SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महेश्वरसूरि भी राजस्थानी श्वे. सन्त थे । इनकी प्राकृत भाषा को 'ज्ञान पंचमी कहा' तथा अपभ्रश की 'संयममंजरी कहा' प्रसिव रचनायें है। दोनों ही कृतियों में कितनी ही सुन्दर कथाएं हैं जो जैन दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। संवत् १७१० के पश्चात् इन सन्तों का साहित्य निर्माण की पोर ध्यान कम होता गया और ये अपना अधिकांश समय प्रतिष्ठा महोत्सवों के आयोजन में, विधि विधान तथा प्रतोद्यापन सम्पन्न कराने में लगाने लगे। इनके अतिरिक्त ये वाह्य क्रियामों के पालन करने में इतने अधिक जोर देने लगे कि जन साधारण का इनके प्रति मक्ति, श्रवा एवं प्रादर का भाव कम होने लगा। इन सन्तों की मामेर, अजमेर, नागौर, झंगरपुर, ऋषमदेव मादि स्थानों में गादियां प्रावश्य थी और एक के पश्चात् दुसरे. मट्टारक भी होते रहे लेकिन जो प्रभाव म. सकलकीति, जिनचन्द्र, शुभना भादि का कभी रहा था उसे ये सन्त रख नहीं सके । १८ वीं एवं १६ वीं शताब्दी में श्रावक समाज में विद्वानों की जो माढ सी आयी थी और जिसका नेतृत्व महापंडित टोबरमल जी ने किया था उससे भी इन भटारकों के प्रभाव में कमी होती गई क्योंकि इन दो शताब्दी में होने वाले प्रायः सभी विद्वान उन भट्टारकों के विरुद्ध थें । दिगम्बर समाज में "तेरहपंध" के नाम से जिस नवे पंथ ने जन्म लिया था वह भी इन सन्नों द्वारा समर्थित बाह्माचार के विरूद्ध था लेकिन इन सब विरोधों के होने पर भी विचार समाज में सन्त के रूप में मारक परम्परा चलती रही। यद्यपि इन सन्तो ने साहित्य निर्माण की पोर प्रधिक ध्यान नहीं दिया लेकिन प्रावीन साहित्य की जो कुछ सुरक्षा हो सकी है उसमें इनका प्रमुख हाथ रहा । नागौर, अजमेर, आमेर एवं जयपुर के भण्डारों में जिस विशाल साहित्य का संग्रह है वह सब इन सन्तों द्वारा की गई साहित्य सुरक्षा का ही तो सुफल है इसलिये किसी भी दृष्टि से इनकी सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता । मामेर गादी से सम्बन्धित भ. देवेन्द्रकीति, महेन्द्रकीति, क्षेमेन्द्रकीत्ति, सुरेन्द्रकीत्ति एवं नरेन्द्रकीति, नागौर गादी पर होने वाले भ० रत्नकीति ( सं० १७४५) एवं विजयकीति (१८.२) प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं। म. विजयकत्ति अपने समय के अच्छे विद्वान थे पोर प्रब सफ उनकी कितनी ही कृतियां उपलब्ध हो चुकी है इनमें कार्णामृतपुराण, श्रेरिणचरित, जम्बूस्वामीचरित मादि के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। साहित्य सुरक्षा के अतिरिक्त इन सन्तों ने प्राचीन मन्दिरों के जीर्णोद्वार एवं नवीन मन्दिरों के निर्माण में विशेष योग दिया। १८ वीं एनं १९ वीं शताब्दी में संकड़ों विम्वप्रतिष्ठायें सम्पन्न हुई और इन्होंने उनमें विशेष रूप से भाग लेकर उन्हें सफल साने का पूरा प्रयास किया। ये ही उन. मायोजनों के विशेष अतिथि
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy