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________________ राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व कानेय कुडल तपि नपि रे, मम्मकि फमोति। सामला प्रण सोहामणुरे, सोइ साजरा होत ॥५२॥ इस प्रकार रचना में घटनामों का अच्छा वर्णन किया गया है । अन्त में कवि ने अपने गुरु को स्मरण करते हुए रचना की समाप्ति की है। भी पसकीरति सुपसाचलि. ब्रह्म यशोधर मणिसार । चसरण न छोड स्वामी तणा, मुझ मवा दु:ख निवार ।।६८॥ भरणसि जिनेसर सांभलि. रे, धन धन ते पवतार । नव निधि सस घरि उपजि रे, ते तरसि रे संसार ।।६९।। भाषा-गीत की माषा राजस्थानी है । कुछ शब्दों का प्रयोग देखिये गासु-गागा (१) कांइ करू-क्या करू (१) नीकल्या रे-निकला (६) ताम अह्म (८) तिहाँ (२१) नेउर (४३). आपणा (५३) तोरू (तुम्हारा) मोरू (मेरा) (५०) उतावलु (१३) पाठवी (२२) छन्द- सम्पूर्ण गीत गुडी (गौडी) राग में निबद्ध है। .. ५. लिभा प्रोपई-यह कवि की अब तक उपलब्ध रचनामों में सबसे बड़ी रचना है। इसमें १८६ पद्य हैं जो विभिन्न बाल, हा एवं चौपई मादि छन्दों में विभक्त है। कवि ने इसे सम्बत् १५८५ में स्कन्ध नगर के अजिमनाथ के मन्दिर में सम्पूर्ण' किया था। रचना में श्रीकृष्ण जी के भाई बलिम के परिस का वर्णन है । कथा का संक्षिप्त सार निम्न प्रकार है द्वारिका पर श्री कृष्ण जी का राज्य था। बलभद्र उनके बड़े भाई थे। एक बार २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का उधर बिहार हुआ। नगरी के नरनारियों के साथ के दोनों भी दर्शनार्थ पधारे । बलभद्र ने नेमिनाथ से जब द्वारिका के भविष्य के बारे में पूछा तो उन्होंने १२ वर्ष बाद दीपायन ऋषि द्वारा द्वारिका दहन की भविष्यवाणी की 1 १२ वर्ष बाद ऐसा ही हुआ। श्रीकृष्ण एवं बलराम दोनों जंगल में चले गये और जब श्रीकृष्ण जी सो रहे थे तो जरदकुमार ने हरिण के घोसे में इन पर बाण चला दिया जिससे वहीं उनको मृत्यु हो गई । जरदकुमार को जब वस्तुस्थिति का पता लगा तो वह बहुत पछताये लेकिन फिर क्या होना था । बलभद्र जी areneumonimarawarananamane १. संवत् पनर पध्मासोर, स्काष नगर मझारि । भवणि अणित जिनवर तणी, ए गुण गाया सारि ॥१८८।।
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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