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________________ १.३० राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व कवि के रूप में रत्नकीत्ति को अपने समय का एक अच्छा कवि कहा जा सकता है। अभी तक इनके ३६ पद प्राप्त हो चुके हैं। पदों के अध्ययन से जात होता है कि वे सन्त होते हुये भी रसिक कवि थे । अतः इनके पदों का विषय मुख्यतः नेमिनाथ का विरह रहा है । राजुल की तड़कन से ये बहुत परिचित थे । किसी भी बहाने राजुल नेमि का दर्शन करना चाहती थी। राजुल बहुत चाहती थी कि वे (नयन) नेमि के आगमन का इन्तजार न करें लेकिन लाख मना करने पर भी नयन उनके आगमन को बाट जोहना नहीं छोडते वरज्यो न माने नयन निठोर । सुमिरि सुमिरि गुन भये सजल घन, उमंगी चले मति फोर ॥१॥ चंचल चपल रहत नहीं रोके, न मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरि को मारग, जेहो विधि चंद्र चकोर ||२|| वरज्यो । तन मन धन योषन नहीं भावत, रजनी न भाव भार । रनकीरति प्रभु देगो मिलो, तुम मेरे मन के चोर ॥ ३॥ वरज्यो || एक अन्य पद में राजुल कहती है कि नेमि ने पशुओं की पुकार तो मुन ली लेकिन उसकी पुकार क्यों नहीं सुनी। इसलिये यह कहा जा सकता है कि वे दूसरों का दर्द जानते ही नहीं हैं सखी री नेमि न जानी पोर । बहोत दिवाजे आवे मेरे घर संग लेई हलवर वीर ॥ १॥ निमि मुख निरखी हरषी मनसू, अब तो होइ मन धीर । तामे पसू पुकार सुनी करी गयो गिरिवर के तीर ॥२॥ सखी री० ॥ 'चंदवदनी पोकारती डारती, मंडन हार उर चीर । रतनकीरति प्रभू भये बसगी; राजुल चित कियो धीर ॥३॥ सखी री० ॥ सखी रो० ॥ एक पद में राहुल अपनी सखियों से नेमि से मिलाने की प्रार्थना करती है । वह कहती है कि नेमि के विना यौवन, चंदन, चन्द्रमा से सभी फीके लगते है। माता
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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