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________________ २३० राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व आहे अभिषव पूर सीध की अगि विलेप । प्रांगीया शिकारवाद कीघउ बहू आक्षेप ||८४ आहे आणीय बहुत विभूषण दूषया रहीत अभंग । पहिराया ते मनि रसी बली वली जोअद अंग || ८५ || जिन टीचर की आहे नाम लूंग ! रूपनिरूपम देखीय हरि भरियां प्रांग ॥ ८६ ॥ आहे आगलि वालि के.ईय केईय जमला देव । लेईय जिनपति सुरपति चाजी करत सेव ||८७ || आहे अवीवा गगन गमनि नवि लागीय वार लगार । नाभि धरणि देवीय वंय न लाभह पार ||८८|| आहे नाभि पिता सखि व बइठीय मरुदेवी मात । खोलड़ मु'कीय बाल विशाल कही सहू वात ॥८६ आहे आपी साटक हाटक नाटक नाइ इन्द | नरल पागति परखइ हरखद्द नाभि नरिन्द ||६|| आहे जनम महोत्सव कोघउ दीघउ भोग कदम्ब । देव गया नृप प्ररणमीय प्रमीय जिनवर अब ॥१॥ आहे दिनि २ बालक यावर बीज तगु जिम चन्द | रिद्धि विबुद्धि विशुद्धि समाधि लसा कुल कंद ॥६२॥१ श्राहे देवकुमार रमा भात जमाडइ क्षीर | एक अरइ मुख आगलि आगीय निरमल नीर ।।१२।। हे एक हसाव त्यावर कछडि चडावीय माल । नीति नहीय नहीय सलेखन नइ मुखिलाल ॥९४॥ आहे प्रांगीय अगि अनोपम उपभ रहित शरीर | टोपीय उपीय मस्त कि बालक छड़ पर वीर ॥६५॥ आहे काय कुण्डल झलकइ खलक नेउर पाइ । जिम जिम निरखइ हरखर हिवदइ तिमतिम भाई ||६|| आहे सोहरू हाटकन शुभ घाटि ललाटि ललाम | राहुअ बधाया नई सिसि जोवा आवद्द गाम ॥६७॥
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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