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'ब्रह्म रायमल्ल
१७वीं शताब्दी के राजस्थानी विद्वानों में 'ब्रह्म रायमल्ल' का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। ये 'मुनि अनन्तकी नि' के शिष्य थे । 'अनन्तकीर्ति' के सम्बन्ध में अभी हमें दो लघु रचनाएं मिली हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये उस समय के प्रसिद्ध सन्त थे तथा स्थान-स्थान पर विहार करके जनता को उपदेश दिया करते थे । 'ब्रह्म रायमल्ल' ने इनसे कब दीक्षा ली, इसके विपय में कोई उस्लेख नहीं मिलता । लेकिन ये ब्रह्मचारी थे और अपने गुरु के संघ में न रहकर स्वतन्त्र रूप से परिभ्रमण किया करते थे।
'बह्म रायमल्ल' हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे । अब तक इनकी १३ रचनाए प्राप्त हो चुकी हैं । ये सभी रचनाएं हिन्दी में हैं । अपनी अधिकांश रचनाओं के नाम इन्होने 'रास' नाम से सम्बोधित किया है । सभी कृतियां कथा-काव्य हैं और उनमें सरल भाषा में विषय का वरांन किया हुमा है । इनका साहित्यकाल संवत् १६१५ से आरम्भ होता है और वह संवत् १६३६ तक चलता है । अपने इनकीस वर्ष के साहित्यकाल में १३ रचनाए निबद्ध कर साहित्यिक जगत की जो अपूर्व सेवाए की हैं वे चिरस्मरणीय रहेंगी। 'ब्रह्म रायमल्ल' के नाम से हो एक और विद्वान् मिलते हैं, जिन्होंने संवत् १६६७ में भतामर स्लोन' को संस्कृन टी समाप्त की थी। ये रायमल्ल हूंबड़ जाति के श्रावक थे तथा माता-पिता का नाम चम्पा और महला था। ग्रीवापुर के चन्द्रप्रम त्यालय में इन्होंने उक्त रचना समाप्त की थी। प्रश्न यह है कि दोनों रायमल्ल एक ही विधान है अथवा दोनों भिन्न २ विद्वान् हैं । --m o re- - - --- -- १. श्रीमबहू घड्वंशमंडनमणि म्हो ति नामा अणिक ।
तद् भार्या गुणमंडिता प्रतयुता चम्पेति नामाभिधा ॥६॥ तत्पुत्रो जिनपावकंजमघुपो, सयाविमरुलो प्रती । चक वित्तिमिमां स्तवस्प नितरां, नत्वा श्री (स) बाबीदुकं ॥७॥ सप्तषष्ठ्यकिसे वर्षे पोशाक्ये हि सेवले । (१६६७) । आषाढ़ श्वेतपक्षस्य पञ्चम्या बुधवारके ||८|| ग्रीवापुरे महासिस्नोस्तरभाग समाधिते । प्रोत्त ग-दुर्ग संयुक्त श्री चन्द्रप्रभ-सपनि ॥९॥ वणिनः कर्मसी माम्नः वचनात् मयकारचि । भक्तामरस्य ससिः रायनस्लेन वणिना ।।१।।