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________________ संतोष जयतिलक सुरगु लोभ न कीजद्द राडि घणी । 1 सव वित्ति उपाउउ तुम्ह तरी ॥ हउ तुझ विदारउ न्यानि खगे । सहि जीय पठावर मुलि मगे ॥८७॥ हज लोभ मचलु महा सुमटो । जगु मैं सहू जिति बंघ पटो || सभि सूर निवारण तेज मले । मन जित्त कौणु समत्युकले ॥८८॥ नइ प्रस्थि सतायज लोन घरा । इव देखहु पौरिषु मुझ ता ॥ करि राइज खंड विंड घरणा । तर जेवउ पाडउ मूत्र जडा ॥ ८९॥१ सुरिंग इस कोपित लोनु मने । तब झूठ जायज वेणि तिने ॥ साथ आप सूरु उठाव करो । सतिश इहि छेदिउ तासु सिरो ॥६०॥ ॥ तब बीडच लीयउ भनि भने । उठि चल्लिउ संमुह गज्जि गुडे ॥ वलु कोयल मद्दवि अप्पु घरणा । पुरषो जुग वायउ तासु तथा ॥९१॥ छव दुक्क उछोहु सुजीहि धरणी । मनि संक न मानइ प्रोर तरणी ॥ तब उद्दि महायत लग्नु थले । लिए ममि सुवाल्यो छोड़ दले ॥६२॥ भड उडि मोहु प्रचंतु गजे । चलु पौरिष अप्पय संन सजे ॥ तय देखि ववेक चड्या अटलं । वह वट्ट किया सुद्द भनि वलं ॥ ९३ ॥ २४७
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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