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________________ भ० सकल कीर्ति रचना काल-सकलकोत्ति में इस रास की रचना कब की थी इसका कोई उल्लेख नहीं किया है लेकिन कवि का साहित्यिक जीवन मुख्यतः जैसा कि ऊपर लिखा गया है बीस वर्ष तक (सं० १४७९ से सं १४९९) रहा था इसलिये उसी के मध्य इस रसना का निर्माण हुमा होगा । अतः इसे १५वीं वाताब्दी के अन्तिम चरण की कृति मानना चाहिए । भाषा-रचना की भाषा जैसा कि : हिसे हासा मुकासती है लेकिन कहीं २ गुजराती शब्दों का प्रयोग हुअा है। कषि ने अपनी इस रचना में मूल-क्रिया के अन्त में 'जि'एब जइ शब्दों को जोड़कर उनका प्रयोग किया है जैस पामजि, प्रशमीज, तरीजि, हारी जि, झूटोजि, कीजि, धरीजई, बोलीज, वरीजद कीजइ, लहीजइ आदि । चौथी ढाल में और इससे पहिले के छन्दों में भी क्रियाओं के पागे 'ए' लगाकर उनका प्रयोग किया है। ४. मुक्तावलि गीत यह एक लघु गीत है जिसमें मुक्तालि ब्रत की कथा एवं उसके महात्म्य का वर्णन है । रचना को भाषा राजस्थानी है जिसमें गुजराती मापा के शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। रचना साधारण है तथा वह केवल १५ पद्यों में पूर्ण होती है । एक उदाहरण देखिए नाभिपुत्र जिनवर प्रणमीने, मुक्तावलि गाइये मुगति पगनि जिनवर मामि, व्रत उपवास करीजे सखी सुण मुक्तावलो व्रत कीजे । तप परिण अति निर्मल जानि कर्म मल धोईजे सखी सुण मुक्तावनि अत कीजे । नर नारी मुगतावली करसे लेहने सुम्य पावार श्री सकरकीरति भावे मुगति लहिये भाव भोगने सुविशाल ! सखी सुरा मुगतावली प्रत जीज ॥१२॥ ५. सोलहकारण रास-यह कदि की एक कथात्मक कृति है जिसमें सोलहकारण व्रत के महात्म्य पर प्रकाश डाला गया है । भाषा की दृष्टि से यह रास अच्छी रचना है। कृति के अन्त में सकलकीति ने अपने प्रापको मुनि विशेषण से सम्बोधित किया है इससे ज्ञात होता है कि यह उनकी प्रारम्भिक कृति होगी । रास का अन्तिम भाग . निम्न प्रकार है। एक चित्ति जे प्रत फरइ, नर ग्रहवा नारो। तीर्थकर पद सो लहइ, जो समक्ति धारी।
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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