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सतीष जयतिलक
गाथा
जहि हथ अधिक वरणं धनु संचहि सुलह करिवि मंडारे । तरहि केव संसारे, मनु बुद्धि ऐ रसी जाह ।।३३।।
वसह जिन्ह मनि सिय नित बुद्धि। धनु विस्वहि अहकि जगु सुगुर वचन चितिहि न मावइ । में में में करह सुणत बुम्मु सिरि सूलु पावर । अप्पणु चित्त न रंजही जरग रंजापहि लोइ। लोभि वियाये जेइ नर तिन्ह मति ऐसो होइ ।।३४||
गाथा
निन होइ इसिय मते, वित्तं मय मलिन मुहुर भुहि बाणी । विदहि पुन न पायो, वस किया लोमि ते पुरिष ॥३५॥
मडिल
इसउ लोभु काया गढ़ अंतरि, रयरिण दिवस संतबाइ निरंतरि । करइ दीवु अप्पण बलु मंडइ, लज्या न्यानु सोलु कुल खंडइ ।।१६।।
कोह माया मानु परचंड। तिन्ह मझिहि राउ यहु, इसु सहाइ तिनिउ उपजहि । यह तिष तिव बिस्फुरइ उप तेय वलु अधिक सज्जहि ॥ यह चहु महि कारण अब घट घांट फिरतु । एक लोभ विण वसि किए चौगय जीउ भमंतु ॥३७॥
जासु तीयइ प्रीति प्रप्रीति ते जग महि जारिण यह, अणिउ रागु तिनि प्रीति नारि । अप्रीति हुदोष हुव, दहू कलाय परगट पसारि || अशा फेरी आपणी षटि घटि रहे समाइ । इन्ह राहु वसि करि ना सके ता जीउ नरकिहि जाइ ॥३८।।
योहा
सपउ रह जैसे गरल उपने विष संजुत । तैसे जाणहु लोम के राग दोष बह पुत्त ॥३६।।