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भ० रत्नकीत्ति के कुछ पद
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चंद्रवदनी पोबारती डारती, मंडन हार उरनीर । 'रतनकी पत्ति' प ग वेगगी, राहुल नित कियो घोर ॥सखी०॥३॥
[४] राग-देशाख
सखि को मिलावो नेम नरिदा । ता बिन तन मन योवन रजत है, चार चंदन अस चंदा सखि०।१।। कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुःसह मदन को फंदा । तात मात अरु सजनी रजनी, वे प्रति दुख को कंदा सखि०।१२॥ तुम तो शंकर सुख के दाता, करम काट किये मंदा । 'रतनकीरति' प्रभु परम दयालु, सेवत अमर नरिंदा सखि ॥३॥
[५] राग-मल्हार सखी री सावनि घटाई सतावे । रिमि झिमि बून्द बदरिया बरसत, नेम नेरे नहिं आवे सखी ॥१॥ कूजत कीर कोकिला बोलत, पपीया वचन न भावे । दादुर मोर घोर घन गरजत, इन्द्र धनुष डरावे ||ससी०||२|| लेख लिखु री गुपति वचन को, जदुपति कु जु सुनाये ।। 'रतनफीरति' प्रभु अव निरोर भयो, अपनी वचन विसरावे ।।सखी॥३॥
[६] राग-केदार कहां थे मंडन करू फजरा नन भरु, होऊ रे वैरागन नेम की चेरी । शीश न मेजन देउ मांग मोती न लेउ, अब पोरहु तेरे गुननी बेरी ॥१॥ काहं सू बोल्यो न भावे, जीया में जू ऐसी भावे ।
नहीं गये तात मात न मेरी ।। आलो को कह्मों न करे, बावरी सी होइ फिरे ।।
चकित कुरंगिनो यु सर घेरी ॥२॥ नितुर न होइ ए लाल, वलिहूं नैन विशाल ।
कैसे री तस दयाल भले भलेरी ॥ 'रतनकीरति' प्रभु तुम बिना रामुल ।
यों उदास गृहे क्यु रहेरो ।।३।।