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मंतोष जयतिलक
जैसी करिगय पायक होइ, तिसहि न जाणइ कोइ । पडि तिरण संगि होइ, कि कि न करें । तिसु तरिण यवि विहि रंग, कौगुहु जाणं के ते ढंग । प्रागम लंग विलंग, खिरिणहि फिरै ।। उह अनतप सारं जाल, कर एक लोल पलाल । मूल पेड़ पत्त डाल देइ उदरै ।। असे नडिव लोभ विवाद, पुतद धूरत नह। संत येइ प्राणह षटु पौरिण करि ॥११२।।
पटप
लोम विक पारि कपटु अमिटु रोसाइणु चहियउ। लपटि दवटि नटि कुटि झपटि झटि इवजगु नयिउ ।। धरणि खंडि प्रहा डि गमनि' पया लिहि धावइ । मोन कुरंग पतंग निंग मातंग सलावद ।। जो इद मुलिद फरिणद सुर चंद सूर संमुह अडइ । उहु लाइ मुडइ खिणु गठवडइ खिए सुखवि समुह जुइ ।।११३।।
महिल जब सुलोभि इतउ बलु कीयउ।
____अधिक कष्टु मिन्ह जीयह दीयउ ।।। तब जिरणच नमतु लै चिति गज्जित ।
राउ संतोत्रु हनह परि सज्जिउ ।।११४|| रंगिका छन्दु
इव साजिउ संतोष साज, हुबउ धम्म सहाउ। उठिउ मनि हि भाउ आनदु भयं ॥ गुणा उत्तिम मिलिउ माणु, हूबउ जोग पहा । ". आय ३ सुक्ल जाणु तिमझ गयं ॥ जोति दिपइ केवल कल, मिटिय पटल मल । . . हृदय कला दल सिडि पतदै
::पैसे गोइम बिमलमति, जिरग वच धारि चिति । छेदिय लोभइ थिति चठित पदे ।।११५।।