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का मुनि श्री . किान महाका पावनं सम्मति-प्रसाद
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जन बाङ्मय भारतीय साहित्यवापीका पदमपुष्प है। मोक्षधर्म का विशिष्ट प्रतिनिधित्व करने से उसे 'पुष्कर पल्लामा निर्लेप' कहना वस्तु-सत्य है। भारत के हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारों में अकेला जन साहित्य जितनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है उतनो मात्रा में इतर नहीं। लेखनकला की विशिष्ट विधाओं का समायोजन देखकर उन लिपिकारों, चित्रकारों तथा मूल-प्रणेता मनीषियों के प्रति हृवय एफ अकृतक आह्लादका अनुभव करता है। लिपिरक्षित होने से ही आज हम उसका रसास्वादन करते हैं, प्रकाशित कर बहुजन हिताय बहुजनसुखाय उपयोगबद्ध कर पा रहे हैं, उनकी पवित्र तपश्चर्या स्वाध्याय मार्ग के लिए प्रशस्त एवं स्वस्तिकारिणी है।
प्रस्तुत संग्रह राजस्थान के जन सन्तों के कृतित्व तथा व्यक्तित्व बोधको उद्घाटित करता है । जैन भारती के जाने-माने तथा अज्ञात, अल्पज्ञात सुधीजनों का परिचय पाठ इसे कहा जाना चाहिए। हिन्दी में साहित्य धारा के इतिहास अभी अल्प हैं और जनवाङ्मयबोधक लो अल्पतर ही है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों ने भी इस आईत-साहित्य के गवेषणात्मक प्रयास में प्रायः शिथिलता अथ च उपेक्षा विखायी है। मेरे विचार से यह अनुप्रेक्षणीय की उपेक्षा और गणनीय की अवगणना है। साहित्यकार को कलम जब स्ठती है तो कृष्षमषो से कचिन कमल खिल उठते हैं। वे कमल मनुष्य मात्र के ऊपरमरुसमान मानः प्रवेशों में पद्मरेणुकिंजल्कित कासारों को अमद हिलोत उत्प करते हैं। शुद्ध साहित्य का यही लक्षण है। वह पात्रों के मालम्बन में निबद्ध रहकर भी सर्वजनीन हितेप्सुता का ही प्रतिपादन करता है। इसी हितेप्सुता का अमृतपाथेय साहित्य को चिरजीवी बनाता है। आने वालो परम्पराए धर्म, संस्कृति, गौरवपूर्ण ऐतिहा क्षे रूप में उसको सरक्षण प्रदान करती हैं, उसे साय लेकर आगे बढ़ती हैं। साहित्य का यह आप्यायन गुण और अधिक बढ़ जाता है यदि उसका निर्माता सम्यक् मनोषी होने के साय सम्यक बारित्रघुरोण भी हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत सम्म साहित्य अपने कृति और कृतिकार रूप उभय पक्षों में समावरास्पद है।