्द
भरतेश्वर गीत
भविष्यदत्त चरित्र
भविष्यदत्त रास
भुवनकीत्ति गीत भूपालस्त्रोत भाषा
मरकलब्ध गीत
मल्लिनाथ गीत
मल्लिनाथ चरित्र
महावीर गीत
१२ महावीर चरित
१३३६ महावीर छंद
२०६
भयरण जुज्भ,
मयर रेहारात
मिथ्यात्व खण्डन
मिथ्याकड विनती
मीणा गीत
मुक्तावलि गीत
मुनिसुव्रत गीत
मुलाबार
मुलाचार प्रदीप
मेघदूत
१६६
२१३
५४, ५५
११८, ११६
२६
११४
३, ४१, ५०,
८४ ६३
२५, ३६
१३८, १३९,
१४४. १४६
१४५.
६१
२५, ११६, १२३,
२१०
190,
७०
२०८
७१, ७३
२१२
२०८
४२. ८५
८६. ११
१३३
१४
९७, १०१
१६७
१६
१८९
१०, १६, २१
१४६
२३. १८१
६. १२, १५,
२०. २३
१५१
Page #312
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________________
( २८६ }
२०६ | वस्तुपासतेजपाल रास वासुपूज्यनीय माल
२१३
८, ६, १३, ४२
विक्रमपंचदंड चौप विजयको सिन्द
४३, ४५, ६२,
२११
विजयकीत्ति गीत
यशोधर रास
२५, २९, ४५, ४६
रत्नकरण्ड
१८५
रत्नकीसि गीत
१५५ १६१
रत्नकीत्ति पूजा गोत
१५३
रविव्रत कथा २६, ३४, २५, २०१ राजनात्तिक
१४
राजस्थान के जैन ग्रंथ
भण्डारों की सूची - चतुर्थ भाग
मोरड़ा मृगावती चौपाई
यशोधर चरित्र
६५, ६ε
रामचरित्र २४, २७, २८, ३८
१७२
रामपुराण
रामराज्य रास
रामसीता राम
रामायण
रोहिणीय प्रबन्ध राम
रोहिणी रास लक्षणचौबीसोपद लघु बाहुबलि बेल लब्धिसार
नवांकुश छप्पय
लापबडी गोत
२३
२५, २९, २८, १८६
२८
लोडरण पार्श्वनाथ वोनती
वृषभनाथ चरित्र
स्वामी चोप
वरणजारा गोत
वरियड़ा गीत
aa मान चरित्र
वसुनंदि पंचविशति वसंत विद्याविलास
२११
२५, २१३
१०६
१६८
२४,६४
१६८, १६६
२०८
१४६
१०
२११
१४२, १४५
१८६
८, ६, १३
६१
११५
विज्ञप्तत्रिवेणी विद्या विकास
विद्याविलास पवाड़ो
विपापहार स्तोत्र भाषा
धीरविलास फाग
वैराग्य गीत
व्रतकथा कोश
कर्मशस
१५१
२१३
७१, ९८
६८, ६०, १,
८१. ११
२१२
२१३
२१३६
शत्रु जयपादीश्वर स्तवन शब्दभेदप्रमाण
शाकटायन व्याकरण शांतिनाथ चरित्र
शांतनाथ फागु
शास्त्रगुजा
शास्त्रमंडल पूजा
शीतलनाथ गोत
शीतलनाथनी बीनती
शीलगीत
शीलरास
२१३
܀
܀g
९, १४, २१, २६
५५, ६०, ६२
२१४
६१, ६२
ek
९४. १०० ८.६, १४
१०, २०, २१
२६
५५
११५, १६२
१५३
१४२, १४५ २१३
श्रावकाचार
८
श्रीपाल चरित्र ९, १६, १५ श्रीपाल रास २५, ३५, ११६, १२२ श्रुत पूजर २५ श्रौशिक चरित्र ६६ ६६ ६६ ६७
थे कि रास
*२५, ३२
श्लोकवातिक
श्वेताम्बरपराजय
९४ १६८
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________________
( २८७ )
AN
सकलकोसि नु रास १, ३, ६, ७, ८ | सिद्धान्तसार भाष्य सागरप्रबन्ध १६६ | सीमंदर स्ल बन
२१४ संकटहरपावंजिनगीत १५३ | सीमंधरस्वामीगीत १०७, ११०, संग्राम सूरि चौपई
२१३ संघपति मल्लिदासनी गीत १५३ सिंहासन बत्तीसी
२१३ सज्जन चित्तबल्लभ
६७. सुकुमाल चरित्र ८, ६, १२ सद्भषितावलि
| सुकुमाल स्वामीनी रास १८८ सद्वृत्तिशालिनी १६,९७ | सुकौशल स्वामी रास संतोषतिला जयमाल ७०, ७१, | सुदर्शन गीत
७३, ७५ | सुदर्शन चरित्र ८. ६. १२ संदेहदोहावाली. जुन
शा सप्तध्यसन कथा
४२ | सुदर्शन थठी रास सप्तभ्यसन गीत
१४५ | सुभगसुलोचना चरित १०७ सातव्यसन सर्वया
२०८ | सुभौम चक्रवति रास समकितमिथ्यातरास २५, ३३ | सूखड़ी समयसार
६८,६८, ६६
सूक्तिमुक्तावलि संबोध सत्ता १०७, ११०
९७२
सोलहकारा व्रतोद्यापन सम्यक्त्त्वकौमुदी
मालहकारस रास २५, १५६ सरस्वती स्तवन
सोलहका रण पूजा
२४ सरस्वती पूजा ५४, ५५, ६६, ६७ / सोलहकारण पूजा , १०, १५ सरस्वती पूजा २६ | सोलह स्वप्न
२०८ संशयवदनविधारण ६६, १७ स्वयं संबोधन वृत्ति संस्कृत मजरी
हनुमंत कथा रास ११६, १०, साधरमी गीत माधु वन्दना २१३ | हनुमंत रास
२५, २६ सारचतुर्विशतिका ९, १५ रियाल वेलि सायद्वीपपूजा २४, ६७, | हरिवंशपुराण ५, ११, २२, २३, सारसीखामणिराम १०, १७, २१
२४, २५, २७, २८, सिद्धक्षक कथा
३८, ६१, ६२, १७२ सिद्धचक्र कथा १-४ | हंसा गीत
१९५ सिद्धचक्र पूजा
९६, ६७ | हिन्दी जैन भक्ति काव्य सिद्धान्तसार दीपक ९, १२, | और कवि १५, २० | हिन्दोला
१४५ सिद्धान्त सार १८२ । होलीरात
२५.३१
१९१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मंथकारानुक्रमणिका ( ग्रन्थकार, सन्त, श्रावक, लिपिकार आदि ।
१९५
नाम पृष्ठ संख्या नाम
पृष्ठ संस्था अकलंक
११ | ऋषिवन सूरि अकम्पन १५६७ कपूर चन्द
२०२ अखयराज १७ | कबीरदास
३८, ६२ अगरचन्द नाहटा
कमल फीति अजयराज पाटगी ।
नामलराय ज० अजित
करसिह अजितनाथ १०,८८ करमण
१७४ अनन्तकत्ति ११८, ११९, १०, बरमसिंह
१,२ १२४, १२७, १८६ | कल्याण कीत्ति
१६७ अभयवन्द्र १४४, १४८, १८.९, कैवारण तिलक
१४ १५०, १५१, ५५०, | प्र० पामराज १५६, १६१, १६६. कालिदास १८८, १०, ११२ : कुमृदचन्द्र २७, २०८, २६
५३९, ११, १४२, भल अभयनन्दि १२७, १२८, १.६,
१४३, १४४. १४५, १८८, १६०, ५...
१४८. १५३, १५६,
१६१, १८
२२
१०२ ११,६८, ९९
१४८
आचार्य अमितिगति आ० अमृतचन्द्र अनीति अर्जुन जीवराज अहद्वलि आनन्द सागर भाशाधर संश्रयी ग्रास वा इन्द्रराज इलाहीम लोदी उदयसेन
२६५ ५ ५८. . ! पृन्दनलाल जैन
फरि आचार्य कुन्दकुन्द कोडमदे न कृष्णदास क्षमा कलश वणी शेमचन्द्र खातु
चालचन्द काला गणचन्द्र
१५४
२०२
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
गणेश कवि ११८, १२९, १४४. | जिनहर्ष
१४६, १५०, १५६, [F जीवन्धर १८८, १९३, १६४
१६२, १६२ . जीवराज मा गुणकीति १८६, १६० जोधराज गोत्रीका रासादास
। विद्याधर जोहरापुरकर ५, ४०, ५ ., वाचक गुगारत्न
२१४ उपाध्याय ग़गा विनय २१४ । भ० जानकीति ४९, १७८, २११ गंगासहाय
१०२ ' म ज्ञानभूषण ६, ४९, ५७, ५१ ग्यासुदीन
५२, ५३, ५४, घासीराम आ. चन्द्रवत्ति १५६, १५६, १६०, १६७
६४, ६७, ६८, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ३६, १२५
७१, ४४, ६३, चम्पा
११८
९६, ११३, १८३ चारुकीति १८३ : ज्ञानसागर
३४, १०७ जगतकीति. १७१, १७२,१८३ हाल ज्योतिप्रसाद जैन जगन्नाथ
१६७ / दोहर जय कीति १०. १८३ | पं. टोडरमल
.१६७ जयचन्द छाबड़ा १६५ | संघपति ठाकुरसिंह
४ 'ब्र जयराज
१६० तुलसीदास ४६, ८३, १२५ जयसागर १२९, १४४, १५३ | व्रतेजपाल १५४, १५६, १६२, | तेजाबाई
| त्रिभुवन फोत्ति जयलिह
दामोदर जमवन्तसिंह
दामोदर दास जिन चन्द २६, १८०, १८१, महा
१०३ १८२, १८३ देवजी
१४६ न० जिनदास ५, ६, १०, १२,२२, देवकीन
२३, २४, २८, ३२, देवराज' ३३, ३४, ३५.३७, देवीदास
१२७ ३८, ४८, ६१, ६२, | भ. देवेन्द्र कौत्ति ४६, ६६, १०६, १७.१, १८६
११०, ११३, १५९, जिनसमुद्रसूरि २१४
१६५, १६६ जिनसेन ११, २७, १८६ । साह दौदू
१८४
१८०
२०२
१६६
१६७
Page #316
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________________
दौलतराम कासलीवाल
धनपाल
६१,
४० घन्ना
धन्यकुमार
धर्मकीति
धर्मचन्द्र ० धर्मचि
'वाचक धर्मसमुद्र
धर्मसागर
नयनन्दि
संघपति नरपाल
नरसिंह
नरसेन
नरेन्द्रकी सि
नवलराम
नागजी भाई नाथूरामप्रेमी नानू गोधा
नाराद्दरण
नेत्रनन्दि
नेमकुमार
नेमिचन्द्र
नेमिदास
नेमिसेन
दर्थ
पदमसिरी
भः अनन्द्रि
भाई
पद्मावती
( २६० )
१६५ ।
१११, १८५
३४
११
६. १७५
१८१, १०४, १८५
२०३
१८१
२१४
१९५
१९९
२१४
२१४
६२, १८४
४
२, ३
४०, ६१
३१
१८४, १८१
११४, १८१, १८३.
१६५, १६६, १६७,
१८४, १८५
१६८, १६६, १९६
१, ७, ५६, ५१.
१६२
२१२
१३८
४१, १८३
५०, ५१, ५४, ६४
१६६, १६७
२११
२०६
१८१
बहुरानी
४
१८१ बाजचन्द्र
१८३
१०९ ब० बुचराज (वृचा ) ८०, ८२, ६८,
७० ७१ ७८, १८५.
पात्र केशरी
पार्वती
पारवती गंगवाल
१८६ | पीथा
१३५, १४४, १४६.
१५६
६२, १८१
२१४ पुंडरीक
पुण्यनन्दि
साड़ पाव पाश्चन्द्रसूरि
१८४
३, ७, १०६,
१५९, १६१
१३६
१६, ४१, ४४
पं० परमानन्द शास्त्री ७, २३, ५४,
५५, ५६,
पुष्य मागर
पुण्येदन्त
पुनसिंह (पूर्णसिंह)
प्रजावती
प्रभाचन्द्र
डा० प्रेमसागर
११५, १७२
२३, १६६ वस्ह
४४ बोल्ह
२, ७ बल्व
फिरोजशाह
बस्तराम शाहू
बनारसीदास
११५, १६८.
१३५
१८४
भगवतदास
भद्रबाहु
भद्रबाहु स्वामी
भरत
मनिष्यदत्त
भीमसेन
पं० भीवसी
७५.
८०.
७१
१२३, १२४, १२६
३६, १३५
१२५
१०, १५७
१२३
३९, ४२, १८३
१६७
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
"भ० भुवनकीर्त्ति
भूपा
भैरवराज
वाचक मतिशेखर
मनोहर
मयाचन्द
मस्लिदास
मल्लिभूष
मुनि महनन्दि - महोचन्द्र
महेश्वर कवि
मातत्वि
• माणिक
माणिकदे
साह माधो
मानसिंह
मारिदत्त
मीरा
यशोवर
२६१ )
५, ६, २३, २४,
०८, ३०, ३२, ३३,
३७, ३८, ४९, ५२, रत्नकोति
५३, ५४, ६३, ७०
७१, ६६, १७५,
१७६, १७७, १७८,
१७६
४१
५०
२१२
मुदलियार
• संपति मूलराज पं० मेघावो
यशःकोति
२३
१६७
२३, १२६
१०६, १०९, ११०,
रत्नाइ
११११५ र त्रिषेणाचार्य
१८५
१८१. २११
४५
४५
५०
४
१७३
१०७, १७११६८,
२००, २०१
६१
६१ राजसिंह
६१
१६२
१८१, १८२, १८३
४१,८४,८५,८८, १७१, १२, १८५,
१८६, १८८
१३, १८, २६, ४३, ४५, ४६, ४८, ६८,
रत्नचन्द्र
भ० रत्नचन्द्र ( प्रथम )
म० रनचन्द्र (द्वितीय)
स्र० रत्नसागर
राघव
राधो वेतन
ज
मुनि राजचन्द्र
राजसूरि
रामदेव
रामनाधराय
रामसेन
ब्रह्म रायमल्ल
६६, ८३, ८४, ८८.
८६
लक्ष्मी सेन
नीलादे
६१, ६२, ७०, १२४,
१२७, १२८, १२६.
१३५ २३२, १९६
१३४, १३५, १३६,
१४८, १५३, १५६,
१६१, १७१, १८२,
१८५, १९१, १९२
१६४ १७८
१६५
o£
वादिचन्द्र
वादिभूषण
ललितकीत्ति
लक्ष्मीचन्द चांदवाड़
भ० लक्ष्मीचन्द्र
६२
२०३
२७
१२६
१८३
४१
૨૩
६२
२१२
१४६
५०
३६, ४३, ४४, ८४
११५, ११६. १९४
१२५, २२६
६
६६
१०६, १८६,
१११, १४८, १५६
३६
२१४
१६८, १०७
१९६, २११
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
{ २६२ )
२१२
द
भट्टारकः बिजयकोत्ति ५१, ५२, ५४,
६३, ६५, ६६,६८,
६६. १००। १०१, ६५. ६६, ६७,
१०३, १०४, १०१, ६६, ६६, ७०, | ७१, ८१, ८३,
१६३.१६४, १७२, ८४, ९०, ६६, .
१७८, १८०, १८१, ६४, ६६, ६८,
२०६, २०८, २०६ १:१. १०२, | शील सुन्दर - १०४, १६१ शोभा
१, २३ विजयसेन - ८३, ८४ | श्रीचन्द
१८५ विजयराम पाण्डया १८२ | धीवर वाचक विनय समुद्र १३, २१४ | श्रीपाल विद्याधर
१४८, १४६. १६२, विद्यानन्द
१६४ विद्यानन्दि
१०६, ११०, ११ , | श्री भूषण
१५८, १६५, १६६ | श्री वर्द्धन विद्यापति
वेशिक विद्याभूषण
२०६ । म० सवालकत्ति १, ४, ५, ६५ विद्यासागर १६२, २०८
८, १०, १३, १५, विमलेन्द्रकोत्ति ६, ४६, १७५, २१४
२१, २२, २३, २४, विशालकीत्ति
२८, ३०, ३२, ३३, विश्वसेन
२०६
३४, ३५, ३६, ३७, व वोहा
१८४
३८, ४६, ५२, ५३, वीर भ० वीरचन्द्र ४६, ५६, १०६,
८३, ६३, १८, १०६, १०७,१०९, ११०
१२४, १२७, १७५, १११, ११२, १७३
१७८, १८२, ११ वीरदास
११६ | भ० सकाल भूषण ५, ६२, ६६, १४ वीरसिंह
१९५
६५, ११३, १७२, वीरमेन
१७८, १९६, २०६ बोम्मर सराय
२०७ शान्तिदास
। १९८ | सत्म भूषा भ० शुभचन्द्र ५, ६, ५२, ६२, ६३, | सदाफल
६४, ६६, ६७, ६८, । सघारू
१६८
४०
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
२६३ )
२१४
समन्तभद्र
११ । सोमीत्ति १८, ६६, ४०, ४१, समयसुन्दर
४३, ४४, ४५, ४७, ममुद्रविजय
४८, ४६, ८३, ८४, सरदार वल्लभ भाई पटेल
८५, १८८, १९३ सरस्वती
४४,२१३ | संघवी सोमरास सहज कत्ति
२१४ । सोमसेन ब्रह्म सागर
१४४ संघपतिसिंह साधु कत्ति
२१४ संघदीराम सापडिया
४० संयमसागर १३५, १४४, १५६, सिंहकोति
१६०, १९२ सीता १६६, २००, २०१ / स्वयंम् मुतामा ११, १६, १.६ मुनि सुन्दरसूरि २११, २१२ | हर्षकीत्ति सुमतिकीति ६४, ६५, १९, | हर्षचन्द्र
१०७. ११२, १९०, हर्षसमुद्र १९२. २०६ | हीरा
१६२ मुमति सागर
हीरानन्द सूरि सुरेन्द्र कौत्ति १६९, १७०, १७१, । हा० हीरालाल माहेश्वरी
| हेमकीति नुरदास
४६, ८३ । हेमनन्दि सूरि
२१३
१६५
१८५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्राम-नगर-प्रदेशानुक्रमणिका
पृष्ठ संख्या नाम पृष्ठ संख्या
नाम
नाम
पृष्ठ संख्या
नाम
१७२
५. १८२
अजमेर
११ । गंधारपुर अटेर
। गलिपाकोट अपाहिलपुर पट्टण
गिरनार ४,३४, ७६. १०८, अयोध्या १६६, २००, २७ ।
१३८, १६८ अहीर (प्राभीर देश)
गिरिपुर (डूगरपुर) १० मागरा
१, २२, २७, ६३, भानन्दपुर
५०, ७०, ८३, १००, आबू
१०१, १०३, 10, आमेर ३३, १२६, १६५, १६५
११७, १३४, १५, आवा (टोंक-राजस्थान) १८१ |
६४३, १५६, १६२, प्रातरी (गोव) ईकर १, ३७, ८५, ११४ | गुढलीनगर उत्तर प्रदेषा ६, ८३, १८० गूजर ( गुर्जर ) जदयपुर ४, २५, २८, ३०, ३४, | | गोपाचल (गोपुर, ग्वालियर] ८५,
३५, ३६, ५३, ५६, ६१, ६२, ६७, ६५, | ग्रीवापुर
११८ १०७, १०६, ११०, . घटियालीपुर
१८५ १९६, २०७ घोधानगर १९७, १३८, १४१, ऋषभदेव
१८१, १८६ कनकपुर
३० चंपानेर कल्पबल्ली नगरी
१६३ | चंपावती ( चाटम् ) ७०, १६५, काशी तु.पडलपुर १०१ | दिलेडी ।
१७२ कुम्भलगढ़ __७ चित्तौड़
१६६,१८४ कुरुजांगल देश ५० | जम्बूद्वीप
२९, ३७ कोटस्याल
६१ - जयपुर
१४, १५, २५, ३१, कौशलदेश खोड़ण गंधार
१६६, १८२, १८५,
६२ ।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०,१८०
२३
१६८
१८७, १६३ | पंजाब जवापुर ९७, १८६, १९४ | पाटण जालपुर
पावापुर जूनागढ़
३४. १७९ पांबागढ़ 'मुनू
१८१. १४२ | पावांगिरि टोंक
२०२ पोदनपुर टोडारायसिंह १६५, १६७, १६८ } पोरबन्दर
१६१ हूंगरपुर
४, २५, २६, | प्रतापगढ़ . ३०, ३४, ३७, बडली
बडाली ५३, ६१, ६८, बलसाइनगर ६४, ६५, १००, भागड प्रदेश (वाग्वर) १,५,८, ३५, १५६, १६०
५०,६४,१०० ढोली (दिल्ली)
८५ | बारडोली १३५, १३६, १३७. सक्षकगढ़ (टोडारायसिंह)
१३८, १४८, १५६,
१५७, १५६ तेलवदेश
बारामसी घागड़ १२७ | बांसवाडा
४, ८५ देउन्नग्राम २८, ६२ | बूदी
७३, ७५ देहली ७०, ८३, ११५, १६५, | মঞ্জস্য
१६६, १८०, १८२] मारत
१८३, १८४ भृगुकच्छपुर (भडोच) १५६, १९५ दोसा (जयपुर)
१२४ भीलोड़ा द्रविष्ट देया
५० मगध
२६.३२, ३७ द्वारिका ८८, ८६, ९०, ११ मध्य प्रदेश चौपे ग्राम
૨૮૨ महला मामिमाड (नीमाड)
महसाना नरवर
१७२ महाराष्ट्र देश नवसारी
१०६
मांगीतुगी नागौर. १६५, १८२, १८६
मारवाड नंग वा (नीरावा) ७, ३७, १७, मालपुरा
१६८, २७२ ४६, ४८, १८१ | मालवदेश मोतनपुर
६, ६८ / मालवा नोगाम
४९ | मुडासा (राजस्थान) १०३
१२
६.८४
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________ मेवपाट मनात 43 | सामवाडा 4, 37, 46, 18, मेकपाट (मेवाइ) .: . 85, 64, 15 156, मेवाइ 66, 127 166 | मांगानेर 123, 15. 156. राथंभौर 18, 122, 123, . 165, 166, 169 121 राजस्थान 1, 8, 16, 28, मभिरि 63, 70, 83, 97, सिकन्दराबाद 100, 101, 106, सिंधु 112, 117, 122, | सूरत 37, 46, 16, 134, 156, 161, 165, 166, 170, 171, 172, 173, सोजोत्रिपुर (सोजत) 40. 45 .180, 183, 184, | सौरठ 66.56 185. 186, 160 / सौराष्ट्र देश 50, 176 गरदेश 50 स्कवनगर लवारग (जयपुर) 112 | हरतोरि वंसगालपुर 82 | हस्तिनापुर वराठ 50 | हामीटनगर 116, 13? श्रीपुर EE ! हिगार 7, 75, 94,92.8 सोजत्रा