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________________ राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ___ एचो कहिने सासू उठी। से पछे साधुजी ने पासे प्राध्याजी । से त्रीण प्रदक्षणा देने बेठा मुनि उलझ्या मन में हरक्ष्या ते पछे नमोस्तु नमोस्तु कारने श्री गुरुवन्दना भक्ति की थी। पछे श्री स्वामीजी ने मनवत लीघो हतोते तो पोताना पुन्य थकी श्रावीका पालो श्री स्वामी जी धर्मवृधी दीधी।" विहार : 'सकलकीति' का वास्तविक साधु जीयन सवत् १४७७ से प्रारम्भ होकर संवत् १४९९ तके रहा । मन २२ वर्षों में इन्होंने मुख्य रूप से राजस्थान के उदयपुरगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ प्रादि राज्यों एवं गुजरात प्रान्त के राजस्थान के समीपस्थ प्रदेश में खूब बिहार किया। उस समय जन साधारण के जीवन में धर्म के प्रति काफी शिथिलता प्रागई थी । साधु संतों के विहार का प्रभाव श्रा । जन-साधारण की न तो स्वाध्याय के प्रति रुचि रही थी और न उन्हें सरल भाषा में साहित्य ही उपलब्ध होता था। इसलिए सर्व प्रथम सकलक्रीत्ति ने उन प्रदेशों में विहार किया और सारी समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया । हसी उद्देश्य से उन्होंने कितनी ही मात्रा-संघों का नेतृत्व किया । सर्व प्रथम 'संघ पति सींह' के साथ गिरिनार यात्रा आरम्भ की। फिर वे चंपानेर की पोर यात्रा करने निकले । वहां से आने के पश्चात हंबड़ जातीय रतना के साथ मांगीतुगी की यात्रा को प्रस्थान किया । इसके पश्चात् उन्होंने अन्य तीर्थों की वन्दना की। जिससे राजस्थान एवं गुजरात में एक चेतना की लहर दौड़ गयी । प्रतिष्ठाओं का आयोजन तीर्थयात्राओं के समाप्त होने के पश्चात 'सकलकोति' ने नव मन्दिर निर्माण एवं प्रतिष्ठा करवाने का कार्य हाथ में लिया। उन्होंने अपने जीवन में १४ बिम्ब प्रतिष्ठानों का सञ्चालन किया । इस कार्य में योग देने वालों में मंघाति नरपाल एवं उनकी पत्नी बहुरानी का नाम विदोषनः उल्लेखनीय है। गलियाकोट में संवपति गुलराज ने इन्हीं के उपदेश से चतुर्विंशति जिन बिम्ब की स्थापना की थी । नागद्रह जाति के श्रावक संपत्ति ठाकुरसिंह ने भी कितनी ही बिम्बा प्रतिक्षाओं में योग दिया । बाबू नगर में उन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सव का सञ्चालन किया था जिसमें तीन चौवीसी की एक विशाल प्रतिमा परिकर सहित स्थापित की गई। सन्त सकलकीति द्वारा संवत १४९०, १४९२, १४९७ आदि संवतों में प्रतिष्ठापित मुत्तियां उदयपुर, डूगरपुर एवं सागवाड़ा आदि स्थानों के जैन मन्दिर में मिलती है । प्रतिष्ठा महोत्सवों के इन आयोजनों से तत्कालीन समाज में जनजागति की जो भावना उत्पन्न हुई थी, उसने उन प्रदेशों में जैन धर्म एवं संस्कृति को जीवित रखने में अपना पूरा योग दिया । १. पवर प्रासाद आब्बू सहिरे त स परिकरि जिनवर त्रिणी चउवीस । त स कीघो प्रतिष्धा तेह तणोए, गुरि मेलवि चउविध संध्य सरीस ।।
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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