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________________ ब्रह्म वचसाज ७३ गाथा रहहि सुकिब घराघट, जुडिया जह सबल गजि गजघट । समिविडि चले सुभदं, पधारणउ कीयउ मडि मोहं ।।८८1 अन्त में भावात्मक युद्ध होता है और सबसे पहिले भगवान् प्रादिनाथ राग को वैराग्य में जीत लेते हैं परियउ तिमरु जिउ देखि भारण, यागिर छोडि सो पम्म टाणु । उति रागु चल्यउ गरजत महीरु, वैरागु हव्यउ तनि तसु तीस ।।१०९॥ फिर क्या था, मगवान् प्रादिनाथ एक एफ योना को जीतते गए । क्रोध को क्षमा से, मद को मादव से, माया को प्रार्जव से, लोम को सन्तोष से जीत लिया । अन्त में पहिले मोह, तथा बाद में काम से युद्ध हुआ। लेकिन वे भी ध्यान एवं विवेक के सामने न टिक सके और प्रात में उन्हे भी हार माननी पड़ी। _ 'मयण जुज्झ' को कवि ने संवत् १५८६ में समाप्त किया था, जिसका उल्लेख्न कवि ने रचना के अन्तिम छन्द में किया है। यह रूपक काव्य अभी तक अप्रकाशित है। इसकी प्रतिलिपि राजस्थान के कितने ही भण्डारों में मिलती है।। २. संतोय जय तिलक यह फावि का दूसरा रूपक कान्य है। इसमें सन्तोष की लोम पर विजय का वर्णन किया गया है। काव्य में सन्तोष के प्रमुख अंग हैं—शील, सदाचार, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र, वैरान, तप, करणा, क्षमा एवं संयम । लोम के प्रमुस्त्र अगों में असत्य, मान, क्रोध, मोह, माया, कलह, कुव्यसन, एवं अनाचार आदि हैं । वास्तव में कवि ने इन पात्रों की संयोजना कर जीवन के प्रकाश और अन्धकार पक्ष की उदभावना मौलिक रूप में की है । कवि ने मात्म तत्व की उपलब्धि के लिए निवृत्ति मार्ग को विशेष महत्व दिया है। काव्य का सन्तोष नायफ है एवं लोम प्रतिनायक । १. राइ विश्कम सण संवतु नवासियन पनरसे। सबबरूति आसु बखाण, तिथि पडिया सुकल पख ।। सुसनिश्चवार यरू णिखित्त जणंउ, तिणि दिलि बल्ह सुस पबिउ । मयणं जुजा सुविसेसु करत पढ़त निसुणंत नर, जयज स्वामि रिसहेस ।।१५६॥ २. "जिम मन्दिर नागवा' नदी (राजस्थान) के गुटका नं० १७४ में इसकी प्रति संग्रहीत है।
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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