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सुनि अमयचंद्र
मा मुखाकृति पदेव नाकाई और माता के लिए ये आध्यात्मिक जादुगर बन गये। इनके संकड़ों शिष्य पे-जो स्थान-स्थान पर शान-दान किया करते पे। इनके प्रमुख शिष्यों में गणेश, दामोदर, धर्मसागर, देवणी व रामवेष के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं.। जितनी अधिक प्रशंसा शिष्यों द्वारा इनको (म० समयचन्द्र) की गई, संभवतः अन्य मट्टारकों की उतनी अधिक प्रशंसा देखने में अभी नहीं प्रायो। एक बार "म० अभयचन्द्र' का 'सूरत नगर' में पदार्पण हुआ-वह संवत् १७०६ का समय था। सूरत-मंगर-निवासियों ने उस समय इनका भारी स्वागत किया। घर-वर उत्सव किये गये, कुकुम छिड़का गया और अंग-पूजा का आयोजन किया गया । इन्हीं के एक शिष्य 'देवजी'-जो उस समय स्वयं वहां उपस्थित थे, ने निम्न प्रकार इनके सूरत नगर-प्रागमन का वर्णन किया है:
राग अश्यासी:
आप आणंच मन अति घणो ए, काई बरत यो जय जयकार । प्रमयचन्द्र मुनि प्रावया ए, काई सुरत नगर मझार रे ।। आज प्राणंद ॥१॥ घरे घरे उछद अति घणाए, काई माननी मंगल गाय रे । अग पूजा ने उबरारणा ए, काई फुकुम छडादेवडाय रे ॥२॥ आजः ॥ श्लोक बखाणे गोर सोभता रे, वाणी भीठी अपार साल रे । धर्मकथा ये प्राणी ने प्रतिबोये ए, काई कुमति करे परिहार रे ।।३।। पंवत् तर छलोतरे, कोई हीरजी प्रेमजीनी पूगी पास रे । रामजी में श्रीपाल हरखीया ए, काई वेलजी कुंअरजी मोहन दास रे ॥४॥ गौतम समगोर सोभतो ए, काई वर्ष जयो अभय :मार रे । सवाल कला गुहा मंडणी ए, काई 'देवजी' कहे उदयो उदार रे ।। आज० ॥५॥
'श्रीपाल' १८ वीं शताब्दी के प्रमुख साहित्य-सेवी थे। इनकी कितनी ही हिन्दी रचनाए अभी लेख को कुछ समय पूर्व प्राप्त हुई थी 1 स्वयं कनि श्रीपाल 'म. अभयचन्द्र से प्रश्यधिना प्रभावित थे । इसलिए स्वयं मट्टारकजी महाराज की प्रशंसा में लिखा गया कधि फा एक पद देखिये। इस पद के अध्ययन से हमें 'समयचन्द्र' के आकर्षक व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक मिलती है । पद निम्न प्रकार है:राग धन्यासी
चन्द्रवदनी मृग लोचनी नारि । अभयचन्द्र गछ नायका बांदो, सकल संघ जयकारि ॥१॥ चन्द्रः ।।