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________________ ८२. मूल्यांकन राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व काव्यत्व, 'वृचराज' की कृतियों के अध्ययन के पश्चात् यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उन्होंने हिन्दी - साहित्य को अपूर्व सेवा की थी। उनकी सभी कृतियां भाषा एवं शैली की दृष्टि से उच्चस्तरीय कृतियां है, जिनको हिन्दीसाहित्य के इतिहास में उचित स्थान मिलना ही चाहिए। कवि ने अपने तीनों ही रूपक काव्यों में काव्य की वह वारा बहायी है जिसमें पाठकगण स्नान करके अपने जीवन को शान्त, सर्पमित, शुद्ध एवं संतोषपरक बना सकते हैं । कवि ने विभिन्न छन्दों एवं राग-रागनियों में अपनी कृतियों को निबद्ध करके अपने छन्द-शास्त्र का ही परिचय नहीं दिया, किन्तु लोक धुनों की भी लोक प्रियता का परिचय उपस्थित किया है । इन कृतियों के माध्यम से कवि ने समाज को सरल एवं सरस भाषा में अध्यात्मिक खुराक देने का प्रयास किया था और लेखक की दृष्टि में वह अपने मिशन में प्रत्यधिक सफ़ल हुआ है । कवि जैन दर्शन के मुद्गल एवं चेतन के सम्बन्ध से अत्यधिक परिचित था । अनादिकाल से यह जीव जड़ को अपना हितैषी समझता आरहा है और इसी कारण जगत के चक्कर में फंसना पड़ता है। जीव और जड़ के इस सम्बन्ध की पोल 'चेतन पुद्गल धमाल' में कवि ने खोल कर रखदी है । इसी तरह सन्तोष एवं काम वासना पर विजय प्राप्त करने का जो सुन्दर उपदेश दिया है - वह भी अपने ढंग का अनोखा है । पात्रों के रूप में प्रस्तुत विषय को उपस्थित करके कवि ने उसमें सरसता एवं पाठकों की उत्सुकता को जाग्रत किया है । कवि के अब तक जो विभिन्न रागों में लिखे हुए आठ पद मिले हैं, उनमें उन्हीं विषयों को दोहराया गया है । कवि का एक ही लक्ष्य था और वह था : जगत के प्राणियों को सुमार्ग पर लगाने का 1. 1 2.1. r
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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