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________________ भविष्ट संत. १६१ सिंहांसरगरूपा तणि, विसाऱ्या गुरु संत । श्री सुमतिकोत्ति सूरि रिगं मरी, ढाल्या कुभं महंत । श्री गुणकीत्ति यतीन्द्र चरण सेवि नर नारि, श्री गुरणकोक्ति यसीद्रं पाप तापाविक हारी। श्री गुणकीत्ति यतीन्द्र ज्ञानदानादिक दायक, श्री गुणकीत्ति यतीन्द्र, चार संघाष्टक नामक । सकल यतीश्वर मंहरणो, श्रीमतिकीति पट्टोधरण । जयराज ब्रह्म एवं वदति श्रीसकलसंघ मंगल कररस ।। इति गुरु छन्द ११. सुमतिसागर सुमसिसागर म० अमयनन्दि के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे तथा अपने गुरु के संघ में ही रहा करते थे। प्रभयनन्दि के स्वर्गवास के पश्चात् ये भ० रत्नफीति के संघ में रहने लगे। इन्होंने अभयनन्धि एवं ररमकीत्ति दोनों भट्टारकों के स्तषन में गीत लिखे हैं। इनके एक मीत के अनुसार अभयनन्दि सं० १६३० में भट्टारक गादी पर बैठे थे । ये पागम काथ्य, पुराण, नाटक एवं छंद शास्त्र के वेत्ता थे। संवत् सोलसा त्रिस संवच्छर, बंशाख सुदी त्रीव सार जी । अभयनन्दि गौर पाट थाप्या, रोहिणी नक्षत्र शनिवार जी ॥६।। आगम काव्य पुराण सुलक्षण, तक न्याय गुरु जाणे जी। छंद नाटिक पिगल सिद्धान्त, पृथक पृथक बखाणे जी ॥७॥ सुमतिसागर अच्छे कवि थे। इनकी अब तक १० सधु रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार है १. साधरमी गीत २-३ हरियाल वेलि ४-५ रनमत्ति गीत ६. अभयनन्दि गीत ७. गणधर दोनती ८. मसारा पार्श्वनाथ गीत ६. नेमिवंदना १०. गीत उक्त समी 'रचनायें काव्य एवं भाषा की दृष्टि से अच्छी कृतियां हैं एक उदाहरण देखिये
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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