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संतोष जयतिलक
भापणं न प्रोसरि जाइ चुवित्र ।
तम जेज रहा तलि दीय लुक्कि । जब देखइ डिगतह जोति तासु ।
तव पसरि करइ अप्पण, प्रगासु ॥१९॥
जो करइ कुमति तव अण विचार ।
जिसु सागर जिन लहरी अपार ॥ कि चडहि एक उत्तरि विजाहि ।
बहु घाट घणइ नित हीय मांहि ॥२०॥
परपंच करइ जहरं जगत्त, ।
___ पर प्रस्युन देखइ सत्त, मित्त । खिरण ही अगासि हिरण ही पया लि ।
खिए ही म्रित मंडल रंग तालि ॥२१॥ जिव तेल बुद जल महि पडाइ ।
सा पसरि रहै भाजन छाइ ॥ तिव लोभु करइ राई स चारु ।
प्रगटा जगि में रह विचारु ।।२२।।
को अघट घाट दुघट फिराइ ।
जो लगन जैव सग्गत घाइ॥ इकि सवरिण लोभि सरिंगप कुरंग ।
देह जीउ आइ पारथि निसंग ॥२३॥ पत्तग नया लोभिदि भुलाहि ।
कंचरण रसि दीपग महि पाहि ।। इस धारिण सोभि मधकर ममति ।
तमु केवइ कटर वेघि यति ॥२४॥
जिह लोमि मछ जल महि फिराहि ।
लग्गि पप्पच अप्पण', गमाहि ।। रसि काम लोभि गयवर भमति ।
मद अधसि बघ बंधन सहति ॥२५।।