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संतोष जय तिलक
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म साके निज भासु हत नई ठिं नुक्काइ । वीरु ता मुझ गुरु मोनि रह्या लो सोइ । हउस लोकु लीए फिरउ अत्यु न कहइ कोइ ।। ।।
गाथा
हो कह हुथि वर वंभरण को अच तुम्ह चित्ति संदेहो। खिण माहि सयल फंडउ, हउ अबिरुल्नु बुद्धि पंडितु ॥६||
पटप
तीन काल षटु दब्दि नब सु पद जीय खटुक्कहि । रस ल्हेस्मा पंचास्तिका व्रत समिति सिगकहि ।। ज्ञान अबरि चारित्त भेदु यह मूल सु मुक्तिहि । सिटु वण महर्व फद्दिड वचनु यह परिहि न रुत्तिहि ।। यह मूलु भेदु निज मारिण यह सुद्ध भाइ जे के. गहहि । समक्कत्त दिहि मति मान ने सिव पद सुख वंछित लहहि ॥७॥ एय बयण सदणि संभाल चयकिउ चितपुरई न प्रत्थो । उट्टिपउ सत्ति गोडम, चस्लिउ पुरिण तत्थ जथ जिशाह ।।८।।
तब सुगोइमु चालिउ गजंतु, जणू सिघरू मत्तमय । तरफ छंद व्याकरण अस्थह । खटु अ गहु वेय धुनि, जोति कलंकार सत्थह ।। तुलइ सुविद्या अवल वलु चडिउ तेजि अति वंभु । मान गल्या तिसु मन तगर देखत मानथंभु ॥६॥
गाणा
देखत मान थंमो, गलियउ तिस मानु मनह मझम्मे । हूवउ सरल पणामो, पूछ गोहमु वित्ति संदेहो ॥१०॥
गोइम पूछइ जोडि कर स्वामी कहहु विद्यारि । लोभ बियाये जीम सहि लूरिहि केर संसारि ॥११॥
लोम लग्गउ पाण वुच कर ।