________________
२३८
राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एक कृतित्व
एक छक्कइ ईदिय तणे सुःख ।
तिन नोभि दिखाए विविह दुख । पंच इदिय लोभहि तिन रखुत्त।
करि जनम मरण ते नर विगुत्त ॥२६॥
जंगमसि तपो जोगी प्रचंड ।
ते लोभी भमाए भमहि खंड ।। द्राधि देव बहु लोभ मत्ति ।
ते पंछहि मन महि मरण जगत्ति ।।२७।। चषका महिम्य हुइ हक्क छसि ।
सुर पदइ वंछई सदा चित्ति ।। राइ राणो रावत मंडलीय ।
इनि लोभि वसी के के न कोय ॥२८॥
वण मक्षि मुनीसर जे वसंहि।
___ सिव रमरिण लोभु तिन हिंयइ माहि ।। इकि लोमि लग्गि पर भूम जाहि ।
पर करहि सेव जीउ जीउ भणहि ||२६||
सकुलीणो निकुलीरप हे दुवरि ( दुवारि )
लेहि लोम डिगाए करु पसारि॥ वसि लीभि न सुरण ही धम्मु कामि।..
निसि दिवसि फिरहि पारस यानि ॥१०॥
ए कीट पड़े लोमिहि 'भमाहि ।।
सहि सु मनु ले परणि मांहि ॥ ले वनरस हेट नोभि रत्त ।
___मखिका सुमधु संचह बहुत ॥३१॥
ते किपन ( कृपण ) पश्यि लोमह मझारि ।
धनु संचहि ले धरणी भडार ॥ जे दानि धम्मि नह देहि खाहि ।
देखतन उठि हाथ झाडि जाहि ॥३।।