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संलोष जयतिलक
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सूरधीर घरबीर जिन्हहि संतोषु चलु । पुड यरिए पति सरीरि न लिपइ दोष जन्नु ॥ इसज अहं संतोषु गुरिणहि पनि जिया । सो लोभई खिउ करइ कहिउ सरवनि इवा ||५||
कहिउ सस्वन्नि इसउ संतोषु। सो फिज्जा चित्ति चिद जिसु पसाह सभि सुख उपजहि । नहु आरति जीउ पडइ, रोर बोर दुख लख भज्जहि ।। जिस ते कल बडिम चम होइ सकल जगिप्रीय । जिन्ह पटि यह भब होपिय पुन्न प्रिकिति जे जय ॥६०||
मडिल्ल
पुन्न प्रिकिति जिय सपरिणहि सुरिगयहि ।
. जै जै लोहि महि भरिशयहि ।। गोइम सिउ परवीषु पयंपिउ।
इसउ सतोषु भवप्पति अंपिउ ॥६१।।
चंदाइगु खंदु जपिर्म एह संतोषु भूबपति जासु 1
नारीय समाधि प्रछी थिते 11 जे ससा सुवरी चित्ति हे प्रावए ।
जीउ तत्त खिणे बंछिय पाबए ।।६२॥
संदरो पुत्त सो पयजाणिज्जए।
जासु औलवि संसारु तारिखए । छेदि सो मासर दूरि नै वारण ।
मुत्ति मम मिले हेल संचारए ।।६३||
स्वतिय तासु को लंगरणा वतियं ।
दुजणं तेउ भंजेइ पास निय॥ कोह अगै गाह दझंति जे नरा।
ताह संतोस ए सोम सीयंकरा ॥६४||