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________________ २३६ राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अलि जंपइ लीमिरतु, ले अदतु जब लोभी पानइ । लोभि पसरि परगहु वधावइ । पंचइ वरतह खिउ फरह देह सदा अनचारु । सुरिण गोइम इसु लोम का कहज प्रगटु विथारु ॥१२॥ मूलह दुषस तरउ सनेहु । सतु विसनह मूलु क कम्मह मूल प्रासउ भरिण जाइ । जिव ईदिय मूल मनु नरय मूलु हिस्या कहिज्जइ ।। जा शिवा कपट मणि र सिर का लो। सुण गोइम परमारयु यह पापह मूलु सुलोहु ॥१३॥ गाषा भमियउ अनादि काले, 'चइंगति मम्मि जीउ यह जोनी। बसि करि न तेनिसक्कियउ, यह धारण, लोभ प्रचंड ॥१४॥ पोहडा दारण लोभ प्रचंडू यह, फिरि फिरि बह दुख वीय । व्यापि रहा बलि अप्पई, लख चउरासी जीय ॥१५॥ पदडी छंद यह च्यापि रहा सहि जीय जल । करि विकट बुद्धि परमन हडंत ॥ करि छलु पपसे धू रत जेंव। परपंसु करिवि जगु मुसहर एव ।।१६।। संफुड मुडइ वठलु कराह । वग अंउ रहद लिव ध्यान लाड वा जैज गगौ लिय सीसि पाइ। पर चित्त विस्वास विविह भाइ ॥१७॥ मंडार जेउ प्रासरण वहुत्त । सो करइ जु करणउ नाहि जुत्त ।। जे वेस जैव करि विबिह ताल । मतियावह सुख दे वृद्ध वाम ॥१८॥
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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