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________________ गुर्वावल प्रारण आणि रे जेन मारा सर्वविद्या तर जाता । नरवरहि धारण रंग भार ॥ दीसि दोसि रे जति फार लामाटि जीतु मार । घडीयन लागी बार वरहु गुरो ॥ इणी परि प्रति सोहं भवी ध्यान मन मोहि । प्रारोहि श्रीलक्ष्मसेन आणंद करो ॥१३॥ कहि कहि रे संसार सार में जागु तम्हे असार श्रत्थि अति प्रसार भेद करी ॥ पूजु पूजु रे अरिहंत देव सुरनर करि सेव हवि मलाउ सेव भाव घरी ॥ पालु पालु रे अहंसा धम्म मरणूयन् लाघु जम्म | म करु कुत्सित कम्म भव हुबरी ॥ तरुतरे उत्तम जन अवर म धातु मनि । ध्याउ सर्वज्ञ धन लक्ष्मसेन गुरु एम भगी ॥४॥ दीठि दोटि रे अति प्रारग्रंथ मिथ्यातना टालि गरण विहूरगड चंद कुलहितिलु । जोड़ जोड़ रे रयरणी दीसि तत्वपद लही कीशि । घरि आदेश शीशि तेह्र भलु ॥ तर तर संसार कर तिजगुरु मुफिइए । मोकलु कर दान भरणी ॥ छंडि छंडि रे रडी बाल ले बुद्धि विशाल | वाणीय प्रति रसाल लक्ष्मसेन मुनिराज ती ॥५॥ श्री रयणकीति गुरु पट्टि सरणि सा उज्जल सर्प । छडावी पाखंड सम्मि मागि आरोप || पाप ताप संताप मयरण मछर भय टाले। क्षमा युक्त सुरमराशि लोभ लीला करि राके ॥ बोलिज बारिश अम्मी अगाली सावयजन घन चित्त हर । श्री लख्मयेन मुनिवर सुग्रह सवल संघ कल्याण कर ||६|| सगुण जमुरण भंडार गृह करि जण मरण रंजं । उवसमय वर चडने मय भडइ वांइ भजे ॥ ૨૨૭
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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