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________________ भट्टारक शुभचन्द्र' . . : .. . · में से है । ग्रन्थ की भाषा विनष्ट एवं समास बहुल है। लेकिन विषय का अच्छा प्रतिपादन किया गया है । ग्रन्थ का एका पद्य देखिये:-:'. %36 जयतु जितविपक्षः पालिताशेषशिष्यो विदितनिज़स्वतत्त्वश्वोदितानेकसत्वः । अमृतविधुयतीशः कुन्दकुन्दोगणेशः श्रतमुजिनाबबाद याद्विवादाघिकावः ।। इसकी एक प्रति कामां के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रति १०४४३" आकार की है तथा जिसमें १३० पत्र है। यह प्रति संवत् १७९५ पौष वुदी १ शनिवार की लिखी हुई है। समयसार पर आधारित यह टीका अभी तक अप्रकाशित है। ३. कात्तिकेयामप्रक्षा टीका प्राकृतभाषा में निबद्ध स्वामी कात्तिकेय की 'बारस अनुपेहा' एक प्रसिद्ध कृति है । इसमें आध्यत्मिक रस फूट २ कर भरा हुआ है । तथा संसार की वास्तविकता का अच्छा चित्रण मिलता है । इसी कृति की संस्कृत टीका मन् शुभचन्द्र ने लिखी जिससे इसके अध्ययन, मनन एवं चिन्तन का समाज में और भी अधिक प्रचार हुआ और इस ग्रन्थ को लोकप्रिय बनाने में इस टोका को भी काफो श्रेय रहा । टीका करने में इन्हें अपने शिष्य सुमतिकीति से सहायता मिली जिसका इन्होंने अन्य प्रशस्ति में साभार उल्लेख किया है। ग्रन्थ रचना के समय कवि हिसार (हरियाणा) नगर में थे और इसे इन्होंने मंदत् १६०० माघ सुदी ११ के दिन समाप्त की थी२ अपनी शिष्य परम्परा में सबसे अधिक व्युत्पन्नमति एवं शिष्य वर्णी क्षीमचंद्र के आग्रह से इसकी टीका लिखी गई थी। टीका सरल एवं सुन्दर है तथा माथाओं -na-nuare १. तदन्वये श्रोविजयादिकोत्तिः तस्पट्टधारी शुभचन्द्रदेवः । तेनेयमाकारि विशुद्धटीका श्रीमरसुमत्यादिसुकीत्तिकोत: ।।४।। २. श्रीमत् विक्रम भूपतेः परमिते वर्षे शते थोडको, माघे मासिवशाबह्निमाहिते ख्याते वशम्या तिथी। श्रीमझीमहोसार-सार-नगरे त्यालये श्रीपरोः । श्रीमछी शुभचन्नदेवविहिता टीका सदा नन्दतु ॥५॥ ३. वी श्री क्षीमचन्द्रण विनयेन कुत प्रार्थना । शुभचन्न-गुरो स्वामिन, फुरु टोकी मनोहरों ।।६।। ---- -
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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