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________________ २५. राजस्थान के जग संस : अस्तित्व एवं कृतित्व रोसाहरण थरहरियं धरिमं मन मझि सद तिनि ध्यानो । - मुक्का चित्ति न मानो, अज्ञानो लोनु गज्जेइ ॥१८॥ रंगिका छन् लोमु उठिउ अपरशु गज्जि, मंडिज वलु नि लाजि । चडिड दुसह साजि रोसिहि भरे ।। सिरि तारिणउ कपटु छत्, विषम खड्गु किनु । छदमु फरिवलितु समुह थरे । गुर्ण समंद ठाण लगु, जाइ रोक्यो सूर मगु । देइ बहु उपसग्गु जगत परे ।। से चरिउ लोभ विकट, धूतद्द धूरत नटु । संतवध प्रांगाह षटु पौरिषु वारं ॥ ०९।। खिरणु उठइ अणिय जुरि स्थिरिणहि चालइ मुष्टि। . खिरणु गयजे व गुडि पिरिणहि चालइ मुडि ।। खिशु रहइ गगनु छाइ, थिगिह पयालि जाई । खिगिण मचलो आज। चउपछठे दाकै चरत न जाणे कोड, व्यापद सकल लोइ। अवेक पिहि होइ जाइ सचरं । असे पहिउ लोभ विकद्ध, धूतइ धूरत नहुँ । संतकइ प्रामगृह षटु पौरिण करै ।।११०।। जिनि समि जिय. लिबलाइ, पाले तत बुधि छाइ। राखेप बडह काइ देखत पर्थे । पास इज परवथु, देस मेनु राजु गथु। . जानकारि आप तथु, लाल चिपड़े ।। जाकीर अनंत परि, घोरहं सागर सरि । सफर कजणु तरि हिय अन्ध ॥ . . असे घडिउ लोभ विकटु, धूतइ घूरत नह। संतवह प्राणह पद पौरिषु. करि ।।११
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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