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राजस्थान के इन कृतिकारों में गेयश्छन्दों की अनेकरूपता को प्रश्रय देकर भाभिव्यक्ति के माध्यम को स्फीत-प्राञ्जल किया है। रास, गीत, सबंया, ढाल, सरहमासा, राग-रागिनी एवं नानाविष बोहा, चौपाई, छन्दों के भावकुशल प्रमाण संग्रह में यत्र तत्र विकीर्ण देखे जा सकते हैं जो न केवल पीथि के निपुणता स्यापक है अपितु लोकजीवन के साय मंत्री के चिन्हों को भी स्पष्ट फरते चलते हैं। किसी समय उनकी कृतियो लोफमुख-भारती के रूप में अवश्य समाहत रही होगी क्योंकि इन रचनाओं के मूल में धर्म प्रभाषना को पदचाप सहभणी है। आराध्य धरित्रों के वर्णन तथा कृतित्व के भूपिण्ठ मायतन से पह अनुमान लगाना सहज है कि ये कृतिकार बतु-मुखी प्रतिभा के घनी ही नहीं, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी भी थे।
डॉ० कस्तुरचय कासलीवाल गत अनेक वर्षों से एतादृश शोधसाहित्य कार्य में संलग्न है। पुरातन में प्रच्छन्न उपादेयताओं के जीर्णोद्धार का यह कार्य रोचक, नानक एम सामग्मि है। इसमें व्यापक रुप मे मनीषियों के समाहित प्रयत्न अपेक्षणीय है।
प्रस्तुत प्रकाशन 'अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी' की और से किया जा रहा है। इसमें योगदान करते हुए सत्साहित्य की ओर प्रवृत्ति-शोल क्षेत्र का 'साहित्य शोध विभाग' आशो वाहं है।
मेरठ २११०/६७
વિધાનન્દમુનિ