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________________ : ब्रह्म जिनदास : 'ब्रह्म जिनदास' १५ वीं शताब्दी के समर्थ विद्वान थे। सरस्वती की इन पर विशेष प्रा धो ५६रि सकः प्रायही कार में निकलता था । से 'भट्टारक सकलकीति' के शिष्य एवं लघु भाता थे। ये योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे।' साहित्य-सेवा ही इनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था । यद्यपि संस्कृत एव राजस्थानी दोनों भाषानों पर इनका समान अधिकार था, लेकिन राजस्थानी से इन्हें विशेष अनुराग था। इसलिए इन्होंने ५.० से भी अधिक रचनाएं इसी भाषा में लिखीं। राजस्थानी को इन्होंने अपने साहित्यिक प्रचार का माय्यम बनाया । जनता को उसे पड़ने, समझने एवं उसका प्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया। अपनी रचनामों की प्रतिलिपियाँ करवा कर इन्होंने राजस्थान एवं गुजरात के संकड़ों ग्रन्थसंग्रहालयों में विराजमान किया। यही कारण है कि प्राज भी इनकी रचनाओं को प्रतिलिपियाँ राजस्थान के प्रायः सभी भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। 'ब्रह्म-जिनदास' सदा अपने साहित्यिक धुन में मस्त रहने तथा अधिक से अधिक लिखकर अपने जीवन का पूर्ण सदुपयोग करते रहते थे। __'ब्रह्म जिनदामा' को निश्रित जन्म-तिथि के सम्बन्ध में इनकी रचनागों के आधार पर कोई जानकारी नहीं मिलती। ये कब तक गृहस्थ रहे और कब साधूजीवन धारण किया—इसकी सूचना भी अब तक स्लोज का विषय बनी हुई है। लेकिन ये 'भट्टारक सकलकोत्त' के छोटे भाई थे, जिसका उल्लेख इन्होंने जम्यूस्वामीचरित्र' को प्रशस्ति में निम्न प्रकार किया है भ्रातास्ति तस्य प्रथितः पृथिव्यां, सद् ब्रह्मचारी जिनदास नामा। तनोति तेन चरित्र पवित्रं, जम्बूदिनामा मुनि सप्तमस्य ।। २८ ।। 'हरिवंश पुराण' को प्रशस्ति में भी इन्होंने इसी तरह का उल्लेख किया है, जो निम्न प्रकार है: सद् ब्रह्मचारी गुरू पूर्व कोस्य, भ्राता गुरणजोस्ति विशुद्धचिसः । जिनसभक्तो जिनदासनामा, कामारिजेता विदितो धरित्र्यां ।। २९॥२ -ananmurrano-ownerwarimureenaran१, महादती ब्रह्मचारी घणा जिणदास गोलागर प्रमुख अपार | अजिका क्षुल्लिका सघल संघ गुरु सोभित सहित सकल परिवार । २. देखिये -प्रशस्ति संग्रह पृष्ठ सं० ७१ (लेखक द्वारा सम्पादित )
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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