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________________ 7 संत कवि यशोधर हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के ऐसे कडा साहित्य सी हैं जिनकी सेवाओं का उल्लेख न तो भाषा साहित्य के इतिहास में ही हो पाया है और न अन्य किसी रूप में उनके जीवन एवं कृतियों पर प्रकाश डाला जा सका है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात एवं देहली के समीपवर्ती पंजाबी प्रदेश में यदि freतृत साहित्यिक सर्वेक्षण किया जावे तो आज भी हमें सैंकड़ों ही नहीं किन्तु हजारों कवियों के बारे में जानकारी उपलब्ध हो सकेगी जिन्होंने जीवन पर्यंत साहित्य सेवाको यी किन्तु कालान्तर में उनको एवं उनकी कृतियों को सदा के लिये भुला दिया गया 1 इनमें से कुछ कवि तो ऐसे मिलेंगे जिन्हें न तो अपने जीवन काल में ही प्रशंसा के दो शब्द मिल सके और न मृत्यु के पश्चात् ही उनकी साहित्यिक सेवा के प्रति दो बहाये गये । सन्त यशोधर भी ऐसे ही कवि हैं जो मृत्यु के बाद भी जनसाधारण एव विद्वानों की दृष्टि से सदा श्रीमल रहे। के हनिष्ठ साहित्य सेवी थे । विक्रमीय १६ वीं शताब्दी में हिन्दी की लोकप्रियता में वृद्धि तो रही थी लेकिन उसके प्रचार में शासन का किञ्चित भी सहयोग नहीं था । उस समय मुगल साम्राज्य अपने वैभव पर था। सर्वत्र अरबी एवं फारसी का दौर दौरा था | महाकवि - तुलसीदास का उस समय जन्म भी नहीं हुआ था और सूरदास को भी साहित्य गगन में इतनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हो सकी थी। ऐसे समय में सन्त यशोधर ने हिन्दी भाषा की उल्लेखनीय सेवा की । यशोधर काष्ठा संघ में होने वाले जैन सन्त सोमफीति के प्रशिध्य एवं विजयसेन के शिष्य थे । बाल्यकाल में ही ये अपने गुरु की वाणी पर मुग्ध हो गये और संसार को असार जानकर उससे उदासीन रहने लगे । युवा होते २ इन्होंने घर बार छोड़ दिया और सन्तों की सेवा में लीन रहने लगे । ये श्राजन्म ब्रह्मचारी रहे । सन्त सकलकीति की परम्परा में होने वाले भट्टारक विजयकोत्ति की सेवा में रहने का भी इन्हें सौभाग्य मिला और इसीलिये उनकी प्रशंसा में भी इनका लिखा हुआ एक पद मिलता है। ये महाव्रती थे तथा श्रहिंसा, सत्य, श्रचीर्य ब्रह्मचयं एवं अपरिग्रह इन पाँच व्रतों को पूर्ण रूप से अपने जीवन में उतार लिया था। साधु अवस्था में इन्होने गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र एवं उतर प्रदेश आदि प्रान्तों में विहार करके जनता को बुराइयों से बचने का उपदेश दिया । ये संभवतः स्वयं गायक भी थे और अपने पर्थो को गाकर सुनाया करते थे । साहित्य के पठन-पाठन में इन्हें प्रारम्भ से ही रुचि थी। इनके दादा गुरु
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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