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________________ संलोष जयतिलक १४३ सूरधीर घरबीर जिन्हहि संतोषु चलु । पुड यरिए पति सरीरि न लिपइ दोष जन्नु ॥ इसज अहं संतोषु गुरिणहि पनि जिया । सो लोभई खिउ करइ कहिउ सरवनि इवा ||५|| कहिउ सस्वन्नि इसउ संतोषु। सो फिज्जा चित्ति चिद जिसु पसाह सभि सुख उपजहि । नहु आरति जीउ पडइ, रोर बोर दुख लख भज्जहि ।। जिस ते कल बडिम चम होइ सकल जगिप्रीय । जिन्ह पटि यह भब होपिय पुन्न प्रिकिति जे जय ॥६०|| मडिल्ल पुन्न प्रिकिति जिय सपरिणहि सुरिगयहि । . जै जै लोहि महि भरिशयहि ।। गोइम सिउ परवीषु पयंपिउ। इसउ सतोषु भवप्पति अंपिउ ॥६१।। चंदाइगु खंदु जपिर्म एह संतोषु भूबपति जासु 1 नारीय समाधि प्रछी थिते 11 जे ससा सुवरी चित्ति हे प्रावए । जीउ तत्त खिणे बंछिय पाबए ।।६२॥ संदरो पुत्त सो पयजाणिज्जए। जासु औलवि संसारु तारिखए । छेदि सो मासर दूरि नै वारण । मुत्ति मम मिले हेल संचारए ।।६३|| स्वतिय तासु को लंगरणा वतियं । दुजणं तेउ भंजेइ पास निय॥ कोह अगै गाह दझंति जे नरा। ताह संतोस ए सोम सीयंकरा ॥६४||
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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