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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अलि जंपइ लीमिरतु, ले अदतु जब लोभी पानइ । लोभि पसरि परगहु वधावइ । पंचइ वरतह खिउ फरह देह सदा अनचारु । सुरिण गोइम इसु लोम का कहज प्रगटु विथारु ॥१२॥
मूलह दुषस तरउ सनेहु । सतु विसनह मूलु क कम्मह मूल प्रासउ भरिण जाइ । जिव ईदिय मूल मनु नरय मूलु हिस्या कहिज्जइ ।। जा शिवा कपट मणि र सिर का लो। सुण गोइम परमारयु यह पापह मूलु सुलोहु ॥१३॥
गाषा
भमियउ अनादि काले, 'चइंगति मम्मि जीउ यह जोनी। बसि करि न तेनिसक्कियउ, यह धारण, लोभ प्रचंड ॥१४॥
पोहडा
दारण लोभ प्रचंडू यह, फिरि फिरि बह दुख वीय । व्यापि रहा बलि अप्पई, लख चउरासी जीय ॥१५॥
पदडी छंद
यह च्यापि रहा सहि जीय जल ।
करि विकट बुद्धि परमन हडंत ॥ करि छलु पपसे धू रत जेंव।
परपंसु करिवि जगु मुसहर एव ।।१६।। संफुड मुडइ वठलु कराह ।
वग अंउ रहद लिव ध्यान लाड वा जैज गगौ लिय सीसि पाइ।
पर चित्त विस्वास विविह भाइ ॥१७॥
मंडार जेउ प्रासरण वहुत्त ।
सो करइ जु करणउ नाहि जुत्त ।। जे वेस जैव करि विबिह ताल ।
मतियावह सुख दे वृद्ध वाम ॥१८॥