SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ब्रह्म यशोधर आदि कितने ही प्राचीन सन्तों के पाठों का संग्रह है। लिपि स्थान रणथम्भोर है जो उस समय भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से एक माना जाता था । रास पांच पत्रों में पूर्ण होता है । सर्व प्रथम कवि ने कहा कि "यह सुंदर देह बिना बुद्धि के बेकार है इसलिये सदैव सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। जीवन को संयमित बनाना चाहिए तथा अन्य विश्वासों में कभी नहीं पड़ना चाहिए ।" जीब दया की महत्ता को कवि ने निम्न शब्दों में वन की है । जीव दया दृढ पालीइए, मन कोमल कीजि । आप सरोज जांव सवं, मन माहि परीजइ ॥ असत्य वचन कभी नहीं बोलना चाहिए और न जिनसे दूसरों के हृदय में ठेस पहुंचे। किसी को पुण्य चाहिए तथा दूसरों के अवगुणों को ढक कर गुणों को प्रकट करना चाहिए । झूठा वचन न बोलीइए, ए करकस परिहए । मरम म बोलु किहि तथा ए चाडी मन करू धर्म करता नवाइए, नवि परनंदीजि । परगुरण ढांकी आप राणा, गुरा नवि बोलीजइ ॥ सुदेव त्याग को जीवन में अपनाना चाहिए। माहारदान, श्रौषधदान, देते रहना चाहिए। जीवन भावना उत्पन्न होती है । साहित्यदान, एवं अभयदान आदि के रूप में कुछ न कुछ इसीस निखरता है एवं उसमें परोपकार करते रहने की ककेंश तथा मर्मभेदी शब्द कार्य करते हुए नहीं रोकना चौथी ढाल में कवि ने अपनी सभी शिक्षाओं का सार दिया है जो निम्न प्रकार है योवन रे कुटुंब त्रिवि, लक्ष्मी चंचल जालीइए । जोव हरे सर न कोइ धर्म विना सोई आजीइए || संसार रे काल अनादि, जीव आणि ध फिल्खुए । एकलू रे आवि जाइ करम श्रागे गलि थरपुए ॥ काय श्री रे जु जु होइ कुटुंब, परिवारि वेगलु ए । खिमा रे खडग वरेवि, क्रोध विरी संघाइए || माहव रे पालीइ सार, मान पापी पत्र डालीइए । सरलू रे चित्त करेवि, माया सवि दूरि करूए ॥ संतोष रे आयुन नि लोभ बिरी सिंघारीइए बेराग रे पालीइ सार, राग टालू सकलकोत्ति कहिए। जे भए ए रासज सार, सीसामलि पढते लहिए |1
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy